आज़ादी के बाद, जवाहरलाल नेहरू का यह दूसरा भाषण है। उनका पहला सार्वजनिक उद्बोधन 14 और 15 अगस्त की अर्धरात्रि को जब दुनिया सो रही थी, और भारत एक नयी सुबह के लिये भविष्य के ताने बाने बुनते जाग रहा था, तब ट्रिस्ट ऑफ डेस्टिनी नियति से साक्षात्कार के रूप में हुआ था। नेहरू का यह भाषण बहुत ही प्रसिद्ध हुआ था। उनका दूसरा भाषण, 15 अगस्त 1947 को ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारित हुआ था। रेडियो पर यह भाषण पन्द्रह अगस्त के दिन दोपहर में दिया गया था। इसी भाषण में नेहरू ने खुद को फर्स्ट सर्वेंट ऑफ द इंडियन पीपुल कहा था। उन्होंने खुद को भारतीय जनता का प्रथम सेवक खुद को कहा था। यह भाषण प्रधानमंत्री नेहरू का प्रथम ब्रॉडकास्ट भी था। आकाशवाणी के आर्काइव्स में यह भाषण उपलब्ध है।
याब आप पूरा भाषण पढ़े।
( भाषण का हिंदी अनुवाद नीचे दिया गया है। अनुवाद मेरे द्वारा किया गया है। अनुवाद में भूल हो सकती है। )
Fellow Countrymen, it has been my privilege to serve India and the cause of India's freedom for many years. Today I address you for the first time officially as the First Servant of the Indian people, pledged to their service and their betterment. I am here because you willed it so and I remain here so long as you choose to honour me with your confidence.
We area free and sovereign people today and we have rid ourselves of the burden of the past. We look at the world with clear and friendly eyes and at the future with faith and confidence.
The burden of foreign domination is done away with, but freedom brings its own responsibilities and burdens, and they can only be shouldered in the spirit of a free people, self-disciplined, and determined to preserve and enlarge that freedom.
We have achieved much; we have to achieve much more. Let us then address ourselves to our new tasks with the determination and adherence to high principles which our great leader has taught us. Gandhiji is fortunately with us to guide and inspire and ever to point out to us the path of high endeavour. He taught us long ago that ideals and objectives can never be divorced from the methods adopted to realize them; that worthy ends can only be achieved through worthy means. If we aim at the big things of life, if we dream of India as a great nation giving her age-old message of peace and freedom to others, then we have to be big ourselves and worthy children of Mother India. The eyes of the world are upon us watching this birth of freedom in the East and wondering what it means.
Our first and immediate objective must be to put an end to all internal strife and violence, which disfigure and degrade us and injure the cause of freedom. They come in the way of consideration of the great economic problems of the masses of the people which so urgently demand attention.
Our long subjection and the World War and its aftermath have made us inherit an accumulation of vital problems, and today our people lack food and clothing and other necessaries, and we are caught in a spiral of inflation and rising prices. We cannot solve these problems suddenly, but we cannot also delay their solution. So we must plan wisely so that the burdens on the masses may grow less and their standards of living go up. We wish ill to none, but it must be clearly understood that the interests of our long-suffering masses must come first and every entrenched interest that comes in their way must yield to them. We have to change rapidly our antiquared land tenure system, and we have also to promote industrialization on a large and balanced scale, so as to add to the wealth of the country, and thus to the national dividend which can be equitably distributed.
Production today is the first priority, and every attempt to hamper or lessen production is injuring the nation, and more especially harmful to our labouring masses. But production by itself is not enough, for this may lead to an even greater concentration of wealth in a few hands, which comes in the way of progress and which, in the context of today, produces instability and conflict. Therefore, fair and equitable distribution is essential for any solution of the problem.
The Government of India have in hand at present several vast schemes for developing river valleys by controlling the flow of rivers, building dams and reservoirs and irrigation works and developing hydro-electric power. These will lead to greater food production and to the growth of industry and to all-round development. These schemes are thus basic to all planning and we intend to complete them as rapidly as possible so that the masses may profit.
All this requires peaceful conditions and the co-operation of all concerned, and hard and continuous work. Let us then address ourselves to these great and worthy tasks and forget our mutual wrangling and conflicts. There is a time for quarrelling and there is a time for co-operative endeavour. There is a time for work and there is a time for play. Today, there is no time for quarrelling or overmuch play, unless we prove false to our country and our people. Today, we must co-operate with one another and work together, and work with right goodwill.
I should like to address a few words to our Services, civil and military. The old distinctions and differences are gone and today we are all free sons and daughters of India, proud of our country's freedom and joining together in our service of her. Our common allegiances is to India. In the difficult days ahead our Services and experts have a vital role to play and we invite them to do so as comrades in the service of India.
Jai Hind.
O
हिंदी अनुवाद ~
मेरे देशवासियों, यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे कई वर्षों तक, भारत और देश की स्वतंत्रता हेतु सेवा करने काअवसर मिला। आज मैं आप को, अधिकृत रूप से, भारतीय जनता के प्रथम सेवक के रूप में संबोधित कर रहा हूँ, और यह प्रतिज्ञा कर रहा हूँ, कि आप की बेहतरी के लिये सेवा करता रहूंगा। मैं यहां इस लिये हूँ कि आप ने मुझे यहां देखना चाहा है और तब तक रहूंगा जब तक आप का विश्वास मुझ में बना रहेगा।
हम आज एक स्वाधीन और सार्वभौम देश है। अतीत के बोझ से हमे मुक्त होना है।हम भविष्य को आस्था और विश्वास तथा दुनिया को एक साफ और दोस्ताना नज़र से देख रहे हैं ।
विदेशी परतंत्रता का बोझ तो हमने उतार फेका है, लेकिन इस स्वाधीनता के कारण हम पर अन्य दायित्व और चुनौतियां आ गयी हैं। अपनी आज़ादी को और मज़बूत बनाने का कार्य, हमें आत्म अनुशासन और दृढ़ संकल्प के साथ करना है ।
हमने बहुत कुछ हासिल किया है, और हमे और भी बहुत कुछ हासिल करना है। अब हमें नए दायित्वों और कर्तव्यों के लिये , जैसी शिक्षा हमारे महान नेताओं ने हमे दी है, उन्ही उच्च आदर्शों पर चल कर उसे हासिल करने के लिये प्रयास करना है। सौभाग्य से आज गांधी जी कदम कदम पर हमे उस महान कर्तव्य की ओर प्रेरित करने और दिशा निर्देश हेतु हमारे बीच हैं। काफी पहले उन्होंने हमें सिखाया था कि , आदर्श और उद्देश्यों को कभी भी अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। एक उचित लक्ष्य, उचित साधनों के प्रयोग से ही अर्जित किया जा सकता है। अगर हमारा उद्देश्य जीवन मे बड़ा लक्ष्य प्राप्त करना है, अगर हमारा सपना एक ऐसा बेहतर भारत, जो सदियों तक अपने शांतिपूर्ण विचारों , दूसरों की आज़ादी के संरक्षक के रूप में दुनिया मे जाना जाता रहा है, बनाना है, तो हमे खुद को विशाल हृदय रखते हुए भारत माता के सपूतों के रूप में आचरण करना होगा।
हमारा पहला और तत्काल उद्देश्य यह होना चाहिये कि हम सभी आंतरिक तनाव और हिंसा को समाप्त कर दें , जो हमारी आज़ादी को तोड़ने और उसे बदरंग करने में सहायक हो रही है। यह तनाव और हिंसा का वातावरण, जनता की आर्थिक दुश्वारियों के हल में बाधक बन रही है, अतः हमें इस पर तुरन्त ध्यान देना होगा।
लंबे समय की गुलामी और द्वीतीय विश्वयुद्ध के हिंसा भरे वातावरण के कारण, विरासत में हमे, अनेक जटिल समस्याओं का अंबार मिला है और आज हम न केवल बढ़ती मुद्रा स्फीति और बढ़ती कीमतों से जूझ रहे हैं, बल्कि भोजन, कपड़े तथा अन्य जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं का अभाव भी हमारे सामने है। हम इन समस्याओं का समाधान तत्काल नहीं कर सकते हैं और इन्हें टाल भी नहीं सकते हैं। अतः हमें उनके समाधान हेतु बुद्धिमानी से योजनाएं बनानी होगी जिससे जनता पर कम से कम बोझ पड़े और लोगों का जीवन स्तर भी सुधरे। किसी के प्रति हमारी दुर्भावना नहीं है। लेकिन हमें यह सोच लेना चाहिये कि हमारी प्राथमिकता है, लंबे समय से कष्ट भोग रहे हमारे लोगों के कष्टों का अंत हो। कोई भी पूर्वाग्रह या हठ इस उद्देश्य में अगर बाधा बनता है तो, उसका निराकरण किया जाय। हमे अपनी पुरानी पड़ चुकी भूमि व्यवस्था को तेज़ी से बदलना होगा तथा औद्योगिकरण का तेज़ी, लेकिन संतुलित विकास करना होगा, जिससे देश की समृद्धि में वृद्धि हो और देश की आय बढ़े ताकि लोगों में, उसका समान वितरण किया जा सके।
उत्पादन, आज की प्रथम प्राथमिकता है और उत्पादन को कम करने या बाधित करने का कोई भी प्रयास, राष्ट्र को तो आघात पहुंचाएगा ही, विशेषकर देश के श्रमिक वर्ग को भी नुकसान पहुंचाएगा। लेकिन केवल उत्पादन की वृद्धि से ही देश की समृद्धि नहीं होगी, बल्कि इससे धन कुछ ही लोगों के हाँथ में एकत्र हो जाएगा जिससे विकास में बाधा पहुंचेगी और उत्पादन से जुड़े अन्य विवाद भी जन्म ले लेंगे। इसीलिए, उत्पादन के लाभ का समान और स्पष्ट वितरण ही इस समस्या का समाधान होगा।
भारत सरकार के पास, नदियों के बहाव को बांध निर्माण द्वारा नियंत्रित कर, नहर प्रणाली और जल विद्युत गृहों के निर्माण की अनेक योजनाएं हैं। इससे खाद्यान्न का विपुल उत्पादन होगा, उद्योगों का प्रसार होगा तथा सर्वांगीण विकास की राह खुलेगी। यह योजनाएं, सभी भावी योजनाओं का आधार बनेगी और हमे इन्हें जितनी जल्दी हो पूरा करना है, ताकि जनता को इनका लाभ मिल सके।
इन सबके लिये शांतिपूर्ण वातावरण और सभी का सहयोग चाहिए।अतः हमें इस महान और उपयोगी कार्य के लिये, अपने सभी झगड़े और विवाद भुला कर, एक हो जाना होगा। झगड़ने के लिये भी समय होता है और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सबकी सहभागिता के साथ कठोर मेहनत करने के लिये भी समय होता है। आज न तो झगड़ने का समय है और न ही बहुत अधिक खिलवाड़ करने का। आज हमें एक दूसरे का सहयोग , सद्भावना के साथ कार्य करने के लिये निश्चित रूप से करना होगा।
अब मैं अपने सेना, नागरिक प्रशासन और अन्य सेवाओं के बारे में भी कुछ कहना चाहूंगा। सेवाओं में पुरानी परिपाटियां, और उनमें व्याप्त अंतर अब समाप्त हो गए हैं। अब हम सब भारत के स्वतंत्र संतानें हैं, जो अब सभी एक साथ हैं, जिन्हें अपने देश की आज़ादी पर गर्व है और साथ साथ सेवा करने के लिये प्रतिबद्ध हैं। आने वाले कठिन समय मे हमारी सेवाओं और विशेषज्ञों को अपनी जीवंत भूमिका निभानी होगी और में उस भूमिका के लिये सभी सेवाओ के अपने साथियों को आमंत्रित करता हूँ।
जय हिंद ।
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नेहरू का यह भाषण, बदलते भारत के भविष्य की एक झलक के रूप में भी देखा जा सकता है। नेहरू एक स्वप्नद्रष्टा थे। उनका सबसे बड़ा योगदान देश की लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को मजबूती प्रदान करना, देश के संसदीय लोकतंत्र जो मूलतः ब्रिटेन की संसदीय परम्पराओं जिसे राजनीति शास्त्र में वेस्ट मिनिस्टर मॉडल ऑफ डेमोक्रेसी कहते हैं, पर आधारित है, को स्थिरता के साथ बनाये रखना था। नेहरू ने विरोध के स्वर को नेहरू ने कभी भी, हतोत्साहित नहीं किया, न तो संसद में और न ही सड़क पर। वे अद्भुत रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन अतिशय लोकप्रियता, जो अक्सर राजनेताओं को प्रमाद से भर देती है, से वे कभी संक्रमित नहीं हुये।
" मैं भारतीय जनता का प्रथम सेवक हूँ, " यह कह कर उन्होंने अपनी स्थिति आज़ादी के दिन, 15 अगस्त 1947 को ही स्पष्ट कर दी थी। तीनमूर्ति भवन के नेहरू संग्रहालय में एक पीतल की पट्टिका है जिस पर यह लिखा हुआ है कि,
" They call me The Prime Minister of India, but it would be more appropriate if I were called, The First Servant Of India. "
( वे मुझे भारत का प्रधानमंत्री कहते हैं, लेकिन लोगों द्वारा, भारत के प्रथम सेवक के रूप में मुझे पुकारा जाना, अधिक उपयुक्त लगेगा। )
आज उनकी पुण्यतिथि है। उनका विनम्र और कृतज्ञ स्मरण।
© विजय शंकर सिंह
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