उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे का बयान अशोभनीय, अमर्यादित और निंदनीय है।
शिवसेना का कोई वैचारिक राजनैतिक चरित्र कभी रहा ही नहीं है। कहने के लिये ये, शिवाजी के हिन्दू पत पादशाही को मानने की बात करते है पर इनका हिंदुत्व कब मराठी अस्मिता की बात करने लगता है, खुद यह भी नहीं जान पाते हैं। यह पार्टी कानून का उल्लंघन करने वालों की एक उद्दंड जमात रही है और अंदर से अब भी है । उद्धव और राज ने लगभग वही विरासत ग्रहण की है, जिसके लिये बाल ठाकरे जाने जाते रहे है । बाल ठाकरे एक कार्टूनिस्ट और पत्रकार थे तो वे थोड़ा शिष्टता और ह्यूमर का आवरण ओढ़े रहते थे । राज अधिक मुंहफट हैं तो वे अक्सर अपशब्द वमन करते रहते है पर उद्धव उनसे कुछ अलग और शालीन नज़र आते हैं, अतः वे सुर्खियों में, कम रहते हैं। हो सकता है सख्त और बेबाक दिखने का यह भी एक दांव हो, जो उद्धव इधर आजमा रहे है। भला, वे दोनों, शिवसेना और मनसे, अपने मूल दल की मूल प्रवित्ति कैसे छोड़ सकते है ! उद्दंडता, अपशब्द घृणा की राजनीति, और कानून के प्रति अवज्ञा - भाव, इस दल स्थायी भाव रहा है। यह कुछ हद तक आज भी है। देश के कानून के पालन के प्रति शिवसेना कभी भी गम्भीर नहीं रही है। अपनी लोकप्रियता के प्रमाद के बल पर बाला साहब ने कभी भी, किसी अदालत के आदेश को नहीं माना। हम अक्सर ऐसी उद्दंडता को साहस का पर्याय मान बैठते हैं। जब कि उद्दंडता और साहस में बहुत अंतर है।
अपने गठन के समय से ही, शिवसेना कभी दक्षिण भारतीयों के खिलाफ, तो कभी उत्तर भारतीयों के, तो कभी मुसलमानों के खिलाफ अक्सर विष वमन करती रही है। यह उनका यूएसपी है। शिवसैनिक, ( अपने कार्यकर्ताओं को शिवसेना यही नाम देती है ) राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिये यही अदा सदा आजमाते रहते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि उनका नेता शालीन, तार्किक और सरल न हो कर दबंग दिखे। गाली देने का यह तिकड़म ,जब जब जिसको पसंद आता रहा उसमे वह, अपना हित ढूंढता रहता और अपनी अपनी सुविधा के अनुसार सराहता भी रहता है । ऐसे प्रमादी और उद्दंड लोगों को अपना और अपने धर्म तथा समाज का रोल मॉडल बनाने का ऐसा भी परिणाम हो सकता है, यह शायद बहुतों ने सोचा भी न हो। जब गाली देने और ट्रोल करने की आदत पड़ जाती है तो वह न केवल अपने विरोधियों के ऊपर ही निकलती है बल्कि घर मे भी निकलने लगती है। बदजुबानी एक आदत है। यह मुश्किल से ही जाती है। गाली देना, ट्रोल को नौकरी पर केवल गाली और दुष्प्रचार के लिये रखना, जिस राजनीतिक संस्कृति की देन है, उद्धव उसी के परिणाम है।
राजनीतिक मतभेद वैचारिक होते हैं, उन्हें हम भले ही निजी बना दें, पर मूलतः वह वैचारिक या प्रतिद्वंद्विता से भरे या राजनीतिक स्वार्थ आधारित प्रतिबद्धता से जुड़े होते हैं। आलोचना, लोकतंत्र का एक मूल भाव है। बिना आलोचना और विरोध के लोकतंत्र की कल्पना ही नहीं की जा सकती है । निंदा और आलोचना के लिये सभी भाषाओं में मर्यादित शब्द और शब्द शक्तियां विद्यमान है, पर उनका प्रयोग न करके ट्रोल अपनी अलग शब्दावली और शब्द शक्तियां गढ़ते हैं, जिसका चलन 2014 के बाद की एक बड़ी ' उपलब्धि ' है। ट्रोल्स और ट्रोल विद्या पर तो स्वाति चतुर्वेदी जो एक पत्रकार हैं ने एक किताब ' आई एम ए ट्रोल,' ही लिख डाली है। किताब अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में ही उपलब्ध है। कभी वक़्त मिले तो,पढियेगा, इसमें भारतीय राजनीति के ट्रॉल काल का अलग ही चेहरा दिखेगा। हम मर्यादित निंदा और आलोचना को कभी कभी विपक्ष की कमज़ोरी भी समझ लेते हैं । जब कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। ऐसी शब्दावली जो ट्रॉल्स अक्सर सोशल मीडिया पर प्रयोग करते हैं वही अब राजनीतिक व्यक्ति अपने साथी राजनेता के लिये भी कहने लगे हैं तो थोड़ी खड़बडी मची है।
अपशब्दों, धमकी, गाली गलौज आदि असंसदीय शब्दों के प्रयोग को सोशल मीडिया पर हतोत्साहित कीजिये नहीं तो कभी भी कोई किसी न किसी को देशज गाली दे कर साहसी होने का खिताब ज़बरदस्ती अपने सिर पर रख लेगा। उद्धव ठाकरे का बयान निंदनीय है और इसकी निंदा की जानी चाहिये।
© विजय शंकर सिंह
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