Tuesday 22 May 2018

कवि त्रिलोचन की एक कहानी - प्रमाण / विजय

फेंकूसिंह की बातों से जान पड़ता था कि भय उनमें रत्ती-भर भी नहीं है | मगर लोग वेदवाक्य की तरह इसे  सिर झुकाकर मान नहीं लेते थे | लोगों का यही चलावा उन्हें बहुत अखरता था | वे दिल से चाहते थे की सब उन्हें निडर मानें | इसके लिए वे कुछ भी उठा न रखते | एक बार लोगों ने कहा की आपकी दृढ़ता उसी दिन मालूम हो जाएगी किस दिन 'राजा की बाग' में जाकर आप आधी रात में खूंटा  गाड़कर चले आवें |

'राजा की बाग़' में भूतों का डेरा है, ऐसा लोगों का विश्वास था | इसलिए वहीँ खूंटा गाड़ने की शर्त बदी गयी | इस शर्त को फेंकुसिंह ने भी मान लिया | जाड़े के दिन थे | आधी रात के समय में खोल ओढ़कर हाथ में मुंगरी और खूंटा लेकर वे बाग़ की ओर चले । राह-भर अपने पैरों को देखते चले गए | उनके कान भली-भांति सचेत थे | बाग़ में पहुंचे तो एक पेड़ की जड़ में दृष्टि जमाकर कुछ देर खड़े रहे फिर चौकन्ने होकर इधर-उधर देखा और निशंक होकर एक जगह खूंटा गाड़ना शुरू किया | खूंटा ठोकने के साथ एक बड़ी कर्कश आवाज़ होती थी जो बार-बार बेरहमी से कलेजे को उछल रही थी |

ज्यूँ-त्यूं करके खूंटा गड़ा | खूंटा गड़ गया तब वे उठे | लेकिन यह क्या ? -कोई खींच  रहा है ! देखा और कोई नहीं । तब क्या बात है ? घबड़ा उठे | अरे, कोई तो नहीं दिखता है | परन्तु जब चलना चाहते हैं तभी कोई खोल पकड़कर खींचता है | खोल छोड़ नहीं सकते | मालूम नहीं रोकने वाला कौन है ! -अरे कौन है ? चिल्ला पड़े-छोड़ दो ! छोड़ दो !!

प्रतिध्वनि हुई-छोड़ दो ! छोड़ दो !! चिल्लाते ही रहे | खोल न छूटी सो न छूटी | जी-बूता भर खींचा | खोल नहीं छूटी | पसीने के  मारे भीग गए | प्यास से कंठ सूख गया | ताकत हवा हो गयी | खोल नहीं छूटी | कंठ बराबर बोल रहा था- छोड़ दो ! छोड़ दो !! प्रतिध्वनि बराबर हो रही थी- छोड़ दो ! छोड़ दो !! धीरे-धीरे आवाज़ मद्धिम पड़ती गयी और प्रतिध्वनि भी मिटती गयी | हाथ-पाँव निश्चेष्ट-से हो गए | खोल नहीं छूटी, नहीं छूटी |

    सवेरे एक आदमी ने देखा : फेंकुसिंह सो रहे हैं | पास में खूंटा गडा है और मूंगरी पड़ी है | उसने सोचा, सचमुच फेंकुसिंह बड़े निर्भय हैं | उन्होंने खूंटा ही नहीं गाड़ा, रात-भर यहीं सोते भी रहे | कोई ऐसा नहीं कर सकता | पास पहुंचा | बुलाया | नहीं बोले | हिलाया-डुलाया | फिर भी उन्होंने जागने का कोई लक्षण नहीं दिखाया | बड़ी गहरी नींद है ; उसने सोचा किसी तरह नहीं जगे | वह परेशान हो गया तब उसने खोल का किनारा पकड़कर खींचा | सो, खोल नहीं खिंच सकी | देखा, खूंटा खोल के ऊपर गड़ा है | खोल उसी में फंसी है | निकल नहीं सकती | खूंटा उखाड़ना होगा |लगा खूंटा उखाड़ने |
तभी उसे दुर्घंधी मालूम हुई | ध्यान से फेंकुसिंह को देखा | उनकी धोती ख़राब हो गयी थी | वह आदमी हडबडाकर खड़ा हो गया |

धीरे-धीरे उसने समझ लिया कि फेंकुसिंह ने इस दुनिया को छोड़ दिया है |
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© विजय शंकर सिंह

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