गलिब - 77.
एक अहले दर्द ने सुनसान जो देखा क़फ़स,
यों कहा , " आती नहीं अब सदा ए अंदलीब, "
बाल ओ पर दो चार दिखला कर, कहा सैय्याद ने,
ये निसानी रह गयी, अब बजाये अंदलीब !!
Ek ahle dard ne sunasaan jo dekhaa qafas,
Yon kahaa, " Aatee nahin ab sadaa e andaliib, "
Baal o par do chaar dikhlaa kar, kahaa saiyyaad ne,
Ye nisaanii rah gayii, ab bajaaye andliib !!
- Ghalib
पीड़ा से व्याकुल एक व्यक्ति ने जब एक सुनसान क़फ़स को देखा तो पूछ बैठा कि क्या अब यहां बुलबुल नहीं आती ?
यह बात सुनकर, शिकारी , सैय्याद ने बुलबुल के पंखों के कुछ बाल और टुकड़े दिखा कर कहा कि अब तो बुलबुल की यही निशानी रह गयी है।
बुलबुल का आगमन बसंत का संकेत है। बसन्त जब पुष्पित होता है तो बुलबुल की स्वरलहरी गूंजने लगती है। बसंत को मौसम ए बहार कहा गया है। बसन्त आया कि नहीं आया यह ज्ञात करने के लिये जब एक सुनसान पिंजड़े को देख कर जीवन के दर्द से पीड़ित एक व्यक्ति ने जब पूछा कि अब बुलबुल की आवाज़ नहीं देती है। बुलबुल कहाँ है। तो सैय्याद जो पक्षियों को पकड़ने वाला शिकारी होता है ने कहा कि, ये दो चार उनके पंखों के अवशेष पड़े हैं। बुलबुल अब कहाँ।
इसी से मिलता जुलता एक शेेर नसीर का है,
तूने क्यों सैय्याद, फेंका लाश ए बुलबुल को, आह
दाब देना था कहीं गुलशन में बाल ओ पर समेत !!
( नसीर )
ऐ शिकारी, तूने बुलबुल को मर जाने के बाद उसकी लाश क्यों फेंक दी। तुझे उसे बाल ओ पर सहित ही उद्यान में कहीं दफन कर देना चाहिये था।
दोनों ही शेरों में थोड़ा फ़र्क़ है। बुलबुल यहां आनन्द का प्रतीक है। पर वह आनन्द क्षणिक है। जीवन के लंबे सफर में आनंद क्षणिक हो न हो पर उसका समय इतनी तीव्र गति से बीतता है कि वह क्षणिक ही प्रतीत होता है। चार दिन की चांदनी के समान। शीत के बाद थोड़ा समय वसंत का आता है। बसंत इतनी जल्दी बीत जाता है कि पता ही नहीं चलता है। फिर जैसे ही स
सुखकर वसंत बीतने लगता है, ग्रीष्म के थपेड़े दस्तक देने लगते हैं। जब गुज़रे बसंत में बुलबुल की आवाज़ नहीं मिलती , आनंद का भाव नहीं मिलता, तो उत्कंठा होती है , याद आता है कि वह बुलबुल की ध्वनि, वह आंनद कहां चला गया। बुलबुल को ले कर घूमने वाला शिकारी भी उदास है और वह बुलबुल के बाल और पंख, यानी आंनद के उन शेष चिह्न को दिखा कर कहता है कि, अब आनन्द कहां। यही यादें शेष हैं। ग़ालिब के शेर में सैय्याद, यहां समय है और बाल ओ पर, आंनद की शेष यादें।
© विजय शंकर सिंह
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