Sunday, 20 May 2018

Ghalib - Ohde par madh e naaz / ओहदे पर मदह ए नाज़ - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 89.
ओहदे पर मदह ए नाज़ के बाहर न आ सका,
गर इक अदा हो तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ !!

Ohade par madah e naaz ke baahar na aa sakaa,
Gar ik adaa ho to, use apni qajaa kahuun !!
- Ghalib

उसके नाज़ नखरे अदा की मैं कितनी प्रशंसा करूँ, उससे बाहर ही नहीं आ सका। यदि एक ही नाज़ ओ अदा हो तो उसे मौत कह दूँ, पर यहां तो हर अदा मौत है। किसकी किसकी प्रशंसा करूँ।
यह अतिशयोक्ति है। ग़ालिब यहां प्रेयसी के नाज़, नखरे, अदा, प्रदर्शन आदि की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं जब इतनी अदाएं भरी पड़ी हैं तो सबकी कहाँ तक तारीफ की जाय। एक एक अदा तो क़ातिल है। मारने वाली है। फिर भी यह प्रेमी का फर्ज है कि और अपनी प्रेयसी के हर नाज़ ओ अदा की तारीफ करे। लेकिन मैं अपना फर्ज या कर्तव्य इस लिये नहीं निभा सका कि इतनी अदाएं और इतनी विशेषताओं की प्रशंसा करना मेरे बस में नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

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