शाम को साढ़े चार बजे आभा भोजन लेकर आई। यही उनका अंतिम भोजन होनेवाला था।
इस भोजन में बकरी का दूध उबली हुई कच्ची भाजियाँ, नारंगियाँ, ग्वारपाठे का रस मिला हुआ अदरक, नीबू और घी का काढ़ा- ये चीजें थीं।
नई दिल्ली में बिड़ला भवन के पिछवाड़ेवाले भाग में जमीन पर बैठे हुए गांधीजी खाते जाते थे और स्वतंत्र भारत की नई सरकार के उप-प्रधान मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से बातें करते जाते थे।
सरदार पटेल की पुत्री और उनकी सचिव मणिबहन भी वहाँ मौजूद थीं। बातचीत महत्त्वपूर्ण थी। पटेल और प्रधानमंत्री नेहरू के बीच मतभेद की अफवाहें थीं। अन्य समस्याओं की तरह यह समस्या भी महात्माजी के पल्ले डाल दी गई थी।
गांधीजी, सरदार पटेल और मणिबहन के पास अकेली बैठी आभा बीच में बोलने में सकुचा रही थी। परंतु समय-पालन के बारे में गांधीजी का आग्रह वह जानती थी। इसलिए उसने आखिर महात्माजी की घड़ी उठा ली और उन्हें दिखाई। गांधीजी बोले- "मुझे अब जाना होगा।" यह कहते हुए वह उठ पास के गुसलखाने में गए और फिर भवन के बाईं ओर बड़े पार्क में प्रार्थना स्थल की ओर चल पड़े।
महात्माजी के चचेरे भाई के पोते कनु गांधी की पत्नी आभा और दूसरे चचेरे भाई की पोती मनु उनके साथ चलीं। उन्होंने इनके कंधों पर अपने बाजुओं को सहारा दिया। वह इन्हें अपनी 'टहलने की छड़ियाँ' कहा करते थे।
प्रार्थना स्थान के रास्ते में लाल पत्थर के खंभोंवाली लंबी गैलरी थी। इसमें से होकर प्रतिदिन दो मिनट का रास्ता पार करते समय गांधीजी सुस्ताते और मज़ाक करते थे। इस समय उन्होंने गाजर के रस की चर्चा की, जो सुबह आभा ने उन्हें पिलाया था।
उन्होंने कहा- "अच्छा, तू मुझे जानवरों का खाना देती है!" और हँस पड़े। आभा बोली- "बा इसे घोड़ों का चारा कहा करती थीं। * गांधीजी ने विनोद करते हुए कहा- क्या मेरे लिए यह शान की बात नहीं है कि जिसे कोई नहीं चाहता, उसे मैं पसंद करता हूँ ?"
आभा कहने लगी- "बापू आपकी घड़ी अपने को बहुत उपेक्षित अनुभव कर रही होगी। आज तो आप उसकी तरफ निगाह ही नहीं डालते थे।" गांधीजी ने तुरंत ताना दिया- "जब तुम मेरी समय पालिका हो, तो मुझे वैसा
करने की जरूरत ही क्या है ?*
मनु बोली- "लेकिन आप तो समय पालिकाओं को भी नहीं देखते। गांधीजी फिर हँसने लगे। अब वह प्रार्थना स्थान के पासवाली दूब पर चल रहे थे। नित्य की सायंकालीन प्रार्थना के लिए करीब पाँच सौ की भीड़ जमा थी। गांधीजी ने बड़बड़ाते हुए कहा "मुझे दस मिनट की देर हो गई। देरी से मुझे नफरत है। मुझे यहाँ ठीक पाँच पर पहुँच जाना चाहिए था।"
प्रार्थना स्थान की भूमि पर पहुँचनेवाली पाँच छोटी सीढ़ियाँ उन्होंने जल्दी से पार कर लीं। प्रार्थना के समय जिस चौकी पर वह बैठते थे, वह अब कुछ ही गज दूर रह गई थी। अधिकतर लोग उठ खड़े हुए। जो नजदीक थे वे उनके चरणों में झुक गए। गांधीजी ने आभा और मनु के कंधों से अपने बाजू हटा लिए और दोनों हाथ जोड़ लिए।
ठीक इसी समय एक व्यक्ति भीड़ को चीरकर बीच के रास्ते में निकल आया। ऐसा जान पड़ा कि वह झुककर भक्त की तरह प्रणाम करना चाहता है, परंतु चूँकि देर हो रही थी, इसलिए मनु ने उसे रोकना चाहा और उसका हाथ पकड़ लिया। उसने आभा को ऐसा धक्का दिया कि वह गिर पड़ी और गांधीजी से करीब दो फुट के फासले पर खड़े होकर उसने छोटी-सी पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग दीं।
ज्योंही पहली गोली लगी, गांधीजी का उठा हुआ पाँव नीचे गिर गया, परंतु वह खड़े रहे। दूसरी गोली लगी, गांधीजी के सफेद वस्त्रों पर खून के धब्बे चमकने लगे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया। उनके जुड़े हुए हाथ धीरे-धीरे नीचे खिसक गए और एक बाजू कुछ क्षण के लिए आभा की गरदन पर टिक गया।
गांधीजी के मुँह से शब्द निकले - "हे राम!" तीसरी गोली की आवाज हुई। शिथिल शरीर धरती पर गिर गया। उनकी ऐनक जमीन पर जा पड़ी। चप्पल उनके पाँवों से उतर गए।
आभा और मनु ने गांधीजी का सिर हाथों पर उठा लिया। कोमल हाथों ने उन्हें धरती से उठाया और फिर उन्हें बिड़ला भवन में उनके कमरे में ले गए। आँखें अधखुली थीं और शरीर में जीवन के चिह्न दिखाई दे रहे थे। सरदार पटेल, जो अभी महात्माजी को छोड़कर गए थे, उनके पास लौट आए। उन्होंने नाड़ी देखी और उन्हें लगा कि वह बहुत मंद गति से चलती हुई मालूम दे रही है। किसी ने हड़बड़ाहट के साथ दवाइयों की पेटी में ऐड्रिनेलीन तलाश की, लेकिन वह मिली नहीं।
एक तत्पर दर्शक डा० द्वारकाप्रसाद भार्गव को ले आए। वह गोली लगने के दस मिनट बाद ही आ गए। डा० भार्गव का कहना है- संसार की कोई भी वस्तु उन्हें नहीं बचा सकती थी। उन्हें मरे दस मिनट हो चुके थे।"
पहली गोली शरीर के बीच खींची गई रेखा से साढ़े तीन इंच दाहिनी ओर, नाभि से ढाई इंच ऊपर, पेट में घुस गई और पीठ में होकर बाहर निकल गई। दूसरी गोली इस मध्य रेखा के एक इंच दाहिनी ओर पसलियों के बीच में होकर पार हो गई और पहली की तरह यह भी पीठ के पार निकल गई। तीसरी गोली दाहिने चूचुक से एक इंच ऊपर मध्य रेखा के चार इंच दाहिनी ओर लगी और फेफड़े में ही धँसी रह गई।
डा० भार्गव का कहना था कि एक गोली शायद हृदय में होकर निकल गई और दूसरी ने शायद किसी बड़ी नस को काट दिया। उन्होंने बतलाया-"आंतों में भी चोट आई थी, क्योंकि दूसरे दिन मैंने देखा कि पेट फूल गया था।'
गांधीजी की निरंतर देखभाल करनेवाले युवक और युवतियाँ शव के पास बैठ गए और सिसकियाँ भरने लगे। डा० जीवराज मेहता भी आ पहुँचे और उन्होंने पुष्टि की कि मृत्यु हो चुकी। इसी समय उपस्थित समुदाय में सुरसुराहट फैली।
जवाहरलाल नेहरू दफ्तर से दौड़े हुए आए। गांधीजी के पास घुटनों के बल बैठकर उन्होंने अपना मुँह खून से सने कपड़ों में छिपा लिया और रोने लगे। इसके बाद गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास और मौलाना आजाद आए। इनके पीछे बहुत से प्रमुख व्यक्ति थे।
देवदास ने अपने पिता के शरीर को स्पर्श किया और उनके बाजू को धीरे-से दबाया। शरीर में अभी तक हरारत थी। सिर अभी तक आभा की गोद में था। गांधीजी के चेहरे पर शांत मुसकराहट थी। वह सोए हुए से मालूम पड़ते थे। देवदास ने बाद में लिखा था- उस दिन हमने रात-भर जागरण किया। चेहरा इतना सौम्य था और शरीर को चारों ओर आवृत्त करनेवाला दैवी प्रकाश इतना कमनीय था कि शोक करना मानो उस पवित्रता को नष्ट करना था।"
विदेशी कूटनीतिक विभागों के लोग शोक प्रदर्शन करने के लिए आए, कुछ तो रो भी पड़े।
बाहर भारी भीड़ जमा हो गई थी और लोग महात्माजी के अंतिम दर्शन की माँग कर रहे थे। इसलिए शव को सहारा लगाकर बिड़ला भवन की छत पर रख दिया गया और उस पर रोशनी डाली गई। हजारों लोग हाथ मलते हुए और रोते हुए खामोशी के साथ गुजारने लगे।
आधी रात के लगभग शव नीचे उतार लिया गया। शोकग्रस्त लोग रात-भर
कमरे में बैठे रहे और सिसकियाँ भरते हुए गीता तथा अन्य मंत्रों का पाठ करते रहे। देवदास के शब्दों में-पौ फटने के साथ ही हम सबके लिए सबसे असह्य दर्द भरा क्षण आ पहुँचा। अब उस ऊनी दुशाले और चादर को हटाना था, जिन्हें गोली लगते समय महात्माजी सर्दी से बचने के लिए ओढ़े हुए थे। इन निर्मल शुभ्र वस्त्रों पर खून के दाग और धब्बे दिखाई दे रहे थे। ज्योंही दुशाला हटाया गया, एक खाली कारतूस निकलकर गिर पड़ा।
अब गांधीजी सबके सामने केवल घुटनों तक की सफेद धोती पहने हुए पड़े थे। सारी दुनिया उन्हें इसी तरह धोती पहने देखने की आदी थी। उपस्थित लोगों में बहुतों का धीरज छूट गया और वे फूट फूटकर रोने लगे। इस दृश्य को देखकर लोगों ने सुझाव दिया कि मसाला लगाकर शव को कुछ दिन रखा जाय, ताकि नई दिल्ली से दूर के मित्र, साथी और संबंधी दाह से पहले उसके दर्शन कर सकें।
परंतु देवदास गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल नैयर तथा अन्य लोगों ने इसका विरोध किया। यह चीज हिन्दू धार्मिक भावना के प्रतिकूल थी और उसके लिए "बापू हमें कभी क्षमा नहीं करेंगे। इसके अलावा वे गांधीजी के भौतिक अवशेष को सुरक्षित रखने के किसी भी प्रस्ताव को प्रोत्साहन नहीं देना चाहते थे। इसलिए शव को दूसरे दिन जलाने का निश्चय किया गया।
सुबह होते ही गांधीजी के अनुयायियों ने शव को स्नान कराया और गले में हाथ कते सूत की एक लच्छी तथा एक माला पहना दी। सिर, बाजुओं और सीने को छोड़कर बाकी शरीर पर ढकी हुई ऊनी चादर के ऊपर गुलाब के फूल और पंखुड़ियाँ बिखेर दी गईं। देवदास ने बतलाया- "मैंने कहा कि सीना उघड़ा रहने दिया जाय। बापू के सीने से सुंदर सीना किसी सिपाही का भी न होगा।" शव के पास धूप-दान जल रहा था।
जनता के दर्शनों के लिए शव को सुबह छत पर रख दिया गया। गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास 11 बजे हवाई जहाज द्वारा नागपुर से आए। दाह-संस्कार उनके ही लिए रुका हुआ था। शव नीचे उतार लिया गया और उसे बाहर के चबूतरे पर ले गए। गांधीजी के सिर पर सूत की एक लच्छी लपेट दी गई थी। चेहरा शांत, किन्तु बड़ा ही विषादपूर्ण, दिखाई दे रहा था। अर्थी पर स्वतंत्र भारत का तिरंगा झंडा डाल दिया गया था ।
रात-भर में 15-हंडरवेट सैनिक हथियार-गाड़ी के इंजनदार फ्रेम पर एक नया ऊँचा ढाँचा खड़ा कर दिया गया था, ताकि खुली अर्थी पर रखा हुआ शव सब दर्शकों को नज़र आता रहे। भारतीय स्थल सेना, जल सेना और वायु सेना की दो सौ जवान चार मोटे रस्सों से गाड़ी को खींच रहे थे। एक छोटा सैनिक अफसर मोटर के चक्के पर बैठा। नेहरू, पटेल, कुछ अन्य नेता तथा गांधीजी के कुछ युवा साथी इस वाहन पर सवार थे।
नई दिल्ली में अलबुकर्क रोड पर बिड़ला-भवन से दो मील लंबा जुलूस पौने बारह बजे रवाना हुआ और मनुष्यों की अपार भीड़ के बीच एक-एक इंच आगे बढ़ता हुआ चार बजकर बीस मिनट पर साढ़े पाँच मील दूर जमुना किनारे पहुँचा। पंद्रह लाख जनता जुलूस के साथ थी और दस लाख दर्शक थे। नई दिल्ली के आलीशान छायादार पेड़ों की डालियाँ उन लोगों के बोझ से झुक रही थीं, जो जुलूस को अच्छी तरह देखने के लिए उनपर चढ़ गए थे। बादशाह जार्ज पंचम की ऊँची श्वेत प्रतिमा की चौकी, जो एक बड़ी तलैया के बीच बनी हुई है, सैकड़ों लोगों से ढक गई थी। ये लोग पानी में होकर वहाँ जा पहुँचे थे।
कभी कभी हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिक्खों और ऍग्लो इंडियनों की आवाजें मिलकर 'महात्मा गांधी की जय के नारे बुलंद करती थीं। बीच बीच में भीड़ मंत्र उच्चारण करने लगती थी। तीन डेकोटा वायुयान जुलूस के ऊपर उड़ रहे थे। ये सलामी देने के लिए झपकी खाते थे और गुलाब की असंख्य पंखुड़ियाँ बरसा जाते थे।
चार हजार सैनिक, एक हजार वायु सैनिक, एक हजार पुलिस के सिपाही और सैनिक भाँति भाँति की रंग बिरंगी वर्दियाँ और टोपियाँ पहने हुए अर्थी के आगे और पीछे फौजी ढंग से चल रहे थे। गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन के अंगरक्षक भालेधारी सवार, जो लाल और सफेद झंडियाँ ऊँची किए हुए थे, इनमें उल्लेखनीय थे।
व्यवस्था कायम रखने के लिए बख्तरबंद गाड़ियाँ, पुलिस और सैनिक मौजूद थे। शव यात्रा के संचालक मेजर जनरल राय बूचर थे। यह अंग्रेज थे, जिन्हें भारत सरकार ने अपनी सेना का प्रथम प्रधान सेनापति नियुक्त किया था ।
जमुना की पवित्र धारा के किनारे लगभग दस लाख नर-नारी सुबह से ही खड़े और बैठे हुए श्मशान में अर्थी के आने का इंतजार कर रहे थे। सफेद रंग ही सबसे ज्यादा झलक रहा था- स्त्रियों की सफेद साड़ियाँ और पुरुषों के सफेद वस्त्र, टोपियाँ और साफे ।
नदी से कई सौ फुट की दूरी पर पत्थर, ईंट और मिट्टी की नव-निर्मित वेदी तैयार थी। यह करीब दो फुट ऊँची और आठ फुट लंबी व चौड़ी थी। इस पर धूप छिड़की हुई चंदन की पतली लकड़ियाँ जमाई हुई थीं। गांधीजी का शव उत्तर की ओर सिर तथा दक्षिण की ओर पाँव करके चिता पर लिटा दिया गया। ऐसी ही स्थिति में बुद्ध ने प्राण त्याग किए थे।
पौने पाँच बजे रामदास ने अपने पिता की चिता में आग दी। लकड़ियों में लपटें उठने लगीं। अपार भीड़ में से आह की ध्वनि निकली। भीड़ बाढ़ की तरह चिता की ओर बढ़ी और उसने सेना के घेरे को तोड़ दिया। परंतु उसी क्षण लोगों को भान हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। वे अपने नंगे पाँवों की उँगलियाँ जमीन में जमाकर खड़े हो गए और दुर्घटना होते-होते बच गई।
लकड़ियाँ चटखने लगीं और आग तेज होने लगी। लपटें मिलकर एक बड़ी लौ बन गई। अब खामोशी थी। गांधीजी का शरीर भस्मीभूत होता जा रहा था।
चिता चौदह घंटे तक जलती रही। सारे समय में भजन गाए जाते रहे और पूरी गीता का पाठ किया गया। सत्ताईस घंटे बाद, जब आखिरी अंगारे ठंडे पड़ गए, तब पंडितों, सरकारी पदाधिकारियों, मित्रों तथा परिवार के लोगों ने चिता के चारों ओर पहरा लगे हुए तार के बाड़े के भीतर विशेष प्रार्थना की और भस्मी तथा अस्थियों के वे टुकड़े, जिन्हें आग जला नहीं पाई थी, एकत्र किए। भस्मी को स्नेह के साथ पसों में भर-भरकर हाथ कते सूत के थैले में डाल दिया गया। भस्मी में एक गोली निकली। अस्थियों पर जमुना जल छिड़ककर उन्हें तांबे के घड़े में बंद कर दिया गया।
रामदास ने घड़े की गरदन में सुगंधित फूलों का हार पहनाया। उसे गुलाब की पंखुड़ियों से भरी टोकरी में रखा और छाती से लगाकर बिड़ला भवन ले गए।
गांधीजी के कई घनिष्ट मित्रों ने भरमी की चुटकियाँ माँग और दे दी गई। एक ने भरमी के कुछ कण सोने की मुहरदार अंगूठी में भरवा लिए। परिजनों तथा अनुयायियों ने छहों महाद्वीपों से भस्मी के लिए आई हुई प्रार्थनाओं को अस्वीकार करना तय किया। गांधीजी की कुछ भस्मी तिब्बत, लंका और मलाया भेजी गई। परंतु अधिकांश भस्मी हिन्दू रिवाज के अनुसार, मृत्यु के ठीक चौदह दिन बाद, भारत की के नदियों में विसर्जित कर दी गई।
भस्मी, प्रदेशों के मुख्य मंत्रियों तथा अन्य उच्च पदाधिकारियों को दी गई। प्रादेशिक राजधानियों ने अपने हिस्से की भस्मी छोटे शहरी केन्द्रों में बाँट दी। भस्मी का सार्वजनिक प्रदर्शन हर जगह भारी तीर्थयात्रा बन गया और नदियों में अथवा बंबई जैसी जगह समुद्र में, भस्मी का अंतिम विसर्जन भी इसी प्रकार हुआ।
अस्थि विसर्जन का मुख्य संस्कार इलाहाबाद में गंगा, जमुना और सरस्वती के पुनीत संगम पर हुआ। 11 फरवरी को सुबह 4 बजे तीसरे दर्जे के पाँच डिब्बों की एक स्पेशल ट्रेन दिल्ली से रवाना हुई। गांधीजी हमेशा तीसरे दर्जे में यात्रा किया करते थे। ट्रेन के बीच का डिब्बा, जिसमें भस्मी और अस्थियों का घट रखा हुआ था, छत तक फूलों से भरा था और आभा, मनु, प्यारेलाल नैयर, डा० सुशीला नैयर, प्रभावती नारायण और गांधीजी के अन्य दैनिक साथी घट की निगरानी पर थे। रास्ते में ट्रेन ग्यारह नगरों पर ठहरी; हर जगह लाखों नर-नारियों ने श्रद्धा से सिर प्राथनाएँ की और गाड़ी पर फूलों के हार व गुलदस्ते चढ़ाए। झुकाए:
12 तारीख को इलाहाबाद में यह घट लकड़ी की एक छोटी-सी पालकी पर रखा गया और बाद में मोटर-ट्रक पर आसीन कराकर शहर और आसपास के गाँवों के पंद्रह लाख जन-समूह को चीरते हुए आगे ले जाया गया। सफेद वस्त्र धारण किए हुए नर-नारी ट्रक के आगे भजन गाते हुए चल रहे थे। एक गायक प्राचीन बाजा बजा रहा था। ट्रक गुलाब के चलते-फिरते बगीचे जैसा नजर आ रहा था। उत्तर-प्रदेश की राज्यपाल श्रीमती सरोजिनी नायडू, आजाद, रामदास और पटेल आदि उस पर सवार थे। मुट्ठियाँ भींचे हुए और सीने तक चेहरा झुकाए हुए नेहरू पैदल चल रहे थे।
धीरे-धीरे ट्रक नदी के किनारे पहुँचा, जहाँ उसे सफेद रंगी हुई अमरीकन फौजी डक' पर रख दिया गया। अन्य डकें और नावें नदी के बहाव की ओर उसके साथ चलीं। गांधीजी की अस्थियों के नजदीक पहुँचने के लिए लाखों आदमी घुटनों पानी में दूर तक जा पहुँचे। जब घट उलटा गया और उसमें भरी हुई भस्मी और अस्थियाँ नदी में गिरी, तब इलाहाबाद के किले से तोपों ने सलामी दी। भस्मी पानी पर फैल गई। अस्थियों के टुकड़े तेजी के साथ समुद्र की ओर बह चले।
गांधीजी की हत्या से सारे भारत में व्याकुलता तथा वेदना की लहर दौड़ गई। में ऐसा जान पड़ता था कि जो तीन गोलियाँ गांधीजी के शरीर में लगी थीं, उन्होंने करोड़ों के मर्म को बेध डाला था। इस आकस्मिक समाचार ने कि इस शांतिदूत को, जो अपने शत्रुओं से प्रेम करता था और किसी कीड़े को मारने का इरादा नहीं रखता था, उसीके एक देशवासी तथा सहधर्मी ने गोली से मार डाला, राष्ट्र को चकित स्तंभित और मर्माहत कर दिया।
आधुनिक इतिहास में किसी व्यक्ति के लिए इतना गहरा और इतना व्यापक शोक आज तक नहीं मनाया गया।
30 जनवरी 1948 को शुक्रवार जिस दिन महात्माजी की मृत्यु हुई, उस दिन वह वहीं थे, जैसे सदा से रहे थे
अर्थात् एक साधारण नागरिक, जिसके पास न धन था, न संपत्ति, न सरकारी उपाधि, न सरकारी पद, न विशेष प्रशिक्षण योग्यता, न वैज्ञानिक सिद्धि और न कलात्मक प्रतिभा ।
फिर भी, ऐसे लोगों ने, जिनके पीछे सरकारें और सेनाएँ थीं, इस अठहत्तर वर्ष के लंगोटीधारी छोटे-से आदमी को श्रद्धांजलियाँ भेंट की।
भारत के अधिकारियों को विदेशों से संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए, जो सब बिन माँगे आए थे, क्योंकि गांधीजी एक नीतिनिष्ठ व्यक्ति थे, और जब गोलियों ने उनका प्राणांत कर दिया, तो उस सभ्यता ने जिसके पास नैतिकता की अधिक संपत्ति नहीं है, अपने आपको और भी अधिक दीन महसूस किया।
अमरीकी संयुक्त राज्यों के राज्य-सचिव जनरल जार्ज मार्शल ने कहा था- "महात्मा गांधी सारी मानव-जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे।"
पोप पायस, तिब्बत के दलाई लामा, कैंटरबरी के आर्कबिशप, लंदन के मुख्य रब्बी, इंग्लैंड के बादशाह, राष्ट्रपति ट्र मैन, च्याँगकाई शेक, फ्रांस के राष्ट्रपति और वास्तव में लगभग सभी महत्त्वपूर्ण देशों तथा अधिकतर छोटे देशों के राजनैतिक नेताओं ने गांधीजी की मृत्यु पर सार्वजनिक रूप से शोक प्रदर्शन किया।
फ्रांस के समाजवादी लियो ब्लम ने वह बात लिखी, जिसे लाखों लोग महसूस करते थे। ब्लम ने लिखा- "मैंने गांधी को कभी नहीं देखा। मैं उनकी भाषा नहीं जानता। मैंने उनके देश में कभी पाँव नहीं रखा; परंतु फिर भी मुझे ऐसा शोक महसूस हो रहा है, मानो मैंने कोई अपना और प्यारा खो दिया हो। इस असाधारण मनुष्य की मृत्यु से सारा संसार शोक में डूब गया है। "
प्रोफेसर अल्बर्ट आइन्स्टीन ने दृढ़ता से कहा-"गांधी ने सिद्ध कर दिया कि केवल प्रचलित राजनैतिक चालबाजियों और धोखाधड़ियों के मक्कारी-भरी खेल के द्वारा ही नहीं, बल्कि जीवन के नैतिकतापूर्ण श्रेष्ठतर आचरण के प्रबल उदाहरण द्वारा भी मनुष्यों का एक बलशाली अनुगामी दल एकत्र किया जा सकता है।"
संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् ने अपनी बैठक की कार्रवाई रोक दी ताकि उसके सदस्य दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें।
ब्रिटिश प्रतिनिधि फिलिप नोएल बेकर ने गांधीजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें सबसे गरीब, सबसे अलग और पथभ्रष्ट लोगों का हितचितक बतलाया।
सुरक्षा परिषद के अन्य सदस्यों ने गांधीजी के आध्यात्मिक गुणों की बहुत प्रशंसा की और शांति तथा अहिंसा के प्रति उनकी निष्ठा को सराहा।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपना झंडा झुका दिया। मानवता ने अपनी ध्वजा नीची कर दी।
गांधीजी की मृत्यु पर संसार-व्यापी प्रतिक्रिया स्वयं ही एक महत्त्वपूर्ण तथ्य थी। उसने एक व्यापक मनःस्थिति और आवश्यकता को प्रकट कर दिया। न्यूयार्क के पीएम' नामक समाचार पत्र में एल्बर्ट ड्यूत्श ने वक्तव्य दिया-"जिस संसार ने पर गांधी की मृत्यु की ऐसी श्रद्धापूर्ण प्रतिक्रिया हुई, उसके लिए अभी कुछ आशा बाकी है।"
उपन्यास लेखिका पर्ल एस. बक़ ने गांधीजी की हत्या को ईसा की सूली के समान बतलाया।
जापान में मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सेनापति जनरल डगलस मैकआर्थर ने कहा- सभ्यता के विकास में यदि उसे जीवित रहना है, तो सब लोगों को गांधी का यह विश्वास अपनाना ही होगा कि विवादास्पद मुद्दों को हल करने में बल के सामूहिक प्रयोग की प्रक्रिया बुनियादी तौर पर न केवल गलत है, बल्कि उस के भीतर आत्म-विनाश के बीज विद्यमान हैं।"
न्यूयार्क में 12 साल की एक लड़की कलेवे के लिए रसोईघर में गई हुई थी। रेडियो बोल रहा था और उसने गांधीजी पर गोली चलाई जाने का समाचार सुनाया। लड़की, नौकरानी और माली ने वहीं रसोईघर में सम्मिलित प्रार्थना की और आँसू बहाए। इसी तरह सब देशों में करोड़ों लोगों ने गांधीजी की मृत्यु पर ऐसा शोक मनाया, मानो उनकी व्यक्तिगत हानि हुई हो।
सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने लिखा था- "मैं किसी काल के और वास्तव में आधुनिक इतिहास के ऐसे किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं जानता, जिसने भौतिक वस्तुओं पर आत्मा की शक्ति को इतने जोरदार और विश्वासपूर्ण तरीके से सिद्ध किया हो।
गांधीजी के लिए शोक करनेवाले लोगों को यही महसूस हुआ। उनकी मृत्यु की आकस्मिक कौंध ने अनंत अंधकार उत्पन्न कर दिया।
उनके जमाने के किसी भी जीवित व्यक्ति ने महाबली प्रतिपक्षियों के विरुद्ध लंबे और कठिन संघर्ष में सच्चाई, दया, आत्मत्याग, विनय और अहिंसा का जीवन बिताने का इतना कठोर प्रयत्न नहीं किया और वह भी इतनी सफलता के साथ
वह अपने देश पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध और अपने ही देशवासियों की बुराइयों के विरुद्ध तीव्र गति के साथ और लगातार लड़े. परंतु लड़ाई के बीच भी उन्होंने अपने दामन को बेदाग रखा। वह बिना वैमनस्य या कपट या द्वेष के लड़े।
© लुई फ़िशर (फ्रांसीसी लेखक)