Saturday, 7 May 2022

भगवान सिंह / रामकथा - आमुख

किसी को चकित करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा।  पर हुआ यह कि मेरा लेखन लोगों को अविश्वसनीयता की हद तक चकित करता रहा है। पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के आध्यक्ष स्व. प्रोफेसर सिन्हा ने, जिन्होंने कौशांबी की खुदाई की थी, कुछ सेमिनीरों में मेरे भाग लेने के बाद एक बार कहा आप जिस भी विषय पर  बोलते हैं बिल्कुल नई बात कहते हैं। मैं मुस्करा कर रह गया।  मौलिकता के लिए मैं सर्जनात्मक लेखन करता हूं।  अकादमिक लेखन में नई बात कहने की जगह सही बात करना पसंद करता हूं।  वैदुष्य के क्षेत्र में मौलिकता नहीं,  तार्किकता और प्रामाणिकता जरूरी होती है।  मौलिकता दोष है, और इसके ज्वलंत उदाहरण दामोदर धर्मानंद कोसंबी और भगवतशरण उपाध्याय हैं। 

इसके बाद भी मुझे  प्रायः लगा कि मैं जो कुछ कहता रहा हूं उन के पक्ष में प्रमाण तो असंख्य है, परंतु उनकी ओर पहले किसी ने ध्यान नहीं दिया।  उनकी ओर ध्यान दिलाने पर केवल नजरिया ही नहीं बदलता, परिदृश्य इस तरह बदल जाता है मानो जादू हो गया हो।  जादूगरी धोखाधड़ी है, यह धोखाधड़ी हमारे इतिहास के साथ उन लोगोे ने की थी जिन्होंने, अपनी जरूरत से, ज्ञान-व्यवस्था पर एकाधिकार करके अर्धसत्यों के सहारे आप को सभी योग्यताओं से शून्य सिद्ध करने के लिए एक भ्रामक इतिहास लिखा था।  अर्धसत्य के कई घटक होते हैं,  पर प्रमुख घटक होता है किसी भी विषय में उपलब्ध प्रमाणों में से केवल ऐसे प्रमाणों को चुनना जिनको खींचतान कर इच्छित परिणाम पर पहुंचा जा सके। यह इतिहास नही जादूघर (तिलिस्म)  होता है।  मैं केवल उन साक्ष्यों को सामने लाता रहा जिन पर ध्यान नहीं दिया गया था। कहें,   मैं मात्र साक्षात्कार कराता रहा हूं जिससे जादू टूटता है तो सचाई का साक्षात्कार ही आप को चकित कर देता है।  मैं केवल उन प्रमाणों को सामने लाता हूं जो ओझल रह गए थे,   स्वयं कुछ नही कहता, बोलने का काम प्रमाण करते हैं।  

परंतु ध्यान दिलाए जाने पर भी ध्यान न जाना और लगातार उसकी अनदेखी के पीछे एक बड़ा कारण यह रहा है कि ज्ञान-व्यवस्था पर कब्जा जमाए लोगों को लगता है कि उनका जीवन भर का काम  मिट्टी में मिल गया।  उनके लिए यह सत्यान्वेषण का  नहीं  जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है।  इसके अतिरिक्त हमारा  बौद्धिक पर्यावरण  राजनीतिक दुराग्रहों,  सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और  नैतिक दुर्बलताओं से इतना ग्रस्त रहा है कि हम हर चीज की केवल कामचलाऊ जानकारी रखना चाहते हैं।  किसी विषय को गहराई से जानने को बोझ समझते हैं। यह आदत औपनिवेशिक दिनों में, औपनिवेशिक हितां की रक्षा में डाली गई थी जिसमेंं शासक हमारे मानस को नियंत्रित करने के लिए उच्च अध्ययन और अनुसंधान को अपने हाथ में रखना और भारतीयों को कार्यसाधक ज्ञान से संतुष्ट रखना चाहते ये। यह उनकी जरूरत थी। राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद भी हमने अपनी आदत नहीं बदलीं, यहां तक कि अकादमिक चुनौतियों का सामना करने में अपने को अक्षम मान बैठे।

दुनिया के किसी देश में इतने अपढ और कुपढ़ लोगों के हाथ में उसका बौद्धिक नेतृत्व न होगा जितना भारत में और भारतीय भाषा क्षेत्रों में। अंग्रेजी जानने वालों की दशा भी कम दयनीय नहीं है। वे भारतीय भाषाओं में न लिख सकते हैं, न इसके आधुनिक और प्राचीन साहित्य से परिचित हैं।  व्यंग्य यह कि अपने इस अज्ञान पर उन्हें शर्म नहीं आती, उल्टे गर्व अनुभव होता है क्योंकि इसके बल पर वे उनकी गोष्ठी में  पहुंचा अनुभव करते हैं जो भारत का बौद्धिक नियंत्रण करते हैं।

ऐसी अवस्था में अनुसंधान और गहन विमर्श मात्र लेखन नहीं रह जाता। बौद्धिक स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन जाता है। इसके द्वारा ही वह स्वस्थ बौद्धिक पर्यावरण तैयार होता है जिसके बिना उच्च स्तर का सृजनात्मक साहित्य भी नहीं रचा जा सकता। 

रामकथा के हर एक पक्ष पर पहले के विद्वानों ने इतने लंबे समय तक विचार किया है कि उसके बाद मेरे तैसी प्रतिभा के व्यक्ति के लिए कुछ करने को रह ही नहीं जाता। इसलिए इस पर लिखने की सोच भी नहीं सकता था। ऋग्वेद की गुत्थियों को सुलझाते हुए एकाएक इस आश्चर्यजनक निष्कर्ष पर पहुंचा कि रामायण को समझने के लिए ऋग्वेद को समझना जरूरी है।  दोनों की आत्मा एक है, काया अलग। इसे ही पाठकों से साझा करने के इरादे से यह लेखमाला लिखनी पड़ी थी। पर दूसरा झटका इसकी प्रस्तावना लिखते समय लगा जब पता चला यह कथा तो ऋग्वेद से भी उतनी ही पुरानी है जितना हमारे समय ते पुराना ऋग्वेद और आदिकवि वैदिक कवियों के लिए भी बहुत प्राचीन थे। मेरे अपने ही काम का चरित्र बदल गया। 

पिछले पांच साल से मेरा सारा लेखन फेसबुक के माध्यम से ही हुआ है।  लिखने का माध्यम हमारे चिंतन की दिशा को भी प्रभावित करता है।   छेनी  लेकर  किसी शिला पर सर्जनात्मक लेखन नहीं किया जा सकता।  पहले रचे  हुए को उतारा अवश्य जा सकता है। इसीलिए  कुछ लेखक कलम से नहीं लिखते थे, पेंसिल से लिखना पसंद करते थे। इसमें सुविधा यह रहती है कि यदि अपनी लिखी कोई चीज गलत लगी तो उसे रबड़ से मिटा कर सही किया जा सकता है। कम्प्यूटर ने पेंसिल को भी मात दे दी।  गलत लगने या अधिक अच्छा विकल्प सूझने पर आप न केवल पुराने को हटा और बदल सकते हैं, अपितु अनुक्रम भी बदल सकते हैं। इंटरनेट पर तत्काल उपलब्ध सूचनाओं के कारण यह हमारे मस्तिष्क का विस्तार भी बन गया, अर्थात एक साथ माध्यम भी और दिमाग भी।

यदि कंप्यूटर की सुविधा न होती तो में उन  गहराइयों तक नहीं उतर पाया होता जिनके कारण मेरा लेखन दूसरों को ही नहीं विस्मित करता है, जो कुछ दीखता है वह सबसे पहले, स्वयं मुझे विस्मित करता है।  विस्मय की मात्रा इस लेख माला में मेरी किसी अन्य कृति की अपेक्षा कुछ अधिक  हो गई है। परंतु इसके अभाव में रामकथा के अनेक प्रसंग जो आज तक प्रश्नचिन्ह बने रहे हैं आगे भी प्रश्नचिन्ह ही बने रह जाते हैं।

मेरा दिमाग मजबूत नहीं है। अपने ज्ञान पर पूरा भरोसा नहीं, प्रमाणों के साथ छेड़छाड़ नहीं करता, उनकी तलाश उस दशा में खास तौर से करता हूं जब मान्यता होती है पर उसके प्रमाण नहीे होते या जिस बोधवृत्त में हम उनके प्रमाण तलाशते हैं वह वृत्त ही संकुचित या गलत दिखाई देता है।  उदाहरण के लिए मान्यता यह थी कि वाल्मीकि आदिकवि हैं और उनकी रचना रामायण ईस्वी सन के कुछ आगे पीछे हुई थी।  किसी भी पैमाने से सोचें, इससे बहुत पहले वेद रचे गए थे और वैदिक कवियों का अधिकार ऐसा कि महान से  महान कवि वैदिक कवियों का उल्लेख आते ही नतशिर हो जाता है, इसके बाद भी वाल्मीकि को आदिकवि के रूप में सभी याद करते हैं।  ऐसे मामलों में हमने साक्ष्यों की खोज अवश्य की है। उनकी जांच करने वाले और उनकी कमियां निकालने वाले जब सामने आएंगे तो मेरा श्रम सार्थक होगा। 

मैे लिखने के बाद थक जाता हूं। तत्काल सामने की इबारत नहीं, दिमाग की बनावट काम करती हैं।  नजर डालूं भी तो गलतियां पकड़ में नहीं आतीं। विवेक होता तो एक दिन ठहर कर गलतियां सुधारने के बाद पोस्ट करता। बालसुलभ उत्साह में तत्काल पोस्ट करता रहा। इसके बाद भी, मेरी इस लत को जानते हुए स्वयं सुधार करते हुए जो मित्र पढ़ते रहे या अपनी टिप्पणियों से अवगत कराते रहे उनके प्रति कृतज्ञता उनका नामोल्लेख करते हुए प्रकट करना चाहता था, पर डर यह कि किसी का नाम छूट गया तो उन्हें भी क्लेश होगा और मुझे भी। वे नही जानते कि मेरे मनोबल को बनाए रखने में उनका कितना बड़ा योगदान है।

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh

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