Thursday, 26 May 2022

कानून - सेक्स वर्कर्स के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला / विजय शंकर सिंह

सेक्स वर्कर्स यानी यौन कर्मियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक सराहनीय फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यौनकर्मी भी मानव शालीनता और गरिमा के मौलिक अधिकारों के दायरे में आते हैं। उन्हे भी मानवीय शालीनता और गरिमा से जीने का उतना ही आधिकार है, जितना किसी भी अन्य नागरिक को। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी निर्देश दिया है कि पुलिस को यौनकर्मियों के साथ सम्मान का व्यवहार करना चाहिए और सेक्स वर्कर्स का जुबानी या शारीरिक रूप से दुरुपयोग और शोषण नहीं करना चाहिए।

मीडिया में सेक्स वर्कर्स के बारे में तरह तरह की रिपोर्टिंग का संज्ञान लेते हुए शीर्ष अदालत ने, निर्देश दिया है कि, मीडिया को इस संबंध में ख़बरें लिखते समय उनकी तस्वीरें मीडिया में, प्रकाशित नहीं करनी चाहिए या उनकी पहचान का खुलासा नहीं करना चाहिए और कहा कि, यदि मीडिया ग्राहकों के साथ सेक्स वर्कर्स की तस्वीरें प्रकाशित या प्रसारित करता है तो, भारतीय दंड संहिता की धारा 354 सी के तहत दृश्यता के अपराध को लागू किया जाना चाहिए। 

आईपीसी की धारा 354 सी के अनुसार, 
"कोई पुरुष, जो प्राइवेट कार्य में संलग्न स्त्री को उन परिस्थितियों में देखेगा या का चित्र खींचेगा, जहां उसे सामान्यता या तो अपराधी द्वारा या अपराधी की पहल पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा देखे न जाने की प्रत्याशा होगी, या ऐसे चित्र को प्रसारित, प्रथम दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि एक वर्ष से न्यून न होगी, किन्तु जो तीन वर्ष तक की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा एवं जुर्माने से भी दंडनीय होगा और द्वितीय या पश्चात्वर्ती दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष से न्यून नहीं होगी, किन्तु जो सात वर्ष तक को हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।" 
भारतीय प्रेस परिषद को इस संबंध में उचित दिशा-निर्देश जारी करने का निर्देश दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश, भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त शक्ति का प्रयोग करते हुए सेक्स वर्कर्स के अधिकारों पर कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल द्वारा की गई कुछ सिफारिशों को स्वीकार करते हुए जारी किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है, 
 "... मानव शालीनता और गरिमा की बुनियादी सुरक्षा यौनकर्मियों और उनके बच्चों तक फैली हुई है, जो अपने काम से जुड़े सामाजिक कलंक का खामियाजा भुगतते हुए समाज के हाशिए पर चले जाते हैं, गरिमा के साथ जीने के अपने अधिकार से वंचित हो जाते हैं और  अपने बच्चों को समान अवसर प्रदान करने के अवसर नहीं दे पाते हैं।"
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति बी.आर.  गवई और ए.एस.  बोपन्ना ने स्पष्ट किया कि 
" इस प्रकार पारित निर्देश तब तक लागू रहेंगे जब तक केंद्र सरकार एक कानून नही बना लेती।"
अभी तक इन निर्देशों के अनुसार सरकार ने कोई कानून नहीं बनाए हैं। जब तक कानून नहीं बन जाते, यही निर्देश कानून की तरह माने जायेंगे। 

सेक्स वर्कर्स की व्यथा का संज्ञान लेते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 19.07.2011 द्वारा यौनकर्मियों के जीवन सुधार और उनके गरिमा और शालीनता के अधिकार को दृष्टिगत रखते हुए, एक पैनल का गठन किया था। उक्त  पैनल ने, मुख्य रूप से निम्न तीन पहलुओं की पहचान की थी -

1.  तस्करी की रोकथाम;
2. यौन कार्य छोड़ने की इच्छा रखने वाली यौनकर्मियों का पुनर्वास;  और 
3. यौनकर्मियों के लिए अनुकूल परिस्थितियां जो सम्मान के साथ यौनकर्मियों के रूप में काम करना जारी रखना चाहती हैं।

विंदु तीन, को अंततः भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों के अनुसार यौनकर्मियों के लिए सम्मान के साथ जीने के लिए अनुकूल परिस्थितियों के रूप में संशोधित किया गया था। पैनल ने सभी संबंधित हितधारकों से विचार विमर्श करने के बाद, अदालत में एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।  इसके बाद, 2016 में, जब यह मामला सूचीबद्ध किया गया था तो, केंद्र सरकार ने न्यायालय को सूचित किया था कि, पैनल द्वारा की गई सिफारिशें सरकार के विचाराधीन थीं और उसी को शामिल करते हुए एक ड्राफ्ट कानून प्रकाशित किया गया। 

इस तथ्य के मद्देनजर कि वह कानून अभी तक ड्राफ्ट के ही रूप में है, जबकि, वर्ष 2016 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने के लिए सरकार को सिफारिशें भेज दी थीं, और सरकार के ही अनुसार, उन्होने कानून का ड्राफ्ट भी तैयार कर लिया है, पर ड्राफ्ट, कानून बनने के लिए विधेयक के रूप में संसद में नहीं रखा जा सका। इस विलंब का संज्ञान लेते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने, कानूनी दिशा-निर्देश जारी करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त शक्ति का प्रयोग करते हुए, यह दिशा निर्देश जारी किए, जो कानून बनाए जाने तक, कानून की ही तरह माने जायेंगे। आप को याद होगा, ऐसी ही गाइडलाइन विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया था, जो विशाखा गाइडलाइंस के रूप में जानी जाती है और कार्यस्थल पर महिलाओ के उत्पीड़न को रोकने के संबंध में है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है,
"इस न्यायालय के निर्णयों की एक श्रृंखला में, इस शक्ति (अनु 141) को मान्यता दी गई है और यदि आवश्यक हो, तब तक रिक्त स्थान को भरने के लिए, आवश्यक निर्देश जारी करके प्रयोग किया जाता है, जब तक कि विधायिका इस अंतराल को कवर करने के लिए उचित कदम नहीं उठा लेती है या कार्यपालिका अपनी भूमिका का निर्वहन करती है।"

खंडपीठ ने दोहराया कि, 
"जीवन का अधिकार, मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार और पर्याप्त पोषण, कपड़े और आश्रय जैसी जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं को शामिल करने के लिए देह या संकाय की सुरक्षा का अधिकार इन सेक्स वर्कर्स को भी उतना ही है जितना किसी भी अन्य नागरिक को। न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें काम करने का भी अधिकार है। जीवन के अधिकार के अधिकार को, गरिमा के साथ स्वीकार करते हुए, जिसमे निस्संदेह, यौनकर्म और उनके बच्चों तक शामिल हैं, सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने राज्य सरकार को पैनल द्वारा की गई कुछ सिफारिशों का, कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश दिया, जिन्हें केंद्र सरकार ने स्वीकार भी कर लिया। 

न्यायालय ने राज्यों और संघ शासित राज्यों को भी, पैनल द्वारा की गई निम्नलिखित सिफारिशों का कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश दिया है:

1. कोई भी यौनकर्मी जो यौन उत्पीड़न का शिकार है, उसे दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 357C के अनुसार "दिशानिर्देश और प्रोटोकॉल: मेडिको" के अनुसार तत्काल चिकित्सा सहायता सहित यौन हमले के पीड़ित को उपलब्ध सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए।  
- उत्तरजीवी/यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए कानूनी देखभाल", स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (मार्च, 2014)।

2. राज्य सरकारों को सभी आईटीपीए सुरक्षा गृहों का सर्वेक्षण करने का निर्देश दिया जाए ताकि वयस्क महिलाओं के मामलों की समीक्षा की जा सके, जिन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध हिरासत में लिया गया है और उन्हें समयबद्ध तरीके से रिहा करने के लिए कार्रवाई की जा सकती है।

3. यह देखा गया है कि यौनकर्मियों के प्रति पुलिस का रवैया अक्सर क्रूर और हिंसक होता है। यह ऐसा है जैसे वे एक ऐसा वर्ग हैं जिनके अधिकारों को मान्यता नहीं है। पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को यौनकर्मियों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए, जो सभी नागरिकों के लिए संविधान में गारंटीकृत सभी बुनियादी मानवाधिकारों और अन्य अधिकारों का भी आनंद लेते हैं। पुलिस को सभी यौनकर्मियों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार करना चाहिए और उन्हें, सेक्स वर्कर्स के साथ, मौखिक और शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए और न ही, उनके साथ हिंसक व्यवहार करना चाहिए या उन्हें किसी भी यौन गतिविधि के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए।

4. भारतीय प्रेस परिषद से मीडिया के लिए उचित दिशा-निर्देश जारी करने का आग्रह किया जाना चाहिए ताकि गिरफ्तारी, छापे और बचाव कार्यों के दौरान यौनकर्मियों की पहचान प्रकट न करने के लिए अत्यधिक सावधानी बरती जाए, चाहे वह पीड़ित हो या आरोपी और किसी भी फोटो को प्रकाशित या प्रसारित बिलकुल नहीं किया जाय। इस तरह की पहचान का खुलासा करने वालों के खिलाफ धारा 354 सी आईपीसी में कानूनी कार्यवाही की जाय। इसके अलावा, धारा 354 सी, आईपीसी, जो दृश्यता को एक आपराधिक अपराध बनाती है, को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खिलाफ सख्ती से लागू किया जाना चाहिए, ताकि बचाव अभियान की ब्रेकिंग खबरों की होड़ में, वे अनावश्यक रूप से ऐसे तस्वीरों और वीडियो फुटेज का लगातार प्रसारण न करने लगे। टीआरपी की आड़ में अपने ग्राहकों के साथ यौनकर्मियों की तस्वीरें प्रसारित करने पर रोक लगाई जाए। 

5. यौनकर्मी अपने स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए जो उपाय करते हैं (जैसे, कंडोम का उपयोग, आदि) को न तो अपराध माना जाना चाहिए और न ही उन्हें अपराध के सबूत के रूप में देखा जाना चाहिए।

6. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें, राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण, राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण और जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के माध्यम से, यौनकर्मियों को उनके अधिकारों के साथ-साथ यौन कार्य, अधिकारों और दायित्वों की वैधता के बारे में शिक्षित करने के लिए कार्यशालाएं आयोजित करनी चाहिए।  
पुलिस और कानून के तहत क्या अनुमति है और क्या निषिद्ध है, इसकी जानकारी सेक्स वर्कर्स को दी जानी चाहिए। 
यौनकर्मियों को यह भी बताया जा सकता है कि कैसे वे अपने अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायिक प्रणाली तक पहुंच प्राप्त कर सकती हैं और तस्करों या पुलिस के हाथों अनावश्यक उत्पीड़न को रोक सकती हैं।

 बेंच ने यह भी आदेश दिया है कि, 
 "राज्य सरकारों / केंद्रशासित प्रदेशों को पैनल द्वारा की गई सिफारिशों के कार्यान्वयन के अलावा, पैरा 2,4,5,6,7,9 (ऊपर उल्लिखित सिफारिशें) में की गई सिफारिशों का कड़ाई से अनुपालन करने का निर्देश दिया जाता है।  अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 के तहत सक्षम अधिकारियों को अधिनियम के प्रावधानों का पालन करने का निर्देश दिया गया है।

पैनल की कुछ अन्य सिफारिशें जिनके बारे में केंद्र सरकार ने आपत्ति व्यक्त की थी, वे इस प्रकार हैं -

1. यौनकर्मी कानून के समान संरक्षण के हकदार हैं।  आपराधिक कानून सभी मामलों में 'आयु' और 'सहमति' के आधार पर समान रूप से लागू होना चाहिए।  जब यह स्पष्ट हो जाए कि यौनकर्मी वयस्क है और सहमति से भाग ले रही है, तो पुलिस को हस्तक्षेप करने या कोई आपराधिक कार्रवाई करने से बचना चाहिए।  ऐसी चिंताएं रही हैं कि पुलिस यौनकर्मियों को दूसरों से अलग देखती है। जब कोई यौनकर्मी आपराधिक/यौन/किसी अन्य प्रकार के अपराध की शिकायत करता है, तो पुलिस को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और कानून के अनुसार कार्य करना चाहिए।

2. जब भी किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाता है, क्योंकि स्वैच्छिक यौन कार्य अवैध नहीं है और केवल वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है, संबंधित यौनकर्मियों को गिरफ्तार या दंडित या परेशान या पीड़ित नहीं किया जाना चाहिए।

3. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को सेक्स वर्कर्स और/या उनके प्रतिनिधियों को सभी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करना चाहिए, जिसमें सेक्स वर्कर्स के लिए किसी भी नीति या कार्यक्रम की योजना बनाना, डिजाइन करना और लागू करना या सेक्स से संबंधित कानूनों में कोई बदलाव / सुधार करना शामिल है।  यह निर्णय लेने वाले अधिकारियों/पैनल में उन्हें शामिल करके और/या उन्हें प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय पर उनके विचार लेकर किया जा सकता है।

4. जैसा कि दिनांक 22.03.2012 की छठी अंतरिम रिपोर्ट में पहले ही सिफारिश की गई है, एक सेक्स वर्कर के किसी भी बच्चे को केवल इस आधार पर मां से अलग नहीं किया जाना चाहिए कि वह देह व्यापार में है।  इसके अलावा, यदि कोई नाबालिग वेश्यालय में या यौनकर्मियों के साथ रहता हुआ पाया जाता है, तो यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसकी तस्करी की गई है। यदि यौनकर्मी का दावा है कि वह उसका बेटा/बेटी है, तो यह निर्धारित करने के लिए परीक्षण किया जा सकता है कि क्या वह दावा सही है और यदि ऐसा है, तो नाबालिग को जबरन अलग नहीं किया जाना चाहिए।

खंडपीठ ने केंद्र सरकार को छह सप्ताह की अवधि के भीतर पैनल द्वारा की गई अन्य सिफारिशों का जवाब देने का निर्देश दिया। अब इस मामले अगली सुनवाई, 27.07.2022 को तय की गई है।

(विजय शंकर सिंह)

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