Thursday, 3 May 2018

Ghalib - Us shamma kii tarah se / उस शम्मा की तरह से - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 74.
उस शम्मअ की तरह से, जिसको कोई बुझा दे,
मैं भी जले हुओं में हूँ, दाग ए नातमामी !!

Us shamm'a kii tarah se, jisko koi bujhaa de,
Main bhii jale huon mein, daagh ai naatamaamee !!
- Ghalib

जलते हुये दीपक को जैसे कोई बुझा दे, मैं भी उस जले बुझे दीपक की तरह अशेष चिह्न हूँ।
जलते हुये दीपक को बुझा कर देखिये। ज्योति तो नहीं रहती, प्रकाश भी नहीं रहता, धूम्र भी कुछ समय के बाद उड़ जाता है। अब तक सबको प्रकाश दिखाने वाला दीपक व्यर्थ हो जाता है। ग़ालिब यहां अपनी तुलना उसी दीपक से कर रहे हैं जो कल तक सबको रोशनी दिखाता था, और आज वह व्यर्थ है, अपना अर्थ खो चुका है। वह उसी व्यर्थता के अशेष चिह्न हैं। दाग ए नातमामी है।

एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी इस शेर का है। दीपक , देह  और प्रकाश आत्मा या जीवन का प्रतीक है। जब तक आत्मा है तब तक दीपक का महत्व है। वह संसार के लिये उपयोगी है। वह अंधेरे को छांटता है । पर जैसे ही वह प्रकाश तिरोहित हो जाता है, दीपक बुझ जाता है, फिर वह देह व्यर्थ हो जाती है। ज्योति के महा ज्योति या अखंड ज्योति में समाहित होते ही दीपक अपनी प्रासांगिकता खो बैठता है। वह अर्थहीन हो जाता है। ग़ालिब के इस शेर में उनका सूफियाना रूप बहुत ख़ूबसूरती से उभरा है।

© विजय शंकर सिंह

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