Monday, 21 May 2018

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और सांप्रदायिक राजनीति - एक चर्चा - 3 / विजय शंकर सिंह

इस विषय पर यह तीसरा लेख है। पहले के दो लेख आप पढ़ चुके होंगे। यह तीनों लेख सुभाष बाबू के साम्प्रदायिकता से जुड़े विचारों पर आधारित है। पहले दोनों लेखों में उनके कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर रहने और कांग्रेस छोड़ कर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना करने के दौरान, हिन्दू महासभा के प्रति उनके क्या विचार हैं, इस की चर्चा की गयी है। इस लेख में आज़ाद हिंद फौज के समय का ज़िक्र है कि उनकी इस दौरान साम्प्रदायिकता के प्रति क्या दृष्टिकोण रहा है।

राजनीतिक रूप से सुभाष के जीवन मे 1938 से 1945 तक का घटनाक्रम बहुत ही तेजी और अनेक आकस्मिकता लिये घूमता रहा है। 1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनते हैं। 1939 में वे फिर अध्यक्ष का चुनाव डॉ पट्टाभि सीतारामैय्या को हरा कर जीतते हैं, पर गांधी जी की एक टिप्पणी के कारण वे त्यागपत्र दे देते हैं। 1939 में ही वे फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना करते हैं। 1940 में वे कोलकाता कॉरपोरेशन की राजनीति और चुनाव में सक्रिय होते हैं, जिसमे, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी से उनका विरोध होता है, वे गिरफ्तार होते हैं, फिर नजरबंद और फिर 1941 में देश से फरार हो जाते हैं। फिर जर्मनी में हिटलर से मिलते हैं, सिंगापुर आते हैं , आज़ाद हिंद फौज की कमान सम्भालते हैं। युद्ध लड़ते लड़ते इम्फाल तक आ जाते हैं। लेकिन जैसे ही 6 अगस्त 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम अमेरिकी सेना गिराती है, युद्ध समाप्त हो जाता है। वे ताइवान से जहाज में चढ़ते हैं और फिर जैसे कोई देवदूत अदृश्य हो जाता है वैसे ही वे भी न जाने कहाँ चले जाते हैं।

जब सुभाष नजरबन्द थे, तो सुभाष 16 जनवरी 1941 को पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले और शरद जो उनके बड़े भाई थे के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया। काबुल में सुभाष दो महीनों तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें नाकामयाब रहने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे। यह उनकी बहुत ही एडवेंचर भरी यात्रा रही। जर्मनी से पनडुब्बी ले कर वे सिंगापुर पहुंचते हैं और वही ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध मे धुरी देशों की तरफ से शामिल हो जाते हैं।

28 से 30 मार्च, 1942 के बीच, टोक्यो (जापान) में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने 'इण्डियन नेशनल आर्मी' (आज़ाद हिन्द फ़ौज) के गठन पर विचार के लिए एक सम्मेलन बुलाया था, जिसमे कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल उपस्थित थे और तभी  'इण्डियन नेशनल आर्मी' का गठन की घोषणा की गयी। मूलतः  'आज़ाद हिन्द फ़ौज' की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए 'इंडियन इंडिपेंडेंस लीग' की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकाक में हुआ।

आज़ाद हिन्द फ़ौज की प्रथम डिवीजन का गठन 1 दिसम्बर, 1942 ई. को मोहन सिंह के अधीन हुआ, जिसमें लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया। लेकिन जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो गये और मोहन सिंह तथा निरंजन सिंह गिल को जापान सरकार ने गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद आज़ाद हिन्द फ़ौज का दूसरा चरण जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये तो प्रारंभ हुआ। 1941 में ही सुभाष नेे बर्लिन में 'इंडियन लीग' की स्थापना कर दी थी, किन्तु जब जर्मनी इस लीग का इस्तेमाल रूस के विरुद्ध करना चाहता था, लेकिन सुभाष ने मना कर दिया । सुभाष का लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद का खात्मा था न कि हिटलर की सनक भरी यूरोप विजय में सहभागी बनना। उन्होंने हिटलर से अपना लक्ष्य स्पष्तः बता दिया और दक्षिण पूर्व की तरफ से ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की पेशकश की । हिटलर की सहायता से वे  जुलाई, 1943 ई. में पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले शहर सिंगापुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने 4 जुलाई, 1943 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' एवं 'इंडियन लीग' की कमान को संभाला। तभी उन्होंने 21 अक्टूबर, 1943 ई. को सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की। सुभाषचन्द्र बोस इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों ही थे। वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन, ( जो डॉ लक्ष्मी सहगल बाद में हुयीं और कानपुर में ही रहने लगीं। इनसे मेरी अक्सर बात होती थी। अब वे दिवंगत हो गईं हैं । ) को सौंपा गया। यह विवरण The Forgotten Army नामक पुस्तक जो पीटर वार्ड पे द्वारा लिखी गयी है में बड़े विस्तार से बताया गया है। इसी विषय पर कबीर खान ने एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई है।

संघी इतिहास लेखक एक भ्रम फैलाते रहते हैं कि नेहरू, पटेल, या सुभाष नेहरू या गांधी सुभाष में मतभेद थे। यहां तक तो वे सही कहते हैं, पर वे यह नहीं बताते हैं कि, सावरकर, हिन्दू महासभा, जिन्ना और मुस्लिम लीग के सवाल पर इन चार शीर्ष नेताओं में कोई भी मतभेद नहीं था। उस समय जो खेमेबंदी थी, उसमे जिन्ना और सावरकर एक साथ एक तरफ अंग्रेज़ो के साथ , भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध में थे। पर ये चारों शीर्ष नेता जिनमे गांधी नेहरू पटेल तो जेल में ही थे, सुभाष तो देश के बाहर थे जिन्ना, सावरकर और अंग्रेजों, तीनों के खिलाफ थे।  गांधी और सुभाष के बीच जो मतभेद था, उसका मुख्य कारण द्वीतीय विश्वयुद्ध में कांग्रेस की ब्रिटेन के प्रति नीति थी। गांधी थोड़ा और समय अंग्रेज़ो को देना चाहते थे जब कि सुबाष ब्रिटेन के युद्ध - संकट में फंसने  का लाभ उठाना चाहते थे। जब 9 अगस्त 1942 को गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत कर दी तो, सुभाष ने इसे हांथों हांथ लिया। 31 अगस्त 1942 को आज़ाद हिंद रेडियो पर बोलते हुये उन्होंने जनता का आह्वान किया था कि वह भारत छोड़ो आंदोलन में खुल कर भाग ले। उन्होंने कहा कि यह आंदोलन इतना अधिक व्यापक है कि ब्रिटिश मीडिया बीबीसी भी इसे अपराइजिंग uprising कह कर संबोधित करने पर बाध्य हो गया । इस व्यापक आंदोलन में हिंसा अहिंसा की सारी वर्जनाएं टूट गयीं। यह अंग्रेज़ी साम्राज्य के विरुद्ध सबसे मुखर आज़ादी का  आन्दोलन था।

31 अगस्त 1942 को नेताजी का आज़ाद हिंद रेडियो पर दिया गया भाषण एक और बात के लिये भी याद किया जाएगा। यह बात थी जिन्ना और सावरकर के बारे में उनका कथन। वे जिन्ना और सावरकर को एक ही पाले में रख कर देखते थे। जिन्ना तो मुस्लिमों के लिये पाकिस्तान चाहते थे, और वे अपने मिशन में बढ़ भी रहे थे, और सावरकर हिन्दू राष्ट्र चाहते थे पर उनकी पैठ हिन्दू समाज मे बहुत कम थी। अपने भाषण में सुभाष बाबू कहते हैं,

“… I would request Mr. Jinnah, Mr.Savarkar, and all those leaders who still think of a compromise with the British, to realize once for all that in the world of tomorrow, there will be no British Empire. All those individuals, groups or parties who now participate in the fight for freedom will have an honoured place in the India of tomorrow."

" मैं श्री जिन्ना और श्री सावरकर सहित उन सभी नेताओं से जो अब भी ब्रिटिश साम्राज्य से समझौते की बात करने के पक्ष में हैं, से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि,वह यह बात भलीभांति समझ लें कि बिटिश साम्राज्य कल शेष नहीं रहेगा। जो भी व्यक्ति, समूह और दल आज़ादी के इस संघर्ष में भाग ले रहा है वह भारत के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करेगा। "

आगे वे कहते हैं,
" The supporters of British imperialism will naturally become non-entities in a free India…”
" ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सहयोगी स्वतंत्र भारत में, अप्रासंगिक हो जाएंगे उन्हें भुला दिया जाएगा। "
( Reference: Selected Speeches of Subhas Chandra Bose, Pg 116–117, Publications Division, IB Ministry)Netaji Collected Works, Volume 11, Pg 144 )

इस भाषण पर लोगों को हैरानी हो सकती है कि सुभाष ने सावरकर को जिन्ना के साथ क्यों रखा। लेकिन अगर 1940 से 45 तक का इतिहास आप ध्यान से पढ़ेंगे तो इस तथ्य को समझ जाएंगे कि दोनों को एक साथ क्यों रखा गया। दोनों ही कभी अंग्रेज़ो के घोर विरोधी थे। लेकिन दोनों में ही अपने अपने धर्म को ही राष्ट्र मानने का वायरस 1937 के बाद आया। 1940 के बाद  दोनों ही अंग्रेज़ो के साथ थे। दोनों ही कांग्रेस और गांधी के विरोधी थे। दोनों ही धर्म के आधार पर अलग अलग राष्ट्र चाहते थे। दोनों ही 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के विरोधी थे। दोनों ही धर्म के आधार पर अलग अलग राष्ट्र चाहते थे। जिन्ना अपने मकसद में कामयाब हो गए, और सावरकर जो चाहते थे नहीं पा सके। परिणामस्वरूप उस असफलता से उपजी खीज गांधी जी की हत्या का कारण बनी।

1937 से 1943 तक सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे। उन्होंने एक हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को एक आधिकारिक पत्र लिखा था,
“Stick to your posts”, जहां हो वहीं जमे रहो। इस पत्र में उन्होंने अपने पदाधिकारियों और हिन्दू समाज को भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिये मना किया था। इतना ही नहीं, जब पूरे भारत मे आज़ादी का सबसे बड़ा और निर्णायक आंदोलन चल रहा था तो बंगाल में, श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेज़ी हुक़ूमत को सन बयालीस के आंदोलनकारियो के बारे में सूचना दे रहे थे । वे भारत छोड़ो आंदोलन को कैसे दबा दिया जाय, यह उपाय सुझा रहे थे। इन सबके दस्तावेजी सुबूत हैं।

यह बात अचंभित करती है कि देश से हज़ारों मील दूर बैठे सुभाष को यह सब जानकारी कैसे हो गयी कि सन बयालीस की आज़ादी की लड़ाई में जिन्ना की क्या भूमिका थी, सावरकर की क्या थी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की क्या थी । सुभाष का निजी सम्पर्क कांग्रेस में बहुत गहरा था। गांधी का वे आदर करते थे। गांधी जी को राष्ट्रपिता का सम्बोधन सुभाष बाबू ने ही दिया था। गांधी के प्रति उनका यह सम्मान, सुभाष के कांग्रेस छोड़ देने के बाद भी नहीं समाप्त हुआ। आज़ाद हिंद फौज की पहली ब्रिगेड ही गांधी के नाम पर बनी थी। फिर दो और ब्रिगेड बनीं एक नेहरू और दूसरी आज़ाद के नाम पर।

जब आज़ाद हिन्द फौज का विस्तार होने लगा तो हिन्दू राष्ट्रवादी कहने वाले सावरकर के समर्थकों ने ब्रिटेन और ब्रिटिश सेना की भरपूर मदद की थी और भर्तियां की थी। सावरकर ब्रिटेन के पक्ष में क्या कहतें हैं, ज़रा पढ़ें,

" Whether we like it or not, we shall have to defend our own hearth and home against the ravages of war and this can only be done by intensifying the government’s war efforts to defend India. Hindu Mahasabhaites must, therefore, rouse Hindus ESPECIALLY IN THE PROVINCES OF BENGAL AND ASSAM as effectively as possible to enter the military forces of all arms without losing a single minute."
" हम इसे पसंद करें या न करें, लेकिन हमें अपने घर को युद्ध की विभीषिका से बचाना है। ऐसा हम सरकार ( अंग्रेज़ी सरकार ) के प्रयासों के साथ रह कर ही कर सकते हैं। सभी हिन्दू महासभा वालों और विशेषकर उन सभी हिंदुओं को, जो बंगाल और आसाम में हैं, को अंग्रेज़ी फौज में बिना कोई भी पल गंवाये, दाखिल हो जाना चाहिये। "

बंगाल में हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ सरकार में थी। कांग्रेस जेल में और सुभाष बाबू बर्मा के जंगलों से भारत पर हमला कर उसे आज़ाद कराने की दुस्साहसी योजना लिये भटक रहे थे।
( क्रमशः )

© विजय शंकर सिंह

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