Sunday, 20 May 2018

बनाना रिपब्लिक की अवधारणा - एक चर्चा. / विजय शंकर सिंह

अक्सर अखबारों में और टीवी बहसों में यह सुनने को मिलता है कि, देश बनाना रिपब्लिक बनता जा रहा है। यह बनाना जो अंग्रेज़ी का शब्द है और जिसका अनुवाद केला है, से निकला है। इस शब्दावली का प्रयोग सबसे पहले प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार ओ. हेनरी (O. Henry) द्वारा किया गया था। ओ हेनरी का मूल नाम विलियम सिडनी पोर्टर था। ओ हेनरी इनका लेखकीय नाम था। जिसे अंग्रेज़ी में पेन नेम कहते हैं। ये 11 सितम्बर 1862 को पैदा हुये थे, और 5 जून 1910 को दिवंगत हो गए थे। ओ हेनरी की कहानियां रोचक और बड़े ही उत्सुक मोड़ पर जा कर समाप्त हो जाती हैं।  अमेरिकी अंग्रेज़ी साहित्य में ओ हेनरी एक बड़ा नाम है।

लेकिन वर्तमान संदर्भ में बनाना रिपब्लिक शब्द का प्रयोग एक ऐसे देश के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है जिसे एक व्यावसायिक इकाई की तरह से अधिकाधिक निजी लाभ के लिए कुछ अत्यंत धनी मोनोपॉली वाले एकाधिकार वादी व्यक्तियों तथा कम्पनियों द्वारा सत्ता में रहे बिना ही सत्ता का सुख और लाभ लिया जा रहा हो। ऐसे देश एक प्रकार से क्रोनी कैपिटलिज्म गिरोहबंद पूंजीवाद की आराम गाह बन जाते है। राजनीतिक अस्थिरता ' बनाना ' देशों की एक प्रधान विशेषता होती है।

अब इस शब्द की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में भी पढ़ लें। बनाना रिपब्लिक शब्द केले से उद्भूत है और केला, अमेरिका में जमैका से 1870 में लॉरेन्ज़ो डॉ बेकर द्वारा लाया गया था । जमैका से लाये इस केले की खेप को बेकर ने 1000 प्रतिशत मुनाफे पर बेचा था। इस मुनाफे का दोहन करने के लिये अमेरिकी रेलमार्ग बनाने वाले पूंजीपतियों, हेनरी मेगीस और उसके भतीजे माइनर सी कैथ ने 1873 में केले को बड़े और व्यावसायिक स्तर पर अमेरिका में लाने के लिये कोस्टा रिका तक रेलवे लाइन बिछाई थी। तभी केले के व्यापार में बड़ा मुनाफा होने की संभावना को देख कर, कैथ ने 1870 में कृषि आधारित औद्योगिक व्यापार की नींव डाली और यूनाइटेड फ्रूट कम्पनी की स्थापना की। बाद में यह मुनाफा बढ़ता गया। तब और भी इसकी सब्सिडियरी कंपनियां बनती चली गयीं तथा 1930 तक आते आते इस कंपनी के पास 80 - 90 प्रतिशत तक अमेरिका में आयात होने वाले  केले का व्यापार हो गया। रेल, व्यापार, और मॉर्केटिंग के बाद इन कम्पनियों की निगाह केले के उत्पादन पर गयी, जो छोटे छोटे और मझोले किसानों द्वारा किया जा रहा था। छोटी जोत के किसान अक्सर परम्परागत तरीक़ों से खेती करते हैं। पूंजी और ख़ास कर तरल पूंजी, नकदी का अभाव इन किसानों को खेती को आधुनिक स्वरूप देने में भी बाधा बनता है। अमेरिकी कम्पनियों ने अधिक धन निवेश कर, केले की खेती को आधुनिक रूप देने के बहाने, छोटे और मझोले किसानों की खेती योग्य ज़मीनें, पहले किराये पर लीं और फिर उन्होंने उसे खरीदना शुरू किया । इस तरह से कॉरपोरेट खेती की अवधारणा का जन्म हुआ।  पूंजी से खरीदे बड़े बड़े खेतों, कृषि में धन के निवेश और केले की खेती के आधुनिक तरीके ने कृषि उत्पादन बढ़ा दिया और इन कंपनियों का मुनाफा भी इसी अनुपात में, बढ़ता चला गया। पूंजी की इस प्रतियोगिता में भला परंपरागत तरीके से खेती का काम करने वाले स्वतंत्र किसान कहां टिक पाते। खेती जो उनके जीवनयापन का साधन थी कभी, अब अलाभकारी और बोझ बन गयी। 19 वीं शताब्दी के समाप्ति तक, तीन बड़ी अमेरिकी कंपनियों , यूनाइटेड फ्रूट कंपनी, कायमेल फ्रूट कंपनी, और स्टैण्डर्ड फ्रूट कंपनी जो कैथ के ही ग्रुप की थी ने अमेरिका के आसपास के कृषि प्रधान उपनिवेशों के समस्त कृषि कार्य, जुताई, बुआई और कटाई, उत्पादन और उत्पाद सहित अधिकांश पर इन अमेरिकी कम्पनियों का कब्ज़ा हो गया। बीसवीं सदी में जब दुनिया भर में उपनिवेशवाद के विरुद्ध जागृति हुयी तो ये उपनिवेश भी आज़ाद हो गए और इनके यहां भी गणतंत्र की स्थापना हुयी। लेकिन गहराई तक जड़ जमा चुके पूंजीवाद ने सरकार में भी अपनी पैठ बना ली और वहां के शासक स्वतंत्र तथा सार्वभौम होते हुये भी, मुनाफाखोर पूंजीवाद के दास बने रहे।

अमेरिका का जन्म ही उपनिवेशवाद और पूंजीवाद के विस्तार का परिणाम है। जब कोलम्बस का जहाज गलती से भारत के लिये एक सगम जल मार्ग ढूंढते ढूंढते एक नए और वीरानी से भरे भूखण्ड से जा लगा तो एक नई दुनिया का जन्म हुआ। उपनिवेशवाद की अभ्यस्त यूरोपीय ताकतें अमेरिका में घुस गई। आज दुनिया भर में मानवाधिकार का उपदेश देने वाला और दुनिया का स्वघोषित दारोगा अमेरिका ने वहां के आदिवासियों रेड इंडियन, जिसे कोलम्बस इंडिया समझ कर यह नाम दिया था, का व्यापक नरसंहार किया। अमेरिका बीसवीं सदी के आते आते विश्व राजनीति में एक प्रमुख शक्ति बन गया । उपनिवेशवाद के साम्राज्य विस्तार ने पूंजीवाद को और विकसित किया और फिर एक नए तरह का साम्राज्यवाद उतपन्न हुआ जो देह बल से नहीं बल्कि धनबल से विस्तारित होता रहा। पूरी दुनिया बाज़ार बन गयी । समाज दो भागों में बंट गया। जनता उपभोक्ता बन गयी। उत्पादन, वितरण और उपभोग के नए नए सिद्धान्त गढ़े जाने लगे। इन सिद्धांतों का उद्देश्य ही अधिक से अधिक लाभ कमाना था। यही प्रवित्ति दुनिया को एक बाज़ार में बदल रही है। समाज की सारी मान्यताएं, साहित्य, कला, आदि पर यह उपभोक्तावाद और मुनाफे की इच्छा हावी होती चली गयी।

इसी क्रम में जब यह बाज़ारवाद बढ़ रहा था तो ओ. हेनरी के अनुसार, बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग उस विशेष स्थिति के लिए किया गया था जहाँ कुछ अमेरिकी व्यावसायियों ने कैरीबियन द्वीपों, मध्य अमेरिका तथा दक्षिण अमेरिका में अपनी चतुराई से भारी मात्रा में केला (banana) उत्पादक क्षेत्रों पर अपना एकाधिकार कर लिया। ये देश अत्यंत गरीब पर कृषि के दृष्टिकोण से उर्वर थे। यहाँ के स्थानीय मजदूरों को कौड़ियों के भाव पर काम करवा कर यहां के उत्पादित केलों  को अमेरिका में निर्यात कर इससे भारी लाभ पूंजीपति उठाने लगे थे। इसलिए बनाना रिपब्लिक की व्याख्या में प्राय: इस गुण को भी राजनीतिशास्त्र के विद्वानों ने सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार बनाना रिपब्लिक की यह परिभाषा बनी,

" ऐसा देश प्राय: कुछ सीमित संसाधनों के प्रयोग पर ही काफी हद तक निर्भर होता है। बनाना रिपब्लिक में एक स्पष्ट वर्ग की दीवार दिखाई देती है, जहाँ काफी बड़ी जनसंख्या कामगार वर्ग की होती है, जो प्राय: काफ़ी खराब स्थितियों में जीवन यापन करती है। इस गरीब कामगार वर्ग पर मुट्ठी-भर प्रभावशाली धनी वर्ग का नियंत्रण होता है। यह धनी वर्ग देश का इस्तेमाल सिर्फ अपने अधिकाधिक लाभ के लिए करता है। "

बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग अधिकांशत: मध्य अमेरिकी तथा लैटिन अमेरिकी देशों के लिए किया जाता है जैसे हाण्डूरास तथा ग्वाटेमाला। इन देशों की मुख्य विशेषताएं हैं -
1. भूमि का अत्यंत असमान वितरण
2. असमान आर्थिक विकास
3. अर्थव्यवस्था की कुछ सीमित उत्पादों तथा फसलों पर निर्भरता
4. बहुत छोटे लेकिन बहुत प्रभावशाली सामंतशाही वर्ग की मौजूदगी
5. इस सामंतशाही वर्ग का देश के व्यावसायिक हितों पर व्यापक एकाधिकार
6. सामंतशाही वर्ग के कुछ धनी देशों के व्यावसायियों से घनिष्ठ सम्बन्ध
7. इन घनिष्ठ सम्बन्धों का देश के निर्यात व्यापार पर स्पष्ट पकड़ होना
8. ऐसे देशों में सेना द्वारा सत्ता का तख्ता पलटने की संभावनाएं प्राय: हमेशा बनी रहती हैं।

हाल के कुछ वर्षों में भारत के लिए भी बनाना रिपब्लिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इस शब्दावली का भारत के लिए प्रयोग करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में देश के सर्वप्रमुख व्यावसायी रतन टाटा थे, जिन्होंने वर्ष 2011 में कहा था कि भारत भी बनाना रिपब्लिक बनने की दिशा में अग्रसर है। टाटा इसका कारण भीमकाय विदेशी कम्पनियों द्वारा बाज़ार, उत्पादन और मुनाफे पर एकाधिकार करने की साज़िश के रूप देख रहे थे। लेकिन टाटा के इस वक्तव्य के बावजूद भारत के बनाना रिपब्लिक बनने की संभावनाएं बहुत कम या कुछ हद तक न के बराबर हैं । इसका कारण, भारत का विशाल भूभाग और बहुलतावादी स्वरूप है। साथ ही नागरिक अधिकारों के प्रति सजगता भी है।  आर्थिक गतिविधियों के आधार पर भी यह बहुत विविधीकृत तथा समृद्ध देश है। भूभाग और मौसम की विविधता ने भी यहां खेती के तरीक़ो और उत्पादन को भी बहुलतावादी स्वरूप प्रदान किया है। राजनैतिक जागरूकता के कारण यहाँ लोकतंत्र की जड़े मजबूत हैं तथा कभी  सैनिक तख्ता पलट भी नहीं हुआ है और न होने की संभावना है। लेकिन पूंजीवाद और मुनाफाखोर अर्थ तंत्र इन सबके बीच भी दीमक की तरह जगह बनाने की कोशिश करता ही है। वोडाफोन के एक कर के मामले मैं, अप्रैल 2012 में भारत के वित्त सचिव आर. एस. गुजराल ने वोडाफोन को कर चुकाने के केन्द्र सरकार के आदेश के परिप्रेक्ष्य में कहा था कि " भारत अभी बनाना रिपब्लिक नहीं है कि कोई विदेशी कम्पनी अपने आर्थिक लाभ को भुनाने भारत की ओर रुख कर ले और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें । "

देश पूंजीवाद का दास न बने, मुनाफाखोर दुश्चक्र के चंगुल में न फंसे और न ही राज्यतंत्र उनके इशारे पर चले, इसके लिये जरूरी है कि सत्ता के हर उस कदम का विरोध किया जाय जो देश को इन अजदहो के चंगुल में ठेलते जाते हैं। पूंजीवाद का चमकदार चेहरा अगर अमेरिका है तो, उसका अभिशप्त रूप लातिनी अमेरिका और अफ्रीका के वे छोटे छोटे देश हैं जो उसके लिये केवल और केवल मुनाफे की बात करते हैं। मुनाफे का यह धंधा अगर इसी तरह बढ़ता रहा और दुनिया भर में अपनी मेहनत, मेधा और स्वतंत्र चेतना से जीवन जीने वाले लोग, उद्योग और समाज उसके मायाजाल में फंस कर अपना अस्तित्व और अस्मिता गिरवी रखते रहे, तो, दुनिया मे सामाजिक असामनता बढ़ती चली जायेगी। आज भी यह असमानता कम नहीं है और कम हो भी नहीं रही है। इस खतरे के प्रति भी विकास और विदेशी निवेश के चमकदार स्वरूप के भीतर छुपे दानवीय रूप से सतर्क रहना होगा।

© विजय शंकर सिंह

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