उनका खेल बिल्कुल साफ है। वे चाहते हैं कि भारतीय मुस्लिम, जिन्ना के तस्वीर की आड़ में खड़े हों ताकि वे यह कह सकें कि सारे मुसलमान अभी भी जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के साथ हैं। वे मौलाना आज़ाद की परंपरा के नहीं है। वे सेक्यूलर मूल्यों के साथ नहीं है। मुसलमानों का सेक्यूलर भाव एक भ्रम है। ऐसे बहुत से तर्क मेरे संघी मित्र अक्सर निजी बातचीत में देते रहते हैं। वे इसके लिये व्हाट्सएप्प शोध फैक्टरी से गढ़े हुये गल्प भी सुनाते रहते हैं। वे उदार सोच वालों से दूर रहते हैं। चाहे यह उदार सोच हिन्दू में हो या मुस्लिमों में। वे खुद को कट्टर कहते हुये गर्व भी वे महसूस करते हैं । वे यही चाहते हैं कि मुसलमान नमाज़ी टोपी और ऊंचा पायजामे और बिना मूंछ की दाढ़ी में ही नज़र आये। आधुनिक और प्रगतिशील सोच के मुस्लिम से उनका अधूरा मिशन बाधित होता है। जिन्ना भी जब तक धर्म निरपेक्ष और प्रगतिशील सोच के थे तब तक वे न तो अंग्रेज़ों के प्रिय बने और न ही सावरकर के। सावरकर को हिन्दू राष्ट्र चाहिये था यह बिना मुस्लिम राष्ट्र की बात किये सम्भव ही नहीं था। 1940 के 22 मार्च को लाहौर में हुये मुस्लिम लीग के अधिवेशन में जब जिन्ना ने दोनों धर्मो को दो राष्ट्रीयता बता कर प्रस्तुत कर दिया तो सावरकर कैंप यह समझ बैठा कि धर्म के आधार पर जिन्ना एक मुस्लिम देश ले लें और शेष भारत हिन्दू राष्ट्र हो जाएगा।
पर जनता में तो गांधी का जादू था। कांग्रेस धर्म निरपेक्ष देश पर अड़ी थी। पर जिन्ना जिनके साथ उस समय मुस्लिम बहुत अधिक संख्या में थे , अंग्रेज़ो की साज़िश से अपना लक्ष्य, पाकिस्तान पाने में सफल हो गए। पर हिन्दू महासभा जिसका प्रभाव बहुत कम था, नकार दी गयी। हिन्दू महासभा से जो लोग धर्म के आधार पर जुड़े थे वे भी राजनीतिक रूप से कांग्रेस के साथ ही थे। जिन्ना का जिंदा रहना संघ के मनोवृति के लिये जरूरी है। यह संघ भली प्रकार से जानता है। एएमयू छात्र संघ को इस मामले में कोई विवाद नहीं बनाना चाहिये। उन्हें आंदोलन करने का अधिकार है। पर यह आंदोलन हो किस लिये रहा है यह तो स्पष्ट हो ? जिन्ना की तस्वीर को लेकर अगर यह आन्दोलन हो रहा है तो इसका सीधा लाभ संघ की विचारधारा को मिलेगा। कट्टर इस्लाम की प्रतिक्रिया में कट्टर हिंदुत्व और पनपता है। जिस दिन लोग धार्मिक कट्टरता से दूर होने लग जाएंगे उसी दिन से संघ की विचारधारा अप्रासंगिक होने लगेगी।
देश के बंटवारे के लिये गांधी को पानी पी पी कर कोसने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि देश का बंटवारा गांधी की ज़िद से नहीं, बल्कि जिन्ना की ज़िद और हिन्दू महासभा के कांग्रेस विरोधी दृष्टिकोण से हुआ है।
सावरकर यह कहते थे किअंत मे मुसलमानों को हिन्दू महासभा से बात करनी पड़ेगी न कि कन्ग्रेस के साथ।
सावरकर यह कहते थे किअंत मे मुसलमानों को हिन्दू महासभा से बात करनी पड़ेगी न कि कन्ग्रेस के साथ।
एमए जिन्ना ने 22 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में धर्म ही राष्ट्र है पर जो कहा था उसे भी पढ़ लें। जिन्ना उर्दू कम जानते थे। उनकी अंग्रेज़ी गज़ब की थी। वह भाषण अंग्रेज़ी में था। उसका अंश पढें।
" It is extremely difficult to appreciate why our Hindu friends fail to understand the real nature of Islam and Hinduism. They are not religions in the strict sense of the word, but are, in fact, different and distinct social orders, and it is a dream that the Hindus and Muslims can ever evolve a common nationality, and this misconception of one Indian nation has troubles and will lead India to destruction if we fail to revise our notions in time. The Hindus and Muslims belong to two different religious philosophies, social customs, litterateurs. They neither intermarry nor interdine together and, indeed, they belong to two different civilizations which are based mainly on conflicting ideas and conceptions. Their aspect on life and of life are different. It is quite clear that Hindus and Mussalmans derive their inspiration from different sources of history. They have different epics, different heroes, and different episodes. Very often the hero of one is a foe of the other and, likewise, their victories and defeats overlap. To yoke together two such nations under a single state, one as a numerical minority and the other as a majority, must lead to growing discontent and final destruction of any fabric that may be so built for the government of such a state. "
1947 में जो मुस्लिम मुहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के विचारों से सहमत थे वे पाकिस्तान चले गए। जो असहमत थे, उन्होंने सेकुलर भारत मे रहना स्वीकार किया। वह बेहद दर्द और दुःखद काल था। वह, वह सुबह बिल्कुल नहीं थी जिसकी अभिलाषा ले कर एक लंबी लड़ाई हमारे पुरखों ने धर्म की सारी बंदिशें तोड़ कर साथ साथ लड़ी थी। अब जिन्नाह साहब की तस्वीर का एएमयू में कोई मतलब नहीं है। जिन्नाह मर चुके हैं। उनकी ज़िद सख्त मिजाजी से उपजा उनका धर्म ही राष्ट्र है का सिद्धांत मर चुका है। अतः अब उस जिन्न को बाहर निकालने का मतलब है अभी भी द्विराष्ट्रवाद की पिनक में जी रहे जिन्ना के सहोदर को पुनः प्रासंगिक कर देना। मुस्लिम या इस्लाम एक राष्ट्र है, या हिन्दू एक राष्ट्र है, का नारा देने वाले दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज जिन्ना पर विवाद के पीछे दो उद्देश्य है,
पहला, सरकार के चार साल के कामकाज पर उठ रही बहस को साम्प्रदायिकता की बहस में तब्दील करना, और
दूसरा, जो बात आज के हिन्दुत्व के सिद्धान्तकार 1937 से कह रहे हैं कि धर्म से राष्ट्र अलग नहीं है उसे और सैद्धांतिक आवरण फैलाना ।
दूसरा, जो बात आज के हिन्दुत्व के सिद्धान्तकार 1937 से कह रहे हैं कि धर्म से राष्ट्र अलग नहीं है उसे और सैद्धांतिक आवरण फैलाना ।
सावरकर अखंड भारत के पक्ष में ज़रूर थे। जैसे संघ आज भी अखंड भारत के पक्ष की बात करता है। पर क्या सामाजिक और पंथ समरसता के बिना कोई देश अखंड रह सकता है ? 1940 से जब साप्रदायिकता का घात प्रतिघात शुरू हुआ तो 1947 तक जब तक, देश बंट नहीं गया तब तक सारे समीकरण बिगड़ते चले गए। लोगो मे धर्म के आधार पर अविश्वास बढ़ता गया। चीजें बिगड़ती रहीं और जिन्ना मुस्लिम राष्ट्र के कायदे आज़म के तौर पर उभर आये, सावरकर हिन्दू राष्ट्र का चेहरा बन गए और गांधी, नेहरू , पटेल आज़ाद सेक्युलर भारत के अड़े रहे । जिन्ना तो सफल हो गए, पर हिन्दू महासभा और संघ गांधी के सामने कहीं थे ही नहीं। यही कुंठा और विफलता गांधी जी के हत्या का कारण बनी। साप्रदायिकता के घात प्रतिघात का यह खेल समझिये और इस ट्रैप से दूर रहिये।
© विजय शंकर सिंह
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