ग़ालिब - 76.
उस्ताद ए शाह से हो मुझे पुरखाश का खयाल,
ये ताब, ये मज़ाल, ये ताक़त नही मुझे !!
Ustaad e shah se ho mujhe purkhaash kaa khayaal,
Ye taab, ye mazaal, ye taaqat nahiin mujhe !!
- Ghalib
बादशाह के उस्ताद से झगड़ा करने का मेरा विचार हो, ऐसी हिम्मत, जुर्रत, ताक़त मुझमे कहाँ है यानी नहीं है।
ग़ालिब का यह शेर उनके प्रतिद्वंद्वी और उनके समकालीन और दिल्ली दरबार के शायर इब्राहिम खान ज़ौक़ के बीच एक विवाद के माफीनामा के संबंध में है। ज़ौक़ ग़ालिब के बीच जो प्रतिद्वंद्विता थी उसके अनेक किस्से है । पर यह शेर जिस किस्से पर लिखा गया है वह मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हू।
किस्सा इस प्रकार है।
दिल्ली और पंजाब में सेहरा लिखने का चलन था। ग़ालिब के एक दोस्त ने उनसे एक सेहरा अपनी बेटी की होने वाली शादी के अवसर पर लिखने का अनुरोध किया। ग़ालिब ने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया और खुशी खुशी एक सेहरा लिख दिया। सेहरा बहुत खूबसूरत बन गया था। पर उस सेहरे की आखिरी पंक्ति कुछ को जो उस शादी समारोह में उपस्थित थे यह खटक गयी। आखिरी पंक्ति मक़्ता था ।
हम सुखन फ़हम है ग़ालिब के तरफदार नहीं।
देख के दे कोई इस सेहरे से बढ़ कर सेहरा !!
ग़ालिब के इस आखिरी मक़्ता को कुछ ने चुनौती समझी और यह अर्थ निकाला कि ग़ालिब यह कह रहे हैं कि उनसे अच्छा सेहरा कोई लिख ही नहीं सकता है। यह बात दिल्ली दरबार मे बादशाह बहादुर शाह जफर के मुसाहिबों ने उन तक पहुंचा थी। मुसाहिब ग़ालिब से चिढ़ते थे और ईर्ष्या करते रहते थे । कुछ मूर्खो ने यह फैला दिया कि यह आखिरी मक़्ता उस्ताद ज़ौक़ के ऊपर है और ज़ौक़ को यह चुनौती है कि वे इससे बेहतर सेहरा लिख कर दिखायें। ज़ौक़, जिनका पूरा नाम इब्राहिम खान ज़ौक़ था, एक बड़े शायर थे और वे बादशाह ज़फर के उस्ताद थे। उनका दबदबा दरबार मे था। पर ग़ालिब की विशिष्ट अंदाज़ ए बयानी से वे भी ग़ालिब से मन ही मन चिढ़ते रहते थे। अब बादशाह का हुक्म हुआ कि वह एक उम्दा सेहरा लिखें जो ग़ालिब के सेहरे से बढ़ कर हो। ज़ौक़ ने तब यह सेहरा लिखा।
जिनको दावा है सुखन का, यह सुना दो उनको,
देखो इस तरह से कहते हैं सुखनवर सेहरा !!
जिनको यह गुमान है सुखनवरी यानी अच्छे शायर होने का उन्हें यह सेहरा सुना दो और बता दो कि एक साहित्यिक सेहरा क्या होता है।
बादशाह के आदेश पर कुछ साहित्य के आलोचकों की एक समिति यह तय करने बैठी कि ग़ालिब और ज़ौक़ में किसका लिखा सेहरा साहित्यिक रूप से बेहतर है। फैसला ज़ौक़ के पक्ष में होना था , और हुआ । सबने एक स्वर से कहा कि ज़ौक़ के सेहरे के सामने गलिब कहीं नहीं टिकते हैं। कुछ मुसाहिबों ने जो थोड़ा ज़ौक़ और बादशाह दोनों में मुंहलगे थे ने कहा, कि मिर्ज़ा नौशा ( ग़ालिब का एक लोकप्रिय नाम ) ने ज़ौक़ का अपमान किया है। ग़ालिब माफी मांगे। तब दरबार की नज़ाक़त, ज़ौक़ का दरबार पर असर, देख कर एक माफीनामा लिखा। यह शेर ग़ालिब के उसी माफीनामे का एक मक़्ता है। पूरा माफीनामा भी पढ़ना दिलचस्प होगा। माफीनामा के कुछ अंश पढ़ें।
उस्ताद ए शाह से हो मुझे पुरखाश का ख़याल,
ये ताब, ये मज़ाल, ये ताक़त नहीं मुझे !
सौ पुश्त से है पाशा ए आबा सिपहगिरी,
कोई शायरी ज़रिया ए इज्ज़त नहीं मुझे !!
यह माफीनामा भी ग़ालिब की चिर परिचित तंज की शायरी ही थी। उन्होंने यह भी व्यंग्य से ही कहा कि भला मेरे में इतनी हिम्मत और सामर्थ्य कहाँ कि बादशाह के उस्ताद के साथ उलझू। फिर वे यह भी कह देते हैं कि 100 पुश्तों से वे सिपहसालार रहे हैं शायरी उनके लिये कोई सम्मान का साधन नहीं है। यह उनका शौक़ है, हुनर है। इशारा साफ है। ग़ालिब और ज़ौक़ की यह अदबी रस्साकशी दिल्ली के सामंतों के बीच एक गपशप का बड़ा मुद्दा था। दिल्ली और भारतीय इतिहास पर कई रोचक पुस्तकें लिखने वाले विलियम डैलरिम्पल की किताब ' द लास्ट मुग़ल ' ( The Last Moghal by William Dalrymple ) में इस घटना का रोचक विवरण है। ग़ालिब ने जो सेहरा लिखा था, उसका शेष अंश अब प्रस्तुत कर रहा हूँ।
नाव भर कर ही पिरोये गये होंगे मोती,
वर्ना क्यों लाये हैं, किश्ती में लगा कर सेहरा।
सात दरिया में फ़राहम किये होंगे मोती,
तब बना होगा, इस अंदाज ग़ज़ भर सेहरा।
रुख पर दूल्हा के जो गर्मी से पसीना टपका,
है रंग के सहर गुहरबर सरासर सेहरा ।
यह भी एक बेअदबी थी, कि कबा से बढ़ जाये ,
रह गया आन के दामन का बराबर सेहरा !!
ग़ालिब का यह शेर लौकिक दृष्टिकोण से भी उपयुक्त है। हम जैसे नौकरीपेशा वाले इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैं कि बॉस के मुंहलगे से अनावश्यक उलझना नहीं चाहिये। यह उलझाव नुकसानदेह हो सकता है। ग़ालिब खुद को क्या समझते थे, यह उन्ही के शब्दों में पढ़ लीजिये।
होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने,
शायर तो वो अच्छा है, पै बदनाम बहुत है !!
( ग़ालिब )
© विजय शंकर सिंह
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