Tuesday, 3 April 2018

Ghalib - Aalam ghubaar e wahashat e majanoon hai sar ba sar / आलम गुबार ए वहशत ए मजनू है सर ब सर - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 43.
आलम गुबार ए वहशत ए मजनू है सर ब सर,
कब तक ख़याल ए तुर्रा ए लैला करे कोई !!

Aalam ghubaar e wahashat e majanoon hai sar ba sar,
Kab tak khayaal e turraa e lailaa kare koi !!
- Ghalib.

आलम गुबार ए वहशत - संसार एक रेत से भरा मैदान है.
तुर्रा                           - अलकों, केश राशि, ज़ुल्फ़ें, बाल.

पूरा संसार, तो रेत से भरा एक मैदान है । मरुभूमि है । इस मरुभूमि में मजनू,  लैला की अलकें, जो नदी की लहरों की तरह हैं की कल्पना भला कैसे कर सकता है ।

उर्दू साहित्य का पद्य भाग विशेषकर शेर और ग़ज़लें ग़म के किस्सों से भरी पडी हैं । यह दुखवाद ही इसका मूल है । ऐसा नहीं है कि और भावों की अभिव्यक्ति नहीं हो पायी है. पर हर शेर में ग़म ही माध्यम रहा है, अपनी बात कहने का । यह निवृत्ति मार्ग है संभवतः । ग़म के ही प्रतीक चुने गए हैं । यहां भी संसार की निस्सारता का ही उल्लेख है । पूरा संसार ही सूखी रेत का मैदान है.न तो कोई हरियाली है, और न ही जीवन जीने के लिए कोई उत्साह । मजनू यहाँ प्रतीक है, जीव का । वह इस रेत के सागर में भटक रहा है । उसे तलाश लक्ष्य की है । लक्ष्य लैला है । लैला की विपुल केश राशि जल धारा के समान, राहत देने वाली जीवनदायिनी है । पर ज़िंदगी के इस सहरा में, लैला की चाह ही एक भ्रम है । और इस निस्सार संसार में कोई कब तक झूठे सुख की आशा में भटकेगा ?

ग़ालिब का यह शेर बहुत गूढ़ अर्थ समेटे हैं । मैंने अपने विवेक से इसे समझने और आप के समक्ष रखने का प्रयास किया है । आप इस गूढता का और भी भाष्य कर सकते हैं.

© विजय शंकर सिंह

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