Wednesday, 11 May 2022

राजद्रोह कानून धारा 124A आईपीसी का उद्भव और विकास / विजय शंकर सिंह


सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजद्रोह यानी सेडिशन धारा 124A आईपीसी के संबंध में दिनांक 11 मई 2022 को दिया गया फैसला देश के न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण फैसला है। सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई को, इस कानून के संबंध में, एक ऐतिहासिक आदेश दिया है कि, 
"भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत 152 साल पुराने देशद्रोह कानून को प्रभावी ढंग से तब तक के लिए स्थगित रखा जाना चाहिए जब तक कि केंद्र सरकार इस प्रावधान पर पुनर्विचार नहीं कर लेती।"
इस आदेश में, कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से उक्त प्रावधान के तहत कोई भी प्राथमिकी दर्ज करने से परहेज करने का आग्रह किया, जब तक कि यह कानून सरकार के पुनर्विचार के अधीन है।
पीठ ने अपने आदेश में कहा:
"हम उम्मीद करते है, कि केंद्र और राज्य सरकारें किसी भी प्राथमिकी दर्ज करने, जांच जारी रखने या आईपीसी की धारा 124 ए के तहत जबरन कदम उठाने से परहेज करेंगी।"
सीजेआई, एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि धारा 124 ए के तहत लगाए गए आरोपों के संबंध में सभी लंबित मामले, अपील और कार्यवाही को स्थगित रखा जाए। अन्य धाराओं के संबंध में न्यायनिर्णय अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह के बिना आगे बढ़ सकता है, यह माना। 

इस ऐतिहासिक मुक़दमे की कार्यवाही का विस्तार से उल्लेख करने के पहले, यह ज़रूरी है कि, भारत मे सेडिशन कानून धारा 124A आईपीसी के उद्भव और विकास पर एक नज़र डाल ली जाय। 

भारतीय न्याय प्रणाली ब्रिटिश न्याय प्रणाली से विकसित हुयी है। 1861 में बने तीन कानूनों, भारतीय दंड संहिता आईपीसी या इंडियन पेनल कोड,  दंड प्रक्रिया संहिता, सीआरपीसी क्रिमिनल प्रोसीजर कोड,  भारतीय साक्ष्य अधिनियम यानी इंडियन एविडेंस एक्ट से भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था की नींव पड़ी। इसी समय आपराधिक न्याय व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप इंडियन पुलिस एक्ट को संहिताबद्ध किया गया जिससे आधुनिक पुलिस व्यवस्था की शुरुआत हुयीं।

124A के वर्तमान स्वरूप के लिये महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बाल गंगाधर तिलक को श्रेय देना चाहिये। तिलक को अंग्रेज़ भारतीय असंतोष का जनक या फादर ऑफ इंडियन अनरेस्ट कहते थे। 1897 में उनपर चले एक मुक़दमे ने इस धारा को राजद्रोह बनाम देशद्रोह की बहस में जन्म दे दिया। यह धारा संज्ञेय और अजमानतीय बनायी गयी।

पहले यह धारा पढ़ लें।
" जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घॄणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का, प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा । "

1870 तक यानी आईपीसी के संहिताबद्ध होने के 9 साल बाद यह धारा आईपीसी में जोड़ी गयी। हालांकि यह विचार 1835 के ड्राफ्ट पेनल कोड जो लार्ड थॉमस मैकाले ने तैयार किया था, में आ चुका था। जब यह धारा जोड़ी गयी तो इसके जोड़ने का उद्देश्य ब्रिटिश राज के विरुद्ध किसी भी प्रकार के जन असंतोष को दबाना था जो 1857 के विप्लव को सफलतापूर्वक कुचल देने के बाद भी देश मे कहीं न कहीं उभर जाया करता था। 1870 में यह धारा आईपीसी में जोड़ी गयो।

धारा 124A आईपीसी के अंतर्गत पहला मुकदमा 1891 में दर्ज हुआ जो बंगाल से निकलने वाले एक अखबार बंगोबासी के संपादक के विरुद्ध था। बांग्ला अखबार बंगोबासी ने ' सहमति की उम्र ' के नाम से एक लेख लिख कर ब्रिटिश सरकार के एज ऑफ कंसेंट बिल 1891 की तीखी आलोचना की थी। 19 मार्च 1891 को पारित इस कानून के अनुसार लड़कियों के साथ यौन संबंध बनाने की उम्र 10 से बढ़ाकर 12 साल कर दी गयी। इसमे भी विवाहित और अविवाहित का कोई भेद नहीं रखा गया था। 12 साल की कम उम्र की विवाहित महिला से यौन संबंध बनाना भी अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया। अपने अनेक पुनर्जागरण के अभियान के बाद भी तत्कालीन बंगाल में बाल विवाह जोरो से प्रचलित था। बंगोबासी ने इस कानून के साथ ब्रिटिश राज की भी तीखी आलोचना की। इस आलोचना के कारण इस पर इस धारा के अंतर्गत मुकदमा कायम किया गया। लेकिन अदालत में जब यह मुकदमा पहुंचा तो इसपर जजों में एकराय नहीं बनी। संपादक ने भी माफी मांग ली और मुकदमा एक राय न होने से खारिज हो गया।

1897 में तिलक के लिखे गये लेखों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींद उड़ा दी। तिलक ने अपने पत्र केसरी में मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी के संदर्भ से कई लेख लिखे जिनमें ब्रिटिश हुकूमत की तीखी आलोचना थी।  पुणे के अंग्रेज़ शासकों को लगा कि तिलक के लेख को पढ़ कर ही चाफेकर बंधुओ ने रैंड और उसके सहयोगी आयस्टर की हत्या की है । यह घटना 22 जून 1897 में घटी थी। चाफेकर बंधुओं, वासुदेव और हरि चाफेकर के खिलाफ तो हत्या का मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सज़ा हुयी। तिलक के खिलाफ 124A के अंतर्गत राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।

इस धारा में असंतोष, डिसफेक्शन के बजाय इसे डिसलॉयल्टी पढा गया और यह गैर वफादारी, राज यानी क्राउन का विरोध माना गया। इस प्रकार असंतोष राजद्रोह में तब्दील हो गया। इस मुक़दमे में जो बहस हुयी है उस पर लिखी एक पुस्तक द ट्रायल ऑफ तिलक, तिलक के कानूनी ज्ञान और उनकी तर्कशीलता को प्रमाणित करती है। पहली बार इस मुक़दमे में घृणा, शत्रुता, नापसंदगी, मानहानि आदि जैसे भाव जो जनता को किसी भी सरकार से असंतुष्ट करते हैं, राज्य या सरकार के विरुद्ध परिभाषित कर के राजद्रोहात्मक माने गये। तिलक को इस अपराध में सज़ा हो गयी। वे पहले व्यक्ति थे जिन्हें अपने लेखों के कारण राजद्रोह की सज़ा भुगतनी पड़ी।

एक साल बाद उनकी सहायता में जर्मन अर्थशास्त्री और न्यायविद मैक्स वेबर सामने आए। उनके मुक़दमे की अपील में नए तरह से बहस हुई और सेडिशन को नए सिद्धांत के अनुरूप व्याख्यायित किया गया। यह सिद्धांत स्ट्रेची का था जिनके अनुसार उपनिवेशवादी ताकतें अक्सर अपने अपने उपनिवेश में आज़ाद पसंद लोगो के विरुद्ध उन्हें प्रताड़ित करने के लिये राजद्रोह का बेजा इस्तेमाल करती रहती हैं जबकि यह एक प्रकार की अभिव्यक्ति है। इस बार तो तिलक एक साल के बाद ही छूट गए। पर केसरी में ही लिखे एक अन्य लेख के कारण उनके खिलाफ 1908 में फिर 124A का मुकदमा दर्ज हुआ, जिसमे 1909 में उन्हें 6 साल की सज़ा मिली जो उन्होंने मांडले जेल में बिताया था। इसी मुक़दमे में तिलक ने अपना पक्ष रखते हुए यह कालजयी वाक्य कहा था, " स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा । " इस वाक्य को राजद्रोही माना गया।

1897 के बाद 1922 में यही मुकदमा महात्मा गांधी पर चला। गांधी जी ने अपने पत्र यंग इंडिया में ब्रिटिश शासन की नीतियों की तगड़ी आलोचना करते हुये कई लेख लिखे थे। कुछ लेख किसानों की समस्या पर जो उन्होंने चंपारण में निलहे ज़मीदारों के अत्याचार को देखा था पर लिखे थे। गांधी ने इस एक्ट को ही जनविरोधी और दमनकारी बता दिया और यह भी कह दिया कि उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध लेख लिखा है और यह राजद्रोह है तो वे राजद्रोही हैं। उन्होंने जो कहा उसे उन्ही के शब्दों में पढ़े,

“Section 124A under which I am happily charged, is perhaps the prince among the political sections of the IPC designed to suppress the liberty of the citizen.”
( धारा 124A जिसके अंतर्गत मैं प्रसन्न हूँ कि मुझे आरोपित किया गया है, के बारे में यही कहूंगा कि यह धारा सभी प्राविधानों के अंतर्गत आईपीसी में एक राजकुमार की तरह है जो नागरिकों की स्वतंत्रता को कुचलने के लिये रखी गयी है। )
महात्मा गांधी को भी छह साल की सज़ा मिली थी।

भगत सिंह के ऊपर भी यही मुकदमा चला था। हालांकि उनके ऊपर सांडर्स हत्याकांड का भी मुकदमा चला था। जबकि भगत सिंह का नाम इस मुक़दमे की एफआईआर में भी नहीं था और राजद्रोह साबित भी नहीं हो पाया था। पर भगत सिंह अंग्रेजों के लिये बड़ा खतरा बन सकते थे और अंग्रेज़ उनकी वैचारिक स्पष्टता और मेधा को जान गए थे । उनका एक ही उद्देश्य था भगत सिंह को फांसी पर लटका देना जो उन्होंने 23 मार्च 1931 में कर दिया।

आज़ादी के बाद जब संविधान सभा की कार्यवाही चल रही थी, तो 29 अप्रैल 1947 को इस धारा पर लंबी बहस हुई। क्योंकि यह धारा कहीं न कहीं संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों को अवक्रमित करती है। सरदार पटेल ने  केवल भाषण और नारों को सेडिशन मानने से इनकार कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सोमनाथ लाहिड़ी ने कहा कि ब्रिटेन में भी जहां से यह धारा आयातित की गयी है, सरकार के विरुद्ध कुछ भी तीखी बात या नीतियों की निंदा की जाय वह तब तक राजद्रोह नहीं माना जाता है जब तक कि कोई ऐसा उपक्रम न किया गया हो जो देश और राज्य के विरुद्ध युद्धात्मक हो। संविधान सभा मे लंबी बहस के बाद यह सहमति बनी कि केवल आलोचनात्मक और निंदात्मक भाषणों के ही आधार पर किसी के विरुद्ध यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध होगा। अतः इस धारा में संशोधन किये गए। 2 दिसंबर 1948 को सभी सदस्यों की तरफ से सेठ गोविंद दास ने इस संशोधन पर प्रसन्नता व्यक्त की।

संविधान सभा ने सेडिशन शब्द को ही यह मान लिया कि यह केवल बाल गंगाधर तिलक को दंडित करने के लिये गलत तरह से परिभाषित और व्याख्यायित किया गया था। जब कि असंतोष और राजद्रोह में अंतर है। संविधान सभा के सभी सदस्य स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे। एक सदस्य ने कहा कि
" जन असंतोष को मुखर कर के ब्रिटिश राज की आलोचना में तो हम सब शामिल थे। अगर आलोचना का यह मार्ग बाधित कर दिया जाएगा तो सरकारें निरंकुश हो जायेंगीं । अब हमारे पास अभिव्यक्ति की आज़ादी का मौलिक अधिकार है और एक फ्री प्रेस है। अब हमें इस धारा से मुक्ति पा लेनी चाहिये। "
26 नवम्बर 1949 को पूर्ण हुये संविधान ने सेडिशन शब्द से तो मुक्ति पा ली और एक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश के हम भारत के लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में संविधान ने एक नायाब मौलिक अधिकार तो दे दिया पर आईपीसी में यह धारा बनी रही।

1950 में सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों ने सरकार को इस धारा में आवश्यक संशोधन करने पर विवश कर दिया। पहला मुकदमा आरएसएस के पत्र ऑर्गनाइजर से जुड़ा था, और दूसरा एक अन्य मुकदमा क्रॉस रोड मैगजीन का था। इन दोनों ही पत्रिकाओं में तत्कालीन सरकार की तीखी आलोचना और निंदा की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में सरकार का पक्ष लिया और स्वतंत्रता के शैशव को देखते हुए ऐसी आलोचना से परहेज बरतने के लिये सम्पादकों से कहा। पर कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं हुयी। लेकिन अदालत ने इसे देशद्रोह नहीं माना बल्कि एक गैर जरूरी आलोचना माना। इस फैसले की आलोचना हुयी और इस धारा में एक संशोधन लाया गया।

सरकार की आलोचना और निंदा जो आज कुछ लोगो द्वारा देशद्रोह समझ ली गयी है, के संबंध में तब जवाहरलाल नेहरू ने इस धारा के बारे में संसद में संशोधन पेश करते समय क्या कहा था, यह पढ़ना दिलचस्प रहेगा। उन्होंने कहा था,
“Take again Section 124A of the Indian Penal Code. Now so far as I am concerned that particular section is highly objectionable and obnoxious and it should have no place both for practical and historical reasons, if you like, in any body of laws that we might pass. The sooner we get rid of it the better,”
( धारा 124A, भारतीय दंड संहिता, का ही उदाहरण लें, इस प्राविधान के बारे में जहां तक मैं समझता हूं, यह धारा न केवल आपत्तिजनक है बल्कि अप्रिय भी है। अतः व्यवहारिक और ऐतिहासिक कारणों से इस धारा की कोई आवश्यकता नहीं है। अगर आप सभी सहमत होंगे तो एक नया कानून बनेगा। जितनी जल्दी हो सके हम इस प्राविधान से मुक्ति पा लें। "
हालांकि नेहरू के इन शब्दों में कहे गए अपनी बात के बावजूद यह प्राविधान आईपीसी में बना रहा। लेकिन नेहरू के संसद में कहे गए शब्द और उनकी भावनाएं इस जुर्म के ट्रायल के समय अदालतों द्वारा स्वीकार किये गये और 1950 में ही धारा 124A के अंतर्गत दर्ज किये गए मुकदमों में कुछ उच्च न्यायालयों ने अभियुक्तों को बरी कर दिया।

आज़ादी के बाद 124A आईपीसी का सबसे चर्चित मुकदमा बिहार के केदारनाथ का था जो केदारनाथ बनाम बिहार राज्य 1962 के नाम से प्रसिद्ध है। केदारनाथ ने एक सार्वजनिक सभा मे तत्कालीन कांग्रेस सरकार की तीखी आलोचना करते हुये बरौनी में कहा था,
" To-day the dogs of CID are loitering around Barauni. Many official dogs are sitting even in this meeting. The people of India drove out the Britishers from this country and elected these Congress goondas to the gaddi.”
( आज सीआईडी के कुत्ते बरौनी में इधर उधर घूम रहे हैं। बहुत से सरकारी कुत्ते इस सभा मे भी मौजूद हैं। देश की जनता ने इस देश से अंग्रेज़ो को उखाड़ कर भगा दिया, और इन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। )
यहां सीआईडी, इंटेलीजेंस खुफिया शाखा की पुलिस के लिये कहा गया है। क्योंकि पहले खुफिया शाखा भी सीआईडी का ही एक अंग हुआ करती थी। अब वह एक स्वतंत्र विभाग है। उन्होंने कांग्रेस पार्टी और सरकार को भ्रष्टाचार, काला बाज़ारी, पूंजीवादी और ज़मींदारों की प्रतिनिधि बताते हुए एक क्रांति कर के देश से भगा देने का आह्वान किया था।

केदारनाथ के इस भाषण पर स्थानीय पुलिस थाने द्वारा खुफिया रिपोर्ट के आधार पर धारा 124A आईपीसी का एक मुकदमा दर्ज हुआ और उनके खिलाफ अदालत में आरोपपत्र दाखिल हुआ जिसमें ट्रायल के बाद उन्हें सजा मिली।

अपनी सज़ा के खिलाफ केदारनाथ ने पटना  हाईकोर्ट में अपील की पर उन्हें उक्त अपील में कोई राहत नहीं मिली बल्कि हाईकोर्ट से भी उनकी सज़ा बहाल रही । हाईकोर्ट ने सेडिशन पर कहा कि, यह धारा उन अप्रिय और भड़काऊ शब्दों के लिये दण्डित करने की शक्ति  देती है जिससे कानून और व्यवस्था की गंभीर समस्या उत्पन्न हो सकती है और हिंसा भड़क सकती है। सेडिशन के लिये हाईकोर्ट ने सज़ा तो बहाल रखी पर इस धारा के संबंध में जजों की राय इस प्रकार थी।
“It has been contended that a person who makes a very strong speech or uses very vigorous words in a writing directed to a very strong criticism of measures of Government or acts of public officials, might also come within the ambit of the penal section. But, in our opinion, such words written or spoken would be outside the scope of the section.”
( इस प्राविधान में यह अंकित है कि अगर कोई व्यक्ति किसी उत्तेजक भाषण या लेख में भड़काऊ शब्दों के साथ सरकार और उसके कार्यकलापों तथा उसके अधिकारियों की ऐसी आलोचना करता है तो वह दंड का भागी होगा। लेकिन हमारी राय के अनुसार ऐसे लिखे और बोले गये शब्द इस धारा के प्राविधान से बाहर हैं। )

हाईकोर्ट ने यह तो माना कि केदारनाथ द्वारा दिया गया भाषण आक्रामक और भड़काऊ है और सज़ा भी बहाल रखी पर इसे राजद्रोह मानने से इनकार कर दिया। यह एक अजीब फैसला था। राजद्रोह का जब दोष ही नहीं बनता तो सज़ा किस बात की। केदारनाथ ने इस फ़ैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट में एक संविधान पीठ का गठन इस अपील की सुनवायी के लिये हुआ। संविधान पीठ ने पहली बार सेडिशन पर एक महत्वपूर्ण फैसला दिया, जिससे यह धारा परिभाषित हुयी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, आज़ादी मिलने तक 124A के बारे में दो विचार थे, जो इस धारा के संबंध में फेडरल कोर्ट और प्रिवी काउंसिल के फैसलों पर आधारित थे। 1949 में प्रिवी काउंसिल जो सभी कॉमनवेल्थ देशों की साझी सर्वोच्च अपीलीय अदालत थी को भारत सरकार ने एक कानून बनाकर समाप्त कर दिया था । आज़ादी के पहले फेडरल अदालतों की यह धारणा थी कि, " लोक व्यवस्था अथवा लोक व्यवस्था के भंग हो जाने की आशंका ही इस प्राविधान को दंड संहिता में जोड़े जाने का आधार है, इसलिए फेडरल अदालतों के फैसलों के अनुसार, अकेले उत्तेजक और भड़काऊ शब्दावली युक्त भाषणबाजी भी किसी भी हिंसक घटना को जन्म दे सकती है अतः सेडिशन का आरोप बनता है। "

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फेडरल कोर्ट के इन फैसलों की जब संविधान के अनुच्छेद 19A के परिप्रेक्ष्य मे व्याख्या की तो, इस प्राविधान को 19A ( बोलने की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ) के विपरीत तो पाया, लेकिन इसे संविधान विरुद्ध नहीं मानते हुये रद्द नहीं किया। हालांकि केदारनाथ को इस अपराध का दोषी नहीं पाया गया और उन्हें बरी कर दिया।

इस मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट ने सेडिशन कानून को बनाये रखने की बात कह कर उसे संविधान विरुद्ध नहीं माना है लेकिन अदालत ने यह भी साफ कर दिया जैसा सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील फली एस नारीमन कहते हैं कि,
" केवल सरकार की आलोचना चाहे वह कितनी भी निर्मम और घृणा भरी हो के आधार पर किसी के विरुद्ध सेडिशन का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। "

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि धारा 121, 122 और 123 आईपीसी में राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा, युद्ध का षडयंत्र और राज्य प्रमुख के हत्या या उनपर हमले की बाते हैं तो ये धाराएं सही मायने में देशद्रोह हैं। इन प्राविधानों में कभी कोई विवाद नहीं उठा है।

जबकि धारा 124A जिसमे केवल " बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घॄणा या अवमान पैदा करने " की अभिव्यक्ति को देशद्रोह या राजद्रोह या सेडिशन कहा गया है, में जब से यह धारा बनी है तब से विवाद उठता रहा है और आज भी बना हुआ है। हर बार अदालतों में इसकी वैधानिकता को चुनौती दी गयी है। इस धारा की परिभाषा को देखते हुए इस बात की संभावना अधिक है कि इसका सत्ता या पुलिस अपने हित मे दुरूपयोग करे। इसके सबसे अधिक शिकार वे अखबार, पत्रिकाएं, टीवी चैनल और पत्रकार बनते हैं और आगे भी  बन सकते है  जो सरकार के सजग और सतर्क आलोचक हैं। विरोधी दल के वे नेता भी शिकार हो सकते हैं जो सत्तारूढ़ दल से वैचारिक आधार पर भिन्न मत रखते हैं और स्वभावतः सरकार के  कटु आलोचक है। ब्रिटिश काल मे भी इस प्राविधान की गाज 1891 में बंगोबासी, 1897 और 1908 में लोकमान्य तिलक ,1922 में महात्मा गांधी और 1929 में भगत सिंह और साथियों पर गिरी थी।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र की जान है। 1215 में इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा, 1688 में इंग्लैंड की ग्लोरियस रिवोल्यूशन और 1789 में हुयी फ्रांस की क्रांति ने मनुष्य के जीवन मे अभिव्यक्ति और जीवन के उदार सिद्धांतों का बीजारोपण किया। यह धारा कहीं न कहीं उस उदार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के विपरीत ठहरती है। हर मुक़दमे में विरोधाभास उभर कर सामने आया है। तिलक, गांधी और भगत सिंह तथा साथियों को दी गयी सज़ायें कानूनी आधार पर नहीं बल्कि राजनैतिक और प्रशासनिक आधार पर दी गयीं थी क्योंकि हम गुलाम थे। ग़ुलाम भला आज़ादी के सपने कैसे देख सकता है ! पर अब एक सार्वभौम, स्वतंत्र और विधि द्वारा शासित एक कल्याणकारी राज्य है तो ऐसे राज्य से अपेक्षाये भी होंगी और कभी न कभी, कहीं न कहीं किसी न किसी विंदु पर सरकार की आलोचना भी  होगी। अतः केवल इस आधार पर कि किसी ने सरकार की निर्मम आलोचना, लेख लिख कर और भाषण देकर कर दिया है तो उसे देशद्रोही ठहरा दिया जाय यह एक अधिनायकवादी कदम होगा न कि लोकतांत्रिक।

(विजय शंकर सिंह)


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