समय के साथ बेबीलोन में एक नयी शक्ति का उदय हुआ. ये अपने को पुराकाल में पनपी बेबीलोन सभ्यता का उत्तराधिकारी मान कुछ अधिक ही गर्वीले और आक्रामक थे. ई.पू. 612 में बेबीलोन की सेना ने असीरियन राजधानी निनिवअ (दजला तट पर वर्तमान मोसुल के निकट) को नष्ट कर दिया. उसके कुछ वर्ष बाद उन्होंने जुडाह पर आक्रमण किया, जेरूसलम और सुलेमान के बनाए मंदिर को तहस नहस कर वे अनेक यहूदियों को बंदी बना कर अपने साथ बेबीलोन लेते गए, और इनके वापस जेरूसलम लौटने पर बंदिश लगा दी.
संयोग से इसके बस पचास साल बाद फ़ारस के सम्राट दारा प्रथम (डेरियस प्रथम) ने बेबीलोन जीत कर यहूदियों को मुक्त कर दिया. यह कहना मुश्किल है कि यहूदी समुदाय कितना बचा रहता यदि फ़ारसी साम्राज्य उन्हें बस आधी सदी बाद मुक्त नहीं करा देता. मुक्त होने के बाद बहुत यहूदी जेरूसलम लौट गए मगर बहुत बेबीलोन में ही बस गए. जेरूसलम लौटे यहूदियों ने प्रवासी यहूदियों के सहयोग से अपने भग्न मंदिर के पुनर्निर्माण में हाथ लगाया. इसमें सबसे अधिक आर्थिक सहयोग उनके मुक्तिदाता, फ़ारस के अग्निपूजक दारा प्रथम, से मिला था.
निर्वासन के बाद यहूदी समुदाय में सामाजिक और वैचारिक स्तर पर परिवर्तन आये. बेबीलोन से लौटे यहूदियों ने उन यहूदियों को पंथद्रोही माना था जो बेबीलोन न जाकर जेरूसलम में ही किसी तरह रह सके थे और मंदिर पुनर्निर्माण में उनसे मिलते किसी सहयोग को स्वीकार नहीं किया. मंदिर बन जाने के बाद भी उन स्थानीय यहूदियों को वे अपमानित करते रहे और उन लोगों ने जेरूसलम से दूर, समारिया नगर के निकट, जबल जिरज़िम (माउंट जिरज़िम) पर अपना अलग मंदिर बनाया.
उनका मंदिर समारिया के निकट था इसलिए वे समैरिटन कहलाए. जेरूसलम के यहूदी उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे. सेंट जॉन के सुसमाचार (गॉस्पेल) में ईसा मसीह के एक समैरिटन स्त्री से अनायास मिलने की बात आयी है, जिसके बाद समैरिटन ईसा से बहुत प्रभावित हुए थे. (सेंट +लुका के सुसमाचार में एक पैरेब्ल में ईसा ने उन्हें जेरूसलम के यहूदियों से अच्छा दिखाया है.)
बेबीलोन के सैनिकों द्वारा अपने मंदिर के ध्वस्त होने को लेकर कुछ यहूदी जेहोवा के सर्वशक्तिमान होने पर सवालिया निशान उठाने लगे थे. यहूदी दर्शन ने इसके जवाब में ‘हस्सतन’ (शैतान) की परिकल्पना कर जेहोवा पर इसकी जिम्मेदारी नहीं गिरने देने का एक सरल उपाय खोजा. यह शैतान का काम था, जो यहूदियों को जेहोवा के बताए पवित्र मार्ग पर चलने में व्यवधान डालता रहता था. बाइबिल में इसके पहले शैतान की चर्चा नहीं आयी है. जेनेसिस के साँप को कतिपय भाष्यकार शैतान बताते हैं किन्तु बाइबिल में ऐसा नहीं लिखा है.
भले लोगों को कष्ट क्यों सहने पड़ते हैं और दुष्टों की चांदी कटती क्यों दीखती है ये सार्वभौमिक प्रश्न निर्वासन के बाद यहूदी चिंतन के केंद्र में आगये. बाइबिल की दो किताबें इस पर विचार करती दिखतीं हैं. जॉब की किताब में शैतान अपने पूरे रूप में पहली बार बाइबिल में प्रकट हुआ है. धर्म परायण जॉब को शैतान की शैतानियों के चलते कष्ट उठाने पड़े थे जिन्हे बाद में ईश्वर ने दूर किये थे. दूसरी किताब, हीब्रू बाइबिल का कोहेलेथ (अर्थ शिक्षक या उपदेशक), यूनानी अनुवाद एक्क्लेसिआस्टेस, में मनुष्य के प्रयासों की व्यर्थता, निरर्थकता बतायी गयी है.
यहूदी इस प्रकार हाथ पर हाथ धर कर बैठने वाले नहीं थे. बाइबिल की अगली किताब 'प्रोवर्ब्स' जॉब और कोहेलेथ का खंडन करते हुए मिहनतकश और नैतिक जीवन जीने को कहती है. सदियों से यहूदी और ईसाई जन-जीवन के आधार में प्रोवर्ब्स के प्रभाव को देखा जा सकता है.
यहूदी विश्वास था कि उनके ईश्वर के साथ यहूदियों के सम्बन्ध एकांतिक थे – अर्थात जिनके जन्म इस्राएल के वंश में नहीं हुए हैं वे जेहोवा के निकट नहीं पहुँच सकते. फ़ारसी शासन काल में इसमें कुछ बदलाव आया. लेकिन अपने धर्म के प्रचार के प्रति उनका दृष्टिकोण ईसाई या बाद में आये इस्लाम धर्मावलम्बियों के समान उत्साहपूर्ण कभी नहीं रहा.
बेबीलोन से लौटने के बाद यहूदियों को समय समय पर अपने पड़ोस की शक्तिशाली संस्कृतियों से जूझना पड़ा था. सिकंदर की विजय यात्रा के बाद यह और भी अधिक कठिन हो गया. पहले मिश्र के नवस्थापित टॉलेमिक फ़ेरो, उसके बाद सीरिया के सेल्युकिड शासकों ने अपने मंदिर पर केंद्रित यहूदी जीवन को यूनानी रीति-रिवाजों के अनुरूप लाने के प्रयास किये. थक कर, ई.पू. 167 में यहूदियों ने जुडास मैकियाबेस के नेतृत्व में सेल्युकिड राजा एंटिओकस चतुर्थ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया.
विद्रोह के युद्ध में यहूदियों को बहुत कष्ट भोगने पड़े किन्तु इसके बाद उन्होंने अपने शासन के लिए स्वदेशी शासकों के एक वंश को स्थापित कर लिया - ये हैस्मोनियंस, जो एक पुराने यहूदी राजवंश से आते थे, आगामी वर्षों में जेरूसलम मंदिर के आनुवांशिक मुख्य पुजारी बने. अब तक यहूदी समुदाय काफी फ़ैल चुका था. जेरूसलम और बेबीलोन के अलावा पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के अनेक पत्तनों पर यहूदी बस्तियां आ गयीं थीं. ये सब अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक प्रेरणा के स्रोत जेरूसलम मंदिर में खोजते थे. इसी काल में उन्होंने स्थानीय स्तरों पर अपने लिए धार्मिक-सांस्कृतिक केंद्र खोलने शुरु किये - अपने साइनागॉग.
साइनागॉग में धार्मिक किताबें भी पढ़ी जातीं थीं. पूरे भूमध्य क्षेत्र में यहूदी एक ही किताबें पढ़ें इसके लिए आवश्यक था कि उनके धार्मिक साहित्य का सम्पादन / पुनर्लेखन कर उनके प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध कराए जाएं. प्रामाणिक ग्रंथों का वह संग्रह 'तनख' कहलाया, उस के तीन अंगों के नामों के आद्याक्षरों को जोड़ कर. ये अंग थे तोरा (निर्देश या नियम), नेवि'इम (पैगम्बर) और कटुविम (लेखन). यही हिब्रू बाइबिल के नाम से भी जाना गया और ईसाइयों का ओल्ड टेस्टामेंट मोटे तौर पर इसी तनख का एक रूप है.
कोई सत्तर ऐसी किताबें भी थीं जिन्हे तनख में नहीं रखा गया था. यूनानी भाषी यहूदियों ने (जैसे अलेक्सैन्ड्रिया रहने वाले) इन सत्तर से भी कुछ किताबें तनख के साथ रख दीं. हीब्रू बइबिल से ओल्ड टेस्टमेंट का यूनानी रूप जब आया तो ये किताबें भी "ईश्वर के शब्द" में गिनी गयीं. चौथी सदी ईस्वी में कुछ भाष्यकारों ने इनकी पहचान की और उन्हें प्राचीन से अलग माना. सोलहवीं सदी में जर्मनी के मार्टिन लूथर ने प्रोटेस्टैंट बाइबिल के मुख्य अंग से उन्हें हटा कर परिशिष्ट में रख दिया. कुछ अन्य प्रोटोस्टेंट समुदायों ने उन्हें बिलकुल हटा दिया.
ईसा के समय तक अलेक्सेंड्रिआ में कोई दस लाख यहूदी होंगे. पैलेस्टीन के बाहर इतने यहूदी कहीं नहीं थे. ये यूनानी भाषी हो गए थे और अपने धर्मग्रंथों को समझ पाने के लिए इन लोगों ने तनख के यूनानी अनुवाद कराए थे. कहते हैं बहत्तर विद्वानों ने मिलकर तनख का बहत्तर दिनों में अनुवाद किया था. इसमें वे किताबें भी जोड़ी गयीं थीं जो तनख में नहीं थीं और जिन्हे प्रोटोस्टेंट लोगों ने बाद में हटा दिया था. इस तरह तैयार किये गए इस यूनानी ग्रन्थ को रोमन कैथोलिक ने आगे चलकर नाम दिया सेप्टुअजिंट जिसका अर्थ है सत्तर. आगे चलकर इस अनुवाद के प्रति यहूदियों का उत्साह कम हो गया, किन्तु ईसाइयों ने इसे सांगोपांग स्वीकार किया.
(क्रमशः)
ईसाइयत का इतिहास (4)
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