Tuesday 29 May 2018

एक कविता - ठूंठ / विजय शंकर सिंह

मेरे घर की खिड़की के पार
एक ठूंठ था,
कल अचानक खोखला हो,
ढह गया,।

खिड़की के पल्ले
जब जड़े जा रहे थे फ्रेम में,
बीसेक साल पहले का किस्सा है,
वह ठूंठ तब परिंदों के डेरे लिए,
मौसमों की रंगत बदलता था ।

वक़्त का सितम कहूँ,
या बेरुखी उसकी,
पत्तियां झड़ी, और नंगी शाखें,
वक़्त के साथ साथ दम तोड़ने लगी,
परिंदों ने ठिकाना बदला,
और मौसम ने रंग,
खोखलापन पेड़ के अंदर
धीरे धीरे बसने लगा ।

ऐसे ही एक दिन,
रात जब बादलों से घिरी थी,
काले , भूरे बादल,
मायावी असुर से ,
ढँकते तोपते धरती को,
बढ़े आ रहे थे,
पीछे पीछे, तूफान लिये।

तेज हवा ने उखाड़ दिये पाँव,
उस खूबसूरत अतीत समेटे ,
दरख़्त के ।

एक चीख सुनी थी मैंने,
खिड़की खोली तो,
ढहा हुआ पेड़,
पसरा था ज़मीन पर,
इतिहास पसरता है ,
कभी कभी, जैसे,
वक़्त के साथ साथ ,
एक हारी हुयी और तयशुदा जंग
लड़ते लड़ते !!

© विजय शंकर सिंह

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