ग़ालिब - 92.
कर्ज़ की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती, एक दिन !!
कर्ज़ की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती, एक दिन !!
Karz kii peete the may, lekin samjhate the ki han,
Rang laayegee hamaaree faaqaamastee ek din !!
- Ghalib
Rang laayegee hamaaree faaqaamastee ek din !!
- Ghalib
शराब भी हम उधार लेकर हम पी रहे है । पर इतना हम समझते हैं कि यह फाकामस्ती, भूखे रहने के दिन भी एक न एक दिन कुछ बेहतर दिखायेंगे । वक़्त एक न एक दिन बदलेगा।
यह शेर उस समय का है जब 1826 से 37 तक 50 हज़ार का ऋण ग़ालिब पर था। ग़ालिब थे तो जमींदार घराने के पर वक़्त,हर वक़्त मेहरबान रहे यह तो हो नहीं सकता। इसी बीच उनकी पेंशन रुक गयी। वे ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्ल्स मेटकाफ से अपने पेंशन के बारे में, पेटिशन देने के लिए कलकत्ता की यात्रा करना चाहते थे, पर धन की समस्या आड़े आयी। उन्होंने अपना दीवान गिरवी रख कर पैसे का जुगाड़ करने के लिये छापेखाने गये, तो छापेखाने के मालिक ने दीवान तो लिया नहीं लेकिन उनके लखनऊ तक जाने का इतंजाम कर दिया। वहां वह दो महीना रुके और फिर जब वहां भी उनका काम नहीं बना तो, वे वहां से बांदा चले गये। बाँदा के नवाब ने उनके कलकत्ता जाने का इंतज़ाम किया। कलकत्ते के रास्ते मे वे बनारस रुके और बनारस उन्हें बहुत पसंद आया। बनारस पर उन्होंने फारसी में एक बेहद खूबसूरत कविता भी लिखी है। बनारस से कलकत्ता पहुंच गए और वहां 8 महीना रहे। उनकी भेंट मेटकाफ से तो हुयी, पर उनका काम नहीं बना ।उनसे यह कहा गया कि आप दिल्ली में ही बादशाह से कहें या अंग्रेज़ रेजिडेंट से। वे डेढ़ दो साल बिता कर दिल्ली आए। ऐसी ही कठिन परिस्थितियों में यह शेर ग़ालिब की कलम से निकला होगा।
कर्ज़ की मय, और फाकामस्ती से कभी न कभी अच्छा कल, आने की उम्मीद लिये यह शेर ग़ालिब के प्रसिद्ध शेरों में से एक है। वक़्त उनका बदला। कुछ पेंशन बहाल हुई। आर्थिक तंगी के बीच ग़ालिब ने अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं किया। यह खुद्दारी उनके शेरों में बहुत झलकती है।
© विजय शंकर सिंह
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