चित्र: पैन्थिओन
एक दशक के रक्तपात के बाद शांति आयी। ऑक्टावियन सीज़र से शुरू होकर अगली दो सदियों तक के इस काल-खंड का नाम ही पड़ गया ‘पैक्स रोमाना’ (Pax Romana) यानी रोम की शांति। कहते हैं यूरोप में ऐसी शांति इसके बाद सीधे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही आयी।
शांति आती कैसे नहीं? सभी तो मारे जा चुके थे। अकेले ऑक्टावियन बच गए थे। अपनी शुरुआती दुर्दांत क्रूरता के बावजूद वह रोम के सबसे स्थिर और समझदार शासक बने। उनका तकिया-कलाम था festina lente अर्थात् ‘जल्दी करो, मगर हौले-हौले’।
उन्होंने गणतंत्र का औपचारिक अंत नहीं किया, मगर ईसा पूर्व 43 से ईसा पूर्व 23 तक वह रोम के प्रधानमंत्री बने रहे। जब बीस साल यूँ गुजर गए, फिर सोचा कि अब गणतंत्र जब मुझे ही चलाना है तो राजा ही बन जाता हूँ। अगले चार दशक तक वह राजा बने रहे। इस तरह साठ वर्ष तक शासन किया।
इन साठ वर्षों में उन्होंने रोम बदल डाला। अगर उन्हीं के शब्दों में कहूँ, “मुझे रेत का बना रोम मिला था, मैंने इसे संगमरमर का बना दिया”
राजा बनने के बाद भी ऑक्टावियन ने सिनेट को भंग नहीं किया। उसे सिविल-सर्विस जैसी व्यवस्था बना दी। वे लोग शांत क्षेत्रों में प्रशासन का कार्य संभालते। जो भी अशांत क्षेत्र या युद्ध क्षेत्र थे, वह ऑक्टावियन ने अपने हाथ में रखा। यानी रक्षा मंत्रालय स्वयं राजा के पास, अन्य मंत्रालय सिनेट के पास। सेना उन्हीं के हाथ में थी, तो कोई तख्ता-पलट कैसे करता?
इसके बाद वह धर्मराज बन गए, और रोम में धर्म का विस्तार शुरू किया। सैकड़ों नए मंदिर बना दिए, और रोम वासियों को धर्मनिष्ठ बनने के लिए प्रेरित करने लगे। उन्होंने बाक़ायदा आदर्श जीवन की नीतियाँ बनायी, और कुलीनों को भी सात्विक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए दो कवियों वर्जिल और सोरेस से ग्रंथ लिखवाए गए। उनकी कविताओं में शांति और सहिष्णुता की बातें होती। वर्जिल ने लिखा,
“तुम रोम पर शासन करना चाहते हो? पहले अपनी आत्मा पर शासन करना सीखो”
इसे पढ़ कर जनता भी तलवार उठाने के बजाय आध्यात्मिक होती गयी, और देवालयों में समय गुजारने लगी। अब वापस देखने पर यह सोची-समझी चाल भी लग सकती है, कि जनता को धर्म-कर्म में लगा कर अपनी सत्ता निर्विरोध बनाए रखो। आखिर यह सहिष्णुता का ज्ञान बाँटने वाले व्यक्ति तो अपने भाइयों और अभिन्न मित्रों का खून बहा चुके थे।
जनता ने ऑक्टावियन को ‘ऑगस्तस’ की उपाधि दे दी, जिसका अर्थ था पूज्य, पवित्र। साथ ही साथ सीज़र तो थे ही। जूलियस सीज़र के नाम पर जुलाई महीना बना, तो ऑगस्तस के नाम पर अगस्त बना दिया गया।
उन्होंने पहली बार एक और कार्य किया। अपने धर्म-प्रचार के लिए भिन्न-भिन्न देशों में दूत भेजे। वे अपने देवी-देवताओं और संस्कृति का विस्तार करते। उन्होंने भारत, लंका और चीन तक अपने दूत भेजे, और व्यापार के मार्ग खोले।
कई रीतियाँ इन देशों से मिलती थी। देवी-देवता और उनसे जुड़ी कथाएँ तो थी ही, जीवन-शैली और पहनावों में भी साम्य थे। सिर्फ़ शव-दाह की परम्परा ही नहीं, बल्कि रोम में शोक के समय सर मुंडाने की भी परम्परा थी। एक ख़ास वर्णन मिलता है कि जब जर्मैनिक कबीलों से रोमन सेना को हार मिली, और कई प्रिय-परिजन मारे गए, तो रोम-वासियों ने सर मुंडा लिए। ऑक्टावियन ने अपना सर मुँडाने से मना कर दिया। वह अपने जनरल को कहने लगे, “मैं नहीं मानता इस शोक को। मुझे मेरे हारे हुए क्षेत्र वापस चाहिए”
ऑक्टावियन ‘ऑगस्तस’ ने रोम को संपूर्ण पृथ्वी का धर्म-केंद्र बनाने का ठान लिया। उन्होंने अपने दामाद अग्रिप्पा के निर्देशन में विश्व के सभी देवताओं का एक विशाल मंदिर ‘पैन्थिओन’ बनवाया। चमचमाती सड़कें बनी। संगमरमर के कार्यालय बने। तीर्थ की व्यवस्थाएँ हुई।
जब ऑक्टावियन ऑगस्तस सीज़र धर्म का झंडा लहरा रहे थे, उस समय उनके ही साम्राज्य के पूर्वी छोर पर एक शिशु का जन्म हुआ। यूँ तो उस काल-खंड के रोमन इतिहासकारों ने उनकी चर्चा नहीं की, लेकिन आज वह जन्म ही रोम का धर्म और रोम की तारीख़ तय करता है।
अगर हिंसा और रक्तपात के मूर्त रूप ऑक्टावियन ने रोम में शांति लायी, तो अहिंसा और शांति के दूत यीशु का जन्म रोमन शांति, धर्म और साम्राज्य का अंत लाने वाला था।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रोम का इतिहास - दो (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/05/13_22.html
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