Sunday, 22 April 2018

Ghalib - Utnaa hee mujhko apnii haqeeqat se / उतना ही मुझको अपनी हक़ीक़त से - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 63
उतना ही मुझको अपनी हक़ीक़त से बोअद है,
जितना कि बहम ए गैर में हूँ, पेच ओ ताब में !!

Utnaa hii mujhko apanii haqeeqat se bo'ad hai,
Jitnaa ki baham e gair mein hun, pech o taab mein !!
- Ghalib.

अपनी हक़ीक़त, वास्तविकता, पहचान, से मैं उतना ही दूर हूँ, जितना कि ईश्वर से अपने आप को, अलग समझ कर दूर हूँ ।

भारतीय दर्शन का एक बोध वाक्य है, आत्म दीपो भव। पालि में यह अप्प दीपो भव है। इसका अंग्रेज़ी तरजुमा है know thyself. खुद को जानो। यह शेर इसी संक्षिप्त पर गूढ़ अर्थ समेटे वाक्य को ही ज़रा सा व्याख्यायित करता है। मुझे कुछ पता नहीं कि मैं क्या हूँ, कौन हूँ, मेरी हक़ीक़त क्या है। मैं इस वास्तविकता से उतना ही दूर हूँ, जितना कि मुझसे ईश्वर दूर है। अहम ब्रह्मास्मि, मैं ही ब्रह्म हूँ । या अनल हक़, मैं ही खुदा हूँ या सत्य हूँ यह सारे लघु वाक्य एक ही बात कहतें हैं बस इनकी ज़ुबान अलग अलग हैं। ग़ालिब इसी को कहते हैं कि उन्होंने अभी खुद को जाना नहीं है। वे अपनी वास्तविकता से अभी अपरिचित हैं। जिस दिन वे या कोई भी खुद को जान लेगा, पहचान लेगा, वह ईश्वर को जान लेगा। खुद को जान लेना ही सत्य से साक्षात्कार है।

यह भाव लगभग सभी सूफी और रहस्यवादी कवियों में मिलता है। सूफीवाद भी रहस्यवाद है। रहस्य है ईश्वर जो अजन्मा, अमर, अबूझा और अगम्य है। उसे जानने का क्रम चिरन्तन है और क्या पता कब तक रहे। कबीर भी एक रहस्यवादी और निर्गुण परंपरा के कवि थे।  इसी से मिलता जुलता कबीर का यह दोहा, पढ़ें।

' कबीर : सोच बिचारिया, दूजा कोई नाहिं,
आपा पर जब चीन्हिया, तब उलटि समाना माहिं !!

मैंने सोच विचार के बाद यह बात जान ली, कि ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। जब मैं अपने और पराये के भेद को जान गया तो, तब मैं पलट कर अपने मे समा गया। खुद में ही विलीन हो गया।
कबीर के साखी शबद रमैनी जो उनकी रचनाओं के संग्रह हैं में यह भाव सर्वत्र बिखरा पड़ा है। इसी से मिलता जुलता कबीर के दो और दोहे देखें,

झुठनि झूठ साच करि जाना,
झुठनि में सब साच लुकाना !!
( कबीर )

हम मिथ्या जगत के लोग, इसी जगत को सत्य और वास्तविक मान बैठते हैं। ईश्वर ने इसी मिथ्या में सत्य को छुपा रखा है ।
( कबीर )

अपने एक और इसी प्रकार के दोहे मे वे कहते हैं।

जग जीवन ऐसा सपने जैसा, जीवन सुपन समान,
सांचु करि हम गांठ दीनी, छोड़ि परम निधान !!
( कबीर )

यह जगत एक स्वप्न की तरह है, और यह जीवन भी स्वप्न है। हमने इसी मिथ्या भाव को ही सच मान लिया है। ईश्वर जो परम् सत्य है उसे हमने इसी मिथ्या भाव के कारण भुला रखा है।
यहां ग़ालिब और कबीर का यह कोई तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है। क्यों कि मैं न तो ग़ालिब के अदब का जानकार हूँ और न हीं कबीर के साहित्य का मर्मज्ञ । मुझे ग़ालिब के शेर में जो दर्शन दिखा वही उनसे कई सदी पहले कबीर के दोहों में भी दिखा तो मैंने उसे यहां जोड़ दिया। ग़ालिब का यह शेर उनकी आध्यात्मिक पैठ और दृष्टि को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त करता है।  यही उनकी निराली अंदाज़ ए बयानी है।

© विजय शंकर सिंह

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