Thursday, 30 November 2017

Ghalib - Aahang e Asad mein nahin / आहंग ए असद में नहीं - ग़ालिब - ग़ालिब पर बेदिल का प्रभाव / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 45.
ग़ालिब पर बेदिल का प्रभाव.

आहंग ए असद में नहीं,
जुज़ नग़्मा ए बेदिल !!

Aahang e Asad mein nahin,
juz naghma e Bedil !!
- Ghalib.

ग़ालिब के गीतों में बेदिल के गीतों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.

बेदिल, उपनाम है उस शायर का जिसे ग़ालिब अपना मार्गदर्शक या प्रेरणाश्रोत मानते थे. बेदिल मूलतः फारसी के शायर थे उनका पूरा नाम मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल था. उनका समय 1642 से 1720 तक था. वे फारसी की सूफी परंपरा के शायर थे. फारसी के शायर होने के बावज़ूद भी उनके पुरखों की भाषा फारसी नहीं बल्कि तुर्की थी. वे तुर्क मुगल रक्त के थे और उनका जन्म अजीमाबाद जो अब पटना है , में हुआ था. मुग़ल दरबार के आश्रित होने के कारण इन्होंने दरी फारसी सीखी और उसी में अपना साहित्य रचा. कविताओं की 16 पुस्तकें इनके द्वारा लिखी गयी है. इनकी किताबों, तिलस्म ए हैरत, तूर ए मरफात, रुक़्क़ात ने मिर्ज़ा ग़ालिब को बहुत प्रेरित किया. धार्मिक परिवेश में पले बढे होने के बावज़ूद भी बेदिल उदार विचारधारा के थे. उनके उदार विचारों का तत्कालीन कट्टरपंथी जमात ने भी बहुत विरोध किया. ग़ालिब स्वीकार करते हैं कि सूफी और विराट दर्शन की परंपरा उन्हें बेदिल के साहित्य से ही मिली. ग़ालिब ही नहीं आधुनिक उर्दू के एक और महान शायर अल्लामा इक़बाल भी खुद को उनसे प्रभावित मानते थे.

बेदिल की रचनाएं गंभीर तो होती थीं पर एक प्रकार का चुलबुला पन उनमें था. उस समय के फारसी साहित्य के परम्परागत आलोचकों ने उस जटिल और शोखी भरे अर्थों से युक्त साहित्य की बहुत नहीं सराहा. यह साहित्य का एक नया आंदोलन था. गंभीरता के साथ एक प्रकार का चुलबुलापन जो ग़ालिब के शायरी में दीखता है वह बेदिल का ही प्रभाव. भारत से अधिक बेदिल ईरान और अफगानिस्तान में सराहे गए. अफगानिस्तान में तो उनके साहित्य पर शोध करने वालों को बेदिल शिनास ही कहा जाता है. यही नहीं मध्य एशिया में प्रचलित, इंडो पर्शियन संगीत कला में सबसे लोकप्रिय ग़ज़लें बेदिल की ही मानी जाती है. उनका देहांत दिल्ली में ही हुआ और उनकी मज़ार मथुरा रोड के पुराने किले के पास मेजर ध्यान चन्द नेशनल स्टेडियम के पास है.

© विजय शंकर सिंह

उदय प्रकाश की एक कविता - सत्ता / विजय शंकर सिंह

जो करेगा लगातार अपराध का विरोध
अपराधी सिद्ध कर दिया जायेगा

जो सोना चाहेगा वर्षों के बाद सिर्फ़ एक बार थक कर
उसे जगाये रखा जायेगा भविष्य भर

जो अपने रोग के लिए खोज़ने निकलेगा दवाई की दूकान
उसे लगा दी जायेगी किसी और रोग की सुई

जो चाहेगा हंसना बहुत सारे दुखों के बीच
उसके जीवन में भर दिये जायेंगे आंसू और आह

जो मांगेगा दुआ,
दिया जायेगा उसे शाप
सबसे सभ्य शब्दों को मिलेगी
सबसे असभ्य गालियां

जो करना चाहेगा प्यार
दी जायेंगी उसे नींद की गोलियां

जो बोलेगा सच
अफ़वाहों से घेर दिया जायेगा
जो होगा सबसे कमज़ोर और वध्य
बना दिया जायेगा संदिग्ध और डरावना

जो देखना चाहेगा काल का सारा प्रपंच
उसकी आंखें छीन ली जायेंगी
हुनरमंदों के हाथ
काट देंगी मशीनें

जो चाहेगा स्वतंत्रता
दिया जायेगा उसे आजीवन कारावास !
एक दिन लगेगा हर किसी को
नहीं है कोई अपना, कहीं आसपास !!

( उदय प्रकाश )
#vss

Monday, 27 November 2017

27 नवम्बर, पुण्यतिथि, वीपी सिंह - एक स्मरण / विजय शंकर सिंह

27 नवम्बर के ही दिन जब हम सब चिंतित हो कर टीवी के सामने चुपचाप आक्रोशित मुद्रा में मुंबई हमले का ज़ीवित प्रसारण देख रहे थे तो उसी समय टीवी पर एक पट्टी में वीपी सिंह के निधन का समाचार गुजरा था । किसी ने नोटिस लिया तो किसी ने उसे गुजर जाने दिया । निधन से अधिक महत्वपूर्ण खबर पाकिस्तान द्वारा मुम्बई पर हमले की, टीवी पर चल रही थी।

वीपी सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपार बहुमत ही सत्ता की कसौटी नहीं होता है, का मिथक तोड़ा था । 1989 के जन मोर्चा के वे दिन जिन लोगों को याद होंगे वे यह ज़रूर बताएंगे कि वीपी सिंह का 1989 में उदय और उनकी लोकप्रियता के दम पर ही होने वाला आम चुनाव एक करिश्मा था । वीपी सिंह की सरकार बनी और उसका समर्थन किया था भाजपा और वामदलों ने। यह भी एक अजब राजनीति की गजब कहानी थी। लेकिन कुछ साथी नेताओं की महत्वाकांक्षा ने दक्षिण और वाम की बैसाखी पर चलती हुयी इस लंगड़ी सरकार को गिरा दिया ।

वीपी सिंह एक समय जितने लोकप्रिय हुए थे उतने ही यह अलोलप्रिय भी हुये । कारण अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये मंडल कमीशन को लागू करने का निर्णय था । आग की तरह इस निर्णय का विरोध हुआ । अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट गया और वहीं से अंतिम फैसला हुआ । इस फैसले के कारण अपने सजातीय समाज के भी यह निशाने पर रहे । आज इनकी पुण्यतिथि है। उनके साथ मेरे कुछ व्यक्तिगत संस्मरण भी हैं, जो फिर कभी साझा होंगे । वीपी सिंह के योगदान पर बहुत बहस होती रहती है । आगे भी होती रहेगी ।

संभवतः विरोधाभास उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। इलाहाबाद के पास मांडा के रहने वाले राजा मांडा के नाम से प्रसिद्ध वीपी सिंह ने  युवावस्था में ही अपनी रियासत की बहुत सारी जमीन उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रेरित होकर दान कर दी थी।  देहरादून में अपनी करोड़ों अरबों की जमीन उन्होने ऐसे ही छोड़ दी उन लोगों के पास जो नाममात्र का किराया देकर वहाँ दुकानें आदि चलाते थे। वी.पी सिंह उन बिरले राजनेताओं में से रहे हैं जिन पर कभी धन के भ्रष्टाचार का आरोप कोई नहीं लगा सका । उन्हे सिर्फ एक राजनेता ही नहीं कहा जा सकता। श्री वी.पी सिंह में कई व्यक्तित्व दिखायी देते हैं और उन्हे सिर्फ किसी एक मुद्दे पर खारिज नहीं किया जा सकता। वे एक बेहतरीन कवि, लेखक, चित्रकार और फोटोग्राफर भी थे।

मंडल कमीशन लागू करने के सामाजिक और राजनीतिक निर्णय ने उनके व्यक्तित्व को बहुत हद तक भ्रम भरे बादलों के पीछे ढ़क दिया है। उनके राजनीतिक जीवन का मूल्यांकन राजनीतिक इतिहास लिखने वाले लोग करेंगे पर राजनीति से परे उनके अंदर के कलाकार पर तो लेखक और कलाकार समुदाय निगाह डाल ही सकता है। उनकी कविता में गहरे भाव रहे हैं। उन्होने तात्कालिक परिस्थितियों से उपजी कवितायें भी लिखीं जो काल से परे जाकर भी प्रभाव छोड़ने की माद्दा रखती हैं। कांग्रेस से इस्तीफा देते समय उन्होने यह कविता भी रची थी।

तुम मुझे क्या खरीदोगे
मैं बिल्कुल मुफ्त हूँ

उनकी कविता आधुनिक है, उसमें हास-परिहास, चुटीलापन भी है और व्यंग्य भी। उनकी कविता बहुअर्थी भी है। बानगी देखिये।

काश उसका दिल एक थर्मस होता
एक बार चाह भरी
गरम की गरम बनी रहती
पर कमबख्त यह केतली निकली।

वे नेताओं के राजनीतिक जीवन की सांझ के दिनों पर भी कविता लिखे बिना नहीं माने।

उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।

कविता भारत के लगभग हर नेता के जीवन का सच उजागर कर देती है।

आदर्शवाद उनकी कविताओं में भी छलकता है और शायद इसी आदर्शवाद ने उन्हे राजनीति में कुछ खास निर्णय लेने के लिये प्रेरित किया होगा।

निम्नलिखित कविता में नेतृत्व को लेकर कितनी बड़ी बात वे कह गये हैं।

मैं और वक्त
काफिले के आगे-आगे चले
चौराहे पर …
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक्त के साथ चले गये ।

प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने 1996 में एक लेख में उनके बारे में ये शब्द लिखे थे, जो पठनीय हैं ,
" सन् नब्बे के बाद हमारी राजनीति को बुनियादी रूप से किसी ने बदला है तो वीपी सिंह ने. कांग्रेस को किसी एक राजनेता ने निराधार किया है तो उसी में से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने. लेकिन वे एक असाध्य रोग से दिन बचाते हुए रचनात्मक ऊर्जा में जी रहे हैं. जो मृत्यु से, कविता और चित्र से साक्षात्कार करके उसे अप्रासंगिक बनाता हुआ उस के पार जा रहा हो, उसकी सर्जनात्मक स्थितप्रज्ञता को भी थोड़ा समझिए. वह प्रणम्य । "

वे एक संवेदनशील और सहृदय व्यक्ति थे। वे संभवतः समय से आगे थे । आज उनकी पुण्यतिथि पर उनका विनम्र स्मरण और श्रद्गंजलि ।

© विजय शंकर सिंह

Friday, 24 November 2017

न्यूरेम्बर्ग ट्रायल और इस पर जसबीर चावला की एक कविता - न्यूरेम्बर्ग में हिटलर / विजय शंकर सिंह

हर तानाशाह विनाश लाता है और वही विनाश उसके सर्वनाश का कारण बनता है । हिटलर भी अपवाद नहीं था । 1945 में द्वीतीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पूरी दुनिया को हिंसक युद्धों में झोंक देने के बाद, जर्मनी के न्यूरेम्बर्ग नामक स्थान पर 1945 से 1949 तक धुरी देशों के युद्धपराधियों के खिलाफ मुक़दमे चलाये गये थे। ये मुक़दमे, न्यूरेम्बर्ग ट्रायल के रूप में प्रसिद्ध है। कुल 13 ट्रिब्यूनल गठित हुये थे जिन्होंने इन मुकदमों की सुनवाई की। जिनके खिलाफ मुक़दमे चले वे थे, नाज़ी पार्टी के अधिकारीगण, हिटलर के नजदीकी राजनीतिज्ञ, जर्मन उद्योगपति जिन्होंने हिटलर की तानाशाही में उसका साथ दिया था, हिटलर की विचारधारा से जुड़े पत्रकार, वकील और डॉक्टर । इन सबके ऊपर मानवता के विरुद्ध युद्ध छेड़ने, नस्ली नर संहार करने, का आरोप लगाया गया था । हिटलर ( 1889 - 1945 ) ने विश्व युद्ध के समाप्ति के समय आत्महत्या कर ली थी। उसका प्रचार मंत्री गोएबल ने भी खुद को गोली मार ली थी।  न्यूरेम्बर्ग ट्रायल के समय गठित न्यायालय पर भी उसके अधिकार क्षेत्र और शक्तियों को लेकर विवाद हुये थे। पर न्यायालय ने अपना काम पूरा किया, औऱ दोषी पाए जाने पर युद्धपराधियों को मृत्युदंड दिया गया।  इसी ट्रायल के बाद इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस की नींव पड़ी।

नस्ली हत्याओं और रंगभेद के विरुद्ध विश्व का यह पहला कानूनी ट्रायल था । 22 नेताओं पर अपराध सिद्ध हुआ था, जिसमे 12 को फांसी की सज़ा दी गयी और 3 को आजन्म कारावास । कुछ महत्वपूर्ण नेताओं को जिन्हें फांसी की सज़ा दी गयी वे हैं, हांस फ्रैंक, ( Hans Frank, ) विलेहलम फ्रिक ( Wilhelm Frick ) अल्फ्रेड जोडल ( Afred Jodl ), अर्नस्ट करलटेंब्रनर ( Ernst Kaltenbrunner ) विलेहलम कीटेल ( Wilhelm Keitel ),  जोआचिम वॉन रिब्बेन ट्रॉप  ( Joachim von Ribbentrop ), अल्फ्रेड रोज़ेनबर्ग ( Alfred Rosenberg ), फ्रिट्ज साउकेल ( Fritz Sauckel ), आर्थर सेेस्स इंक़वार्ट ( Arthur Seyss-Inquart ) और जूलियस स्ट्रेचर  ( Julius Streicher ) ।एक सज़ायाफ्ता नाज़ी नेता हरमन गोरिंग ( Hermann Göring ) ने फांसी पर लटकाये जाने के पहले ही आत्म हत्या कर ली थी। मार्टिन बोरमानवास ( Martin Bormannwas ) नामक एक अन्य  नाज़ी नेता को फांसी की सज़ा दी गयी थी पर वह जेल से भागते समय पकड़े जाने के डर से आत्महत्या कर के मर गया । 

इसी विषय पर अजय गंगवार की फेसबुक वाल से ली गयी यह कविता पढ़ें ।
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न्युरम्बर्ग में हिटलर
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अगर ज़िंदा पकड़ा जाता हिटलर
पेश होता न्युरेम्बर्ग ट्रायल में
क्या सिर झुकाए आरोप सुन लेता
मांगता माफी गुनाहों की
मुँह में तृण रख लेता
नफरत नहीं है अब विश्व के यहूदियों से
यहूदी उसके भाई हैं
बदल गये हैं उसके विचार

या तनकर बैठता
मुक्के पीटता
चीखता
अवैध है न्युरेम्बर्ग जाँच ट्रायल
तुम सब दफा हो
क्यों मानूं तुम्हारी संप्रभुता
यहूदी ग़लीज़ हैं इसी काबिल ।
सही हैं गेस्टापो,
गोयेबल्स,
यहुदीयों का निर्वासन,
यातना चेंबर,
मेरी नस्लीय श्रेष्ठता,
निभाया है मैंने राजधर्म ।
नहीं बदलेगा अपने विचार,
आस्था ।
कोई घोषणा क्यों करे,
हिटलर बदल गया है राजनीति,
वक्त के दबाव से
वह जीयेगा इन्हीं संग
मरेगा इन्हीं संग !!
☘ जसबीर चावला
****
#vss

एक जज की मौत - निरंजन टाकले की द कारवां पत्रिका में छपा लेख / विजय शंकर सिंह

एक जज की मौत : The #Caravan की सिहरा देने वाली वह स्‍टोरी जिस पर मीडिया चुप है ।
निरंजन टाकले / The #Caravan / 21-22 नवंबर, 2017

पहला अध्‍याय
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30 नवंबर 2014 की रात 11 बजे लोया ने अपनी पत्‍नी शर्मिला को अपने मोबाइल से नागपुर से फोन किया। करीब 40 मिनट हुई बातचीत में वे दिन भर की अपनी व्‍यस्‍तताएं उनहें बताते रहे। लोया अपने एक सहकर्मी जज सपना जोशी की बेटी की शादी में हिस्‍सा लेने नागपुर गए थे। उन्‍होंने शुरुआत में नहीं जाने का आग्रह किया था, लेकिन उनके दो सहकर्मी जजों ने साथ चलने का दबाव बनाया। लोया ने पत्‍नी को बताया कि शादी से होकर वे आचुके हैं और बाद में वे रिसेप्‍शन में गए। उन्‍होंने बेटे अनुज का हालचाल भी पूछा। उन्‍होंने पत्‍नी को बताया कि वे साथी जजों के संग रवि भवन में रुके हुए थे। यह नागपुर के सिविल लाइंस इलाके में स्थित एक सरकारी वीआइपी गेस्‍टहाउस है।

लोया ने कथित रूप से यह आखिरी कॉल की थी और यही उनका अपने परिवार के साथ हुआ आखिरी कथित संवाद भी था। उनके परिवार को उनके निधन की खबर अगली सुबह मिली।

उनके पिता हरकिशन लोया से जब मैं पहली बार लातूर शहर के करीब स्थित उनके पैतृक गांव गाटेगांव में नवंबर 2016 में मिला, तब उन्‍होंने बताया था कि 1 दिसंबर 2014 को तड़के ”मुंबई में उसकी पत्‍नी, लातूर में मेरे पास और धुले, जलगांव व औरंगाबाद में मेरी बेटियों के पास कॉल आया।” इन्‍हें बताया गया कि ”बृज रात में गुज़र गए, उनका पंचनामा हो चुका है और उनका पार्थिव शरीर लातूर जिले के गाटेगांव स्थित हमारे पैतृक निवास पर भेजा जा चुका है।” उन्‍हेांने बताया, ”मुझे लगा कि कोई भूचाल आ गया हो और मेरी जिंदगी बिखर गई।”

परिवार को बताया गया था कि लोया की मौत कार्डियक अरेस्‍ट (दिल का दौरा) से हुई थी। हरकिशन ने बताया, ”हमें बताया गया था कि उन्‍हें सीने में दर्द हुआ था, जिसके बाद उनहें नागपुर के एक निजी अस्‍पताल दांडे हास्पिटल में ऑटोरिक्‍शा से ले जाया गया, जहां उन्‍हें कुछ चिकित्‍सा दी गई।” लोया की बहन बियाणी दांडे हास्पिटल को ”एक रहस्‍यमय जगह” बताती हैं और कहती हैं कि उन्‍हें ”बाद में पता चला कि वहां ईसीजी यूनिट काम नहीं कर रही थी।।” बाद में हरकिशन ने बताया, लोया को ”मेडिट्रिना हॉस्पिटल में शिफ्ट कर दिया गया”- शहर का एक और निजी अस्‍पताल- ”जहां उन्‍हें पहुंचते ही मृत घोषित कर दिया गया।”

अपनी मौत के वक्‍त लोया केवल एक ही मुकदमे की सुनवाई कर रहे थे, जो सोहराबुद्दीन हत्‍याकांड था। उस वक्‍त पूरे देश की निगाह इस मुकदमे पर लगी हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में आदेश दिया था कि इस मामले की सुनवाई को गुजरात से हटाकर महाराष्‍अ्र में ले जाया जाए। उसका कहना था कि उसे ”भरोसा है कि सुनवाई की शुचिता को कायम रखने के लिए ज़रूरी है कि उसे राज्‍य से बाहर शिफ्ट कर दिया जाए।” सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया था कि इसकी सुनवाई शुरू से लेकर अंत तक ही एक ही जज करेगा, लेकिन इस आदेश का उल्‍लंघन करते हुए पहले सुनवाई कर रहे जज जेटी उत्‍पट को 2014 के मध्‍य में सीबीआइ की विशेष अदालत से हटा कर उनकी जगह लोया को ला दिया गया।

उत्‍पअ ने 6 जून 2014 को अमित शाह को अदालत में पेश न होने को लेकर फटकार लगाई थी। अगली तारीख 20 जून को भी अमित शाह नहीं पेश हुए। उत्‍पट ने इसके बाद 26 जून की तारीख मुकर्रर की। सुनवाई से एक दिन पहले 25 जून को उनका तबादला हो गया। इसके बाद आए लोया ने 31 अक्‍टूबर 2014 को सवाल उठाया कि आखिर शाह मुंबई में होते हुए भी उस तारीख पर क्‍यों नहीं कोर्ट आए। उन्‍होंने अगली सुनवाई की तारीख 15 दिसंबर तय की थी।

लोया की 1 दिसंबर को हुई मौत की खबर अगले दिन कुछ ही अखबारों में छपी और इसे मीडिया में उतनी तवज्‍जो नहीं मिल सकी। दि इंडियन एक्‍सप्रेस ने लोया की ”मौत दिल का दौरा पड़ने से” हुई बताते हुए लिखा, ”उनके करीबी सूत्रों ने बताया कि लोया की मेडिकल हिस्‍ट्री दुरुस्‍त थी।” मीडिया का ध्‍यान कुछ वक्‍त के लिए 3 दिसंबर को इस ओर गया जब तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने संसद के बाहर इस मामले में जांच की मांग को लेकर एक प्रदर्शन किया जहां शीतसत्र चल रहा था। अगले ही दिन सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन ने सीबीआइ को एक पत्र लिखकर लोया की मौत पर आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया।

सांसदों के प्रदर्शन या रुबाबुद्दीन के ख़त का कोई नतीजा नहीं निकला। लोया की मौत के इर्द-गिर्द परिस्थितियों को लेकर कोई फॉलो-अप ख़बर मीडिया में नहीं चली।

लोया के परिजनों से कई बार हुए संवाद के आधार पर मैंने इस बात को सिलसिलेवार ढंग से दर्ज किया कि सोहराबुद्दीन के केस की सुनवाई करते वक्‍त उन्‍हें किन हालात से गुज़रना पड़ा और उनकी मौत के बाद क्‍या हुआ। बियाणी ने मुझे अपनी डायरी की प्रति भी दी जिसमें उनके भाई की मौत से पहले और बाद के दिनों का विवरण दर्ज है। इन डायरियों में उन्‍होंने इस घटना के कई ऐसे आयामों को दर्ज किया है जो उन्‍हें परेशान करते थे। मैं लोया की पत्‍नी और बेटे के पास भी गया, लेकिन उन्‍होंने कुछ भी बोलने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उन्‍हें अपनी जान का डर है।

धुले निवासी बियाणी ने मुझे बताया कि 1 दिसंबर 2014 की सुबह उनके पास एक कॉल आई। दूसरी तरफ़ कोई बार्डे नाम का व्‍यक्ति था जो खुद को जज कह रहा था। उसने उन्‍हें लातूर से कोई 30 किलामीटर दूर स्थित गाटेगांव निकलने को कहा जहां लोया का पार्थिव शरीर भेजा गया था। इसी व्‍यक्ति ने बियाणी और परिवार के अन्‍य सदस्‍यों को सूचना दी थी कि लाश का पंचनामा हो चुका है और मौत की वजह दिल का दौरा पड़ना है।

लोया के पिता आम तौर से गाटेगांव में रहते हैं लेकिन उस वक्‍त वे लातूर में अपनी एक बेटी के घर पर थे। उनके पास भी फोन आया था कि उनके बेटे की लाश गाटेगांव भेजी जा रही है। बियाणी ने मुझे बताया था, ”ईश्‍वर बहेटी नाम के आरएसएस के एक कार्यकर्ता ने पिता को बताया था कि वह लाश के गाटेगांव पहुंचने की व्‍यवस्‍था कर रहा है। कोई नहीं जानता कि उसे क्‍यों, कब और कैसे बृज लोया की मौत की खबर मिली।”

लोया की एक और बहन सरिता मांधाने औरंगाबाद में ट्यूशन सेंटर चलाती हैं और उस वक्‍त वे लातूर में थीं। उन्‍होंने मुझे बताया कि उनके पास सुबह करीब 5 बजे बार्डे का फोन आया था यह बताने के लिए कि लोया नहीं रहे। उन्‍होंने बताया, ”उसने कहा कि बृज नागपुर में गुज़र गए हैं और हमें उसने नागपुर आने को कहा।” वे तुरंत लातूर के हॉस्पिटल अपने भतीजे को लेने निकल गईं जहां वह भर्ती था, लेकिन ”हम जैसे ही अस्‍पताल से निकल रहे थे, ईश्‍वर बहेटी नाम का व्‍यक्ति वहां आ पहुंचा। मैं अब भी नहीं जानती कि उसे कैसे पता था कि हम सारदा हॉस्पिटल में थे।” मांधाने के अनुसार बहेटी ने उन्‍हें बताया कि वे रात से ही नागपुर के लोगों से संपर्क में हैं और इस बात पर ज़ोर दिया कि नागपुर जाने का कोई मतलब नहीं है क्‍योंकि लाश को एम्‍बुलेंस से गाटेगांव लाया जा रहा है।” उन्‍होंने कहा, ”वह हमें अपने घर ले गया यह कहते हुए कि वह सब कुछ देख लेगा।” (इस  कहानी के छपने के वक्‍त तक बहेटी को भेजे मेरे सवालों का जवाब नहीं आया था)।

बियाणी के गाटेगांव पहुंचने तक रात हो चुकी थी- बाकी बहनें पहले ही पैतृक घर पहुंच चुकी थीं। बियाणी की डायरी में दर्ज है कि उनके वहां पहुंचने के बाद लाश रात 11.30 के आसपास वहां लाई गई। चौंकाने वाली बात यह थी कि नागपुर से लाई गई लाश के साथ लोया का कोई भी सहकर्मी मौजूद नहीं था। केवल एम्‍बुलेंस का ड्राइवर था। बियाणी कहती हैं, ”यह चौंकाने वाली बात थी। जिन दो जजों ने उनसे आग्रह किया था कि वे शादी में नागपुर चलें, वे साथ नहीं थे। परिवार को मौत और पंचनामे की खबर देने वाले मिस्‍टर बार्डे भी साथ नहीं थे। यह सवाल मुझे परेशान करता है: आखिर इस लाश के साथ कोई क्‍यों नहीं था?” उनकी डायरी में लिखा है, ”वे सीबीआइ कोर्ट के जज थे। उनके पास सुरक्षाकर्मी होने चाहिए थे और कायदे से उन्‍हें लाया जाना चाहिए था।”

लोया की पत्‍नी शर्मिला और उनकी बेटी अपूर्वा व बेटा अनुज मुंबई से गाटेगांव एकाध जजों के साथ आए। उनमें से एक ”लगातार अनुज और दूसरों से कह रहा था कि किसी से कुछ नहीं बोलना है।” बियाणी ने मुझे बताया, ”अनुज दुखी था और डरा हुआ भी था, लेकिन उसने अपना हौसला बनाए रखा और अपनी मां के साथ बना रहा।”

बियाणी बताती हैं कि लाश देखते ही उन्‍हें  दाल में कुछ काला जान पड़ा। उन्‍होंने मुझे बताया, ”शर्ट के पीछे उनकी गरदन पर खून के धब्‍बे थे।” उन्‍होंने यह भी बताया कि उनका ”चश्‍मा गले से नीचे था।” मांधाने ने मुझे बताया कि लोया का चश्‍मा ”उनकी देह के नीचे फंसा हुआ था।”

उस वक्‍त बियाणी की डायरी में दर्ज एक टिप्‍पणी कहती है, ”उनके कॉलर पर खून था। उनकी बेल्‍ट उलटी दिशा में मोड़ी हुई थी। पैंट की क्लिप टूटी हुई थी। मेरे अंकल को भी महसूस हुआ था कि कुछ संदिग्‍ध है।” हरकिशन ने मुझे बताया, ”उसके कपड़ों पर खून के दाग थे।” मांधाने ने बताया कि उन्‍होंने भी ”गरदन पर खून” देखा था। उन्‍होंने बताया कि ”उनके सिर पर चोट थी और खून था… पीछे की तरफ” और ”उनकी शर्ट पर खून के धब्‍बे थे।” हरकिशन ने बताया, ”उसकी शर्ट पर बाएं कंधे से लेकर कमर तक खून था।”

नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज द्वारा जारी उनकी पंचनामा रिपोर्ट हालांकि ”कपड़ों की हालत- पानी से भीगा, खून से सना या क़ै अथवा फीकल मैटर से गंदा” के अंतर्गत हस्‍तलिखित एंट्री दर्ज करती है- ”सूखा”।

बियाणी को लाश की स्थिति संदिग्‍ध लगी क्‍योंकि एक डॉक्‍टर होने के नाते ”मैं जानती हूं कि पीएम के दौरन खून नहीं निकलता क्‍योंकि हृदय और फेफड़े काम नहीं कर रहे होते हैं।” उन्‍होंने कहा कि दोबारा पंचनामे की मांग भी उन्‍होंने की थी, लेकिन वहां इकट्ठा लोया के दोस्‍तों और सहकर्मियों ने ”हमें हतोत्‍साहित किया, यह कहते हुए कि मामले को और जटिल बनाने की ज़रूरत नहीं है।”

हरकिशन बताते हैं कि परिवार तनाव में था और डरा हुआ था लेकिन लोया की अंत्‍येष्टि करने का उस पर दबाव बनाया गया।

कानूनी जानकार कहते हैं कि यदि लोया की मौत संदिग्‍ध थी- यह तथ्‍य कि पंचनामे का आदेश दिया गया, खुद इसकी पुष्टि करता है- तो एक पंचनामा रिपोर्ट बनाई जानी चाहिए थी और एक मेडिको-लीगल केस दायर किया जाना चाहिए था। पुणे के एक वरिष्‍ठ वकील असीम सरोदे कहते हैं, ”कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक अपेक्षा की जाती है कि पुलिस विभाग मृतक के तमाम निजी सामान को ज़ब्‍त कर के सील कर देगा, पंचनामे में उनकी सूची बनाएगा और जस का तस परिवार को सौंप देगा।” बियाणी कहती हैं कि परिवार को पंचनामे की प्रति तक नहीं दी गई।

लोया का मोबाइल फोन परिवार को लौटा दिया गया लेकिन बियाणी कहती हैं कि बहेटी ने उसे लौटाया, पुलिस ने नहीं। वे बताती हैं, ”हमें तीसरे या चौथे दिन उनका मोबाइल मिला। मैंने तुरंत उसकी मांग की थी। उसमें उनकी कॉल और बाकी चीज़ों का विवरण होता। हमें सब पता चल गया होता अगर वह मिल जाता। और एसएमएस भी। इस खबर के एक या दो दिन पहले एक संदेश आया था, ”सर, इन लोगों से बचकर रहिए।’ वह एसएमएस फोन में था। बाकी सब कुछ डिलीट कर दिया गया था।”

बियाणी के पास लोया की मौत वाली रात और अगली सुबह को लेकर तमाम सवाल हैं। उनमें एक सवाल यह था कि लोया को ऑटोरिक्‍शा में क्‍यों और कैसे अस्‍पताल ले जाया गया जबकि रवि भवन से सबसे करीबी ऑटो स्‍टैंड दो किलोमीटर दूर है। बियाणी कहती हैं, ”रवि भवन के पास कोई ऑटो स्‍टैंड नहीं है और लोगों को तो दिन के वक्‍त भी रवि भवन के पास ऑटो रिक्‍शा नहीं मिलता। उनके साथ के लोगों ने आधी रात में ऑटोरिक्‍शा का इंतज़ाम कैसे किया होगा?”

बाकी सवालों के जवाब भी नदारद हैं। लोया को अस्‍पताल ले जाते वक्‍त परिवार को सूचना क्‍यों नहीं दी गई? उनकी मौत होते ही ख़बर क्‍यों नहीं की गई? पंचनामे की मंजूरी परिवार से क्‍यों नहीं ली गई या फिर प्रक्रिया शुरू करने से पहले ही क्‍यों नहीं सूचित कर दिया गया कि पंचनामा होना है? पोस्‍ट-मॉर्टम की सिफारिश किसने की और क्‍यों? आखिर लोया की मौत के बारे ऐसा क्‍या संदिग्‍ध था कि पंचनामे का सुझाव दिया गया? दांडे अस्‍पताल में उन्‍हें कौन सी दवा दी गई? क्‍या उस वक्‍त रवि भवन में एक भी गाड़ी नहीं थी लोया को अस्‍पताल ले जाने के लिए, जबकि वहां नियमित रूप से मंत्री, आइएएस, आइपीएस, जज सहित तमाम वीआइपी ठहरते हें? महाराष्‍ट्र असेंबली का शीत सत्र नागपुर में 7 दिसंबर से शुरू होना था और सैकड़ों अधिकारी पहले से ही इसकी तैयारियों के लिए वहां जुट जाते हैं। रवि भवन में 30 नवंबर और 1 दिसंबर को ठहरे बाकी वीआइपी कौन थे?” वकील सरोदे कहते हैं, ”ये सारे सवाल बेहद जायज़ हैं। दांडे अस्‍पताल में लोया को दी गई चिकित्‍सा की सूचना परिवार को क्‍यों नहीं दी गई? क्‍या इन सवालों के जवाब से किसी के लिए दिक्‍कत पैदा हो सकती है?”

बियाणी कहती हैं, ”ऐसे सवाल अब भी परिवार, मित्रों और परिजनों को परेशान करते हैं।”

वे कहती हैं कि उनका संदेह और पुख्‍ता हुआ जब लोया को नागपुर जाने के लिए आग्रह करने वाले जज परिवार से मिलने उनकी मौत के ”डेढ़ महीने बाद” तक नहीं आए। इतने दिनों बाद जाकर परिवार को लोया के आखिरी क्षणों का विवरण जानने को मिल सका। बियाणी के अनुसार दोनों जजों ने परिवार को बताया कि लोया को सीने में दर्द रात साढ़े बारह बजे हुआ था, फिर वे उनहें दांडे अस्‍पताल एक ऑटोरिक्‍शा में ले गए, और वहां ”वे खुद ही सीढ़ी चढ़कर ऊपर गए और उन्‍हें कुछ चिकित्‍सा दी गई। उन्‍हें मेडिट्रिना अस्‍पताल ले जाया गया जहां पहुंचते ही उन्‍हें मृत घोषित कर दिया गया।”

इसके बावजूद कई सवालों के जवाब नहीं मिल सके हैं। बियाणी ने बताया, ”हमने दांडे अस्‍पताल में दी गई चिकित्‍सा के बारे में पता करने की कोशिश की लेकिन वहां के डॉक्‍टरों और स्‍टाफ ने कोई भी विवरण देने से इनकार कर दिया।”

मैंने लोया की पोस्‍ट-मॉर्टम निकलवाई जो नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में की गई थी। यह रिपोर्ट अपने आप में कई सवालों को जन्‍म देती है।

रिपोर्ट के हर पन्‍ने पर सीनियर पुलिस इंस्‍पेक्‍टर, सदर थाना, नागपुर के दस्‍तखत हैं, साथ ही  एक और व्‍यक्ति के दस्‍तखत हैं जिसने नाम के साथ लिखा है ”मैयाताजा चलतभाऊ” यानी मृतक का चचेरा भाई। ज़ाहिर है, पंचनामे के बाद इसी व्‍यक्ति ने लाश अपने कब्‍ज़े में ली होगी। लोया के पिता कहते हैं, ”मेरा कोई भाई या चचेरा भाई नागपुर में नहीं है। किसने इस रिपोर्ट पर साइन किया, यह सवाल भी अनुत्‍तरित है।”

इसके अलावा, रिपोर्ट कहती है कि लाश को मेडिटिना अस्‍पताल से नागपुर मेडिकल कॉलेज सीताबर्दी पुलिस थाने के द्वारा भेजा गया और उसे लेकर थाने का पंकज नामक एक सिपाही आया था, जिसकी बैज संख्‍या 6238 है। रिपोर्ट के मुताबिक लाश 1 दिसंबर 2014 को दिन में 10.50 पर लाई गई, पोस्‍ट-मॉर्टम 10.55 पर शुरू हुआ और 11.55 पर खत्‍म हुआ।

रिपोर्ट यह भी कहती है कि पुलिस के अनुसार लोया को ”1/12/14 की सुबह 4.00 बजे सीने में दर्द हुआ और 6.15 बजे मौत हुई।” इसमें कहा गया है कि ”पहले उन्‍हें दांडे अस्‍पताल ले जाया गया और फिर मेडिट्रिना अस्‍पताल लाया गया जहां उन्‍हें मृत घोषित किया गया।”

रिपोर्अ में मौत का वक्‍त सबह 6.15 बजे बेमेल जान पड़ता है क्‍योंकि लोया के परिजनों के मुताबिक उन्‍हें सुबह 5 बजे से ही फोन आने लग गए थे। मेरी जांच के दौरान नागपुर मेडिकल कॉलेज और सीताबर्दी थाने के दो सूत्रों ने बताया कि उन्‍हें लोया की मौत की सूचना आधी रात को ही मिल चुकी थी और उन्‍होंने खुद रात में लाश देखी थी। उनके मुताबिक पोस्‍ट-मॉर्टम आधी रात के तुरंत बाद ही कर दिया गया था। परिवार के लोगों को आए फोन के अलावा सूत्रों के दिए विवरण पोस्‍ट-मॉर्टम रिपोर्ट के इस दावे पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं कि लोया की मौत का समय सुबह 6.15 बजे था।

मेडिकल कॉलेज के सूत्र- जो पोस्‍ट-मॉर्टम जांच का गवाह है- ने मुझे यह भी बताया कि वह जानता था कि ऊपर से आदेश आया था कि ”इस तरह से लाश में चीरा लगाओ कि पीएम हुआ जान पड़े और फिर उसे सिल दो।”

रिपोर्ट मौत की संभावित वजह ”कोरोनरी आर्टरी इनसफीशिएंसी” को बताती है। मुंबई के प्रतिष्ठित कार्डियोलॉजिस्‍ट हसमुख रावत के मुताबिक ”आम तौर से बुढ़ापे, परिवार की हिस्‍ट्री, धूमंपान, उच्‍च कोलेस्‍ट्रॉल, उच्‍च रक्‍तचाप, मोटापा, मधुमेह आदि के कारण कोरोनरी आर्टरी इनसफीशिएंसी होती है।” बियाणी कहती हैं कि उनके भाई के साथ ऐसा कुछ भी नहीं था। वे कहती हैं, ”बृज 48 के थे। हमारे माता-पिता 85 और 80 साल के हैं और वे स्‍वस्‍थ हैं। उन्‍हें दिल की बीमारी की कोई शिकायत नहीं है। वे केवल चाय पीते थे, बरसों से दिन में दो घंटे टेबल टेनिस खेलते आए थे, उन्‍हें न मधुमेह था न रक्‍तचाप।”

बियाणी ने मुझे बताया कि उन्‍हें अपने भाई की मौत की आधिकारिक मेडिकल वजह विश्‍वास करने योग्‍य नहीं लगती। वे कहती हैं, ”मैं खुद एक डॉक्‍टर हूं और एसिडिटी हो या खांसी, छोटी सी शिकायत के लिए भी बृज मुझसे ही सलाह लेते थे। उन्‍हें दिल के रोग की कोई शिकायत नहीं थी और हमारे परिवार में भी इसकी कोई हिस्‍ट्री नहीं है।”

दूसरा अध्‍याय
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बृजगोपाल हरकिशन लोया को जून 2014 में सीबीआइ की विशेष अदालत में उनके पूर्ववर्ती जज जेटी उत्‍पट के तबादले के बाद नियुक्‍त किया गया था। अमित शाह ने अदालत में पेश होने से छूट मांगी थी जिस पर उत्‍पट ने उन्‍हें फटकार लगाई थी। इसके बाद ही उनका तबादला हुआ। आउटलुक में फरवरी 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार: ”इस एक साल के दौरान जब‍ उत्‍पट सीबीआइ की विशेष अदालत की सुनवाई देखते रहे और बाद में भी, कोर्ट रिकॉर्ड के मुताबिक अमित शाह एक बार भी अदालत नहीं पहुंचे थे। यहां तक कि बरी किए जाने के आखिरी दिन भी वे अदालत नहीं आए और शाह के वकील ने उन्‍हें इस मामले में रियायत दिए जाने का मौखिक प्रतिवेदन दिया जिसका आधार यह बताया कि वे ”मधुमेहग्रस्‍त हैं और चल-फिर नहीं सकते” या कि ”वे दिल्‍ली में व्‍यस्‍त हैं।”

आउटलुक की रिपोर्ट कहती है, ”6 जून, 2014 को उत्‍पट ने शाह के वकील के सामने नाराज़गी ज़ाहिर कर दी। उस दिन तो उन्‍होंने शाह को हाजिरी से रियायत दे दी और 20 जून की अगली सुनवाई में हाजिर होने का आदेश दिया लेकिन वे फिर नहीं आए। मीडिया में आई रिपोर्टों के मुताबिक उत्‍पट ने शाह के वकील से कहा, ‘आप हर बार बिना कारण बताए रियायत देने की बात कह रहे हैं।”’ रिपोर्ट कहती है कि उत्‍पट ने ”सुनवाई की अगली तारीख 26 जून मुकर्रर की लेकिन 25 जून को उनका तबादला पुणे कर दिया गया।” यह सुप्रीम कोर्ट के सितंबर 2012 में आए उस आदेश का उल्‍लंघन था जिसमें कहा गया था कि सोहराबुद्दीन मामले की सुनवाई ”एक ही अफ़सर द्वारा शुरू से अंत तक की जाए।”

लोया ने शुरू में अदालत में हाजिर न होने संबंधी शाह की दरख्‍वास्‍त पर नरमी बरती। आउटलुक लिखता है, ”उत्‍पल के उत्‍तराधिकारी लोया रिआयती थे जो हर तारीख पर शाह की हाजिरी से छूट दे देते थे।” लेकिन हो सकता है कि ऊपर से दिखने वाली यह नम्रता प्रक्रिया का मामला रही हो। आउटलुक की स्‍टोरी कहती है, ”ध्‍यान देने वाली बात है कि उनकी एक पिछली नोटिंग कहती है कि शाह को ‘आरोप तय होने तक’ निजी रूप से हाजिर होने से छूट जाती है।’ साफ़ है कि लोया भले उनके प्रति दयालु दिख रहे हों, लेकिन शाह को आरोपों से मुक्‍त करने की बात उनके दिमाग में नहीं रही होगी।” मुकदमे में शिकायतकर्ता रहे सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन के वकील मिहिर देसाई के मुताबिक लोया 10,000 पन्‍ने से ज्‍यादा लंबी पूरी चार्जशीट को देखना चाहते थे और साक्ष्‍यों व गवाहों की जांच को लेकर भी काफी संजीदा थे। देसाई कहते हें, ”यह मुकदमा संवेदनशील और अहम था जो एक जज के बतौर श्री लोया की प्रतिष्‍ठा को तय करता।” देसाई ने कहा, ”लेकिन दबाव तो लगातार बनाया जा रहा था।”

लोया की भतीजी नूपुर बालाप्रसाद बियाणी मुंबई में उनके परिवार के साथ रहकर पढ़ाई करती थी। उसने मुझे बताया कि वे देख रही थीं कि उनके अंकल पर किस हद तक दबाव था। उन्‍होंने बताया, ”वे जब कोट्र से घर आते तो कहते थे, ‘बहुत टेंशन है।’ तनाव काफी था। यह मुकदमा बहुत बड़ा था। इसस कैसे निपटें। हर कोई इसमें शामिल है।” नूपुर के मुताबिक यह ”राजनीतिक मूल्‍यों” का प्रश्‍न था।

देसाई ने मुझे बताया, ”कोर्टरूम में हमेशा ही जबरदस्‍त तनाव कायम रहता था। हम लोग जब सीबीआइ के पास साक्ष्‍य के बतौर जमा कॉल विवरण का अंग्रेजी अनुवाद मांगते थे, तब डिफेंस के वकील लगातार अमित शाह को सारे आरोपों से बरी करने का आग्रह करते रहते थे।” उन्‍हेांने बताया कि टेप की भाषा गुजराती थी जो न तो लोया को और न ही शिकायतर्ता को समझ में आती थी।

देसाई ने बताया कि डिफेंस के वकील लगातार अंग्रेजी में टेप मुहैया कराए जाने की मांग को दरकिनार करते रहते थे और इस बात का दबाव डालते थे कि शाह को बरी करने संबंधी याचिका पर सुनवाई हो। देसाई के मुताबिक उनके जूनियर वकील अकसर कोर्टरूम के भीतर कुछ अनजान और संदिग्‍ध से दिखने वाले लोगों की बात करते थे, जो धमकाने के लहजे में शिकायतकर्ता के वकील को घूरते थे और फुसफुसाते रहते थे।

देसाई याद करते हुए बताते हैं कि 31 अक्‍टूबर को एक सुनवाई के दौरान लोया ने पूछा कि शाह क्‍यों नहीं आए। उनके वकीलों ने जवाब दिया कि खुद लोया ने उन्‍हें आने से छूट दे रखी है। लोया की टिप्‍पणी थी कि शाह जब राज्‍य में न हों, तब यह छूट लागू होगी। उन्‍होंने कहा कि उस दिन शाह मुंबई में ही थे। वे महाराष्‍ट्र में बीजेपी की नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्‍सा लेने आए थे और अदालत से महज 1.5 किलोमीटर दूर थे। उन्‍होंने शाह के वकील को निर्देश दिया कि अगली बार जब वे राज्‍य में हों तो उनकी मौजूदगी सुनिश्चित की जाए और सुनवाई की अगली तारीख 15 दिसंबर मुकर्रर कर दी।

अनुराधा बियाणी ने मुझे बताया कि लोया ने उन्‍हें कहा था कि मोहित शाह- जो जून 2010 से सितंबर 2015 के बीच बंबई उच्‍च न्‍यायालय के मुख्‍य न्‍यायाधीश थे- उन्‍होंने लोया को शाह के हक में फैसले के लिए 100 करोड़ रुपये की रिश्‍वत की पेशकश की थी। उनके मुताबिक मोहित शाह ”देर रात उन्‍हें फोन कर के साधारण कपड़ों में मिलने के लिए कहते और उनके ऊपर जल्‍द से जल्‍द फैसला देने का दबाव बनाते थे और यह सुनिश्चित करने को कहते कि फैसला सकारात्‍मक हो। मुख्‍य न्‍यायाधीश मोहित शाह ने खुद रिश्‍वत देने की पेशकश की थी।”

उन्‍होने बताया कि मोहित शाह ने उनके भाई से कहा था कि यदि ”फैसला 30 दिसंबर से पहले आ गया, तो उस पर बिलकुल भी ध्‍यान नहीं जाएगा क्‍योंकि उसी के आसपास एक और धमकादेार स्‍टोरी आने वाली है जो लोगों का ध्‍यान इससे बंटा देगी।”

लोया के पिता हरकिशन ने भी मुझे बताया था कि उनके बेटे ने उनहें रिश्‍वत की पेशकश वाली बात बताई थी। हरकिशन ने कहा, ”हां, उन्‍हें पैसे की पेशकश की गई थी। क्‍या आपको मुंबई में मकान चाहिए, कितनी ज़मीन चाहिए, वह हमें ये सब बताता था। बाकायदे एक ऑफर था।” उन्‍होंने बताया कि उनके बेटे ने इसे स्‍वीकार करने से इनकार कर दिया। हरकिशन ने बताया, ”उसने मुझे बताया था कि या मैं तबादला ले लूंगा या इस्‍तीफ़ा दे दूंगा। मैं गांव जाकर खेती करूंगा।”

इस परिवार के दावों की जांच के लिए मैंने मोहित शाह और अमित शाह से संपर्क किया। इस कहानी के छपने तक उनका कोई जवाब नहीं आया है।  जब भी वे जवाब देते हैं, स्‍टोरी को अपडेट कर दिया जाएगा।

लोया की मौत के बाद एमबी गोसावी को सोहराबुद्दीन केस में जज बनाया गया। गोसावी ने 15 दिसंबर 2014 को सुनवाई शुरू की। मिहिर देसाई बताते हैं, ”उन्‍होंने तीन दिन तक अमित शाह को बरी करने संबंधी डिफेंस के वकीलों की दलीलें सुनीं जबकि सीबीआइ की दलीलों को केवल 15 मिनट सुना गया। उन्‍होंने 17 दिसंबर को सुनवाई पूरी कर ली और आदेश सुरक्षित रख लिया।”

लोया की मौत के करीब एक माह बाद 30 दिसंबर 2014 को गोसावी ने डिफेंस की इस दलील को पुष्‍ट किया कि सीबीआइ की आरोपी को फंसाने के पीछे राजनीतिक मंशा है। इसके साथ ही उन्‍होंने अमित शाह को बरी कर दिया।

ठीक उसी दिन पूरे देश के टीवी परदे पर टेस्‍ट क्रिकेट से एमएस धोनी के संन्‍यास की खबर छायी हुई थी। जैसा कि बियाणी ने याद करते हुए बताया, ”नीचे बस एक टिकर चल रहा था- अमित शाह निर्दोष साबित, अमित शाह निर्दोष साबित।”

लोया की मौत के करीब ढाई महीने बाद मोहित शाह शोक संतप्‍त परिवार के पास मिलने आए। मुझे लोया के परिवार के पास से उनके बेटे अनुज का लिखा एक पत्र मिला जो उसने उसी दिन अपने परिवार के नाम लिखा था जिस दिन मुख्‍य न्‍यायाधीश आए थे। उस पर तारीख पड़ी है 18 फरवरी 2015 यानी लोया की मौत के 80 दिन बाद। अनुज ने लिखा था, ”मुझे डर है कि ये नेता मेरे परिवार के किसी भी सदस्‍य को कोई नुकसान पहुंचा सकते हैं और मेरे पास इनसे लड़ने की ताकत नहीं है।” उसने मोहित शाह के संदर्भ में लिखा था, ”मैंने पिता की मौत की जांच के लिए उनसे एक जांच आयोग गठित करने को कहा था। मुझे डर है कि उनके खिलाफ हमें कुछ भी करने से रोकने के लिए वे हमारे परिवार के किसी भी सदस्‍य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हमारी जिंदगी खतरे में है।”

अनुज ने ख़त में दो बार लिखा था कि ”अगर मुझे और मेरे परिवार को कुछ भी होता है तो उसके लिए इस साजिश में लिप्‍त चीफ जस्टिस मोहित शाह और अन्‍य लोग जिम्‍मेदार होंगे।”

मैं लोया के पिता से नवंबर 2016 में मिला। वे बोले, ”मैं 85 का हो चुका हूं और मुझे अब मौत का डर नहीं है। मैं इंसाफ़ भी चाहता हूं लेकिन मुझे अपनी बच्चियों और उनके बच्‍चों की जान की बेहद फि़क्र है।” बोलते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए। वे रह-रह कर उस पैतृ‍क घर की दीवार पर टंगी लोया की तस्‍वीर की ओर देख रहे थे जिस पर अब माला थी।

(निरंजन टाकले की लिखी यह कहानी और वीडियो अंग्रेज़ी पत्रिका दि कारवां से साभार प्रकाशित है, आवरण तस्‍वीर भी वहीं से साभार – संपादक)
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