राजनीति कीजिये इंजीनियरों के तबादलों पर, बजट के आवंटन पर, ठेकेदारों को काम देने पर, मुआवजा की राशि और उसे बांटने के तरीक़ों पर, और उन अभागे लोगों पर जिनके शव अब भी वही दबे पड़े हैं जो न मृतक की सूची में हैं और न ज़ीवित की। बस, इस हादसे पर न तो बहस कीजिये, न कुछ पूछिये, न सवाल उठाइये। और जनता को तो बिल्कुल राजनीति नहीं करनी चाहिये। पुल का टूटना कहीं पर एक्ट ऑफ गॉड बन जाता है तो कहीं पर एक्ट ऑफ फ्रॉड। पर आप उसी मोड में बने रहिये , कोउ नृप होहिं हमें क्या हानि ! वह मोड सत्ता को सबसे अधिक भाता है। उसे सूट करता है। सत्ता सदैव चाहती है कि उसे असहज करने वाले सवालों पर हम कोई सवाल न करें। उसका कितना शातिराना उत्तर है भाई इन हादसों पर कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए।
राजनीति से ही सरकारें तय होती है। राजनीति से ही अफसर तय होते हैं। राजनीति से ही अफसरों के तबादले तय होते हैं। राजनीति से ही विकास की योजनाएं तय होती हैं। राजनीति से ही प्राथमिकताएं तय होती हैं। राजनीति से ही सरकार की नीतियां तय होती है। राजनीति हमारे जीवन के हर अंग और अंश को प्रभावित करती है और तय करती है। यह आज से नहीं है। यह रामायण और महाभारत के काल से है और यह तब से है जब से समाज चैतन्य हुआ होगा और तब तक रहेगा जब तक संसार रहेगा। यह राजनीति ही थी कि राम को बनवास में जाना पड़ा, बालि की हत्या करनी पड़ी, महाभारत में नैतिकता को तिलांजलि दे कर भीष्म, द्रोण, अभिमन्यु, कर्ण और दुर्योधन को युद्ध मे मारना पड़ा। हम इस राजनीति और नैतिकता की परिभाषा अपने स्वार्थ ज़रूरत और परिस्थितियों के अनुसार गढ़ते रहते हैं। कब तक कहां कहां इस राजनीति से भागियेगा दोस्तों। भागिये मत, सवाल उठाइये। चाहे वे किसी को सहज करें या असहज। सरकार हमने चुना है । ईश्वर ने तोहफे में नहीं दी है हमें। जिसे ईश्वर ने यह उपहार दिया है, वह एहसान उतारे।
यह कहना कि पुल के हादसे पर राजनीति नहीं की जाय, जनता को भरमाने का एक खूबसूरत छलावा है। राजनीति से अगर आप दूर हैं और परहेज कर रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि आप केवल शासित रहने के लिये अभिशप्त हैं। लोकतंत्र में सिर्फ वोट के दिन या चुनाव के दौरान ही राजनीति हो यह ज़रूरी नहीं है। सरकार चुन कर हम सब पांच साल के लिये अपने बिलों में घुस जाँय और उन वादों को भूल जाएं जो राजनीतिक दलों ने हमसे किया है और जिसके आधार पर हमसे वोट मांगा है, तो सच मानिये आप सत्ता को निरंकुश छोड़ रहे हैं। हमने ईश्वर नही नुमाइंदे चुने हैं। लेकिन हमने अपने नुमाइंदों को अवतार बना कर छोड़ दिया है। आज जब यह सवाल उठता है कि यह पुल किसने डिजाइन किया था, क्या गुणवत्ता थी, गुणवत्ता के मानकों की जांच के क्या नियम थे ? क्या सुरक्षा इन्तेज़ामात थे ? उन्हें पूरा किया गया था या नहीं ? नहीं किया गया तो क्यों नहीं किया गया ? किसकी जिम्मेदारी है ? तो सरकार असहज होने लगती है। सरकार को अवतार समझने वाले मित्र असहज होने लगते हैं। और कहीं आपने यह पूछ दिया कि क्या मंत्री जी इसकी जिम्मेदारी लेंगे। तुरन्त एक प्रतिप्रश्न उछाल दिया जाएगा, मौत पर कोई राजनीति नहीं। क्यों ? यह सीमा रेखा क्यो ? जब हर बात पर राजनीति हो सकती है तो इस हादसे पर क्यों नही राजनीति होनी चाहिए ?
असल मे राजनीति भी राजनैतिक आकाओं को वही सूट करती है जो उनके हित मे होती है। जैसे ही उनकी असहजता शुरू हो जाती है वे अपने खोल और खोह में सिमटने लगते हैं। 100 से कम लोग नहीं मरे हैं। अधिक ही मरे होंगे। अभी पूरी संख्या नहीं आयी है। वह संख्या धीरे धीरे आ रही है। इनके मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा ? ईश्वर भी उनकी आत्मा को शांति दे सकता है या नहीं यह मुझे नही पता क्योंकि न तो ईश्वर ने किसी को बताया कि उसने किसी आत्मा को शांति दी है और न किसी आत्मा ने कभी बताया कि उसे किसी ईश्वर से शांति मिली है। ईश्वर कहीं है तो उससे यही प्रार्थना है कि वह मरने के बाद शांति दे या न दे , जीवन मे सबको सुख शांति दे या न दे पर ऐसी बीभत्स और दारुण मृत्यु तो न दे। यह बहुत विचलित करने वाली खबर है। बंगाल में भी ऐसी ही घटना कोलकाता में हुई थी। तब इस पर प्रधानमंत्री जी की क्या प्रतिक्रिया थी उसे पढ़ना भी आवश्यक है। आप यह फोटो देख सकते हैं और इसपर लिखी इबारत भी। मैं प्रधानमंत्री जी के कोलकाता के बयान को वाराणसी के संदर्भ में देख रहा हूँ।
पुल हादसे में जो खबरें दोस्त और रिश्तेदार बनारस से बता रहे हैं वे भयावह हैं। कोई कह रहा है 50 मर गए हैं तो कोई कह रहा है कि नाहीं तोहकेँ का मालूम कम से कम 100 . सरकार की खबर 17 की है। पर सच मे कितने मरे और कितने अस्पताल में जा कर जेरे इलाज हैं यह तो कल जब अखबार आएगा तो पता चलेगा। कुछ लोग कह रहे हैं कि निर्माण एजेंसी पर जल्दी जल्दी काम करने का दबाव था, कुछ कह रहे हैं कि गुणवत्ता ठीक नहीं है। बाबा का शहर है सच बाबा जाने।
लेकिन यह तय है कि सड़क, पुल, फ्लाईओवर बड़े मकान बनते समय गुणवत्ता पर तो सवाल उठते रहते हैं पर सुरक्षा के एक भी मानक पूरे नहीं किये जाते हैं। जहां पुल गिरा है वह शाम के समय बहुत जाम रहता है। रेलवे स्टेशन, शहर और इलाहाबाद का आम रास्ता है वह। ऐसी दशा में पुल गिर जाए तो जो भयानक हादसा हुआ होगा उस समय पर वहां बनारस की भीड़ जिसने भी देखी होगी हादसे का अनुमान लगा सकता है।
इस दुर्घटना पर सेतु निगम के अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कृत्य का मामला बनता है। तुरन्त मुक़दमा कायम कर के इसकी गंभीरता से जांच हो और दायित्व निर्धारित किया जाय। सुरक्षा के मानक तय करने का भी दायित्व निर्धारित हो। मेट्रो प्रोजेक्ट्स में सुरक्षा मानक का पालन होता है। दुर्घटना तो दुर्घटना ही है। तमाम सावधानियों के बावजूद भी दुर्घटना हो सकती है। पर जब सुरक्षा मानक और गुणवत्ता स्तरीय रहेगी तो कम से कम जनहानि होगी या बिल्कुल नहीं होगी। मुआवजा एक जनरोष को नियंत्रित करने का उपाय है।
© विजय शंकर सिंह
No comments:
Post a Comment