पाञ्चजन्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र है। यह पत्र मुख्यतः संघ की विचारधारा के बारे में अपने संपादकीय में अक्सर लेख लिखता रहता है। एक संगठन के मुखपत्र के रूप में पाञ्चजन्य को भी यह अधिकार है कि वह अपनी विचारधारा का प्रसार करे। 2007 में शहीद ए आज़म भगत सिंह की शताब्दी जयंती मनाई गई थी। भगत सिंह 1907 में पैदा हुये थे। यह वही साल था जब इंडियन नेशनल कांग्रेस सूरत अधिवेशन में विचारधारा के नाम पर नरम दल और गरम दल में बंटी थी। नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले कर रहे थे और गरम दल के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे। तिलक को अंग्रेज़ फादर ऑफ द इंडियन अनरेस्ट ( Father of the Indian Unrest ) भारतीय असंतोष के पिता कहते ही थे। गोखले एक बड़े वकील थे और उनका रास्ता वैधानिक आवरण ओढ़े हुआ था। तब तक पूर्ण स्वराज्य की बात किसी के दिमाग मे नहीं थी । उसी गहमागहमी भरे साल में भगत सिंह का जन्म हुआ था। पांचजन्य ने 2007 में शताब्दि जयंती पर इतिहास में पहली बार भगत सिंह पर एक विशेष अंक निकाला था। इसके पूर्व संघ के दस्तावेजों में भगत सिंह के बारे में संघ का नज़रिया दूसरा था।
उल्लेखनीय बात यह है कि आज़ादी ( 1947 ) के पूर्व आरएसएस के किसी भी साहित्य में हमें इन शहीदों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है । बल्कि, संघ साहित्य में, ऐसी कई कहानियां, उल्लेख और उद्धरण हैं जो भगत सिंह और साथियों जैसे क्रांतिकारियों के प्रति विपरीत और बेपरवाह रवैया प्रदर्शित करती है। बाला साहब देवरस जिनका असल नाम, मधुकर दत्तात्रेय देवरस था, संघ के तीसरे प्रमुख थे। इन्होंने ने एक ऐसी घटना का जिक्र भी किया है, जहां डॉ हेडगेवार ने उन्हें और उनके अन्य साथियों को भगत सिंह और उनके कामरेड साथियों के क्रांतिकारी रास्ते पर चलने से बचाया था । यह बात खुद ही बाला साहब देवरस ने अपने संस्मरणों में लिखा है। बाला साहब, जब भगत सिंह और साथियों को फांसी दे दी गयी तो बहुत ही उद्वेलित अवस्था मे डॉ हेडगेवार जो आरएसएस के प्रमुख थे से अपने साथियो सहित मिलने गये। देवरस और उनके युवा साथी देश की आज़ादी के लिये कुछ क्रांतिकारी कार्य करना चाहते थे, पर डॉ हेडगेवार ने उन्हें समझा बुझा कर मना कर दिया। देवरस के ही शब्दों में पढ़ें ।
“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी. हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.”
—मधुकर दत्तात्रेय देवरस ( संघ के तीसरे प्रमुख)
( स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)
माधव सदाशिव गोलवलकर आरएसएस के सबसे लोकप्रिय प्रमुख रहे हैं। डॉ हेगड़ेवार के बाद गुरु गोलवलकर का ही नाम आता है। उन्होंने बंच ऑफ थॉट जिसका हिंदी अनुवाद विचार नवनीत है में भगत सिंह के बारे में क्या कहा है, यह पढ़ें।
‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है. वे औसत व्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं. पर फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता. हम उनकी शहादत को महानता के उस चरम बिंदु के रूप में नहीं देख सकते, जिससे लोगों को प्रेरित होना चाहिए. क्योंकिअपने आदर्शों को पाने में विफल रहे और इस विफलता में उनका बड़ा दोष है.’
(देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 283)
गोलवलकर आरएसएस कैडर को यह बताते हैं कि केवल उन व्यक्तियों का सम्मान होना चाहिए जो अपने जीवन में सफल रहे हैं। लेकिन सफलता ही महत्ता की मापदंड हो यह संभव ही नहीं। भगत सिंह का लक्ष्य भारत की आज़ादी से कहीं आगे बढ़ कर था। वे साम्रज्यवाद के खात्मे का संकल्प ले कर बढ़ रहे थे। वे समतावादी समाज के पक्षधर थे। वे मार्क्सवादी थे। भगत सिंह, ब्रिटिश हुक़ूमत द्वारा गिरफ्तार किये गए, मुक़दमे का नाटक भी उनके साथ हुआ । उनके मुक़दमे के दौरान ही सीआरपीसी में एक अजीब संशोधन भी असेम्बली में पेश हुआ। जिन्ना ने उस संशोधन को निरस्त करने के लिये शानदार भाषण दिया अकाट्य तर्क दिए । अगर सफलता ही मापदण्ड है रखी जायेगी तो यह देश के पुरुषार्थ का देश के बहादुरों का अपमान होगा। भगत सिंह पर गोलवरकर जी की यह दलील पढिये, जिसे पढ़ कर आप उनकी सोच भलीभांति समझ सकते हैं।
‘यह तो स्पष्ट है कि जो लोग अपने जीवन में विफल रहे हैं, उनमें कोई गंभीर खोट होगा. तो कोई ऐसा जो खुद हारा हुआ है, दूसरों को रास्ता दिखाते हुए सफलता के रास्ते पर कैसे ले जा सकता है?’
(देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282) गोलवलकर की इस किताब में ‘वरशिपर्स ऑफ विक्ट्री’ (विजय के पूजक) शीर्षक से एक अध्याय है जिसमें वे खुलकर स्वीकारते हैं कि आरएसएस केवल उन्हें पूजता है जो विजयी रहे हैं.
विजयी ही महान है यह एक नया सिद्धांत है गोलवलकर का। आगे वे कहते हैं,
‘अब हम देखते हैं कि इस धरती पर अब तक किस तरह के महान व्यक्तियों को पूजा गया है. क्या हमने किसी ऐसे को अपना आदर्श चुना है जो खुद ही अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में असफल रहा हो? नहीं, कभी नहीं. हमारी परंपरा हमें सिर्फ उनकी प्रशंसा और पूजा करना सिखाती है जो अपने जीवन उद्देश्य में पूर्णत: सफल रहे हैं. परिस्थितियों के गुलाम कभी हमारे आदर्श नहीं रहे. वह नायक जो परिस्थितियों को अपने वश में कर ले, अपनी क्षमताओं और चरित्र के सहारे उन्हें बदल दे, अपने जीवन की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफल हो, ही हमारा आदर्श रहा है. ऐसे महान लोग, जिन्होंने अपनी आत्मदीप्ति से आसपास के निराशा के अंधेरे को दूर किया, कुंठित हो चुके हृदयों को आत्मविश्वास से भरा, बेजान हो चुके जीवन में जीवट का संचार किया, सफलता और प्रेरणा के मानक को ऊपर उठाए रखा, हमारी संस्कृति हमें उन्हीं को पूजने की आज्ञा देती है.’
(देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282)
भारत की आजादी की लड़ाई के शहीदों के लिए इससे ज्यादा घटिया और कलंकित करने वाली बात सुनना मुश्किल है.। भारत का क्रांतिकारी आंदोलन किसी भी प्रकार से मुख्य धारा के आज़ादी के आंदोलन जो कांग्रेस और गांधी के नेतृत्व में चल रहा था, से किसी भी प्रकार से कमतर नहीं था। जनता में भगत सिंह किसी समय गांधी जी से भी अधिक लोकप्रिय थे। लाहौर में ही मोतीलाल नेहरू ने भगत सिंह के बारे में जो कहा था उसे पढ़ने से भगत सिंह की हैसियत और लोकप्रियता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मोतीलाल नेहरू के अनुसार,
" the choice for the people of India lay between Gandhi (the adherent of non-violence) and “Balraj”, a pseudonym used by Bhagat Singh for the assassination. At this stage the young revolutionary leader was far from the hero he was to become shortly after."
" भारत के लोगों के समक्ष दो ही विकल्प है, एक गांधी जो अहिंसा के पक्षधर हैं और दूसरे बलराज ( भगत सिंह का छद्मनाम )। इस हत्या कांड के बाद वह देश के एक महान नायक बनने से थोड़ी ही दूर है ।"
गांधी अगर शांतिपूर्ण असहयोग और सत्याग्रह के मार्ग से आज़ादी के लिये प्रयासरत थे तो, भगत सिंह क्रांतिकारी तरीक़ों से , जिनके लिये हिंसा का मार्ग भी त्याज्य नहीं था, युद्धरत थे। गांधी सफल माने गए। आज़ादी का श्रेय उन्हें मिला। 1917 से 1947 तक तीस साला भारत के इतिहास में भले ही गांधी की भूमिका एक सर्वमान्य माहनायक की है पर असफल होने के बावजूद भी भगत सिंह या उनके साथियों का किया धरा यह देश नहीं भुला सकता। जब हर कोई अपनी अपनी तरह से आज़ादी के लिये जूझ रहा था तो संघ के लोग या तो अंग्रेजों के साथ थे या जिन्ना के। गांधी के तो प्रबल विरोधी थे ही ये लोग और भगत सिंह के बारे में इनके विचार क्या हैं यह आप संघ साहित्य पढ़ कर जान सकते हैं। किसी भी भारतीय, जो स्वतंत्रता संग्राम के इन शहीदों को प्रेम करता है, उनका सम्मान करता है उसके लिए डॉ. हेडगेवार और आरएसएस के, अंग्रेजों से लड़ने वाले इन क्रांतिकारियों के बारे में विचार सुनना बहुत चौंकाने वाला होगा. आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार,
" देशभक्ति केवल जेल जाना नहीं है. ऐसी सतही देशभक्ति से प्रभावित होना सही नहीं है. वे अनुरोध किया करते थे कि जब मौका मिलते ही लोग देश के लिए मरने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए जीवन जीने की इच्छा का होना बहुत जरूरी है.’
(देखें- संघ-वृक्ष के बीज- डॉ. केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पेज- 21)
आरएसएस नेतृत्व के अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले शहीदों के प्रति ऐसे रवैये के लिए ‘शर्मनाक’ शब्द भी अपर्याप्त होगा। 1857 में भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली प्रतीक बनकर उभरे थे । वह एक क्रांतिकारी बिल्कुल नहीं थे। वे प्रतीक रूप में ही सही, भारत के सम्राट थे। 1857 के नायकों ने प्रतीक के रूप में बहादुरशाह ज़फर को ही चुना था। उन्हें इसका परिणाम भी झेलना पड़ा। उनके दो बेटों की हत्या अंग्रेज़ों ने की। दोनों बेटों के सिर काट कर जब अंग्रेज़ों ने चांदी की एक थाल में मखमल के कपड़े से ढंक कर, उपहार बताते हुए जब इसे बहादुर शाह जफर के सामने पेश किया तो बहादुर शाह जफर के मुंह से उफ्फ तक नहीं निकला । उसका मजाक उड़ाते हुए गोलवलकर कहते हैं:
"1857 में भारत के तथाकथित आखिरी बादशाह ने युद्ध का बिगुल बजाते हुए कहा था, गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की. पर आखिरकार क्या हुआ? ये तो हम जानते हैं.’
(देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 121)
1857 विफल हो गया। नाना धूंधूं पन्त, बेगम हजरत महल, अवध के बहादुर ताकुकदार, राजा राव बख्श सिंह, जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, बांदा के नवाब, आदि आदि, ये सभी विफल रहे। पर इनकी विफलता से इतिहास में इनके स्थान और इनकी महानता पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता है।
गोलवलकर के अगले कथन से यह और साफ हो जाता है कि वे देश पर सब कुछ कुर्बान करने वाले के बारे में क्या सोचते थे. अपनी मातृभूमि पर जान देने की इच्छा रखने वाले क्रांतिकारियों से यह सवाल पूछना मानो जैसे अंग्रेजों के ही प्रतिनिधि हों, उनके दुस्साहस को ही दिखाता है। अब इसे पढिये।
"पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सबकुछ राष्ट्र के नाम कुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है. अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 61-62)
अब जब संघ और इसका राजनीतिक चेहरा भाजपा सरकार में आये तो लगा कि जब कुछ करना था तो उन्होंने कुछ किया ही नहीं। यह पाप बोध था। अब वे इतिहास के पन्नों के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं । आरएसएस की भूमिका आज़ादी की लड़ाई में बहुत कम रही है। किसी स्वयंसेवक ने हो सकता है व्यक्तिगत रूप से इस लड़ाई में भाग लिया हो पर एक संगठन के रूप में इनके योगदान का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। कहने को तो वे कहते हैं कि वे गोपनीय रूप से आज़ादी के लिये लगे थे, पर कहां लगे थे यह वे नहीं बताते हैं। सच तो यह है कि आजादी के पहले के संगठन जैसे हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग भी थे जो इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से कोई इत्तेफाक नहीं रखते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी चुप्पी साधे रहे । पर दिलचस्प पहलू यह है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है जो दावा करता है कि आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव रहा है। एनडीए के शासन काल में जब संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी देश चला रहे थे तब राकेश सिन्हा द्वारा संपादित और प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार में एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था.।
(देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार :
राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)
भगत सिंह से डॉ हेडगेवार से मिलने और उनके संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी / एसोशिएशन की गोपनीय बैठकों में भाग लेने की बात का सिवाय इस पुस्तक के कहीं और उल्लेख नहीं मिलता है। भगत सिंह और आरएसएस दोनों ही दो वैचारिक ध्रुवों पर हैं। भगत सिंह पर व्यापक शोध करने वाले जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमनलाल, बराइच साहब, कुलदीप नैयर, भगत सिंह के साथी और प्रसिद्ध लेखक यशपाल, कानपुर के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा, पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी जो इस क्रांतिकारी गुट के संरक्षक के समान थे, दुर्गा भाभी आदि से जुड़े संस्मरणों में डॉ हेडगेवार से हुई ऐसी मुलाक़ात का कोई जिक्र नहीं है।
© विजय शंकर सिंह
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