Monday, 28 May 2018

विनायक दामोदर सावरकर और द्विराष्ट्रवाद - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

आज वीडी सावरकर का जन्मदिन है। 28 मई 1883 को उनका जन्म भागुर, नासिक मे हुआ था। उन्हें वीर सावरकर के नाम से पुकारा जाता है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम जिसका प्रारम्भ 1857 से माना जाय जैसा सावरकर ने माना है, तो, 1947 तक, इसके नब्बे साल के इतिहास में भारत के किसी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानी को वीर नहीं कहा गया ।, यह विशेषण सावरकर को ही क्यों मिला, कब मिला, किसने इस विशेषण से उन्हें विभूषित किया यह मुझे पता नहीं है। अपने नेताओं का हम जब मूल्यांकन करने बैठते हैं तो हमारी परम्परा का अवतारवाद हम पर हावी हो जाता है। हम उसके अच्छे पहलू को तो लपक कर ग्रहण करते हैं, पर बुरे पहलू को या तो नज़रअंदाज़ कर देते हैं या अनावश्यक तर्क से उसका बचाव करने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं या जान बूझ कर हम उनकी कमियों का औचित्य ढूंढने लगते है। हर व्यक्ति मूलतः मनुष्य ही है। उसके जीवन मे भी भूलें होती ही हैं। कभी कभी जीवन मे ऐसे मोड़ अचानक आ जाते हैं कि वह आदमी पूर्व के बिल्कुल विपरीत दिखने लगता है। ऐसे में उसका मूल्यांकन उसके द्वारा किये कृत्यों और उन कृत्यों को भी परिस्थितियों के आधार पर ही देखा जाना चाहिये।

सावरकर का मूल्यांकन करने के पूर्व इनके जीवन को दो भागों में बांट कर देखा जाना चाहिए। एक जन्म से अंडमान तक, दूसरे अंडमान से इनकी मृत्यु तक। सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ तब संघर्ष छेड़ा जब गांधी भारत आ भी नहीं पाए थे। सावरकर 1910 में इंडिया हाउस के क्रांतिकारी गतिविधियों के सम्बंध में गिरफ्तार और आजीवन कारावास के दंड से दंडित हो 1911 में अंडमान की जेल में सज़ा काटने के लिये भेजे जा चुके थे। अंडमान कोई साधारण कारागार नहीं था। वह नाज़ी जर्मनी के कंसन्ट्रेशन कैम्प और साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान के यातनापूर्ण शिविरों जैसा तो नहीं था, पर यातनाएं वहां भी खूब दी जाती हैं। सावरकर यातना सह नहीं पाए, वह टूट गए और उन्होंने 6 माफीनामें भेजे। एक माफीनामा जो प्रख्यात इतिहासकार डॉ आरसी मजूमदार द्वारा लिखी गयी इतिहास की पुस्तक से है मैं उसे उद्धृत कर रहा हूँ।
आप उसे पढ़ें ।
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सेवा में,
गृह सदस्य,
भारत सरकार

मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं:

(1) 1911 के जून में जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया. वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस (ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में नहीं रखा गया. उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया. दूसरे क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया. उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था. उसके बाद मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है. हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया. उस समय से अब तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है.

(2) जब मैंने तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती. जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा, जो दूसरे क़ैदी खाते हैं.’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है.

(3) जब मेरे मुक़दमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख़्वास्त की. हालांकि, मुझ पर अधिक से अधिक तो या तीन बार मुक़दमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार मुक़दमा चला है. मुझे उनके साथ इसलिए नहीं रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था. लेकिन जब आख़िरकार मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक क़ैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था.

(4) अगर मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफ़ी राहत मिल गई होती. मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझसे मिलने आते. अगर मैं साधारण और सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता. लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर पर लागू हो रहे हैं. जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.

(5) इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था. मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं. मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूं. मियादी क़ैदियों की स्थिति अलग है. लेकिन श्रीमान मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं. मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं, जबकि मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी उम्मीद सबसे हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर सकता है? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां (ए) सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूं; (बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा. जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है! (सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले क़ानूनी नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा. या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाज़त दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं. अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों की ग़लती का. यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में जब एक तरफ यहां क़रीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यंवभावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए. अगर ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती.

अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें.

भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.

इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है.

जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.

इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है.

जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.

वीडी सावरकर
(स्रोत: आरसी मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
यह याचिका 1913 में सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार को भेजी गयी थी। सावरकर इन्ही माफीनामे पर 1921 में जेल से रिहा किये गए थे।
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सावरकर, टूटे क्यों ? ब्रिटिश राज की निर्दयतापूर्वक की जा रही यातनाओं से पीड़ित हो कर ? या कोई राजनीतिक लाभ की उम्मीद से ? जो भी कारण हो, पर सावरकर के दिल मे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति विरोध का जो भाव था वह बदल गया था। 1921 में जेल से छूटने के बाद वे आज़ादी के संघर्ष से अलग हट गए और लंबे समय तक शांत रहने के बाद वे 1937 ई में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने । 1935 से 1939 तक का काल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, बेहद तेज़ घटनाओं से भरा रहा है। कांग्रेस की सरकारों ने 1939 के विश्वयुद्ध के बाद विरोध स्वरूप त्यागपत्र दे दिया था। अंग्रेज़ों को भारतीय जनता का साथ चाहिए था, तो कांग्रेस के हट जाने से जो शून्य बना, उसे जिन्ना के मुस्लिम लीग और सावरकर की हिन्दू महासभा ने भर दिया। ये दोनों ही अंग्रेज़ो के साथ आ गए थे। सावरकर, 1937 से 1943 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे । 1937 में अध्यक्ष बनते ही सावरकर ने यह विचार उछाल दिया कि हिन्दू एक राष्ट्र है और हिन्दू महासभा हिन्दू राष्ट्र के लिये प्रतिबद्ध है। उधर पाकिस्तान की मांग भी उठी। धर्म ही राष्ट्र है के एक नए सिद्धांत का जन्म हुआ जिसके प्रतिपादक सावरकर भी बने। जिन्ना से सावरकर का कोई विरोध नहीं था। जिन्ना के बारे में जो विचार सावरकर का था, वह 1937 के ऐसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व के प्रस्ताव में मिलता है।

ऐसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व 1937 के हिन्दू महासभा के सम्मेलन, जिसमे सावरकर अध्यक्ष बने थे में द्विराष्ट्रवाद का  सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। इसके तीन साल बाद 1940 में, मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एमए जिन्ना ने धर्म के नाम पर मुसलमानों के लिये एक नए राष्ट्र की मांग कर के बंटवारे का संकेत दे दिया । यह भारतीय इतिहास का पहला अधिकृत धार्मिक ध्रुवीकरण था। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, सावरकर की थी, और पाकिस्तान की, जिन्ना की और विडंबना यह देखिये ब्रिटिश सरकार के दोनों हीनेता विश्वासपात्र थे और आज़ादी की लड़ाई से तब न जिन्ना का सरोकार था, न सावरकर का। जिन्ना के बारे में सावरकर क्या कहते हैं, अब इसे पढिये,

" I have no quarrel with Mr Nonna's two nation theory. We Hindus are a nation by ourselves and it is a historical fact that Hindus and Muslims are two nation's. "

( मेरा मिस्टर जिन्ना से कोई झगड़ा नहीं है। हम हिन्दू अपने आप मे ही स्वतः एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही दो राष्ट्र हैं। )

जिन्ना की जिन कारणों से निंदा और आलोचना की जाती है, उन्ही कारणों के होते हुये, सावरकर कैसे एक माहनायक और वीर कहे जा सकते हैं ? यह सवाल मन मे उठे तो उत्तर खुद ही ढूंढियेगा। पर एक इतिहास के विद्यार्थी के रूप में ।

1944 - 45 के बाद जब कांग्रेस के बड़े नेता जेलों से छोड़ दिये गये, तो अंग्रेज़ों ने आज़ादी के बारे में सारी औपचारिक बातचीत कांग्रेस से करनी शुरू कर दी, और तब यह त्रिपक्षीय वार्ता का क्रम बना ।  अंग्रेज़, कांग्रेस और मुस्लिम लीग। सावरकर यह चाहते थे कि बात अंग्रेज़ों, मुस्लिम लीग और, कांग्रेस के बजाय हिन्दू महासभा से हो। पर गांधी और कांग्रेस का भारतीय जनता पर जो जादुई प्रभाव था, उसकी तुलना में सावरकर कहीं ठहरते भी नहीं थे। गांधी, से सावरकर की नाराजगी का यही कारण था, जो बाद में उनकी हत्या का भी  कारण बना। जिन्ना तो कटा फटा ' कीड़ों द्वारा खाया पाकिस्तान ' ( जिन्ना ने खुद ही पाकिस्तान की सरहदबन्दी के बाद खीज करपा गये पर सावरकर विफल रहे । गांधी और कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष भारत चाहा और उसके लिये वे शहीद भी हो गए। यह भी एक विडंबना है कि पूर्णतः आस्थावान और धार्मिक गांधी धर्म निरपेक्ष भारत चाहते हैं और जिन्ना जो किसी भी दृष्टिकोण से अपने मजहब के पाबंद नहीं थे, वे एक धर्म आधारित थियोक्रेटिक राज्य के पक्षधर थे । ऐसे ही अनसुलझे और विचित्र संयोगों को नियति कहा जा सकता है।

30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की। गोडसे पहले आरएसएस में था, फिर हिन्दू महासभा में गया। गांधी जी की हत्या पर सबसे प्रमाणित पुस्तक तुषार गांधी की है, Let Us Kill Gandhi, लेट अस किल गांधी। 1000 पृष्टों की यह महाकाय पुस्तक ह्त्या के षडयंत्रो, हत्या, मुक़दमे की विवेचना और इसके ट्रायल के बारे में दस्तावेजों सहित सभी विन्दुओं पर विचार करती है।सावरकर भी षडयंत्र में फंसे थे। पर अदालत से वह बरी हो गयी। हिन्दू राष्ट्र की मांग को, कोई व्यापक समर्थन, न तो आज़ादी के पहले मिला और न बाद में। सावरकर धीरे धीरे नेपथ्य में चलते गये और 26 फरवरी, 1966 में अन्न जल त्याग कर उन्होंने संथारा कर प्राण त्याग दिया।

लेकिन, सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 के विप्लव को एक अलग दृष्टिकोण से देखा। अंग्रेज़ उस विप्लव को sepoy mutiny, सिपाही विद्रोह कहते थे, पर सावरकर ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम कह कर देश के स्वाधीन होने की दबी हुई इच्छा को स्वर दे दिया। 1911 में गिरफ्तार जेल जाने के पूर्व आज़ादी के लिये वह पूर्णतः समर्पित थे। पर 1911 से 21 तक के बदलाव ने उनकी दिशा और दशा दोनों ही बदल दी। आज 28 मई को उनका जन्मदिन है। उनसे जो बन पड़ा उन्होंने देश के लिये किया। इतिहास निर्मम होता है। वह सब कुछ दिखाता है, बशर्ते हम देखना चाहें।

© विजय शंकर सिंह

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