चित्र: इसिस-होरस और मैरी-जीसस
इस्लाम से अगर तुलना की जाए, तो ईसाइयत ने अपने विस्तार में कहीं ज्यादा वक्त लिया। पहले तो यही स्पष्ट नहीं था कि ईसाई हैं कौन। उनका धर्मग्रंथ बाइबल (न्यू टेस्टामेंट) लिखा ही नहीं गया था। यह पूरा ताना-बाना रचने में कई सदियाँ लग गयी, जिसकी शुरुआत में रोम की आग और एक सनकी शासक नीरो का बहुत महत्व है। जलती हुई राजधानी, लायर बजाता और गीत गाता नीरो, सूली पर लटकाए जाते ईसाई। यीशु की मृत्यु के सिर्फ़ तीन दशक बाद ऐसी घटना के कई आयाम थे।
पहली बात कि यह ‘रोम बनाम ईसाई’ नैरेटिव था, जो ‘यहूदी बनाम ईसाई’ से कहीं अधिक वजनदार था। यहूदी एक मामूली समुदाय थे, जिनकी कोई सत्ता नहीं थी। एकेश्वरवाद के कारण उनसे ईसाइयों को अलग देखना भी कठिन था। अधिक से अधिक वे यहूदियों के एक पंथ कहलाते। पहले से फारिसी और सदुसी नामक दो पंथ थे, ये तीसरे हो जाते।
जबकि रोम से टक्कर, विश्व की एक महाशक्ति और बहुदेववाद से टक्कर थी। इन दोनों के गिरते ही ईसाईयत शीर्ष पर आ जाती। और यही हुआ भी। यहूदियों से जन्मा यह पंथ दुनिया का सबसे बहुसंख्यक और सत्तासीन धर्म बन गया, यहूदी मात्र 0.2 प्रतिशत रह गए।
अब पुन: इतिहास और मिथक के ताने-बाने में लौटता हूँ। नजरेथ के यीशु को संभवत: 30 ईसवी में सजा दी गयी। उस समय संत पॉल एक फारिसी यहूदी थे, और वह स्वयं यीशु के पंथियों को सजा देने वालों में अग्रणी थे। यह बात बाइबल में वर्णित है कि जब वह जेरूसलम से दमिश्क जा रहे थे, तभी उन्हें एक दिव्य रोशनी दिखाई दी और आवाज सुनाई दी,
“सॉल (पॉल)! तुमने मुझे क्यों सजा दी?”
“आप कौन हैं, देव?”
“मैं यीशु हूँ, जिसे तुम सजा दे रहे हो। अब लौट जाओ और मेरे आदेशों की प्रतीक्षा करो।”
इस तरह संत पॉल यीशु के अनुयायी बन गए। वही संत पॉल रोम गए, और वहाँ उन्होंने अपने इस नए पंथ के विषय में बताना शुरू किया। इतिहासकारों के अनुसार वे अधिक से अधिक तीन अनुयायी बना सके। उनमें एक गुलाम (slave) समुदाय से थे। जब रोम में आग लगी, तो सैकड़ों ईसाइयों को सूली पर लटकाया गया, जैसी बातें हजम करनी कठिन है।
असल में क्या संभावना हो सकती है, और इतिहासकारों ने क्या लिखा है?
यह बात लगभग एकमत से कही जा सकती है, कि नीरो के प्रयासों के बावजूद उन पर इस आग लगाने का दाग़ लग गया। जनता यही मानने लगी कि सब राजा का किया धरा है। हालाँकि उनका राजमहल भी भस्म हो गया था, लेकिन जिस गति से वह नया आधुनिक रोम बसा कर उसका नाम ‘नीरोपोलिस’ रख रहे थे; यह आभास हुआ कि सब उनकी ही योजना थी।
नीरो ने अपना दाग़ साफ़ करने के लिए कोई दोषी ढूँढना शुरू किया। संभव है कि इसी फेर में उन्होंने फारिसी यहूदियों पर इल्जाम लगाया। फारिसी यहूदी रोमन संस्कृति को नापसंद करते थे, एकेश्वरवादी थे, और रोम के बाज़ार में उनकी कई दुकानें थी। आग वहीं से शुरू हुई थी।
यहूदियों की इस भीड़ में यीशु और संत पॉल के नए पंथ के लोग भी फँस गए हों, यह संभव है। लेकिन, इन सबको मिला कर भी बहुत अधिक जनसंख्या नहीं थी।
एक वर्णन जो टैसिटस और सूटोनियस जैसे इतिहासकार करते हैं कि नीरो ने कहा, “इसके पीछे इसिस (Isis) का हाथ है”
इसिस मिस्र की देवी थी, जिनके कई पूजक रोम में थे। उनके और उनके पुत्र होरोस की कथाएँ रोम में प्रचलित थी। अधिकांश गुलाम उन्हीं के पूजक थे। उनके देवता अनुबिस का सर एक कुत्ते (या भेड़िए) का था, इसी कारण उन्हें जान-बूझ कर सार्वजनिक रूप से शरीर पर माँस बाँध कर कुत्तों से कटवाया गया।
नीरो द्वारा सबसे अधिक यातना इसी समुदाय को दी गयी, यह अधिकांश स्रोतों में वर्णित है। एक और तथ्य यह भी है कि यहूदियों की बड़ी संख्या क्लॉडियस के समय ही रिश्वत देकर रोमन नागरिक बन चुकी थी। उनका ओहदा ऊँचा था, और उन्हें इस तरह की सजा देना ग़ैरक़ानूनी भी था।
सूली पर लटकाने जैसी सजा सिर्फ़ ग़ैर-रोमन नागरिकों के लिए लंबे समय से चली आ रही थी। आपने स्पार्टाकस युद्ध में भी यह बात पढ़ी होगी कि सूली पर गुलामों को लटकाया गया। यह कोई ऐसी प्रथा नहीं थी, जो सिर्फ़ ईसाइयों से ही शुरू हुई।
आखिरी बात, जो सबसे अधिक विवादित है, कि इसिस मूर्ति-पूजकों को दी गयी यातना ही बाइबल में वर्णित की गयी। इतिहास में इसिस की जगह क्रिश्चियन ने ले ली। यहाँ तक कि ‘मैरी की गोद में यीशु’ को अक्सर ‘इसिस की गोद में होरस’ से जोड़ा जाता है।
जो भी हो, रोम के सबसे युवा राजा नीरो, सबसे बदनाम राजा बने। रोम में आग के कुछ ही वर्षों बाद फ़िलिस्तीन में यहूदियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक तरफ़ यहूदियों से सदियों के लिए जेरूसलम छिनन गया, और दूसरी तरफ़ नीरो से उनकी सत्ता।
68 ई. में अपने वाद्य-यंत्रों के मध्य आत्महत्या करते 31 वर्ष उम्र के नीरो के अंतिम शब्द थे- “आज एक कलाकार इस दुनिया से रुख़सत हुआ”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
Praveen Jha
रोम का इतिहास - तीन (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/05/1_28.html
#vss
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