Tuesday, 1 May 2018

Ghalib - Us bazm mein mujhe nahin banatee / उस बज़्म में मुझे नहीं बनती - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 72.
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये,
बैठा रहा, अगर्चे इशारे हुआ करे !!

Us bazm mein mujhe nahin bantee hayaa kiye,
Baithaa rahaa, agarche ishaare huaa kare !!
- Ghalib

उनकी महफ़िल में शर्म करने से मेरा काम नहीं बन सकता है। वे अगर उस महफ़िल से उठ कर जाने की भी बात करें तो भी मैं उठ कर नहीं जाने वाला ।

इस शेर की भी दो प्रकार से व्याख्या आलोचकों ने की है। एक व्याख्या लौकिक है दूसरी आध्यात्मिक। लौकिक से तात्पर्य है यह समाज, परिवेश और समय जिसमे हम रह रहे हैं। ग़ालिब का मंतव्य यह है कि जब वे बादशाह के दरबार मे हैं तो वहां उन्हें झिझक, शर्म से अपनी बात कहने में गुरेज नहीं करना चाहिये। उस दरबार मे वे जो चाहते हैं उन्हें खुल कर कहना चाहिए। ऐसा अक्सर हम सब के साथ होता है कि जब जम सक्षम के सामने होते हैं तो अपनी बात कह नहीं पाते। याचक की अपनी शर्म और स्वाभाविक झिझक होती है। अगर व्यक्ति स्वाभिमानी है, उसके में आत्मसम्मान का भाव है तो वह अपनी आवश्यकताओं, भावनाओं आदि को खुल कर कहने से, और अगर अवसर सार्वजनिक स्थान पर कहने हो तो, हिचकता है। यह झिझक, हया या शर्म का ही परिणाम होती है। ग़ालिब यही बात खुद से कहते हैं। वे स्वाभिमानी थे। यहां वे खुद को यह समझा रह हैं कि मुझे जब अपनी बात कहनी है तो महफ़िल में शर्म कैसी। मैं अपनी बात, अपना पक्ष रखूंगा। अगर चुप भी रहने को कहा जायेगा तो भी अपनी बात कहे बगैर नहीं रहूंगा। यहां स्वाभिमान के साथ समझौता करने का उद्देश्य नहीं है बल्कि स्पष्टवादिता है। ग़ालिब, अपनी बेलौस अंदाज़ ए बयानी , स्वाभिमान और स्पष्टवादिता के कारण दिल्ली दरबार मे चाटुकार मुसाहिबों , जो लगभग सभी दरबारों का स्थायी भाव होता है, के सदैव निशाने पर थे। वे दरबार मे दाखिल तो गये थे, दरबार से उन्हें कुछ अनुग्रह राशि भी मिलती थी, पर वे दरबारी मानसिकता अपने अंदर अंत तक नहीं पा लाये। उनकी यह पीड़ा अक्सर उनकी रचनाओं में छलक पड़ती है। यह शेर उसी पीड़ा का प्रतिभाव है। वे खुद को तसल्ली देते हुये यहां दीख पड़ते है।

कुछ आलोचकों ने इस का एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी देखा है। वहां महफ़िल , इबादतगाह का प्रतीक है। इबादतगाह में कैसा संकोच । ईश्वर के समक्ष कैसा स्वाभिमान। यहां तो सब कुछ तिरोहित कर के बेहद स्पष्टता से अपनी बात कहना चाहिये। बिल्कुल कबीर के इस पंक्ति की तरह,
सीस उतारे भुंहि धरे खाला का घर नाहिं !
ग़ालिब कबीर से अवगत थे या नहीं यह तो मुझे नहीं पता और अभी तक ऐसा कोई संदर्भ भी नहीं मिला पर मुझे वह कहीं कहीं वे बिल्कुल कबीर के पैटर्न पर सोचते और बोलते नज़र आते हैं ।

एक व्याख्या इसकी इश्क़ ए मजाज़ी की भी है। यह महफ़िल प्रेमिका का साथ और उससे प्रयण निवेदन के अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है। वहां भी अगर ऐसी परिस्थिति आ जाय तो अपनी बात कह देनी चाहिये । प्रणय निवेदन का आनंद अक्सर शर्म हया और झिझक बाधित कर देता है। उसी बाधा से मुक्त होने की बात भी ग़ालिब इस शेर में कह रहे हैं । 

कुल मिला कर इस शेर का मूल भाव यह है कि  जब भी ऐसा अवसर और स्थान उपलब्ध हो तो हमें अपनी बात बिना शर्म या हया या झिझक या भय के कह देनी चाहिये। अगर चुप रहने का इशारा भी हो या कोई चुप रहने को कुछ कहे तो भी ऐसे अवसर पर चुप नहीं रहना चाहिये। अपनी बात कह देनी चाहिए।

© विजय शंकर सिंह

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