रोम के इस प्युनिक युद्ध में भारत की कुछ भूमिका थी? ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं कि मैं भारतीय हूँ, बल्कि यह इतिहासकारों के लिए ही ज्वलंत प्रश्न रहा है।
इतिहास कहता है कि कार्थेज के सेना कमांडर हानिबल उत्तर अफ़्रीका से हाथियों का दल लेकर चले, जिब्राल्टर की खाड़ी से स्पेन में घुसे, और लगभग पूरा दक्षिण यूरोप और आल्प्स के पहाड़ पार करते हुए रोम पहुँचे। सवाल यह है कि हाथी आए कहाँ से?
उत्तर तो स्पष्ट ही है। अफ़्रीका से आए होंगे। मगर यह मामला इतना सुलझा नहीं है। अफ़्रीका के हाथियों को युद्ध-प्रशिक्षण देना कठिन था, आकार में अपेक्षाकृत छोटे थे, और उनकी हर नस्ल पर ‘हौदा’ बाँधना सुलभ नहीं था। वे नदियों, दलदलों और पहाड़ी रास्तों से गुजरने में भी उतने कुशल नहीं थे। द्वितीय प्युनिक युद्ध (ई. पू. 218-201) से पूर्व यूरोप के लोगों ने हाथी देखे भी थे?
इन पंक्तियों के लिखे जाने के दो-तीन हफ्ते पहले एक बीस-बाइस वर्ष के इतिहास विद्यार्थी बुजुर्ग इतिहासकार रोमिला थापर का साक्षात्कार फ़ेसबुक और यूट्यूब पर लाइव कर रहे थे। मैं भी सुनने लगा। वहाँ रोमिला एक ‘होम-वर्क’ देती हैं, जो भविष्य के इतिहासकारों को करना चाहिए। वह राज खुलने से कई बातें खुल सकती है। मैं उनकी अंग्रेज़ी में कही बात को अपने शब्दों में कुछ विस्तार से लिखता हूँ।
“युद्ध में हाथियों का बृहत् प्रयोग भारत से शुरु हुआ। हाथियों के प्रशिक्षण के लिए महावत और हौदा लगाना आदि में प्रवीणता रही। उसके बाद क्रमश: फ़ारस और यूनान तक भी हाथी पहुँचे, लेकिन एक ‘गेम चेंजर’ के रूप में यह मौर्य काल में दिखने लगा। ई. पू. 305-303 में सेल्युकस निकेटर और चंद्रगुप्त मौर्य के मध्य युद्ध में संभव है कि हाथियों ने निर्णायक भूमिका निभायी। इसका एक ठोस कारण है।
कंधार (गांधार) में उनके मध्य संधि हुई। ये संधि दो दिशाओं में हुई। पहली वैवाहिक संधि थी, जब चंद्रगुप्त मौर्य का विवाह सेल्युकस की बेटी से हुआ। क्या यह ग्रीक और भारतीय सभ्यता का मिलन-बिंदु हो सकता है? क्या ऐसे पारिवारिक संबंध और भी बनते रहे?
दूसरी संधि युद्ध से जुड़ी थी। चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को पाँच सौ हाथी दिए। दो वर्ष बाद ही इप्सस के युद्ध में सेल्युकस के इन हाथियों ने शत्रुओं को रौंद दिया। क्या भारतीय हाथियों से ही यूनानी, रोमन और कार्थेज के युद्धों की दशा-दिशा बदली?”
जिस तरह आज परमाणु महाशक्ति की बात होती है, उस काल-खंड में हाथी महाशक्ति की बात की जा सकती है। इसके प्रशिक्षण और निर्यात में भारत की भूमिका हो सकती है। इतिहास के विद्यार्थियों को इस पर कार्य करना चाहिए। कयास नहीं, वैज्ञानिक प्रमाण ढूँढने होंगे।
कार्थेज के सेनापति हानिबल को यह अंदेशा था कि रोमन इन हाथियों का मुक़ाबला नहीं कर सकते। वाकई जब उनकी सेना स्पेन के सागुंटम नगर तक पहुँची, तो उनके हाथियों का रास्ता रोकने वाला कोई न था। रोमन या किसी भी यूरोपीय सेना ने इतनी मोटी चमड़े वाले विशालकाय जीवों को युद्ध में देखा ही नहीं था।
रोमनों को जब खबर मिली, तो उन्होंने यह अंदाज़ा लगाया कि ये भारी-भरकम पशु धीरे-धीरे चलते हुए रोम आने में एक साल लगा देंगे। मगर यहाँ भी वे ग़लत थे। जब तक रोमन कमांडर शिपियो दक्षिण गॉल पहुँचे, हानिबल के हाथी तेज़ी से आल्प्स पहुँच चुके थे।
रोमनों ने सोचा कि हाथी पहाड़ तो न चढ़ पाएँगे, नीचे समंदर के किनारे चलेंगे। मगर वहाँ भी हानिबल हाथियों को लेकर पहाड़ों की चढ़ाई कर रहे थे। हालाँकि अफ़्रीका या भारत, जहाँ से भी ये हाथी आए, आल्प्स के पहाड़ों में दम तोड़ गए। संभवत: सिर्फ़ एक हाथी अंत तक बच पाया, जो हानिबल की सेना के साथ इटली घुस गया।
उसके बाद तो रोमनों की लगातार हार होती गयी। हानिबल की शक्ति और बुद्धि, दोनों अव्वल थी। वह चक्रव्यूह रच कर रोमनों को फाँसते। एक वर्ष के अंतराल में लगभग एक लाख रोमन सैनिक मारे गए। वहीं, हानिबल अपनी एक आँख की रोशनी खो बैठे।
इतिहास में वर्णित है कि अपने आखिरी हाथी ‘सुरस’ पर सवार होकर, अपनी एक आँख ढक कर हानिबल रोम पहुँचे, तो रोमनों को लग गया कि वे हार चुके हैं। कुछ इतिहासकार इस सुरस हाथी को भारतीय हाथी मानते हैं, जो सीरिया के रास्ते आया। कार्थेज सेना ने रोमनों को समुद्र के रास्ते नहीं, बल्कि ज़मीन पर, पहाड़ पर, दलदलों में, हर जगह शिकस्त दे दी।
हारे हुए रोम ने निर्णय लिया कि अब वे एक तानाशाह चुनेंगे। मगर वह तानाशाह फैबियस मैक्सिमस अपने शौर्य से अधिक अपने धैर्य के लिए मशहूर हुए। उन्होंने हानिबल से सीधे लड़ने के बजाय, एक ऐसी तरकीब चुनी, जिसके कारण वह ‘कंक्टेटर’ (cunctator) नाम से जाने गए। इस शब्द का अर्थ था- प्रतीक्षा करने वाला, टालने वाला।
रोमनों ने हानिबल को युद्ध लड़ कर नहीं, युद्ध टाल कर हराया।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
रोम का इतिहास (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/05/13.html
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