Thursday 17 May 2018

कर्नाटक - लोकतंत्र का प्रहसन काल / विजय शंकर सिंह

त्रासदी और प्रहसन, ( कॉमेडी का हिंदी इसे समझिये ) भी कभी कभी मिल जाते हैं। बिल्कुल सांध्यकाल में। प्रेमचंद की कालजयी कहानी पढिये कफन। और कहानी के अंत पर जा कर अंतिम पैरा फिर पढिये। बरबादी भी हंसाती है। वह हंसी दिखती तो है निराशा की, पर आप आशा भी उसमे ढूंढ सकते हैं। राजनीति संभावनाओं और विडंबनाओं का खेल है। इसमें कुछ भी हो सकता है, कहीं भी हो सकता है, कभी भी हो सकता है।

जिन तानाशाही रवैये के इस्तेमाल के कारण इंदिरा गांधी खलनायक बनी थीं कभी। 
आज उसी अधिनायक वादी रवैय्ये के इस्तेमाल से मोदी शाह की जोड़ी नायक और पूज्य बनती जा रही है।
एक रूपक देखें, 
फिक्र मत कीजिये हमारे पास अमित शाह हैं !!
यह कह कर राम माधव ज़ोर से हंसे। 
( उनके अवचेतन में बैठा हिटलर, अपने बाल, जो हवा से उड़ गए थे उसे संभालने लग गया । )

यह एक मानवीय विसंगति है । हम अधिनायकवाद के विरुद्ध तभी तक हैं जब तक कि वह, तानाशाही करने वाला व्यक्ति हमारे दिल दिमाग और हमारी मानसिकता का विरोधी है। जब हमारी सोच का , शिखर पर बैठा व्यक्ति, संविधान के पन्नों पर रख कर मूंगफली खाता है तो वह हमें असहज नहीं करता है। वह धीरोदात्त नायक सरीखा लगने लगता है। असल मे होता है वह प्रतिनायक। वह नायक और देश और दुनिया मे परिवर्तन लाने वाला दिखने लगता है। पर जैसे ही विपरीत मानसिकता का व्यक्ति संविधान को ताखे में रख देता है और स्वेच्छाचारिता से देश हांकने लगता है, वह तानाशाह नज़र आने लगता है। जब कि तानाशाह दोनों ही हैं। पतन दोनों का ही होता है। दोनों ही इतिहास में निंदित होते हैं।

यह सुविधा का लोकतंत्र है। इससे बचे रहने का बस एक ही उपाय है जिस भी समय, जब भी किसी सत्ता में एकाधिकार का वायरस आने लगे सिस्टम को फॉर्मेट कीजिये नहीं तो सिस्टम बार बार हैंग होता रहेगा। सत्ता के शिखर पर बैठा व्यक्ति तो स्वेच्छाचारी होना ही चाहेगा। यह तो मानवीय प्रकृति है। सतर्क तो हमे रहना है। सत्ता किसी भी व्यक्ति के हांथ में हो यह उतना महत्वपूर्ण नही है, महत्वपूर्ण है सत्ता संविधान के पटरी पर रहे। बेपटरी न हो ।

यह हमारी आप की लड़ाई है। यह किताब यह कानून, कानून से बनी कानून को लागू करने वाली ये सभी संस्थाएं, हमारे आप के लिये हैं। असल मे दोनों दलों को एक दूसरे से कोई परेशानी नहीं है। यह जो दिख रहा है एक दूसरे का विरोध यह पूंजीवाद का एकाधिकारवादी चरित्र है। मात्स्य चरित्र है। लोकशाही में सत्ता तो बदलती रहती है। पर, इनका कुछ नहीं बिगड़ता है। बिगड़ते दीखता ज़रूर है। और जो कुछ बिगड़ता है, वह हमारा आप का बिगड़ता है। उसे हम आप भोगते है । शीर्ष नेता, एक दूसरे का कभी अहित नहीं करते हैं। वे इतना ही एक दूसरे को खींचते है जितने में उनकी क्षवि न्यायप्रिय और कर्मठता की दिखे। 

यह एक अभिनय है।  यह मंच का ड्रामा है। जहां नायक और खलनायक हम अपने अपने मन से तय कर, जो हमारे मन और सोच को भाता है, उसकी ओर से ताली बजाते हैं। अंक परिवर्तन पर अगले अंक को देखने के लिये उत्सुक हो पॉप कॉर्न खाने लगते हैं। वही पॉप कॉर्न जिसे उगाने वाला 10 रुपया पाता है तो परोसने वाला 90 रुपये हड़प कर जाता है।  पर अंक समाप्ति के बाद, सारे पात्र ग्रीन रूम में मस्ती से बैठते हैं, हंसी मज़ाक़ करते हैं । यह लोकतंत्र का प्रहसन काल होता है। नायक और प्रतिनायक की भूमिकायें स्क्रिप्ट के अनुसार बदलती रहती है। प्रोड्यूसर और निर्देशक कितना भी प्रतिभावान क्यो न हो, पर चलती है फाइनेंसर की ही। सर्वेगुणा कांचना माश्रयन्ति ! क्या नायक क्या खलनायक सब एक ही फाइनेंसर से नाटक का पारिश्रमिक ग्रहण करते हैं और फिर अगले अंक की तैयारी में जुट जाते हैं। और हम आप अपने अपने मिथ्या नायकों में धीरोदात्त गुण ढूंढते हैं। गुण जब नहीं मिलता है तो गुण गढ़ने लगते है। इतिहास के पन्नों में कट पेस्ट करते हैं। वर्तमान में हम, भविष्य को भुला कर, अफीम की पिनक लिये, भूत के पन्नो में आज का औचित्य साबित करते हैं। हमारे पांव जो के कीचड़ में सने हैं , उसकी व्यथा हम भूल, हम दूर टँगा चांद देख कर खुश हो लेते हैं। 

इस तर्क का क्या जवाब दूँ कि उन्होंने भी तो यह किया था। अज़ीब है, वे गड़हा में कूदे थे तो आप भी कूद जाइये। वे लेथन लपेट के नाचे थे तो आप भी उसी भगाड़ में लोट लीजिये। उनका तो यह कभी दावा ही नहीं था कि वे संस्कार वान है। आप तो कदम कदम पर, बात बात पर कभी संस्कारों , विश्व गौरव, गुरुत्व के फ़र्ज़ी लबादे ओढ़े रहे। आप भी उनके कुकर्मो से ऊपर नहीं सोच पा रहे हैं। आप भी वही कुकर्म करेंगे जो वे कर चुके हैं ? जो अम्बानी आप की पीठ पर हांथ रख कर सार्वजनिक रूप से सत्ता मेरी मुट्ठी में है के भाव से मुग्ध हो कर मुस्कुराता है, वही अंबानी किस अदा से कभी उनसे मिलता था, यह यूट्यूब और अखबारों के आर्काइव्स में देख लीजिये। बदली हुई  देहभाषा का निहितार्थ समझ मे आ जायेगा। 2014 में आप के लोग इस लिये दीवाने थे कि आप एक अवतार सरीखे उभर आये थे। कभी मगरमच्छ की कहानी, कभी सन्यास का रुप, तो कभी इमरजेंसी में सिख की पगड़ी में जो गल्प संसार रचा गया था, उसने हम सबका मन बना दिया था कि विकल्प आप ही बनेंगे। आप बेहतर कर सकते थे।  आप मे ऊर्जा थी, बहुमत था, जनाधार था, पर एक आवरण भी है यह नहीं पता था। बेहतर करने के नाम पर प्रतिष्ठित हो कर जब आप वही वही दुहराने लगे तकलीफ स्वाभाविक है। यह स्प्लिट पर्सनाल्टी डिसऑर्डर है या एक शातिर चाल, यह तो मैं अभी नहीं कह पाऊंगा। लेकिन पंचतंत्र की एक लोकप्रिय कहानी ज़रूर याद आती है। आचार्य विष्णुगुप्त आज भी प्रासंगिक है।

और अंत मे धूमिल, की एक कविता, 
लोकतंत्र 
 
वे घर की दीवारों पर नारे
लिख रहे थे 
मैंने अपनी दीवारें जेब में रख लीं

उन्होंने मेरी पीठ पर नारा लिख दिया
मैंने अपनी पीठ कुर्सी को दे दी
और अब पेट की बारी थी
मै खूश था कि मुझे मंदाग्नि की बीमारी थी 
और यह पेट है 

मैने उसे सहलाया
मेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं- और साहस है तो लिखें, 
मै तैयार हूं 

न मैं पेट हूं 
न दीवार हूं 
न पीठ हूं 
अब मै विचार हूं।

© विजय शंकर सिंह

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