Sunday 13 May 2018

एक गुफ्तगू फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से - चले भी ' जाओ ' कि ' गुलशन ' का कारोबार चले ! / विजय शंकर सिंह


" चले भी ' जाओ ' कि ' गुलशन ' का कारोबार चले ! "
फ़ैज़ साहब इस कालजयी पंक्ति को मैंने थोड़ा सा बदल दिया है। मैं इस गुस्ताखी के लिये आप से माफी चाहता हूं। लेकिन यह गुस्ताखी आप के अदब, आप की अंदाज़ ए बयानी और आप के इंक़लाबी जज़्बे के खिलाफ नहीं है । हो भी नहीं सकती। आप के शेर, नज़्म ग़ज़लें और आप की सरमायादारी के खिलाफ जंग का मैं प्रशंसक हूँ। उर्दू, को फारसी लिपि में पढ़ लिख न पाने के कारण भी मैंने आप की ग़ज़लें नज़्में बराबर पढ़ी हैं। अभी भी पढ़ता रहता हूँ। आप की हर नज़्म चाहे वह रूमानी हो या इश्किया एक इंक़लाब की आग से भरी मुझे लगी। पर आज एक ऐसे देश के नागरिक होने के कारण जहां यह दावा ही नहीं किया जाता बल्कि यह सच भी है कि हमे कहने सुनने, लिखने पढ़ने की भरपूर आज़ादी हमारे आईन से हमे मिली है, पर आज एक ऐसी घटना हुई है जिसके कारण न सिर्फ हम व्यथित हैं बल्कि मुल्क को पाकिस्तान बनने की ओर जाते देख रहे हैं। आप नाराज़ मत होइएगा, मैंने आप के मुल्क पाकिस्तान का नाम लिया तो। पर पाकिस्तान भी आप का मुल्क कहां रहा ? उसी मुल्क ने आप को कौन से कम दुःख दिए। उस मुल्क ने आप को जेल में डाला और ज़ुबान में पहरे लगाए, पर आप पत्थरों की संगदिल दीवारों के घेरे में भी इंक़लाबी शायरी की अलख जलाए रहे।  जेलखाना भी देह को तो बांध सकता है, पर मन और ज़ुबान पर जो विचार उभर रहे हैं उन्हें भले कैसे बांध सकता है वह।

आप ने अपनी ज़िंदगी के कुछ साल जेल में गुज़ारे। जब दोनों मुल्क आज़ाद हुए तो बहुतों के मन मे इस आज़ादी की खुशी के साथ एक कसक भी थी। काश ऐसा नहीं हुआ होता तो। ज़िन्दगी का सारा फलसफा ही, काश और ऐसा न हुआ होता तो के बीच बाबस्ता है। न आकाश से मुक्ति है, जहां जाओ वही सिर पर तना अलग अलग रंग बदलता रहता है और न काश से, ज़िन्दगी कितनी भी खूबसूरती से गुज़र जाए यह लफ्ज़ जुबां पर आ ही जाता है।
1951 से 1955 तक आप ( फ़ैज़ साहब ) जेल में रहे। पाकिस्तान की जेल में। इल्ज़ाम भी छोटा मोटा नहीं था। इल्ज़ाम था तख्ता पलट का। आप ने भी तो माना नहीं। लिख ही दिया था,

ये दाग दाग उजाला, ये शब गज़ीदा शहर,
इंतेज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं !

आप ने करोड़ो लोगो के दिल की आवाज़ को शब्दों में पिरो दिया। सचमुच यह वह सहर नहीं थी जिसका इंतज़ार था। यह दाग दाग उजाला था। यह इंक़लाब से भरे लफ्ज़ भला कैसे हुक्मरान को रास आ सकते हैं ? आप को तो जेल में जाना ही था। सरकारें सबसे अधिक डरपोक होती हैं। दुनिया मे जो सल्तनत सबसे अधिक मजबूत होती है वह सबसे अधिक डरती है। वह बम पिस्तौल और तोपों से नहीं डरतीं हैं, वे डरतीं है शब्दों से, तनी मुट्ठियों के हुजूम से, लोगों के संकल्प से भरे भाव शून्य लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए कदमों से। फिर भला आप के लफ्ज़ से वे क्यों और कैसे नही ख़ौफ़ज़दा होते। जेल में तो आप को जाना ही था।जब आप यह लिखेंगे तो,

ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरज़ू ले कर,
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं ।
फ़ज़ल के दश्त में तारों की आखिरी मंज़िल,
कहीं तो होगा, शब ए सुस्त मौज़ का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफीना ए गम ए दिल !!

पाकिस्तानी हुक़ूमत की निगाह में तो आप 1950 के दशक से ही चढ़ गए थे. लग रहा था कि आप को सजाए मौत मिलेगी। लेकिन सरकार डरती भी तो है। आप ने जनता से हुक़ूमत की शिकायत की. जनता ने उस वक़्त आप का साथ भी दिया। भला मनाइए जिया उल हक  बहुत बाद में आये । नहीं तो 1951 से 55 के बीच होते तो, अनर्थ भी हो सकता है। आप उस समय बच गए। जिया जब आये तब वे आप को नजरअंदाज कर गये। फौजी थे। फौजी ज्यादा दिमाग नहीं लगाता। आप की लेखनी की तासीर या तो जनरल साहब समझ नहीं पाए या जानबूझकर उन्होंने गौर नहीं किया। इस तरह इस महाद्वीप का एक इंक़लाबी स्वर बचा रह गया।

ज्यार्जियो अगमबेल एक राजनीति शास्त्र के विद्वान थे। उन्होंने अपने एक लेख में एक बड़ा मज़ेदार वाक्य लिखा है। आप भी पढ़ें,
" लोकतंत्र के द्वारा चुनी गई सरकारें भी अपने अंदर एक ऐसी संरचनाएं विकसित करने लगती हैं कि वे अपने ही नागरिकों का दमन करने लगती हैं। "
ज्यार्जियो का यह कथन पाकिस्तान ने आज़ाद होने के कुछ ही साल बाद ही सही होने लगा। हम खुशकिस्मत थे कि हमारा,  तत्कालीन निज़ाम दिल और दिमाग दोनों से ही लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित था। पर एक हल्का सा स्वाद ज्यार्जिया के इस सिद्धांत का 1975 से 77 तक हमें भी इमरजेंसी में चखना पड़ा। पर जनता की जागरूकता से फिर किसी की हिम्मत नहीं हुई।

फ़ैज़ साहब, आज हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सबसे बड़े अलमबरदार हैं। न केवल कागज़ और दुनिया के सबसे बड़े संविधान के पन्ने पर बल्कि दिल और दिमाग से भी। पर जब कल आप की बेटी मोनिजा हाशमी, जो पाकिस्तान की एक बड़ी पत्रकार भी हैं, उन्हें दिल्ली की 15 वीं एशिया मीडिया समिट में न्योता दे कर बुलाया गया और जब वे दिल्ली की ज़मीन पर आयीं तो उन्हें बैरंग वापस कर दिया गया तो हमारा यह यह फख्र हिल गया।  यह उनका ही नहीं देश की समृद्ध अतिथि देवो भव की परंपरा का अपमान है। अगर मोनिजा हाशमी के आने से सरकार किसी कारण असहज हो रही थी तो उन्हें पहले ही यहां आने का वीसा ही नहीं दिया जाना चाहिये था। कमाल की बात यह है कि इस समिट का आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय तथा प्रसार भारती कर रहा है। जब मोनिजा दिल्ली एयरपोर्ट से होटल पर पहुंची तो उनके नाम कोई बुकिंग भी नहीं थी। बाद में उन्हें बताया गया कि आप को समिट में बोलने नहीं दिया जाएगा। यह अतिथि का बुला कर अपमान है। जब उन्हें बोलने ही नहीं दिया जाना था तो उन्हें बुलाने का मक़सद क्या था ? अगर सरकार को लगता था कि उनका यहां आना देश हित के विरुद्ध है तो उन्हें निमंत्रण ही नहीं दिया जाना चाहिये था। लेकिन यह बुला कर फिर उन्हें डिपोर्टे करना, नैतिक और अंतरराष्ट्रीय नियमों के अंतर्गत भी अनुचित है। इससे दुनिया भर में यह संदेश जाता है कि हम एक अधकचरे और बिना सोचे समझे फैसले लेने वाले मुल्क हैं। यह एक प्रकार की नीति - धुंधता भी है।
पाकिस्तान फ़ैज़ से डरता था, हम फ़ैज़ की बेटी से डरते हैं ! पाकिस्तान तो अपने जन्म के कुछ साल बाद ही तानाशाही के मकड़ जाल में आ गया था, और हम उसी के नक़्शेक़दम पर जाने अनजाने बढ़ रहे हैं।  अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र में जीवन भरती है और स्वतंत्रचेत्ता नागरिकों का निर्माण करती है । जब इस पर बंदिशें लगती है तो आप यानी  फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब बहुत जरूरी हो जाते हैं । आप की शायरी ज़रूरी हो जाती है। आप के लफ्ज़ हिम्मत भर देते हैं।

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, महमूद दरवेश और नाज़िम हिक़मत साहित्यिक और राजनीतिक व्यक्तित्वों की उस परंपरा में हैं  जो अभिव्यक्ति के कारण अपने देश से बाहर रहे या रहने को बाध्य हैं। वास्तव में फ्रांस की क्रांति के बाद पूरी दुनिया में आज़ादी की चाहतों में जो सबसे बड़ी चाहत उपजी, वह कहने की आज़ादी की चाहत रही है.। फ़ैज़ साहब आप जितने पाकिस्तान के हैं उससे कम भारत के नहीं है। कागज़ पर खींची गई एक खून से भरी रेखा जिस पर लोहे की बाड़ खड़ी है, इस आहनी दीवार के पास खड़े हो कर जब मैं एक बार पाकिस्तान की तरफ सूरज को डूबते हुए बाघा सीमा पर ज़ीरो पॉइंट पर खड़े हो कर देख रहा था तो तक्षशिला, मुअन जोदड़ो, लाहौर पेशावर से जुड़ा सारा पढा इतिहास फ्लैश बैक की तरह चलने लगा। एक कदम के बाद जो मुल्क है उसी की ज़मीन पर अंग्रेज़ो को भगाने का संकल्प लिया था हमारे पुरखों ने। एक शक का कीड़ा भी कुलबुलाने लगा, पुलिस वालों के दिमाग मे संदेह सबसे पहले स्वाभाविक रूप से उपजता है, दिमाग ही ऐसे प्रोग्राम्ड होता है , कहीं अंग्रेज़ों ने इसी का बदला तो नहीं मुल्क को बांट कर हमसे लिया। वे बदला ले भी सकते थे। वे बड़े शातिर दिमाग क़ौम हैं। ऐसे ही नहीं दुनिया पर उन्होंने राज किया है।



फ़ैज़ साहब आप जितना पाकिस्तान में नहीं पढ़े जाते होंगे उससे बहुत अधिक हम भारतीय आप को पढ़ते हैं। कवि लेखक शायर और विचारक असल मे एक विश्व नागरिक होते है। वे खुद भले ही बिना पासपोर्ट और वीसा के न जा सकें, पर उनका लिखा तो सर्वत्र उपलब्ध है। अब मैं आप की ग़ज़ल को जैसी है वैसी ही लिख देता हूँ।

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

कफ़स उदास है, यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत सँवार चले

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार-तार चले

मुक़ाम "फैज़" कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

( यह रचना मांटगोमरी जेल में जब फ़ैज़ साहब बंद थे तो 29 जनवरी 1954 को लिखी गयी थी। )
अब यह नातमाम गुफ्तगू यहीं तमाम होती है।

सरकार का यह कदम कि सरकार ने एक सरकारी आयोजन में मोनिजा हाशमी को बुला कर फिर डिपोर्ट कर दिया एक अपरिपक्व कदम है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले हम सब के लिये यह कदम शर्मनाक है और निंदनीय है।

© विजय शंकर सिंह

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