वाराणसी के सीनियर डिविजन सिविल जज के यहां ज्ञानवापी की सर्वे रिपोर्ट दाखिल होनी है पर वह आज दाखिल होती है या कब, यह पता नहीं है। पेपर लीक के इस स्वर्णयुग में यदि यह सर्वे रिपोर्ट लीक हो गई या लीक कर दी गई तो उस पर हैरानी की कोई बात नहीं है।
हैरानी बात है, अदालत द्वारा दिनांक 12/05 को दिया गया ज्ञानवापी सर्वे आदेश का एक अंश जो कहता है कि,
"इस साधारण दीवानी मामले को असाधारण मामला बनाकर भय का माहौल बना दिया गया था। डर इतना है कि मेरा परिवार हमेशा मेरी सुरक्षा के बारे में चिंतित है और मुझे उनकी सुरक्षा की चिंता है। सुरक्षा के बारे में चिंता मेरी पत्नी द्वारा बार-बार व्यक्त की जाती है जब मैं घर से बाहर हूं। कल मेरी मां (लखनऊ में) ने हमारी बातचीत के दौरान भी मेरी सुरक्षा को लेकर चिंता जताई और मीडिया को मिली खबरों से उन्हें पता चला कि शायद मैं भी कमिश्नर के तौर पर मौके पर जा रहा हूं। और मेरी मां ने मुझसे कहा कि मुझे मौके पर कमीशन पर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि इससे मेरी सुरक्षा को खतरा हो सकता है।"
जज साहब डरे हो सकते हैं और कोई भी अपने जीवन भय से डरा हो सकता है। डरना एक मूल भाव है। इसीलिए बार बार अभय होने की बात की जाती है। पर यह मुकदमा जज के डरने या न डरने पर नहीं बल्कि ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे रिपोर्ट और उस पर अग्रिम कार्यवाही के लिए अदालत में है।
आदेश के 12/05 के एक पैरा में डर के भावुकतापूर्ण उल्लेख के बाद 16/05/22 के आदेश के दूसरे अंश में, ज्ञानवापी को सीलबंद करने का आदेश। मुझे तो लगता है कि जज साहब को सीलबंदी के आदेश के पहले खुद की सुरक्षा के लिए पुलिस कमिश्नर वाराणसी को लिखना चाहिए था। क्योंकि उनको डर तो पहले से ही था। डर भी इतना कि, उनकी पत्नी, मां सब चिंतित हैं। मां, पत्नी का डर स्वाभाविक है पर उन्हें निर्भय रखना, जज साहब का ही दायित्व है। पर जज साहब यह दायित्व तभी निभा सकते हैं जब वे खुद निडर महसूस करें पर वे डरे हुए भी हैं और अपना डर एक न्यायिक आदेश में खुली अदालत में सुना भी रहे हैं। पर यहडर किससे है और क्यों है यह उन्होंने उस आदेश में नहीं लिखा है। हो सकता है उन्होंने अलग से सरकार या जिला जज/हाइकोर्ट को बताया हो।
मेरा अनुभव कहता है, डर की बात और सुरक्षा की मांग जजों द्वारा भी की जाती है, पर वह एक अलग पत्र में अपने जिला जज के संज्ञान में लाते हुए। इस तरह के न्यायिक आदेश में, खुली कोर्ट में खुद को डरे होने की बात का कोई दूसरा उदाहरण हो तो हो, पर मुझे इसकी जानकारी नहीं है। जज साहब का डर यह संदेह भी पैदा करता है कि, क्या जीवन भय से डरा हुआ न्यायाधीश, बिना डरे हुए कोई फैसला कर सकता है। पूर्वाग्रह मुक्त होकर निर्भीक और न्यायिक आदेश, न्यायपालिका की पहली शर्त है।
एक सवाल यह भी उठता है कि, सर्वे रिपोर्ट जिसे गोपनीय रूप से सर्वे कमिश्नर द्वारा अदालत को सौंपा जाना था, वह अदालत में सौंपे जाने और जज द्वारा देखे जाने के पहले ही कैसे सार्वजनिक हो गई और नेशनल मीडिया पर इस गोपनीय रिपोर्ट पर कैसे बहस चलने लगी ?
जिस दस्तावेज पर पहला हक अदालत का है क्या उसका इस तरह से मीडिया द्वारा विश्लेषण करना न्यायालय की अवमानना नहीं है ?
जब मामला बेहद संवेदनशील हो और उसका प्रभाव देश की कानून व्यवस्था पर गम्भीरता से पड़ सकता है तो, ऐसे मामले में संशय के हर विंदु को बेहद गौर से देखा जाना चाहिए।
संशय कोर्ट कमिश्नर की नियुक्ति पर भी था। यह एक पंच की तरह होता है, इसकी नियुक्ति में उभय पक्ष की संतुष्टि जरूरी है। अतः जब कोर्ट कमिश्नर पर आपत्ति की गई तो उभय पक्ष को संतुष्ट करने की कोशिश क्यों नहीं की गई।
दूसरे, कमीशन की रिपोर्ट अदालत तक पहुंचने के पहले कैसे मीडिया में आ गई ?
तीसरे, क्या यह निर्देश नहीं थे कि कमीशन की रिपोर्ट गोपनीय रहेगी ?
चौथे, यदि गोपनीयता बरतने के निर्देश नहीं थे तो क्यों नहीं थे ?
पांचवे, क्या उन्हे अंदाजा नहीं था कि सर्वे की रिपोर्ट से गलतफहमियां फैल सकती हैं खास कर उस समय जब गोदी मीडिया खुल कर दंगा कराने पर आमादा है ?
डर दिखाता हुआ जज न्याय करते हुए भी उस डर से निकल कर अपने न्यायिक कार्य का निर्भीक होकर निष्पादन करे, यह मुश्किल से ही संभव होता है। बहरहाल सरकार को चाहिए कि, जज साहब के जीवन भय का थ्रेट परसेपशन कर के उनकी उचित सुरक्षा व्यवस्था की जाय।
(विजय शंकर सिंह)
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