ईसाई धर्म के इतिहास की चर्चा प्रायः यहूदियों के इतिहास से शुरू की जाती है - इब्राहीम से. इस किताब में लेखक ने शुरुआत यहूदियों और यूनानियों दोनों के इतिहास से किया है. इन दोनों में भी, इस किताब का पहला अध्याय वस्तुतः यूनान के इतिहास का है - कैसे यूनान की सांस्कृतिक धाराओं ने रोम को प्रभावित किया जो आगे चल कर ईसाई धर्म के सबसे बड़े केंद्र के रूप में उभरा. अपनी सफाई में लेखक कहते हैं, एवंजलिस्ट सेंट जॉन रचित सुसमाचार (गॉस्पेल) में क्रिसमस अस्तबल की कोई चर्चा नहीं है. उसकी शुरुआत एक प्रार्थना (हीम्न) से है जिसमे ग्रीक शब्द ‘लोगोस’ है, लोगोस का अर्थ है शब्द. शब्द, सेंट जॉन कहते हैं, ईश्वर था, मानव रूप धारण कर वह शब्द अपने सत्य और अनुग्रह के साथ हम सबों के बीच रहने आया. (सेंट जॉन के इस कथन में 'शब्द ही ब्रह्म है' की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनी जा सकती है.)
जॉन इस व्यक्ति के बारे में बताते हैं, इसने ईश्वर को अपना पिता बताया था. उसका नाम जीसस क्राइस्ट लिख कर जॉन ने दो और यूनानी शब्द लिख दिए. जीसस का यहूदी नाम जोशुआ / येशुआ था जिसके यूनानी रूप जीसस से हम उन्हें आज जानते हैं. क्राइस्ट भी यूनानी शब्द क्रिस्टोस से आया है, जीसस के अनुगामी सूली पर लटकाए जाने के बाद अपने जोशुआ की विशिष्टता बताने के लिए उन्हें क्राइस्ट कहने लगे थे - यहूदी शब्द मसीहा के यूनानी अनुवाद क्रिस्टो का अनुरूप.
जीसस और क्राइस्ट, ये दोनों शब्द शुरुआती ईसाईयत पर यूनानी प्रभाव को रेखांकित करते हैं. शुरुआत के ईसाई गद्य यूनानी भाषा में लिखे गए थे. और जब तक रोमन कैथोलिक्स ने सोलहवीं सदी में जोर शोर से धर्मप्रचार शुरू नहीं किये, तब तक सभी ईसाई अपने आध्यात्मिक अनुभव यूनानी अक्षरों से पाते थे. न्यू टेस्टामेंट की अंतिम किताब 'रेवेलेशन्स' में ईसा को 'अल्फ़ा' से 'ओमेगा' तक बताया गया है. ये अल्फ़ा और ओमेगा यूनानी वर्णमाला के पहले और अंतिम अक्षर हैं.
यहूदी और यूनानी, दोनों के जीवन उनके ईश्वर / देवताओं से प्रभावित थे. यहूदियों का एक ईश्वर था - अपने ऐश्वर्य, तेज और प्रताप में एकदम अकेला. यूनानियों के अनेक देव थे. यूनानी देव मनुष्यों की तरह प्रेम, ईर्ष्या, भय आदि से अभिभूत हो सकते थे. यहूदी ईश्वर से जब मूसा ने सिनाई पर्वत पर उनका नाम पूछा था तब एक झिड़क के साथ उन्हें सुनना पड़ा था, 'मैं वही हूँ जो मैं हूँ'. इजराइल के ईश्वर का कोई नाम नहीं था. यूनानी देव मनुष्यों से बहुत भिन्न नहीं थे लेकिन इसके चलते यूनानी उनकी अवहेलना नहीं करते थे. यूनानी जीवन के केंद्र में भी उनके देवता थे, जैसे यहूदी जीवन अपने ईश्वर के निर्देश पर चलने को प्रयत्नशील था. ईसाईयत के विकास में यूनानी प्रभाव अधिक देखने को मिलता है. अंग्रेजी शब्द 'चर्च' को लें, स्कॉटिश में इसे 'कर्क' कहते हैं जो यूनानी शब्द 'कुरियाके' से आया है जिसका अर्थ है, 'जो मालिक का है'.
यूनानी नगरों में रहते थे जिन्हे वे पोलिस कहते थे. पोलिस वस्तुतः एक 'नगर राज्य' होता था. इसके केंद्र में हमेशा एक यूनानी देव / देवी का मंदिर रहता था. मंदिर में पूजा करने वाले किसी विशेष परिवार से नहीं आते थे. मंदिर के सामने समय समय पर पोलिस के निवासी अपने लिए नीतियां बनाते थे जिन्हे 'पॉलिसी' कहा गया. पोलिस के संचालन के लिए उसके निवासी प्रायः मंदिर के सामने आपस में मिलकर महत्वपूर्ण बातों पर निर्णय लेते थे जो प्रक्रिया 'पॉलिटिक्स' कहलाई. और पोलिस के लोगों के समूह को एक्क्लेसिआ कहा जाता था जिस शब्द को रोमन कैथोलिक्स ने बिना किसी परिवर्तन के लैटिन में शुमार किया और वहाँ से यह प्रायः सभी यूरोपीय भाषाओं में धार्मिक उद्देश्य से जमा हुए समूह को कहा जाने लगा, प्राचीन यूनान में इसका प्रयोग राजनैतिक उद्देश्य से एकत्रित हुए पोलिस निवासियों से था. एक्क्लेसिआ से 'चर्च सम्बन्धी' या 'ईसाई धर्म सम्बन्धी' के लिए शब्द एक्क्लेसिएस्टिकल मिला, जिसका प्रयोग आज भी होता है. ईसाई धर्म पर यूनानी प्रभाव गिनाए नहीं जा सकते.
यूनानी विचारकों - विशेषकर एथेंस के उन तीन दार्शनिकों ने पाश्चात्य चिंतन, और ईसाई विचारधारा को करीब दो सहस्त्र वर्षों तक प्रभावित किया. सुकरात की इस बात को, कि हमारा तार्किक चिंतन कहीं से हमे मिले किसी ज्ञान के ऊपर रहना चाहिए, पाश्चात्य विचारधारा ने आत्मसात किया था. लेखक के अनुसार ईसाई धर्म के पश्चिमी रूप ने सुकरात की बात को आधारशिला में रखी थी. (इसके प्रमाण उन्होंने नहीं दिए हैं और मुझे इस बात पर बहुत विश्वास नहीं होता.)
लेखक के अनुसार ईसाई धर्म को प्लैटो की दो देन हैं: एक तो यह कि मनुष्य को दुनिया की भूल भुलैया के पार देख पाने की क्षमता लानी है - जो बस समझ या बुद्धि से संभव है. इसे स्पष्ट करने के लिए यहाँ प्लैटो का दिया वह बहु-चर्चित उदाहरण है जिसमे कुछ मनुष्य एक गुफा में दीवाल से इस प्रकार बाँध दिए गए हैं कि वे बस गुफा की दीवाल देख सकते हैं. गुफा में पूर्ण अंधकार रहता लेकिन उनके पीछे आग जल रही है, जिसकी रोशनी दीवाल पर पड़ रही है. आग और बंदी मनुष्यों के बीच कुछ पशु गुफा के एक छोर से दूसरे छोर जाते हैं. हर बार उस पशु का नाम बताया जाता है और बंदी उसकी छाया को दीवाल पर फिसलते देख सकते हैं. छाया को देख वे यही समझेंगे कि जिस पशु का नाम बताया जा रहा है उसका रूप यही है. जब वे गुफा के अँधेरे से बाहर आएंगे और धुप से उनकी आँखें चौंधियाई रहेंगी तब वे उन पशुओं को देख कर भी नहीं पहचान पाएंगे.
प्लैटो की दूसरी देन ईश्वर के स्वरुप पर है. यूनानियों के देवता अनेक थे और उनके आचार नैतिक नहीं कहे जा सकते इस पर सुकरात ने भी आपत्ति की थी और प्लैटो ने एक ईश्वर की अवधारणा दी - एक और उत्कृष्ट. प्लैटो ने ईश्वरत्व के केंद्र में नैतिकता रखी. प्लैटो के शिष्य अरस्तु ने भी इस चिंतन को प्रभावित किया. प्लैटो के अनुसार वास्तविकता वह नहीं है जो हमे दिखाई पड़ती है - वृक्ष के सभी सही गुण हम जिसे वृक्ष कहते देख रहे हैं उससे परे है. (मुझे यह ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या का स्मरण करा गया.) अरस्तु जो दिखता है उसी में वास्तविकता खोजते थे.
अरस्तु के विचार अगले दो सहस्त्र वर्षों तक ईसाई धर्म और इस्लाम के विचारकों को भौतिक दुनिया, ललित कलाएं और सदाचार को समझने में प्रभावित करते रहे. बारहवीं -तेरहवीं सदी में अरस्तु के विचारों ने पश्चिमी चर्च में ईसाई विद्वता के पुनर्जागरण में बहुत बड़ा योगदान दिया. हाल के पचीस वर्षों में भी वैटिकन ने अरस्तु के विचारों और ईसाईयत के संश्लेषण की पुष्टि की जिसका पहला आह्वान थॉमस एक्वीनस ने किया था.
(डायर्मेड मक्कलक)
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