अशोक कुमार पाण्डेय की किताब, 'सावरकर काला पानी और उसके बाद' पृष्ठ 76,77 का एक अंश ~
" वैसे देखें तो 1911 में ऐसा क्या बदल गया था अंग्रेजी राज में, जिसमें सावरकर को दयालुता दिखने लगी थी? ऐसा क्या कर दिया था अंग्रेजों ने कि उन्हें वे पिता समान दिखने लगे थे? ऐसी कौन-सी नीति लागू हो गई थी। कि उन्हें अपना रास्ता ग़लत लगने लगा था? जीवन भर गांधी की आलोचना करने वाले सावरकर अपनी रिहाई के लिए अहिंसा के उसी 'संवैधानिक' रास्ते पर चलने की बात कर रहे थे, जिस पर चलने के लिए दादा भाई नौरोजी की आलोचना करते रहे थे वह?
यह तर्क देना कि अंडमान की सज़ा बहुत कठिन थी, इसलिए सावरकर ने माफ़ी माँगी, उन क्रान्तिकारियों का अपमान है जिन्होंने यह भीषण सजा काटते हुए भी क्रान्ति की लौ नहीं बुझने दी। एक उदाहरण अंडमान के बिलकुल आरम्भिक दौर में जेल भेजे गए दूधनाथ तिवारी का है।
बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही दूधनाथ तिवारी को 1857 के विद्रोह में हिस्सा लेने के लिए 27 सितम्बर, 1857 को आजीवन कारावास की सजा मिली। वह 6 अप्रैल, 1858 को अंडमान पहुँचे। 23 अप्रैल को 90 अन्य कैदियों के साथ वह जेल से भागने में सफल रहे। इनमें से कइयों को स्थानीय आदिवासियों ने मार दिया और कुछ भूख से मर गए, लेकिन दूधनाथ तिवारी घायल अवस्था में आदिवासियों के हाथ पड़े। उन्होंने आदिवासियों से दोस्ती बना ली और एक साल उनके साथ ही रहे। उन्होंने दो आदिवासी महिलाओं से शादी भी कर ली और उनकी भाषा सीखकर उन्हें अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आन्दोलित भी कर दिया। 17 मई, 1859 को उन्होंने बाकायदा घोषणा करके अंग्रेजों से युद्ध किया, जिसे 'बारदीन के युद्ध' के नाम से जाना जाता है। बाद में दूधनाथ तिवारी को 5 अक्टूबर, 1860 को सजा से मुक्त घोषित किया गया। 31 जुलाई, 1857 को अंडमान भेजे गए पहले स्वाधीनता सेनानी दानापुर निवासी नारायण जेल पहुँचने के चौथे दिन भागने की कोशिश करते हुए पकड़े गए और अंडमान में फाँसी पर चढ़ने वाले पहले शहीद बने।
निरंजन सिंह जब पकड़े गए तो चौथे दिन ख़ुद फाँसी लगा ली। गालिब के दोस्त अल्लामा फ़ज़लुल हक़ और लियाकत अली जैसे लोग जब 1857 के विद्रोह के दौरान गिरफ़्तार होकर अंडमान गए तो उनकी लाश भी लौटकर नहीं आ पाई। भील योद्धा भीमा नायक हों या फिर मजनू शाह, जिस 1857 पर किताब लिखी है सावरकर ने, उसके इन वीरों से सारे कष्ट सहे लेकिन न माफ़ी माँगी, न झुके। ऐसी ही वीरता को सावरकर ने अपनी किताब में नायकत्व दिया है। 'हे हुतात्माओ" इन्हीं वीरों की गौरवगाथा में लिखा पर्चा था, जिसे लन्दन में 1857 के विद्रोह की स्वर्ण जयन्ती मनाते हुए सावरकर ने लिखा था। चाहे लॉर्ड मेयो की हत्या करने वाले शेर अली हों या फिर कूका विद्रोह के नामधारी सिख या सावरकर के नायक बासुदेव बलवन्त फड़के, सबने किसी माफ़ीनामे की जगह मौत चुनी थी, फिर सजा के छह महीने के भीतर माफ़ियाँ माँगना शुरू कर देने वाले सावरकर को नायक कैसे कहा जा सकता है? और यह केवल 1857 के सेनानियों की बात नहीं थी। सावरकर के कुछ दिन पहले 'अलीपुर बम कांड' में गिरफ्तार होकर जेल में आए जुगान्तर समिति के क्रान्तिकारियों सहित अपने कई समकालीनों का संघर्ष तो खुद उन्होंने भी दर्ज किया है।
यहाँ एक क़िस्सा सुनाने का लोभ-संवरण नहीं कर पा रहा। रामरक्षा नामक एक विद्रोही सिपाही बर्मा से गिरफ्तार होकर अंडमान आया सेल्यूलर जेल में एक नियम बना हुआ था कि ब्राह्मण कैदियों का जनेऊ उतार लिया जाता था। रामरक्षा अड़ गए, लेकिन एक न चली। जनेऊ उतारे जाने के बाद उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया। तबीयत बिगड़ी और अन्ततः उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना को आज कैसे देखा जाए, यह आपकी दृष्टि पर निर्भर करता है। एक तरफ़ तो जातीय चिह्नों को लेकर ऐसी जिद को पिछड़ा हुआ घोषित किया जा सकता है तो दूसरी तरफ़ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए जान तक दे देने की तरह भी इसे देखा जा सकता है। आखिर जेल में भी किसी व्यक्ति को अपने धार्मिक विचारों के पालन का पूरा अधिकार होता है।"
(सेल्युलर जेल 1890 में बनना शुरू हुई और 1906 में तैयार हुई, लेकिन 'काला पानी' की सचा 1857 के विद्रोह के बाद से ही शुरू हो गई थी। जेल बनने के पहले कहाँ पोर्ट ब्लेयर, रॉस आइलैंड और वाइपर आइलैंड के बैरकों में कैदियों को रखा जाता था।)
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सावरकर को लेकर इधर बहुत कुछ लिखा गया है और अब जब बात निकली है तो वह दूर तक जाएगी। हाल ही अशोक कुमार पाण्डेय की आई यह किताब रोचक, तथ्यों से भरपूर और संदर्भों से समृद्ध है जिससे सावरकर के ही बारे में नहीं बल्कि तत्कालीन इतिहास के बारे में भी काफी कुछ पता चलता है। सावरकर जहां अंडमान पूर्व एक नायक के रूप में नजर आते हैं वहीं अंडमान के बाद अपनी माफी याचिकाओं के आश्वासन पर कारागार से मुक्त हो जाने पर जिस रूप में नजर आते हैं वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इस पुस्तक के कुछ और अंश मैंने लिए हैं जो आगे शेयर किए जायेंगे।
(विजय शंकर सिंह)
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