3 मई को पूरे विश्व मे वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम डे मनाया जाता है। प्रेस अभिव्यक्ति का वाहक है। यह लोकतंत्र की प्राण वायु है। किसी भी देश और शासन व्यवस्था में प्रेस को कितनी आज़ादी है, यह किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का मापदंड हो सकता है।
इस अभिव्यक्ति के पर्व पर, उर्दू के महानतम शायरों में से एक, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की यह नज़्म पढ़ें।
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बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले ।
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बोल जो कुछ कहने है कह ले ।
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ( 13 फरवरी 1911 - 20 नवम्बर 1984 ) पाकिस्तान के एक तरक़्क़ीपसन्द और विद्रोही शायर थे। उन्होंने नज़्मों, ग़ज़लों और लेखों पर बहुत प्रचुर और उच्च कोटि की रचनाएं की हैं। वे आज़ाद खयाल के थे और उनके इंक़लाबी विचारों के कारण, उन्हें पाकिस्तान की जेल में भी रहना पड़ा। इंक़लाबी ही नहीं उन्होंने बेहद मर्मस्पर्शी और प्रेम की कविताएं भी लिखी हैं। उनकी सारी रचनाओं का एक संकलन सारे सुखन हमारे हिंदी में उपलब्ध है। भारत विभाजन की त्रासदी पर उन्होंने दिल को झकझोर देने वाली एक कविता, ये वो सुबह तो नहीं है, लिखी है। वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े रहे हैं और पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के भी वे सदस्य रहे हैं। उन्होंने अरबी और अंग्रेज़ी में एमए किया था और अध्यापन को अपना कैरियर बनाया था। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिये भी नामित किया गया था, पर यह पुरस्कार उन्हें मिल नहीं सका। उन्हें तत्कालीन सोवियत संघ के प्रतिष्ठित लेनिन शांति पुरस्कार से 1962 में सम्मानित किया गया था। इसके अतिरिक्त उन्हें 1953 में निगार पुरस्कार, 1990 में निशान ए इम्तियाज से सम्मानित किया गया है। फ़ैज़ की यह नज़्म अभिव्यक्ति की शक्ति को अभिव्यक्त करती है। यह नज़्म पाकिस्तान में जब भी आंदोलन होते हैं, खूब गायी जाती है।
© विजय शंकर सिंह
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