Wednesday, 30 May 2018

Ghalib - Qatraa apnaa bhii haqeeqat mein hai dariyaa / क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 94.
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया, लेकिन
हमको तक़लीद ए तुनुक जफी ए मंज़ूर नहीं !!

Qatraa apnaa bhii haqeeqat mein hai dariyaa, lekin
Hamko taqleed e tunuk zafee e manzuur nahiin !!

सच तो यह है कि हमारी बूंद भी समुद्र ही है। लेकिन हमें मंसूर के ओछेपन की नकल करना पसंद नहीं है।
ग़ालिब के अनुसार उनकी बूंद भी एक प्रकार का सागर है। जो गुण और तत्व सागर में हैं वही गुण और तत्व उस बूंद में भी है जो ग़ालिब के भीतर। यह अद्वैत दर्शन के मूल यत जगते तत पिंडे के अनुसार है। ग़ालिब अपने क़तरे को दरिया से कम नहीं आंकते हैं।

ग़ालिब एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। मुसीबतों और मुफलिसी में भी उन्होंने अपने स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। एक प्रसंग सुने । ग़ालिब की आर्थिक स्थिति जब बहुत खराब हो गयी तो, उनके दोस्त एक मुफ्ती साहब ने उनके लिये एक मदरसे में फारसी के उस्ताद के रूप में पढ़ाने के लिये व्यवस्था की। दिन और वक़्त तय हुआ। ग़ालिब साहब, उस्ताद के रूप में मदरसे में गये। पर जब वहां गये तो जिनका मदरसा था, वे न तो दरवाज़े पर ग़ालिब के लिये स्वागत में खड़े मिले और न ही मदरसे में थे। ग़ालिब उल्टे पांव लौट आये। मुफलिसी में भी उन्होंने एक अच्छी तनख्वाह केवल इस लिये ठुकरा दी कि, उनके आवभगत में मदरसे के मालिक ने कमी कर दी। बात आयी गयी हो गयी। बाद में कुछ दिनों के बाद मुफ्ती साहब मिले और उन्होंने कहा, 
" मिर्ज़ा नौशा, ( ग़ालिब का यह लोकप्रिय नाम था ) आप ने मदरसे की मुलाज़िमत ( नौकरी ) क्यों छोड़ दी ?
ग़ालिब ने कहा, 
" वे मदरसे में फारसी के उस्ताद ( अध्यापक ) के रूप में गये थे, न कि मुलाज़िम के रूप में। " 
मुफ़्ती ग़ालिब का मुंह देखते रह गए।

मंसूर अल हजाज़ ( 858 ई से 26 मार्च 922 ) को सूफीवाद के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। ग़ालिब इस शेर में इन्ही मंसूर का उल्लेख कर रहे हैं। मंसूर ने कहा था, अल अल हक़, मैं ही ईश्वर हूँ। यह बिल्कुल अहम ब्रह्मास्मि का अनुवाद लगता है। लेकिन खुद को ईश्वर घोषित करना मंसूर के लिये भारी पड़ गया। उन्हें 922 में अब्बासी खलीफा अल मुक्तदर के आदेश से सूली पर चढ़ा दिया गया। मंसूर पर खुद को खुदा कहने का जुर्म आयद हुआ और इस कुफ्र की उन्हें सजा मिली। मंसूर के इस वाक्य में छिपे दर्शन के तत्व को न खलीफा समझ सका न उसके कारिंदे न मौलाना। 

ग़ालिब, यहां मंसूर से थोड़ा मत वैभिन्यता रखते हैं। खुद को खुदा कहने की मंसूर की बात को वे ओछा मानते हैं। तभी वे कहते हैं कि वे अपने अस्तित्व ( बूंद ) को भी सागर मानते हैं। यद पिंडे तत जगते। कह ग़ालिब भी वही रहे हैं जो मंसूर ने कहा था। पर यह तो ग़ालिब के अंदाजे बयानी की खूबसूरती है।
इसी दर्शन पर कबीर को पढिये,
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहरि भीतरि पानी,
फूटहि कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथौ ज्ञानी !!
( कबीर )

© विजय शंकर सिंह

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