Thursday, 30 September 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास (6)

रूस ईसाई धर्म की धुरी है। कम्युनिस्ट छवि के कारण यह बात अजीब लग सकती है, लेकिन यूरोप के सबसे अधिक ईसाई रूस में ही बसते हैं। धुरी वाली बात कुछ खुल कर लिखता हूँ। 

यीशु मसीह ने जब ईसाई धर्म की स्थापना की, तो वह एक झटके में पूरी दुनिया में नहीं फैल गया। उसे तो रोमन साम्राज्य में ही मान्यता नहीं मिली। ईसाई प्रचारकों को सूली पर लटकाया जाता, सजा दी जाती। जब तक राजनैतिक प्रश्रय नहीं मिलता, आखिर यह आगे कैसे बढ़ता? 

ईसा के तीन सदी बाद पहली बार आर्मीनिया नामक छोटे राज्य ने इसे राजधर्म घोषित किया। रोम के गिरने के बाद जब कुस्तुंतुनिया नयी राजधानी बनी, तो चौथी सदी में जाकर वहाँ यह राजधर्म बना। क़ायदे से धर्म का विस्तार करने के लिए ग्रंथ बनने शुरू हुए, गिरजाघर बने, विमर्श परिषद बने। वे स्वयं को परंपरावादी (ऑर्थोडॉक्स) ईसाई कहते, और ताम-झाम के साथ हागिया सोफ़िया गिरजाघर बनाया। यहीं से यह धर्म रूस भी पहुँचा जिसकी चर्चा मैंने की है। 

वहीं दूसरी तरफ फ्रांस के शार्लेमन (748-814) नामक राजा ने पश्चिमी यूरोप में ईसाईयत लाने में बड़ी भूमिका निभायी। लेकिन, वे रोम के पोप को अधिक महत्व देने लगे। उनका कहना था कि चूँकि यीशु के शिष्य संत पीटर ने वहाँ नींव रखी थी, तो वहीं के पोप सर्वमान्य होने चाहिए। वे कैथॉलिक कहलाए। 

इस तरह ईसाई दो खंडों में बँट गए। एक जो सीधे यीशु मसीह की शिक्षाओं और अपने स्थानीय गिरजाघर को महत्व देते थे। दूसरे वह जो रोम के पोप को ही सर्वोच्च मानते थे। यह विभाजन तेरहवीं सदी में खुल कर आ गया, जब रोमन पोप के आदेश पर ‘क्रूसेड’ (धर्मयुद्ध) हुआ। पश्चिम यूरोप की सेनाएँ मुसलमानों से इस्तांबुल वापस छीनने आई थी, मगर उसके बाद ईसाई कुस्तुनतुनिया भी रौंद कर चली गयी।

धीरे-धीरे ऑर्थोडॉक्स ईसाई का परचम गिरने लगा। जिस साम्राज्य ने इसे राजधर्म बनाया था, वही डूबने लगा। पंद्रहवीं सदी में महमद द्वितीय के नेतृत्व में हमेशा के लिए कुस्तुनतुनिया पर मुसलमानों का कब्जा हो गया। हागिया सोफ़िया गिरजाघर को मस्जिद बना दिया गया। 

कुस्तुनतुनिया के गिरने के बाद रोमन पोप सभी ईसाइयों को उनकी सत्ता स्वीकारने कहने लगे। रूस ने रोम के पोप को ईश्वर का दूत मानने से इंकार कर दिया। उनके लिए अब भी ऑर्थोडॉक्स ईसाई ही मूल ईसाई धर्म था। कुस्तुनतुनिया गिर चुका था, तो मॉस्को ने झंडा उठा लिया।  

अब ईसाई धर्म की दो धुरियाँ थी- रोम और मॉस्को। कैथोलिक और ऑर्थोडॉक्स की ये प्रमुख धुरियाँ आज तक कायम हैं। (सोलहवीं सदी में प्रोटेस्टेंट रूप में तीसरा विभाजन हुआ, कई अन्य छोटी-बड़ी शाखाएँ हैं।)

ऑर्थोडॉक्स ईसाईयत का झंडा सदियों से बिखरते, लुटते रूस के लिए संजीवनी साबित हुआ। राजा वैसिली के नेतृत्व में रूस पुन: एकत्रित और जागृत हुआ। अब उनके पास ईसाई धर्म का ठेका था, विशाल समृद्ध जमीन थी, मंगोल कमजोर पड़ चुके थे, और क्या चाहिए था? कोई फ़ंतासी नाम? 

एक दिन राजा इवान तृतीय (1462-1505) ने बैठे-बैठे सोचा होगा, “जैसे रोमन सीज़र कहलाते थे, मंगोल ख़ान, हम आज से कहलाएँगे - ज़ार (Tsar)!”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास (5)
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Wednesday, 29 September 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (6) वीरभद्दर आपका कौन था!

वीडी तिवारी की बैठक में पहुँच कर थ्री सीटर सोफ़ों पर हम दोनों बैठ गए। थोड़ी देर बाद तिवारी जी ने अपनी नौकरानी को आवाज़ दी और वह हमारे लिए भी चाय बना लाई। चाय काँच के गिलासों में थी। ये गिलास आमतौर पर ढाबे वाले रखते हैं। अचानक वीरसिंह ने अपनी भरी और भारी आवाज़ में तिवारी जी से पूछा, ‘वीरभद्दर आपका कौन था?’ पतली सुनहली कमानी वाले चश्मे से झांकती तिवारी जी की आँखें पल भर को झपकीं और चेहरे पर तनाव दिखा लेकिन वे दुनिया देखे और खेले-खाये आदमी थे। ज़रा भी देरी किए बग़ैर बोले- “मेरा बाप था”। वीर सिंह उठा और उनके पाँव छू लिए। बोला, गुरु मान गए। मैं चंद्रशेखर आज़ाद का भक्त हूँ लेकिन जिस तरह आपने पिता को स्वीकारा है वह सुन कर तो आज़ाद भी उन्हें माफ़ कर देते। 

थोड़ी देर बाद पाँच फ़िट की ऊँचाई के खूब सांवले सज्जन अपनी खड़बड़ाती हुई विजय सुपर स्कूटर को चबूतरे पर टिका कर बैठक में घुसे। तिवारी जी और ब्रजेंद्र गुरु बोले, आओ गुरु सलीम! ये सलीम भाई थे और एक उत्पादकता प्रबंधन कॉलेज के पीआरओ। इनकी पत्नी ग्वालियर के एजी ऑफ़िस में थीं और ख़ुद यहाँ कानपुर में। मस्त आदमी थे इसीलिए पत्नी के मारे भी थे। पत्नी इनके पीने की आदत और मस्ती से आजिज़ थीं इसलिए ग्वालियर से भगा दिए जाते। इसके बाद एक और कार आकर रूकी। सूटेड-बूटेड एक सज्जन उतरे। ये मेहता साहब थे और केडीए में बड़े अभियंता रहे थे। उनका ड्राइवर कई डोलची लाया। इन डोलचियों में खाना था। बटर चिकेन भी था और पनीर बटर मसाला भी। एक काली फियेट आकर उसी गली में रूकी और काली शिफ़ॉन की साड़ी तथा स्लीवलेस ब्लाउज पहने एक मोहतरमा उतरीं और तिवारी जी के समीप दूसरे सोफ़े पर बैठ गईं।  इनका नाम नाज़नीन था। हिंदी-उर्दू का एक लफ़्ज़ नहीं फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रही थीं। लेकिन कुछ ही देर बाद सलीम के आग्रह पर जब व्हिस्की आई तो दो-तीन पेग पीने के बाद सलीम फ़ैज़ की नज़्म- ‘हम देखेंगे’ गुनगुनाने लगे तब मोहतरमा ने गायिकी सलीम से छीन ली और उन्होंने जिस अंदाज़ में- ‘जब ताज़ उछाले जाएँगे जब तख़्त गिराये जाएँगे’ गाया तो लगा कि फ़ैज़ होते तो वे भी वाह! वाह! कर उठते।

ग्यारह के क़रीब हम लोग वहाँ से निकले। मेहता साहब के ड्राइवर ने गली में गाड़ी घुमा ली और ले गया। मोहतरमा रुक गईं। ब्रजेंद्र गुरु हमारे साथ चले। उनका घर किदवई नगर में था। यह गली बमुश्किल 20 फ़िट चौड़ी थी। दोनों तरफ़ गाड़ियाँ। वीर सिंह महाराज जिप्सी बैक ही नहीं कर पा रहे थे। तब 60 साल के तिवारी जी उठे और दो मिनट में गाड़ी घुमा के लगा दी। वीर सिंह ड्राइविंग सीट पर जब बैठ गए तब तिवारी जी ने मुझे अलग ले जाकर कहा, अपने दोस्त से कहो, दारू कम पिया करें। एक तो इनको चढ़ती बहुत है, दूसरे ये पेट को टंकी बना लेते हैं। फिर कहा, शंभू शराब पीना एक आर्ट है। जो इस आर्ट को सीख गया वह जीत गया वर्ना शराबी हो गया। मैंने पूछा कि क्या आर्ट है तो बोले, कि जीवन में नियम बनाओ कि दो पेग से अधिक नहीं दूसरे चाहे जैसी पार्टी हो शराब पीने में कभी हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए। शराब को जीभ में रखो और स्वाद लो तब उसे गले के नीचे उतारो तथा उस बज़्म में सबके बाद अपना पहला पेग ख़त्म करो। ‘जीने की कला’ के कुछ और उन्होंने टिप्स उन्होंने दिए। मसलन पार्टी में कोई महिला हो तो पहले उसे ऑफ़र करो। वह अगर नहीं पीती हो, तो उससे अनुमति लेकर ही शराब पियो। कभी किसी महिला को ऐसी पार्टियों में अंडर या ओवर इस्टीमेट न करना। तिवारी जी के प्रवचन सुन कर लगा कि मैं भी तिवारी जी के पैर छू लूँ। लेकिन मेरे अंदर जितना जोश रहता है उतना ही होश भी। इसलिए हैंड सेक किया। इसके बाद हम लोग चले। ब्रजेंद्र गुरु को उनके घर उतारा और फिर घर आया। 

अगली सुबह तैयार हुए। अम्माँ ने पराठे और आलू-टमाटर की सब्ज़ी बनाई थी। अम्माँ तिकोना पराठा इतना मुलायम बनातीं थीं कि उनके जाने के बाद वैसे पराठे नहीं नसीब हुए। वीर सिंह तो पूरे बीस पराठे खा गए और अम्माँ और बनाने को आतुर। अंत में मैंने ही कहा, उठो भाई वीर सिंह! अब चलना है। अब हमारा गंतव्य था हमीर पुर यानी बुंदेलखंड का प्रवेश द्वार। हम क़रीब 11 बजे निकले। हमीरपुर रोड मेरे घर से डेढ़ किमी थी। वहाँ पहुँचते ही गाड़ी दौड़ा दी गई। रमई पुर, बिधनू, कठारा, पतारा, घाटमपुर, तिकवाँपुर होते हुए हम कानपुर से 65 किमी दूर हमीरपुर शहर में तीन बजे दाखिल हुए। वहाँ यमुना पुल पार करते ही झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की आदमक़द प्रतिमा लगी है। वीर सिंह ने जिप्सी रोकी। प्रतिमा की परिक्रमा की, नमन किया। तब हम चल पड़े सर्किट हाउस की तरफ़ जहां हमें रुकना था। 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (5)
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास (5)

          ( चंगेज खान, काल्पनिक चित्र )

चंगेज़ ख़ान, कुबलाई ख़ान या तेरहवीं सदी के कोई भी ख़ान मुसलमान नहीं थे। यह स्पष्ट रखना भारतीय पाठकों के लिए जरूरी है, क्योंकि यह आधुनिक भारत-पाकिस्तान का प्रचलित मुस्लिम उपनाम है। अरब, इरान, इराक या अन्य अधिक रूढ़ मुस्लिम देशों में यह उपनाम शायद कम या नहीं मिलें। 

चंगेज़ ख़ान का मूल नाम तेमूझिन था, और चंगेज़ ख़ान नाम बाद में अपनाया, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘विश्व का राजा’ बनता है। एक धारणा यह है कि ख़ान शब्द की उपज चीन के प्राचीन राजवंश ‘हान’ वंश से है, जो वहाँ की हानशुई नदी से लिया गया। जब मंगोल कबीलों ने पश्चिम एशिया पर कब्जा किया तो कई अन्य कबीलाई सरदार खागन, काघन आदि प्रयोग करने लगे। कालांतर में पश्तून (पठान) समुदाय ने ख़ान उपनाम अधिक अपनाया, और बहुधा वहीं से भारत आया। 

आखिर चंगेज़ ख़ान का धर्म क्या था, और रूस के इतिहास में इसकी क्या भूमिका है?

चाहे वाइकिंग हों, उत्तरी मंगोल हों, या साइबेरिया के रूसी, इनमें तांत्रिक (शामन) और कुछ विचित्र ‘कल्ट’ का प्रभाव रहा है। यह बात इस लेखन के शीर्षक किरदार रासपूतिन की चर्चा के साथ भी स्पष्ट होगी। चंगेज़ ख़ान के समय कई मंगोल एक ऐसी ही तेंग्री (शामन) और बौद्ध मिश्रित धर्म पालन करते थे।

यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि मंगोलों का ‘गोल्डेन होर्ड’ विश्व इतिहास के सबसे बड़े एकत्रित साम्राज्य पर राज करता था। चंगेज़ ख़ान के बाद उनके पोतों ने यह चार हिस्सों में बाँट लिया। जैसे रूस का हिस्सा बातू ख़ान को मिला, चीन कुबलाई ख़ान और बग़दाद का हिस्सा हलाकू ख़ान को। इन्होंने न सिर्फ रूसी ईसाईयों बल्कि पश्चिम एशिया के मुसलमानों को खदेड़ दिया। 

इन मतवाले हाथियों का भी वही हल था, जो वाइकिंग का किया गया। धर्म-परिवर्तन!

बहरहाल, रूस के रुरिक राजवंश का केंद्र कीव तो ध्वस्त हो चुका था। एक गिरजाघर, एक इमारत नहीं बचा। मंगोलों ने उन्हें कहीं का न छोड़ा। वे तो ख़ानाबदोशी कबीले थे। उन्हें बस तंबू गाड़ना आता था, घर बनाना नहीं। ऐसा ही एक तंबूओं का नगर उन्होंने वोल्गा नदी के किनारे बसाया। यहाँ जब आस-पास व्यापार (अथवा लूट-पाट) कर आते तो घुड़सवार सुस्ताते। इस शहर का नाम पड़ा- सराय (आज के स्तालिनग्राद निकट)।

बचे-खुचे रूसी ईसाइयों ने सुदूर उत्तर में नोवगोरोड राज्य बसाया और उनके राजा दिमित्री मंगोलों से लड़ने के लिए कमर कसने लगे। मोस्कवा नदी के किनारे क़िलाबंदी की गयी, नगर का नाम पड़ा- मॉस्को। वहीं सफ़ेद पत्थर से बना एक किला खड़ा किया गया, जिसका नाम पड़ा- क्रेमलिन!

जब मंगोलों तक यह खबर पहुँची, उनके एक सरदार मेमई एक टुकड़ी लेकर मॉस्को की ओर बढ़े। मगर दिमित्रि से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। यह हार मंगोलों को बरदाश्त नहीं हुई। 1382 में तोख्तमिश ख़ान की सेना ने मॉस्को पर आक्रमण कर पूरे नगर में आग लगा दी। दिमित्रि को नगर छोड़ कर भागना पड़ा।

मगर अब मंगोल तंबूओं में सेंध लगनी शुरू हो गयी थी। उनके कई कबीलों ने इस्लाम धर्म कबूल लिया था। हलाकू ख़ान को पहले ही मिस्र के बहरी ममलूक हरा चुके थे। तैमूर लंग नामक एक अमीर पश्चिम एशिया में उभर चुका था, जो धीरे-धीरे मंगोल साम्राज्य पर अपना अधिकार जमा रहा था। मूल मंगोल नहीं होने के कारण उसे ‘ख़ान’ पदवी के प्रयोग की इजाज़त नहीं थी। 

तैमूर लंग इस्लाम की तलवार लिए एक लाख़ घुड़सवारों के साथ मॉस्को की तरफ़ बढ़ा। उसने सराय शहर को पूरी तरह नष्ट किया और तोख्तमिश ख़ान को भागना पड़ा। मंगोलों का आत्मविश्वास इस घटना के बाद टूटने लगा, और धीरे-धीरे उनका साम्राज्य समाप्त हुआ। इस शक्ति के खत्म होते ही, दुनिया फिर से ग्राउंड ज़ीरो पर आ गयी। भविष्य यीशु मसीह और पैग़म्बर मुहम्मद के अनुयायियों के मध्य सत्ता-संघर्ष का था। 

पंद्रहवीं सदी से रूस अपने अधिक ऑर्थोडॉक्स ईसाई रूप में जमने लगा। वह रूस के बदले कहलाने लगा ‘रोशिया’ (रशिया)! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास (4)
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Tuesday, 28 September 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (5) अउर शारिक गुरु?

किसी ने भी यह नहीं पूछा कि अपनी कोस-कोस का पानी सीरीज़ से आपने वीर सिंह और वीडी तिवारी वाला प्रकरण कहाँ गोल कर दिया। शायद इसलिए भी क्योंकि फ़ेसबुक के पाठक सीरियस नहीं होते। उन्हें बस सब कुछ चाहिए फटाफट। इसलिए ऐसे फटाफट पैदाइश वाले पाठकों के लिए क्या लिखा जाए! पहले हम लोग धर्मयुग अथवा साप्ताहिक हिंदुस्तान में किसी धारावाहिक कहानी, उपन्यास को चाव से पढ़ते थे तो अगले हफ़्ते उसके आगे का हिस्सा पढ़ने को बेचैन रहते थे। शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास “गली आगे मुड़ती है” को मैंने धर्मयुग में धारावाहिक पढ़ा था। पर आज के लोग फ़िल्मों का सीक्वल तो देखते हैं लेकिन लिखे का नहीं। ख़ैर, मैं वीर सिंह और वीडी तिवारी का क़िस्सा आगे बढ़ाता हूँ। 

मुझे जब बताया गया कि गेट के बाहर अपनी कार में बैठा कोई व्यक्ति मेरा इंतज़ार कर रहा है, तो मैं बाहर आया। वीडी तिवारी ही थे। उन्होंने कहा, शंभू शाम को मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा और अपने दोस्त को भी ले आना। वीडी तिवारी उर्फ़ छोटे तिवारी आर्य नगर में रहते थे और सिर्फ़ यह बताने वे आठ किमी दूर साकेत नगर मेरे घर आए थे। इतना कह कर वे अपनी 118 NE गाड़ी से फुर्र हो गए। तब फ़ियेट कार कम्पनी ने यह कार लाँच की थी। शोफ़र ड्रिवेन यह कार काफ़ी आरामदेह थी और वातानुकूलित भी। 1990 में इस कार की क़ीमत ढाई लाख के क़रीब थी। 

वीर सिंह ने कहा गंगा जी देखनी है। मैं उन्हें अपने मित्र रागेंद्र स्वरूप उर्फ़ काका भैया के आवास पर ले गया। कानपुर के सिविल लाइंस स्थित उनके बंगले से गंगा का पाट खूब सुंदर दिखता। काका भैया कानपुर में शिक्षा जगत की मशहूर हस्ती और दयानंद शिक्षा संस्थान के सदर बाबू वीरेंद्र स्वरूप के छोटे बेटे थे। बाबू वीरेंद्र स्वरूप स्वयं उत्तर प्रदेश विधान परिषद में सर्वाधिक लंबे समय तक सभापति रहे। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अपनी विरासत अपने तीनों बेटों को सौंपी। राजनीतिक विरासत बड़े बेटे जागेंद्र स्वरूप को, कानपुर और देहरादून के शिक्षा संस्थान मंझले बेटे नागेंद्र स्वरूप उर्फ़ अष्टू बाबू को और अचल संपत्ति छोटे बेटे रागेंद्र स्वरूप काका भैया को। इसके बाद हम लोग सिविल लाइंस स्थित स्वतंत्र भारत के दफ़्तर गए। वहाँ पर संपादक अपने जनसत्ता के पुराने साथी श्री सत्यप्रकाश त्रिपाठी थे। सबसे मेल-मुलाक़ात के बाद शाम छह बजे हम सिविल लाइंस से आर्य नगर की तरफ़ चले। 

घर पर वीडी तिवारी के आने की भनक पिता जी को लग गई थी। वे भकुर गए थे। वीरभद्र तिवारी के बेटे का घर आना-जाना उन्हें पसंद नहीं था। इशारे-इशारे में वीर सिंह को भी इसका अंदाज़ हो गया था। जब हम वीडी तिवारी के घर पहुँचे तो पाया कि ब्रजेंद्र गुरु भी वहीं बैठे हैं। ब्रजेंद्र गुरु बैंकिंग यूनियन के राष्ट्रीय नेता थे और बहुगुणा जी के करीबी। वीर सिंह भी उनसे परिचित था। हम दोनों ने ब्रजेंद्र गुरु के पैर छुये पर तिवारी जी से हाथ मिलाया। ऐसा इसलिए कि अपनी वाक्-शैली से प्रभावित करने के बावजूद वीडी तिवारी के प्रति मन में कभी श्रद्धा नहीं उपजी। भले चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी में उनके पिता की भूमिका संदिग्ध रही हो लेकिन लोक मानस को बदला नहीं जा सकता। दूसरे वीडी तिवारी एक ऐसे मनुष्य थे, जो मुझसे दोस्ती चाहते थे और हेल्पफुल भी रहते लेकिन उनके दिमाग़ में यह बात सदैव चलती कि शंभू के राजनीतिक सम्बंधों का दोहन कैसे किया जाए। इसलिए दोस्ती के बाद भी बच कर रहना पड़ता था। 

फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलने में निपुण और योरोपीय रहन-सहन के आदी वीडी तिवारी कानपुर में छोटे तिवारी के नाम से प्रसिद्ध थे। ऐसा क्यों था, पता नहीं। उनके बड़े भाई कानपुर में ही डिप्टी सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस थे। तिवारी जी बताते थे कि उनके पिता ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री से बेटे की नौकरी के लिए कहा। वे उस वक्त मैट्रिक पास थे। शास्त्री जी ने उन्हें सीधे दरोग़ा बना दिया। जो अब डीएसपी बन चुके थे। हो सकता है कानपुर में लोग उन्हें बड़े तिवारी और इन्हें छोटे तिवारी कहते हों। उनके तीसरे भाई पश्चिमी जर्मनी में सेटल्ड थे। आर्य नगर में वीडी तिवारी किराये के मकान में रहते थे। जिस गली में यह मकान था वह दो मकान बाद बंद हो जाती थी। तिवारी जी का आवास भूतल पर था। आवास तक पहुँचने के लिए सड़क से चार फुट ऊँचा चबूतरा था जिस पर चढ़ने के लिए चार सीढ़ियाँ थीं। चबूतरा लाल रंग का था और सीमेंटेड भी तथा तीन फुट चौड़ा। कुंडी वाले किवाड़ खोल कर तिवारी जी के ड्राइंग रूम में घुसा जा सकता था। क़रीब 15 फुट लम्बे और दस फुट चौड़े बैठके में तीन सोफ़े थे और दो एक सीटर तथा तथा एक तीन सीटर। साढ़े तीन बाई छह का एक तख़्त पड़ा था, जिस पर रुई का गद्दा बिछा था। उसके ऊपर बेल-बूटों वाली एक चद्दर बिछी थी। ब्रजेंद्र गुरु इस तख़्त पर अधलेटे-से थे, उनके पीछे रंगीन टेलीविजन पर वीसीआर के मार्फ़त कोई अंग्रेज़ी फ़िल्म चल रही थी। सामने वन सीटर सोफ़े पर तिवारी जी बैठे थे। एक पाँव ज़मीन पर और एक सोफ़े के ऊपर। वे चार खाने की नीली लुंगी कमर पर लपेटे थे और ऊपर सैंडो बनियायन। मेरे पहुँचते ही दोनों लोग बोले- आव गुरु!

गुरु दरअसल कानपुर में संबोधन का एक तरीक़ा है। यह आपके सरनेम के साथ नहीं बल्कि फ़र्स्ट नेम के साथ लगाया जाता है। जैसे फ़र्ज़ करिए डॉ शारिक़ अहमद ख़ान मिले तो उन्हें कोई डॉक्टर या खान साहब नहीं बोलेगा बल्कि कहेगा- “अउर शारिक गुरु?”
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (4)
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शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (4)

बचपन में घी-दूध और फलों की कमी नहीं थी। मेरा बचपन पिताजी की मौसी के यहाँ बीता। पिता जी के मौसा कानपुर के एक बड़े ज़मींदार अमरौधा वाले टंडन जी के कारिंदा थे। अंगदपुर गाँव में रहते थे। बीस एकड़ बारानी खेती, आम, केले और अमरूद के बाग अलग। मकान मेरे बचपन में भी दुखंडा बना था और बीघे भर का घेर। घर में नौकर-चाकर। चूँकि वे मौसा जी निस्संतान गुज़र गए थे इसलिए दादी ने पिताजी को वहाँ भेज दिया। 

मौसी का गाँव में रुतबा था। बच्चों के झगड़े में एक लड़की ने पत्थर फेंका जो मेरे सिर पर लगा। सिर से ख़ून भल-भल बहने लगा। मौसी-दादी ने उसके पिता को बुला कर अपने नौकर से जूतों से पिटवाया था। मैं भी सहम गया था। उनके घेर में कई दुधारू पशु थे। सुबह-शाम दूध कढ़ कर आता तो बोरसी में हल्की आँच में रात भर गर्म होता। सुबह वह दूध ललौंछ लिए होता। मलाई, दूध और मक्खन खाते। मट्ठा परजा को चला जाता।

मौसी-दादी की ज़मीन पर उनके पड़ोसी एक ब्राह्मण परिवार के लोग आँख गड़ाए थे। अकेले पिता जी उनसे लड़ नहीं सकते थे। और हमारे दादा ने साफ़ कह दिया कि हमें किसी कारिंदा की ज़मीन नहीं चाहिए। बाद में पिता जी के मामा लोग उस ज़मीन और ज़ायदाद पर क़ाबिज़ हुए। लेकिन मैंने तो छह साल की उम्र तक बचपन वहीं गुज़ारा। फिर कानपुर शहर आ गए। अब जब भी कानपुर जाता हूँ तो NH-2 पर मुंगीसा पुर से एक किमी आगे वह गाँव दिखता है। पर वहाँ कभी जाने की इच्छा नहीं हुई।

( दूध की हाँडी की यह फ़ोटो श्री कुलदीप चौहान के सौजन्य से )

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (3)
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शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (3) आइसक्रीम, पेस्ट्री, केक या शेक छोडो!

आइसक्रीम, पेस्ट्री, केक या किसी भी तरह के शेक मैंने त्याग दिए हैं। मीठा खाना हो, तो ठंडी खीर सबसे उत्तम। भोजन वही करना चाहिए, जो अपनी प्रकृति के अनुकूल हो। और डॉ. स्कंद शुक्ल के अनुसार खेत के करीब हो। एक किस्सा सुनिए, साल 1992 की बात है, अपने मित्र श्री रामलाल राही पीवी नरसिंह राव की सरकार में उप मंत्री थे। मालूम हो कि अब उप मंत्री पद समाप्त हो गया है। राव साहब ने उन्हें उप मंत्री इसलिए बनाया था, क्योंकि 1991 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के जो 5 लोग जीते थे, उनमें से एक रामलाल राही जी भी थे। उत्तर प्रदेश के सभी लोग मंत्री बनाए गए, सो अपने दोस्त राही जी भी बन गए। अब उप मंत्री के पास करने को तो कुछ होता नहीं है, वह भी गृह मंत्रालय में, जहाँ तब शंकर राव चव्हाण कैबिनेट मंत्री थे। पर कुछ न कुछ काम तो उन्हें देना ही था, इसलिए उन्हें ‘ओएल’ दे दिया। ‘ओएल’ यानी “ऑफिसियल लैंग्वेज़” विभाग, जिसे हिंदी में राजभाषा कहते हैं. ‘ओएल’ सबसे उपेक्षित विभाग होता है, हालांकि उसका बज़ट कम नहीं होता, लेकिन बजट मिलता तब है, जब मंत्री अंग्रेजी पोंके! पोंके का मतलब है कि मंत्री शरीर के सारे छिद्रों से अंग्रेजी में ही वायु विसर्जित करे। अब अपने राही जी अत्यंत पिछड़ी जाति पासी कुल में जन्मे। मुफलिसी में पढ़े थे, वह भी यूपी के सीतापुर जिले से। हालांकि वे 1955 के मैट्रिक थे। पर वे अधिकतर अवधी ही बोलते और बेहद सज्जन तथा सीधे भी। लेकिन चूंकि बजट है, इसलिए कुछ तो खर्च होगा ही। अतः मैंने उनको राय दी, कि आप दक्षिण के राज्यों में जाकर हिंदी अर्थात राजभाषा की प्रगति की समीक्षा करिए। राही जी राज़ी हो गए, पर शर्त रखी, कि शुक्ला जी आपको भी चलना होगा। यह मुश्किल था, क्योंकि मेरे लिए 15 दिन की छुट्टी लेना आसान नहीं था, तब मैं जनसत्ता की राज्य डेस्क, जिसमें यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान की ख़बरें लगती थीं, का प्रभारी था। हमारी डेस्क सबसे “रिच” थी. स्ट्रेंग्थ के लिहाज़ से भी और कामकाज व फल-फूल के लिहाज़ से भी। इस डेस्क के साथियों से काम लेना उस समय किसी के लिए आसान नहीं था। मैं ही किसी तरह उनको काम के लिए राज़ी करता था। हालाँकि काम में सब माहिर थे, लेकिन थे शिव जी के वाहन! यहाँ तक कि संपादक प्रभाष जी भी कहते थे- शुकल जी ये आपके छुट्टा साथी! यूँ मैं अपने साथियों को भरोसे में लेकर भी जा सकता था, पर 15 दिन में कुछ उंच-नीच हो जाए तो? खैर, मैंने अपने न्यूज़ एडिटर श्री श्रीश मिश्र से अनुरोध किया, तो उन्होंने फ़ौरन छुट्टी स्वीकृत कर दी। मैं थोड़ा चकराया, कि यह कैसे हो गया! पर हो गया सो हो गया! यह तो फिर कभी बताऊंगा कि यह ‘क्यों’ हुआ?

राही जी को गृह मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री ने बीएसएफ का एक जहाज़ आवंटित कर दिया। 22 सीटर उस जहाज़ में एक केबिन था, जिसमें मंत्री जी और मैं बैठता। इस केबिन में सोफे थे और खूब जगह। मंत्री जी का स्टाफ तथा सुरक्षा कर्मी भी साथ रहते। पूरे 15 रोज़ हम दक्षिण भारत घूमे। यह जहाज़ हमें कालीमिर्च के लिए विख्यात केरल के कोझीकोड में उतार कर वापस चला गया। वहां से कोचीन, त्रिवेंद्रम, कन्याकुमारी तथा लक्षदीप की यात्रा हमने रेल मार्ग और जलयान से की। पूरे 15 दिन बाद वह जहाज़ हमें त्रिवेंद्रम में लेने आया। कोझिकोड में पता चला कि यहाँ हिंदी उर्दू के सहारे चलती है। वहां के विश्वविद्यालय में मलिक मोहम्मद साहब हिंदी के अध्यक्ष थे। और उर्दू विभाग उनका सुपर अध्यक्ष था। हालाँकि मालाबार तट के इस इलाके में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई बराबर की संख्या में हैं, पर विवि में हिंदी के छात्र सिर्फ मुस्लिम दिखे। हिन्दुओं को वहां हिंदी में दिलचस्पी नहीं। और ईसाई अंग्रेजी पढ़ते थे। अब शायद वहां मुस्लिम भी हिंदी में उच्च शिक्षा नहीं लेते। उस वक़्त दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में पुराने गांधीवादी थे, पर अब सन्नाटा है। 

वहां पर केंद्रीय सूचना सेवा के एक अधिकारी मिले, जो वहीँ पोस्टेड थे, पर मंत्री जी के प्रोटोकोल में उनकी ड्यूटी लगी थी। उन्होंने मुझसे कहा, कि शुक्ला जी, जिस इलाके में रहें, वहां की प्रकृति के अनुरूप भोजन करें। यहाँ आप तड़का या दाल मक्खनी मत तलाशिएगा, न आलू या पनीर भरा डोसा अथवा रोटी या चिकेन। दक्षिण में आप जब तक रहें तब तक डोसा, या सांभर-भात-रसम खाएँ अथवा फिश। मैंने उनकी बात मान ली। और एक भी दिन दाल-रोटी नहीं खाई। हालाँकि हम वीवीआईपी थे, जो चाहते मिलता। साथी पत्रकारों ने खाई और सब बीमार पड़े एक मैं ही स्वस्थ लौटा।

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (2)
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लाहौर जेल में, भगत सिंह की नेहरू से मुलाकात / विजय शंकर सिंह

हम एक बेशुमार गढ़े जा रहे झूठ और गोएबेलिज़्म के दौर से गुजर रहे हैं। इस दौर में इतिहास की नयी नयी व्याख्या की जा रही है, या कहें, नयी नयी व्याख्याये गढ़ी जा रही है। चाहे प्राचीन भारतीय इतिहास हो, या  इतिहास का मध्यकालीन भाग या 1757 ई के बाद का आधुनिक भारत या आधुनिक भारत मे अपनी आजादी और अपनी अस्मिता के लिये किये गए स्वाधीनता संग्राम का इतिहास, जो 1857 से 1947 तक के कालखंड का है, के बारे मे ऐसे ऐसे तथ्य परोसे जा रहे हैं कि, इतिहास के अकादमिक शोधार्थी भी चक्कर खा जा रहे है। स्वाधीनता संग्राम के सभी नायकों के बारे जानबूझकर दुष्प्रचार फैलाया जा रहा है। इन नायको को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर के उन्हें भी विभाजित किया जा रहा है। जबकि स्वाधीनता संग्राम के सभी नायको, चाहे गांधी हों या नेहरू, पटेल, सुभाष, या क्रांतिकारी आंदोलन की धारा के भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद या अपनी अलग शैली से आज़ाद हिंद फौज का गठन कर, युद्ध की घोषणा करने वाले सुभाष बाबू, इन सबमें तरह तरह के वैचारिक और रणनीतिक मतभेद होने के बावजूद, सभी नेता, एक बात पर अडिग थे, कि भारत को इस औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्ति मिले। 

भगत सिंह को लेकर इसी गढ़े जा रहे इतिहास के अनेक दुष्प्रचारों में एक दुष्प्रचार, यह भी है कि, 'भगत सिंह जेल में थे तो उनसे मिलने कांग्रेस का कोई नेता नहीं गया।' यह तथ्य (?) साल 2018 में, कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने, बीदर में अपनी चुनाव रैली के दौरान भी कहा था। उन्होंने कहा था,
” जब शहीद भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और स्वातन्त्र्यवीर सावरकर आज़ादी की लड़ाई में जेल में थे तो क्या कांग्रेस का कोई नेता उनसे मिलने गया था ? ”

यह भी एक महीन और शातिर चाल है कि शहीद त्रिमूर्ति के साथ सावरकर का नाम जोड़ दिया जाय। सावरकर भी देश के स्वाधीनता संग्राम के एक अंग थे और उन्हें अंडमान जेल मे रखा भी गया था। उन्हें यातनाएं भी दी गयी होंगी। पर जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी, और उसके योद्धा भगत सिंह और उनके साथी ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे, तब सावरकर ब्रिटिश राज से, माफी मांग कर स्वाधीनता संग्राम से अलग हो चुके थे। अतः भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के साथ सावरकर के नाम को जोड़ कर उल्लेख करना, इतिहास को झांसा देना है। यह कल्पना ही नहीं की जा सकती है कि, भगत सिंह उस व्यक्ति से प्रेरणा प्राप्त करेगे, जो ब्रिटिश हुक़ूमत से माफी मांग कर ब्रिटिश राज की शर्तों पर अपनी ज़िंदगी गुजार रहा हो। अंडमान पूर्व और अंडमान बाद के सावरकर का अंतर समझना होगा। सावरकर 1921 में अंडमान जेल से छोड़ दिये गए थे, जबकि भगत सिंह, जिस सांडर्स हत्याकांड में मुल्जिम बनाये गए थे, वह घटना, दिसम्बर 1928 की है, और जिस असेंबली बम कांड में वे, 'बहरों को सुनाने के लिये बम फोड़ कर' खुद ही गिरफ्तार हो गए थे, वह 8 अप्रैल 1929 का है। 

प्रधानमंत्री ने कांग्रेस के किसी नेता का नाम नहीं लिया। पर उनका यह हमला, संघ की लगातार इस आलोचना पर कि 'संघ का स्वाधीनता संघर्ष में कोई योगदान नहीं है' के उत्तर में तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं पर था। कांग्रेस में भी उनका निशाना किस पर है यह अनुमान लगाया जा सकता है। यह निशाना गांधी और नेहरू पर है। गांधी के बारे में तो बार बार यह प्रचारित किया ही जाता है कि उन्होंने भगत सिंह की फांसी रुकवाने की कोई कोशिश नहीं की। अब बचे नेहरू, तो नेहरू की विचारधारा से संघ की चिढ़ और खुन्नस, किसी से छिपी नहीं है। 

प्रधानमंत्री जी ने यही बात ट्वीट कर के भी कही। अपने ट्वीट में वे कहते हैं –

” When Shaheed Bhagat Singh , Batukeshvar Datta and Veer Sawarkar, greats like them were jailed fighting for the country’s independence, did any Congress leaders went to meet them ? But the Congress leaders go and meet the corrupt who have been jailed. ” @narendramodi 8.24 PM May 9, 2018

इस ट्वीट के दो भाग हैं। एक कि इन महान स्वाधीनता सेनानियों और शहीदों से कोई कांग्रेस का नेता मिलने गया था या नहीं। दूसरा, कांग्रेस के नेता भ्रष्टाचार के आरोप में सज़ायाफ्ता से मिलने जाते हैं। यह दूसरा भाग राहुल गांधी की लालू प्रसाद यादव से मुलाकात के बारे में हैं जो आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स में हुयी थी। लालू यादव भ्रष्टाचार के मामले में सज़ायाफ्ता हैं और राहुल गांधी उनसे मिलने गए थे। यह बात प्रधानमंत्री की सही है कि राहुल गांधी, लालू प्रसाद यादव से मिलने गए थे। यह ट्वीट 9 मई 2018 का है। 

लेकिन लाहौर जेल में बंद, भगत सिंह और उनके साथियों से किसी कांग्रेसी के जेल में जाकर, न मिलने के आरोप के बारे में प्रख्यात इतिहासकार डॉ इरफान हबीब ने उसी समय, पीएम के ट्वीट का इस प्रकार उत्तर दिया,

” Nehru had not only met them in prision but also wrote about them. ” 
" नेहरू न केवल उनसे मिलने जेल गए थे, बल्कि उन्होंने इसके बारे में लिखा भी है।"

जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा माय स्टोरी, हिंदी अनुवाद मेरी कहानी में इस मुलाकात का ज़िक्र है। नेहरू अपनी आत्मकथा में लिखते हैं,

” I happen to be in Lahore when the hunger strike is already a month old. I was given permission to visit some of the prisoners in the prison and I availed myself of this. I saw Bhagat Singh for the first time, and Jaindranath Das and few others. They were all very weak and bed ridden and it was hardly possible to talk to them much. Bhagat Singh had an attractive and intellectual face, remarkably calm and peaceful. There seem to be no anger in it. He looked and talked with great gentleness. But then I suppose that anyone who has been fasting for a month will look spiritual and gentle. Jatindas looked milder soft and gentle like a young girl. He was in a considerable pain . ”
( My story An autobiography of Jawaharlal Nehru. Pp 204. )

मैं जब लाहौर में गया था तो यह भूख हड़ताल एक महीना पुरानी हो चुकी थी। मुझे कुछ कैदियों से जेल में जा कर मिलने की इजाज़त मिली थी। मैंने इस मौके का फायदा उठाया। मैंने भगत सिंह को पहली बार देखा और जतिनदास तथा अन्य भी वहीं थे। वे सभी बहुत कमजोर हो गए थे और बिस्तर पर ही पड़े थे, इस लिये उनसे बहुत मुश्किल से ही बात हो सकी। भगत सिंह एक आकर्षक और बौद्धिक लगे जो गज़ब के शांत और निश्चिंत । मुझे उनके चेहरे पर लेश मात्र भी क्रोध नहीं दिखा था। वे बहुत ही सौम्य लग रहे थे और शालीनता से बात कर रहे थे। लेकिन मैं यह सोच बैठा था कि जो एक महीने से भूख हड़ताल पर बैठा हो वह तो आध्यात्मिक व्यक्ति जैसा दिखेगा। जतिनदास तो और भी सौम्य, कोमल तथा लड़कियों जैसा दिखा । हालांकि निरन्तर भूख हड़ताल से वह बहुत कष्ट में था।"

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस मुलाकात का ज़िक्र केवल जवाहरलाल नेहरू ने ही अपनी आत्मकथा में किया है। बल्कि यह खबर उस समय के प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी अखबार द ट्रिब्यून जो सन 1881 से लाहौर से प्रकाशित होता था में भी छपी थी। नेहरू की मुलाक़ात का यह विवरण 9 अगस्त 1930 के ट्रिब्यून में भी छपा था । ट्रिब्यून की खबर में यह शीर्षक था 

” Pt Jawaharlal interviews hunger strikers ” 
पंडित जवाहरलाल ने भूख हड़ताल करने वालों से बात चीत की। 

आगे अखबार लिखता है-
” Pandit Jawaharlal first went to the central jail where he met Sardar Bhagat Singh and B.K.Dutta where he held conversation about the hunger strike. ” 
पंडित जवाहरलाल पहले सेंट्रल जेल गए जहां वे सरदार भगत सिंह और बीके दत्त से मिले और उनसे भूख हड़ताल के बारे में बात की।

अखबारों से बात करते हुये नेहरू ने 8 अगस्त 1930 को लाहौर में कहा-

“I visited the Central Jail and the Borstal Jail yesterday and saw Sardar Bhagat Singh, Mr. Batukeshwar Dutt, Mr Jatindranath Das and all the other accused in the Lahore conspiracy case, who are on hunger-strike.”
"मैंने कल लाहौर के सेंट्रल जेल जो बोर्स्टल जेल है में कल जा कर सरदार भगत सिंह, बीके दत्त और जतिनदास जो लाहौर षडयंत्र मामले के आरोपी और भूख हड़ताल पर थे से मुलाक़ात हुई।"

ट्रिब्यून की खबर 8 अगस्त 1930 के बाइलाइन से 9 अगस्त के अंक में विशेष संवाददाता के नाम से छपी है। इसकी फ़ोटो और विवरण गूगल पर उपलब्ध है। नेहरू अकेले नहीं थे। उनके साथ डॉ गोपी चंद एमएलसी भी थे। अखबार के अनुसार, इस मुलाकात में, भगत सिंह, जतिन दास, अजय घोष, और शिव वर्मा भी थे। ये सभी जेल के अस्पताल में थे।

नेहरू की आत्मकथा और द ट्रिब्यून की इस खबर के अतिरिक्त इस मुलाकात की खबरों का विवरण कुछ इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में भी किया है। फ्रैंक मॉरिस ( Frank Moraes ) जो एक अंग्रेजी पत्रकार थे, ने भी नेहरू की आत्मकथा लिखी है। यह किताब 1956 में प्रकाशित हुई है और नेहरू की जीवनी पर इतिहासकारों ने इसे एक प्रमाणिक पुस्तक माना है। उस किताब में फ्रैंक ने भी भगत सिंह से नेहरू की जेल में मुलाकात का विवरण दिया है ।

नीचे का उद्धरण पढ़ने के पहले उद्धरण की पृष्ठभूमि जानना आवश्यक है। जब जेल की दुरवस्था को लेकर जतिनदास ने अनशन शुरू किया तो बाद में भगत सिंह और साथियों ने भी अनशन में उनका साथ दिया। जब अनशन लम्बा चला और एक माह हो गया तो 1929 के लाहौर अधिवेशन की तैयारियों के दौरान नेहरू लाहौर गये थे। भगत सिंह के अनशन को ले कर लाहौर में लोग बहुत उत्तेजित थे। तब नेहरू इन क्रांतिकारियों से मिलने लाहौर जेल में गये जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में और दैनिक अखबार द ट्रिब्यून ने समाचार के रुप मे किया है, जो ऊपर लिखा जा चुका है।

तब कांग्रेस कमेटी के दबाव पर सरकार ने जेल सुधार के लिये एक सुधार कमेटी का गठन किया और आश्वासन दिया कि इस कमेटी की सिफारिशों के अनुसार राजनीतिक बंदियों के जेल जीवन मे सुधार किया जाएगा। इसी आश्वासन और अपने पिता करतार सिंह तथा कांग्रेस कमेटी के अनुरोध पर उन्होंने यह लम्बा अनशन समाप्त किया। जतिनदास तो अनशन के दौरान ही 63 दिन में शहीद हो गए थे। इस उद्धरण में उसी सुधार कमेटी की सिफारिशों का उल्लेख है। 1929 और 30 , कांग्रेस के इतिहास में सबसे प्रमुख गतिविधियों के साल रहे हैं। यह सारी गतिविधियां लाहौर में ही हो रही थी। क्यों कि 1929 में ही जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बने और 26 जनवरी 1930 को कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया।

अब आप यह उद्धरण पढ़ें।

” If the Congress Working Committee was disturbed by the terms of the settlement , many in the country were even more distressed. Under the settlement of the amnesty to the political prisoners did not include those kept in detention without trial. Even more contentious was the issue of the death sentence of Bhagat Singh. Public opinion demanded that it should be commuted, by the Government was adamant. On March 23 rd, despite Gandhi’s desperate pleating, Bhagat Singh was executed. ”

( यदि कांग्रेस वर्किंग कमेटी समझौते की शर्तों के टूटने पर विचलित थी तो देश के बहुत से लोग और भी निराशा से भर गए थे। राजनैतिक कैदियों के प्रति उचित व्यवहार और सदाशयता का मुद्दा भी कांग्रेस ने सरकार के समक्ष रखा था। लेकिन सरकार ने उन कैदियों का प्रकरण जो अभी विचाराधीन हैं, को इस मुद्दे से अलग कर दिया। सरकार भगत सिंह के कारण इस प्रकरण पर बात नहीं करना चाहती थी। लेकिन जनता की यह लोकप्रिय इच्छा थी कि, विचाराधीन कैदियों के प्रति जो सदाशयता सरकार दिखाने की बात कर रही है, उसमे भगत सिंह का भी मसला शामिल किया जाय। लेकिन सरकार ज़िद पर अड़ी थी। अंत मे 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को गांधी के पत्र और अनुरोध के बावजूद भी फांसी दे दी गयी। )

इसी क्रम में फ्रैंक लिखते हैं, भगत सिंह की फांसी से नेहरू बहुत ही उद्वेलित थे। उन्होंने तब कहा था कि,

” The corpse of Bhagat Singh, will stand between us and England ” 
भगत सिंह का शव हमारे और इंग्लैंड के बीच सदैव बना रहेगा ।

नेहरू के कहने का अर्थ था, सरकार के प्रति हमारी अविश्वसनीयता और बढ़ गयी। यह अविश्वास जब भी इंग्लैंड की सरकार से बात होगी तो, बना रहेगा।

अब एक और उद्धरण पढ़ें। यह उद्धरण भगत सिंह पर भवन सिंह राणा द्वारा लिखी पस्तक भगत सिंह से लिया गया है। यह भी सुधार कमेटी की सिफारिशों के लागू न किये जाने पर है।

” The Government dilly – dallied in implementing the recommendation of the reforms committee. Therefore Bhagat Singh strongly protested against this step of the Government of India, through a special magistrate. It warned that the Government was going back on the recommendations , and gave it one week’s time to act. Bhagat Singh was not a person to back out from the truth. So he himself also wrote an application on 20th january 1930, to the Home Minister, Government of India. ”

सरकार ने जानबूझकर सुधार कमेटी की सिफारिशों को लागू करने में हीला हवाली की। इसलिये भगत सिंह ने एक विशेष मजिस्ट्रेट के माध्यम से इसका मजबूती से विरोध किया। उन्होंने चेतावनी दी कि, सरकार अपने वादों से मुकर रही है और उन्होंने सरकार को सुधार कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के लिये एक हफ्ते का समय दिया। भगत सिंह सत्य से डिग जायें, ऐसे व्यक्ति नहीं थे। अतः उन्होंने 20 जनवरी 1930 को भारत सरकार के गृह मंत्री को एक प्रार्थना पत्र दिया।

भारत सरकार के गृह मंत्री को जो पत्र उन्होंने लिखा था, उसमे का यह अंश पढ़ें।

” We ended our hunger strike on this assurance of the reform committee that the issue of good conduct with the political prisnors was shortly being finally resolved to our satisfaction. The jail authorities are sitting over the recommendations regarding hunger strikes, made by All India Congress Committee. The congressmen have been refused permission to see the prisoners persons allegedly related to conspiracy case. ”

हमने अपना आमरण अनशन इस आश्वासन पर समाप्त किया था, कि सुधार कमेटी की सिफारिशें जो राजनीतिक बंदियों के साथ जेल में अच्छे व्यवहार के संदर्भ में थीं को सरकार हमारी संतुष्टि के अनुसार लागू करेगी। सुधार कमेटी ने जो सुझाव आल इंडिया कांग्रेस कमेटी द्वारा भूख हड़ताल के बारे में सुधार कमेटी को दिए थे पर कोई विचार नहीं किया। वे उन सिफारिशों को दबा कर बैठे हैं। यहां तक कि कांग्रेस के लोगों को लाहौर षडयंत्र के कैदियों से मिलने की अनुमति भी नहीं दी गयी।
यह उद्धरण कई जगह उपलब्ध  है।

आरएसएस और उसकी वैचारिकी से प्रभावित, लोगों का कहना है कि, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भगत सिंह और साथियों के विरुद्ध था,  पर इस आरोप के समर्थन में कोई भी ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं मिलता है। कांग्रेस मूलतः गांधी के सत्याग्रह, असहयोग और अहिंसक आन्दोलन के रास्ते पर थी। जबकि भगत सिंह, इंकलाब की बात करते थे, ब्रिटिश साम्राज्य के नष्ट हो जाने की कामना करते थे। भगत सिंह का सपना आज़ादी से कहीं आगे साम्राज्यवाद के नाश का था। वे राजनीतिक आज़ादी पाकर संतुष्ट हो जाने वाले क्रांतिकारी नहीं थे। उनका सपना था, एक ऐसे समाज का निर्माण, जहां श्रम का शोषण और, सामाजिक विषमता न हो। उनका कांग्रेस से कोई वैचारिक मेल नहीं था। फिर भी यह वैचारिक द्वंद और मतभेद, कांग्रेस और भगत सिंह के बीच कोई बाधा नहीं बना। आज भी सावरकरवादी मित्र, भगत सिंह की विचारधारा पर कोई बहस नहीं करते हैं, न वे उनका लिखा पढ़ने की जहमत उठाएंगे। वे भगत सिंह के माध्यम से अपने चिर विरोधी, गांधी नेहरू पर अपनी चिढ़ और खुन्नस निकालते हैं। आज़ादी का आंदोलन एक महायज्ञ था। सभी अपने अपने मंत्रो और समिधा से उस यज्ञ में आहुति दे रहे थे। पर उंस महायज्ञ में आरएसएस कहाँ था, यह सवाल जब जब मैं स्वाधीनता संग्राम से जुडी घटनाओं का विवरण पढ़ता हूँ तो, मेरे मन मे कौंध जाता है। 

© विजय शंकर सिंह 

प्रवीण झा - रूस का इतिहास (4)

यूरोपीय मूर्तिपूजकों का स्वेच्छा से ईसाई बनना या जबरन बनाया जाना यूरोप की शक्ल-सीरत बदल रहा था। ख़ास कर वाइकिंग योद्धाओं का यूँ ईसाई धर्म अपनाना एक स्थायी सांस्कृतिक बदलाव दे गया, जो आज तक नज़र आता है।

इसका एक लाभ यह हुआ कि बिखरे हुए कबीलों को बाइबल के रूप में एक मार्गदर्शक किताब मिल गयी। उनकी जीवनशैली कम आक्रामक और अधिक सुनियोजित हो गयी। जहाजी लूट की प्रवृत्ति जाती रही, और कुछ हद तक आर्थिक और सामाजिक उन्नति हुई। 

हानि यह हुई कि उनकी शक्ति घट गयी। रूस के राजा व्लादिमीर के पुत्र बोरिस, जो ईसाई प्रचारक बने, उनके अपने भाई ने ही उन्हें मार डाला। भले ही वे ईसाई शहीद की तरह पूजे गए, लेकिन खून का बदला खून की वाइकिंग प्रवृत्ति नहीं रही। हाथ में फरसा लिए युद्ध करने वाले वाइकिंग अगर बाइबल लिए घूमने लगें तो क्या होगा? भारतीय संभवत: सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म अपनाने के बाद मौर्य वंश के पतन से इसे जोड़ सकें।

प्रश्न यह उठ सकता है कि ईसाई धर्म अपनाने के बाद रूस पर आक्रमण कौन करता? ईसाई तो नहीं ही करते। अगर मुसलमान करते तो ईसाई देश सहयोग करने आते। लेकिन, हम भूल रहे हैं कि एक तीसरी शक्ति भी थी, जिनसे लड़ने की क्षमता सिर्फ खूँखार वाइकिंगों में ही थी। वही अंदाज़। वही लूट-पाट करते, मार-काट मचाने की प्रवृत्ति। वही कबीलाई निर्दयता।

हाँ! मैं बात कर रहा हूँ मंगोलों की। तेरहवीं सदी में चंगेज़ ख़ान से लड़ने की क्षमता किसे थी? वह चीन की दीवार लाँघ कर पूरे चीन को गुलाम बनाते हुए, आज के इरान-इराक पर कब्जा कर चुका था। अब वह यूरोप में दस्तक दे रहा था। रूस का भाग्य कि 1227 ई. में चंगेज़ ख़ान की मृत्यु हो गयी।

लेकिन, यह भाग्य अल्पकालिक था। अगले ही दशक में चंगेज़ ख़ान का पोता बातू ख़ान एक लाख घुड़सवारों के साथ रूस में दाखिल हुआ। वह बुल्गारिया को लूटते हुए आया और कीव शहर को नेस्तनाबूद कर दिया। रूस की ज़मीन खून से सन गयी, नगर के नगर समतल हो गए, रूसी गुलाम बना कर बेचे गए। मंगोल तो जर्मनी तक पहुँच चुके थे, और संभवत: पूरे यूरोप पर कब्जा कर लेते; लेकिन तभी मंगोल राजा ओगेदी ख़ान (चंगेज़ ख़ान के पुत्र) की मृत्यु की खबर मिली। सेना वापस लौट गयी, और ईसाई यूरोप कुछ हद तक बच गया। 

लेकिन रूस नहीं बच सका। वहाँ मंगोलों का शासन रहा, जिनका हिंदी नाम दूँ तो ‘स्वर्ण मंडली’ कहलाएगी। दुनिया उन्हें ‘गोल्डन होर्ड’ (Golden Horde) के नाम से जानती है। रूस के बड़े हिस्से पर इनका दबदबा लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक रहा। विडंबना यह कि इन मंगोलों से रूस को मुक्ति दिलाने में जिस व्यक्ति का बड़ा हाथ था, वह चंगेज़ ख़ान का ही एक स्वघोषित उत्तराधिकारी था। नाम था तैमूर लंग!
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रूस का इतिहास (3)
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Monday, 27 September 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास (3)

वाइकिंग ईसाई बन गए। वही वाइकिंग जिन्होंने बारंबार इंग्लैंड को हराया, गिरजाघरों से पादरियों को उठा कर समुद्र में फेंका। वे वाइकिंग जो यूरोप के सबसे शक्तिशाली समुदायों में थे। जिनका पूरे उत्तर यूरोप पर राज था। आखिर ऐसी कौन सी जादू की छड़ी चली, कि वे ईसाई बन गए? दंड से या भेद से? साम से या दाम से? युद्ध से या संधि से?

इस इतिहास को समझना इसलिए भी ज़रूरी है कि यह पूरे यूरोप ही नहीं, दुनिया के इतिहास के लिए एक ‘गेम चेंजर’ थी। जैसे धर्म की छड़ी से किसी मतवाले हाथी को काबू में किया गया हो। रूस जैसे देश को बिना किसी युद्ध के एक झटके में ईसाई बना देना, और नॉर्वे-स्वीडन में ईसाई झंडा फहराना लगभग एक ही क्रम में हुआ। 

नॉर्वे-स्वीडन का क़िस्सा तो नही लिखूँगा, मगर रूस की कथा का कुछ फ़िल्मी रुपांतरण करता हूँ। 

रूस के राजा व्लादिमीर के दरबार में किसी गुप्तचर ने सूचना दी, “महाराज! कुस्तुंतुनिया के महल में एक शाही जामुनी कक्ष (पर्पल चैंबर) है। वहाँ विश्व की सबसे ख़ूबसूरत राजकुमारी एन्ना रहती हैं। उनके दीदार करने की चाहत हर आदमी की है, मगर यह नसीब किसी को नहीं।”

राजकुमारी के खयालों में राजा व्लादिमीर की नींद उड़ने लगी। कुछ ही महीनों बाद द्नाइपर नदी से गुजरते रूसी जहाज लूट-पाट मचाते हुए बैजंटाइन साम्राज्य पर आक्रमण कर रहे थे। बैजंटाइन नगर एक-एक कर गिर रहे थे। काला सागर के किनारे क्रीमिया क्षेत्र में बैजंटाइन राजा बेसिल द्वितीय उनके पास संधि-प्रस्ताव लेकर पहुँचे। 

व्लादिमीर ने कहा, “मैं यह क्षेत्र छोड़ कर जाने को तैयार हूँ।  आप पर अगर अरब आक्रमण करता है, तो मैं रक्षा भी करुँगा। लेकिन, मेरी एक शर्त है। आप अपनी बहन राजकुमारी एन्ना का विवाह मेरे साथ करा दें।”

“यह तो मेरी ख़ुशनसीबी होगी। लेकिन, मेरी बहन एन्ना किसी भी ग़ैर-ईसाई से विवाह नहीं करना चाहती।”

“यह कोई मसला नहीं। मेरी दादी महारानी ओल्गा ईसाई बनने को तैयार थी। मेरे पास मुसलमान बनने का भी प्रस्ताव आया था, मगर उसमें शर्त थी कि शराब छोड़नी होगी। हम रूसी शराब के बिना नहीं जी सकते। आपके धर्म की क्या रीत है?”

“आप हमारी राजधानी में हागिया सोफ़िया गिरजाघर आएँ और स्वयं अपनी आँखों से देख लें। वह स्थान पृथ्वी और स्वर्ग के मध्य स्थित है।”

“अवश्य आऊँगा। अगर आपके धर्म ने मुझे प्रभावित किया, तो मैं यह वचन देता हूँ कि इसी द्नाइपर नदी के किनारे अपने समस्त नागरिकों के साथ ईसाई बन जाऊँगा। फिर तो आप अपनी बहन का हाथ दे देंगे?”

“अगर आप ईसाई बन गए, तो मेरी बहन को कोई आपत्ति नहीं होगी। मुझे विश्वास है कि यह विवाह हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बदल देगी।”

अगर देखें तो कितनी साधारण घटना है। एक राजा को एक राजकुमारी से आसक्ति हुई, और उन्होंने अपना धर्म बदल लिया। वीर व्लादिमीर महान अब संत व्लादिमीर बन गए थे, और हागिया सोफ़िया की तर्ज़ पर सोफ़िया गिरजाघर बना रहे थे। उनके बारह पुत्र ईसाई प्रचारक बन कर चारों दिशा में निकल पड़े थे। यह कोई छोटा-मोटा राज्य नहीं था, जो ईसाई बन गया। बाल्टिक से प्रशांत महासागर तक हज़ारों किलोमीटर तक फैला दुनिया का सबसे बड़ा ईसाई देश बनने जा रहा था।

हालाँकि सदियों बाद इस धर्म के बुलबुले का अंत विस्फोटक हुआ, जब एक शाही धर्मगुरु के सर में गोली मार दी गयी! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास (2)
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#vss

बेनकाब होते झूठ और साज़िश / विजय शंकर सिंह

झूठ और साजिश के लिये भी हुनर चाहिए। पर जब, यह सब करने की आदत और इरादा तो हो, हुनर न हो तो वही झूठ और साज़िश, बहुत जल्द एक्सपोज भी हो जाता है, और फिर जो भद्द पिटती है, वह अलग। बीजेपी का आईटीसेल, कभी इतिहास को लेकर, तो कभी भूगोल को लेकर, तो कभी पीएम के मिथ्या महिमामंडन को लेकर, अक्सर  झूठ फैलाता रहता है, पर कुछ दिन तो यह मिथ्या व्यापार या गोएबेलिज़्म चला, पर अब वह तुरंत एक्सपोज भी होने लगा है। 

ऐसा ही झूठ औऱ साज़िश का एक उदाहरण है, अमेरिकी अखबार, न्यूयॉर्क टाइम्स की एक फोटोशॉप इमेज। अभी प्रधानमंत्री जी अमेरिका की यात्रा पर गए थे। इस बार उनकी यात्रा उतनी गर्मजोशी से नहीं सम्पन्न हुयी, जैसी पहले की अमेरिका यात्राएं होती रही हैं। मैडिसन स्क्वायर से लेकर हाउडी मोदी तक जो भारतीय पहले उमड़ पड़ते थे, वे अब नहीं उमड़े। कारण क्या है, यह तो अमेरिका में स्थित भारतीय ही बता पाएंगे। 

पर आजतक पर अंजना ओम कश्यप की रिपोर्टिंग जो उन्होंने अपने चैनल पर दिखायीं थी, उनसे तो यही पता चलता है कि उनकी इस यात्रा से, न तो, वहां स्थित एनआरआई लोगों में उत्साह था और न ही वहां के अखबारों ने उनकी इस यात्रा को गर्मजोशी से कवर किया। अंजना ने कुछ अमेरिकी अखबारों को उलट पुलट कर देखते हुए, यह बताया भी कि, अखबारों में तो कुछ नही छपा है, पर यह भी उन्होंने उम्मीद जताई थी कि, हो सकता आगे विस्तृत कवरेज हो। पर आगे कोई कवरेज हुआ या नहीं, यह मुझे नही पता। 

इस बीच न्यूयॉर्क टाइम्स के मुख पृष्ठ की एक फोटो नज़र आयी है जिंसमे पीएम के यात्रा की कवरेज है। आज के डिजिटल युग मे जब अपने घर मे बैठे दुनियाभर के छपे हुए अखबार देखे और पढ़े जा सकते हैं, तो इस तरह का फोटोशॉप, जो चंद मिनट में ही एक्सपोज हो जाय, की योजना बनाना और उसे अंजाम देना, हास्यास्पद है।  इससे तो प्रधानमंत्री जी की ही छवि धूमिल होती है। यह एक कटु सत्य है कि, जब मूर्ख और अनावश्यक रूप से उत्साही समर्थक होते हैं तो वे अपने आराध्य की ही प्रतिष्ठा हानि कराते हैं।

न्यूयॉर्क टाइम्स के इस मुख पृष्ठ पर और सब तो, ठीक ठीक उतर गया, पर जब september की तारीख पर लोगो का ध्यान गया तो, स्पेल्लिंग की गलती से setpember छप गया और यह गलती  पकड़ ली गयी। इसी से यह झूठ और साज़िश भी खुल गयी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, जिसका इतिहास गौरवपूर्ण रहा हो, जिसके नायकों की दुनियाभर में अलग पहचान है, जिसके राजचिह्न का बोधवाक्य, मुंडकोपनिषद से लिया गया, सत्यमेव जयते, पूरी दुनिया मे प्रचलित और ख्यात है, वहां के प्रधानमंत्री को अपनी कवरेज के लिये आईटी सेल के झुठबोलवा गिरोह का सहारा लेना पड़े, क्या यह दुःखद और शर्मनाक नहीं है ?

क्या भाजपा अपने झूठ फैलाने वाले गिरोह पर लगाम लगाएगी या अब भी वह अपने पूर्व अध्यक्ष के इस अहंकारी बयान कि, वे जो कुछ भी चाहे, कुछ ही घँटों में पूरी दुनियां में फैला सकते हैं, पर कायम रहेगी ? यह झूठ न केवल सोशल मीडिया पर ही फैलाया गया है, बल्कि ₹ 2000 के नोट में चिप सहित अनेक झूठी खबरे हम प्रतिष्ठित कहे जाने वाले चैनलों से भी सुनते आ रहे हैं। इन सब पर रोक लगना ज़रूरी है। 

अब आइए असली न्यूयॉर्क टाइम्स के 26 सितंबर 2021 के मुखपृष्ठ पर। यह लिंक मैं संजय कुमार सिंह जी, ( Sanjaya Kumar Singh ) की इसी विषय पर लिखी गयी पोस्ट से साभार उठा रहा हूँ। असली से मिलान करना चाहें तो आप इस लिंक पर जा सकते हैं।
 https://static01.nyt.com/images/2021/09/26/nytfrontpage/scan.pdf

झूठ, साज़िश और फ्रॉड का यह फोटोशॉप गढ़ना और फैलाना, महज मनोविनोद या कोई तमाशा या सनसनी या केवल कोई  अनैतिक कृत्य ही नहीं है,  बल्कि यह एक अपराध है और वह भी दंडनीय अपराध । पर सबसे दुःखद पक्ष इसका यह है कि देश के प्रधानमंत्री का नाम और उनकी फोटो इस फर्जीबाड़े के केंद्र में हैं। एक और दुःखद तथ्य यह भी है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम की आड़ में चलने वाले इस फर्जीवाड़े का विरोध वे भी नहीं करते हैं जो पढ़े लिखे और संजीदा हैं। 

यह फोटोशॉप जिस किसी के भी, द्वारा किया गया हो, पर दुष्प्रचार की परिपाटी ही 2014 के बाद शुरू हुयी है, जब सोशल मीडिया का बेहिसाब प्रचार प्रसार हुआ। जिसने भी यह किया हो इसकी जांच की जानी चाहिए। इस तरह के फोटोशॉप दुनिया मे देश और पीएम की छवि ही खराब कर रहे हैं।

( विजय शंकर सिंह )

Sunday, 26 September 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (2) जीवन में कितने घाट- जब जिप्सी मैंने ड्राइव की.

इटावा से हम दोपहर भोजन के बाद निकले कानपुर के लिए। तब दिल्ली से इस राजमार्ग को मुग़ल रोड कहते थे और यह टू-लेन था। यह राजमार्ग फ़रीदाबाद, पलवल, कोसी, मथुरा, फ़रह, आगरा, एत्मादपुर, टूंडला, फ़िरोज़ाबाद, शिकोहाबाद, जसवंत नगर, इटावा, बकेवर, अजीतमल, औरय्या, सिकंदरा, भोगनीपुर, मूसा नगर, घाटमपुर, जहानाबाद, बिंदकी होते हुए बिंदकी रोड पर जीटी रोड में मिल जाता था। इसके बाद जीटी रोड से फ़तेहपुर, इलाहाबाद, वाराणसी से कलकत्ता तक का सीधा रूट था। चूँकि हमने आगरा से वाया बाह-ऊदी इटावा का रूट लिया था इसलिए मुग़ल रोड से हम हट गए थे। किंतु जब इटावा से निकले तब फिर वही रूट लिया। इस रूट पर कानपुर नहीं पड़ता था। अब दो रास्ते थे, या तो हम सिकंदरा से लिंक रोड पकड़ कर वाया रसधान, काँधी, मुंगीसापुर, अकबरपुर होते हुए बारां जोड़ पर कालपी रोड पकड़ें या भोगनीपुर पहुँच कर वहाँ पर चौराहे से कालपी रोड पर लेफ़्ट मुड़ जाएँ।

वीर सिंह ने कहा, जिधर को यमुना के बीहड़ हों उस रूट से चलें। हमने भोगनीपुर रूट पकड़ा। पहले सिकंदरा रुके और उसे वहाँ गिरि-गुसाईं लड़ाकों की गढ़ी दिखाई। फिर राजपुर  और शाहजहाँपुर। इसके बाद भोगनीपुर पहुँचे। यहाँ मैंने उसे 1857 की कोतवाली और तब की तहसील दिखाई और बताया कि अगर हम यहाँ से दाएँ मुड़ जाएँ तो 25 किमी पर कालपी है। वहाँ से बुंदेलखंड शुरू होता है। लेकिन पहले कानपुर चलते हैं और हम लेफ़्ट मुड़ गए। एक किमी पर पुखरायाँ क़स्बा है। यह एक प्रमुख तहसील है। 1857 के बाद अंग्रेजों ने भोगनीपुर से तहसील हटा कर यहाँ शिफ़्ट कर दी थी और कोतवाली भी। यहाँ वीर सिंह ने अपना पसंदीदा ब्रांड ख़रीदा और जिप्सी में ही गिलास व पानी लेकर चालू हो गए। अब रात घिर आई थी। थोड़ी देर बाद वे बोले- “पंडत जी, गाड़ी मुझसे चल नहीं रही है”। अब मेरे तो होश उड़ गए। अभी कानपुर 60 किमी है और कालपी रोड बहुत चलता हुआ रोड है। सामने से ट्रकों, बसों और कारों का रेला और तब सड़क टू-लेन ही थी। उस समय तक मैं गाड़ी चला नहीं पाता था। लेकिन पूरी यात्रा में मैंने स्टीयरिंग पकड़ना और गेयर लगाना तथा क्लच और ब्रेक पर पाँव रखना सीख लिया था। वे जिस तरह गाड़ी चला रहे थे उससे लगता था कि ये गाड़ी भेड़ देंगे। यह क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं था। फिर भी मैंने कुछ दूर बाद गाड़ी किनारे लगवाई और कहा, मेरी सीट पर आकर सो जाओ। अब धीरे-धीरे मैंने गाड़ी चलानी शुरू की। चूँकि दिल्ली में दुपहिया चलाई थी इसलिए रोड सेंस तो था ही। मैं क़रीब 35 किमी गाड़ी चला कर रनिया तक ले आया। इसमें तीन घंटे लगे। तब वीर सिंह उठे। गाड़ी फिर उन्होंने ली और देखते-देखते हम रायपुर, भौंती, पनकी होते हुए गंदे नाले चौराहे आ गए। यहाँ से दाएँ मुड़े। गोविंद नगर में नटराज सिनेमा के पास एक सरदार जी का ढाबा खुला था। वीर सिंह की पसंद का भोजन वहाँ मिल गया। इसके बाद क़रीब एक बजे हम कुछ ही दूर स्थित अपने घर पहुँचे। घर में अम्माँ-पिताजी थे। मुझे देख कर चौंक गए, वह भी इतनी रात को। मैंने उन्हें बताया कि बस चले आए। खाने के लिए मना कर दिया। कह दिया कि पूरियाँ बंधी थीं सो खा लीं। जिप्सी घर के अंदर के सहन में लग गई। हम लोगों ने अपनी खटियाँ छत पर लगवाईं और एक टेबल फ़ैन वहीं फ़िट किया। फिर सोये। अगले रोज़ खूब धूप चढ़ आने पर उठे। 

तब तक बिजली जा चुकी थी इसलिए सब-मर्सिबल काम करने से रहा। अब पानी उतना ही था, जितना सुबह बिजली रहने पर उस 500 लीटर के ओवरहेड टैंक में चढ़ा होगा। पहले बाथरूम में गए वीर सिंह और जब लौटे तो बोले कि पानी तो ख़त्म हो गया। ख़ैर वे स्नान कर चुके थे और मैंने हैंड पम्प से खींच कर दो बाल्टी पानी निकाला तब नहाए। दोपहर को एक मित्र आ गए, वे थे वीडी तिवारी। मेरे घर में उनकी एंट्री बैन थी इसलिए पड़ोसी आकर बता गया कि कोई बाहर गाड़ी में बैठा आपको बुला रहा है। मैं समझ गया कि तिवारी जी होंगे। क्योंकि उनको मेरी यात्रा का पता था। तिवारी जी मुझसे क़रीब 25 साल बड़े थे किंतु उनकी नफ़ासत और जीने की कला का मैं मुरीद था। उनसे मेरा परिचय ब्रजेंद्र गुरु ने करवाया था। मगर उनके परिवार पर एक धब्बा था जिसके कारण मेरे पिता जी ने उनके घर आने पर पाबंदी लगा दी थी, जबकि वे पिता जी की हमउम्र थे। वीडी तिवारी दरअसल उन वीरभद्र तिवारी के पुत्र थे, जिन पर चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी करने का शक था। और कहा जाता है कि वीरभद्र ने ही कैप्टन नॉट बावर को कहा था कि इस समय एल्फ़्रेड पार्क में चंद्रशेखर आज़ाद सुखदेव राज के साथ बैठे हैं। हालाँकि सुखदेव राज ने लिखा है कि डिप्टी सुपरिटेंडेंट विश्वेश्वर सिंह आज़ाद को पहचानता था और उसने नॉट बावर को सूचना दी। 27 फ़रवरी 1931 की सुबह नॉट बावर ने अपने दो सिपाहियों- मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह को साथ लेकर वहाँ पहुँचे। डिप्टी सुपरिटेंडेंट विश्वेश्वर सिंह भी पहुँच गए थे। सब सादे कपड़ों में थे लेकिन मोटर के रुकने और उससे एक गोरे अफ़सर को उतरते देख आज़ाद को शक हो गया था। इसलिए नॉट बावर ने जैसे ही पूछा “हू आर यू?” आज़ाद ने अपनी माउज़र से गोली चला दी। बावर झुक गया और गोली डिप्टी सुपरिटेंडेंट विश्वेश्वर सिंह के जबड़े पर लगी। नॉट बावर ने अपने एक बयान में कहा था, 'ठाकुर विशेश्वर सिंह से मेरे पास संदेश आया कि उन्होंने एक व्यक्ति को एल्फ़्रेड पार्क में देखा है जिसका हुलिया चंद्रशेखर आज़ाद से मिलता है। मैं अपने साथ कॉन्स्टेबल मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह को लेते गया। मैंने कार खड़ी कर दी और उन लोगों की तरफ़ बढ़ा। क़रीब दस गज़ की दूरी से मैंने उनसे पूछा कि वो कौन हैं? जवाब में उन्होंने पिस्तौल निकालकर मुझ पर गोली चला दी।’

मेरी पिस्तौल पहले से तैयार थी। मैंने भी उस पर गोली चलाई। जब मैं मैग्ज़ीन निकालकर दूसरी भर रहा था, तब आज़ाद ने मुझ पर गोली चलाई, जिससे मेरे बाएं हाथ से मैग्ज़ीन नीचे गिर गई। तब मैं एक पेड़ की तरफ़ भागा। इसी बीच विशेश्वर सिंह रेंगकर झाड़ी में पहुँचे। वहाँ से उन्होंने आज़ाद पर गोली चलाई। जवाब में आज़ाद ने भी गोली चलाई जो विशेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।’

बावर ने आगे कहा कि 'जब-जब मैं दिखाई देता रहा, आज़ाद मुझ पर गोली चलाते रहे। आख़िर में वो पीठ के बल गिर गए। इसी बीच एक कॉन्स्टेबल एक शॉट-गन लेकर आया, जो भरी हुई थी। मैं नहीं जानता था कि आज़ाद मरे हैं या बहाना कर रहे हैं। मैंने उस कॉन्स्टेबल से आज़ाद के पैरों पर निशाना लेने के लिए कहा। उसके गोली चलाने के बाद जब मैं वहाँ गया तो आज़ाद मरे हुए पड़े थे और उनका एक साथी भाग गया था।’ जाते समय नॉट बावर ने हिदायत दी कि चंद्रशेखर आज़ाद की लाश की तलाशी लेकर उसे पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाये और विशेश्वर सिंह को तुरंत अस्पताल पहुँचाया जाए। आज़ाद के शव की तलाशी लेने पर उनके पास से 448 रुपये और 16 गोलियाँ मिलीं। यशपाल अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं कि 'संभवतः आज़ाद की जेब में वही रुपये थे जो नेहरू ने उन्हें दिए थे।’ मालूम हो कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले चंद्रशेखर आज़ाद कांग्रेस नेता जवाहर लाल नेहरू से मिले थे। लेकिन नेहरू उनके संगठन से खुश नहीं थे। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इस मुलाक़ात का ज़िक्र किया है। 

पर मेरे पिताजी को भरोसा था कि वीरभद्र ने ही आज़ाद की मुखबिरी की थी। 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (1)
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास (2)

रूस स्वयं एक रहस्य है। ऐसा नहीं कि इतिहास की किताबों में रूस नहीं, मगर वह बीसवीं सदी के बाद का इतिहास है। हमारे जुबान पर लेनिन-स्तालिन तो हैं, मगर उससे पूर्व का इतिहास दब गया। वहाँ के सम्राटों (ज़ार) का ऐसा आततायी चित्रण हुआ कि उन्हें पढ़ा-पढ़ाया नहीं गया। दुनिया के सबसे बड़े देश के विषय में हम सबसे कम जानते हैं। जबकि अगर तफ़्तीश की जाए, तो शायद उन साइबेरिया और स्टेपी घास मैदानों से भारतीयों का भी कुछ रिश्ता निकल जाए।

मैं नॉर्वे में एक संग्रहालय में यहाँ के वाइकिंगों के बनाए जहाज देख रहा था। उनके देवताओं को देखा। यूँ लगा जैसे कि किसी चोल राजा का जहाज़ यहाँ बह कर आ गया। यूरोपीय इतिहासकार इन वाइकिंगों को खूँखार समुद्री लुटेरे कहते रहे हैं। उसका भी अपना स्वार्थ है। सच यह है कि नौवीं सदी में यूरोप पर वाइकिंग की दबंगई चरम पर थी। वे उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम लूट-पाट करते हुए गुजरते। कोई उन्हें वाइकिंग कहता, कोई वंगैरियन, और कोई कहता रूस! 

● रूस का एक अर्थ है- जो नाव चला कर (row) आए। 

नौवीं सदी में एक दिन एक वाइकिंग सरदार रुरिक अपने दो भाइयों और दल-बल के साथ कीव (आज के यूक्रेन) पहुँचे, और उन्होंने एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। वाइकिंग को अपना राजा बनाने में वहाँ के लोगों का स्वार्थ भी था। वे पूरब के मंगोल कबीलाई हमलों से त्रस्त थे। वाइकिंग के आने के बाद अब टक्कर बराबर की थी।

रूरिक (या रुरिकोविच) वंश से ही रूस एक देश के रूप में आगे बढ़ा। कयास लगते हैं कि उस समय वहाँ वाइकिंग और कुछ अन्य स्लाव और तुर्क देवों की मूर्ति पूजा होती थी, स्वास्तिक भी उपयोग में था। 

रूस अपनी दुनिया में जी रहा था। लेकिन, वहाँ से दक्षिण धर्मयुद्ध (क्रूसेड) शुरू हो रहा था। ईसाई और इस्लाम के मध्य जंग छिड़ने वाली थी, और दुनिया के विभाजन की नींव पड़ रही थी। एक तरफ अरब के ख़लीफ़ा, दूसरी तरफ़ बैजंटाइन साम्राज्य का ईसाई झंडा। जो धर्म जीतता, उसी का राज होता।

ईसाइयों पर हार और समूल नाश का खतरा मंडरा रहा था। रोम पहले ही गिर चुका था, बैजंटाइन कमजोर पड़ रहा था। इन घटनाओं से महफ़ूज़, दसवीं सदी में रूस के राजा व्लादीमीर अपनी राजधानी में एक भव्य मंदिर का निर्माण कर रहे थे।

बैजंटाइन की राजधानी कुस्तुनतुनिया दरबार में बैठे धर्मगुरु शायद यह सुझाव दे रहे हों, “अगर ये उत्तर के खूँखार वाइकिंग और रूस ईसाई धर्म अपना लें तो हम अजेय हो जाएँगे। फिर हमें इस धर्मयुद्ध में कोई नहीं हरा सकता!”
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास (1)
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डॉ मनमोहन सिंह, को जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं / विजय शंकर सिंह

2014 का चुनाव समाप्त हो गया था । भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिल चुका था । कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दिनों में थी । मोदी का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था । शपथ ग्रहण के मुहूर्त की प्रतीक्षा थी । इतिहास का यह एक करवट था । मोदी जिस प्रचार और समर्थन के ज़ोर पर दिल्ली की गद्दी पर पहुंचे थे उसकी प्रतिध्वनि सुनायी दे रही थी । इन सब के बीच पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का एक अख़बार के लिये इंटरव्यू चल रहा था ।

डॉ सिंह स्वभाव से ही अल्पभाषी और मृदुभाषी हैं । ज़ोर से भी नहीं बोलते और नाटकीयता और मंचीय भंगिमा से दूर , किताबों की दुनिया में रमे रहने वाले शख्श हैं । नियति ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया और वे नेहरू , इंदिरा के बाद सबसे अधिक समय तक रहने वाले पीएम बने । अध्यापक , बैंकिंग प्रशासक, रिजर्व बैंक के गवर्नर, वित्त मंत्री के आर्थिक सलाहकार, फिर स्वयं वित्त मंत्री, और अंत में प्रधान मंत्री की कुर्सी तक वे पहुंचे ।

1991 के कठिन दिनों में जब देश अस्थिर था, राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी, रामजन्मभूमि आंदोलन से सांप्रदायिक वातावरण और मण्डल आयोग की संस्तुतियों के माने जाने के कारण जातिगत संघर्ष का वातावरण बन गया था। एक अनिश्चय, अविश्वास और अस्थिरता का माहौल, अर्थव्यवस्था में बन चुका था। ऐसे वातावरण में, तब पीवी नरसिम्हाराव ने देश की कमान संभाली और मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री बने ।

तब तक दुनिया एक ध्रुवीय बन चुकी थी। सरकार की नीति मुक्त व्यापार की बनी । देश की खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल दिए गए । अचानक समृद्धि आयी । पर जीवन की मूल समस्या और नेताओं का प्रिय वाक्य कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति का उत्थान , अफ़साना ही बना रहा । फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर में वृद्धि, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में वैश्वीकरण जन्य प्रतियोगिता और निजीकरण से देश मे नौकरियाँ बढ़ी और जीवन स्तर भी लोगों का बदला।

फिर वही डॉ मनमोहन सिंह,  2004 से 2014 तक देश के प्रधान मंत्री बने । 2009 में वे दूसरे कार्यकाल के लिये चुने गए। पर यूपीए 2 के कार्यकाल के अंतिम तीन साल, उनके और सरकार के लिये कठिन बीते । कई घोटालों की शिकायतें हुयी,  और अकर्मण्यता और उनकी अनदेखी करने के आरोप भी उनपर  लगे । अंततः 2014 में इनके नेतृत्व में कांग्रेस को अत्यंत शर्मनाक हार झेलनी पडी ।

उस पत्रकार से बात करते हुए जब एक सवाल उनसे यह पूछा गया कि
" आप अपने कार्यकाल का आकलन कैसे करना चाहेंगे ? "
डॉ सिंह थोड़ी देर चुप रहे । क्या कहते । हार को पचाने में वक़्त लगता है । वह कोई जनाधार वाले लोकप्रिय नेता तो थे नहीं । उनका ज्ञान और उनकी प्रतिभा ही उनकी पूंजी है। उन्होंने फिर स्वभावतः धीरे से एक वाक्य कहा,
" इतिहास मेरा मूल्यांकन करते समय मेरे प्रति दयालु रहेगा । वह इतना निर्मम नहीं रहेगा जितना की आज मिडिया और विपक्ष है । "

मनमोहन सिंह एक खलनायक थे उस समय । जनज्वार भी अज़ीब होता है । उमड़ता है तो सारे अच्छे कामों को भी बहा ले जाता है । उसे दो ही श्रेणी दिखाई देती है । या तो देव या दानव । इंसान की कल्पना वह कर ही नहीं पाता । यह उन्माद की मोहावस्था होती है । जो परिपक्व नेता होते हैं वे इन परिस्थितियों को जानते हैं और वे इसकी काट भी रखते हैं । पर डॉ सिंह कोई पेशेवर नेता तो थे नहीं । उनका अपना कोई जनाधार भी नहीं था । बिरादरी , धर्म , जाति के समीकरणों में वे कभी पड़े ही नहीं । नौकरशाही का जो एक सतत आज्ञा पालक भाव होता है , वह उनमें बना रहा । यह उनकी कमज़ोरी भी आप कह सकते हैं और उनकी ताक़त भी ।

अब जब लग्भग साढ़े 7 साल से अधिक, नरेन्द्र मोदी की सरकार बने हो गया है, अर्थव्यवस्था को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सारी सरकारी संपदा को बेचकर जीवन यापन करने के कठिन दिन आ गए हैं। अर्थव्यवस्था में सुधार की गुंजाइश भी नही दिख रही है। हर तरफ महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक अनिश्चितता तथा नैराश्य के बादल उमड़े आ रहे हैं। आखिर, 2014 वाले अच्छे दिन के शोर कम हुये और मुगालता टूटा तथा गर्द ओ गुबार थमा तो फिर जिस तस्वीर पर घूल जम चुकी थी, उसे फिर साफ़ किया जाने लगा । डॉ मनमोहन सिंह बेहतर लगने लगे । लोग उन्हें सुनने लगे। वे अब भी तेज नहीं बोलते हैं, पर जो भी बोलते हैं सटीक और तथ्यपूर्ण बोलते हैं। अर्थव्यवस्था पर अक्सर आने वाले, उनके बयान से आप यह परिवर्तन महसूस कर सकते हैं।

किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन समसामयिक काल में नहीं किया जा सकता है । मूल्यांकन सदैव सापेक्ष होता है । उनके दस साल सदैव कसौटी पर परखे जाते रहेंगे , कभी तो उनके पक्ष में या उनके विरोध में । इतिहास किसी को नहीं छोड़ता है।  आज उन्ही डॉ मनमोहन सिंह का जन्म दिन है । वे स्वस्थ और सानंद रहें । यही शुभकामनाएं है।

© विजय शंकर सिंह 


दोहरा चरित्र जीना, अधम और निर्लज्जता है / विजय शंकर सिंह

घर मे कुछ और बाहर कुछ। घर मे गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष सबको रावण के दस शिर की तरह, और बाहर बिना गांधी चर्चा के इनकी यात्रा ही नहीं पूरी होती है। घर मे यह गांधी हत्या को गांधी वध कहते हैं, गोडसे का बयान मैंने गांधी को क्यों मारा, का बार बार उल्लेख करते हैं, गोडसे और आप्टे की मूर्ति बनाते हैं, गांधी हत्या की मॉक ड्रिल करते हैं, और बाहर बापू बापू कहते इनकी जुनाब नहीं थकती है। 'अधम निलज्ज लाज नहि तोही !' रामचरितमानस की यह चौपाई बरबस याद आ गयी। 

प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी जी अमेरिका में क्या कह रहे है, उसे  यहां हिंदी में पढ़े, 
“ वैश्विक चुनौतियों का सामना विज्ञान सम्मत, तर्कपूर्ण और प्रगतिशील सोच से ही किया जा सकता है “! 
पर भारत मे न तो वे और उनकी विचारधारा के लोग न तो सोच में वैज्ञानिक हैं, न ही चिंतन में उनके तार्किकता है, न शासन में लोककल्याण की भावना है और न वे आचरण में सहिष्णु हैं। 

संघ, भाजपा का हर कदम देश और जनता को बांट कर देखने के लिये अभिशप्त है। इनका हर बयान समाज को बांटने वाला, और हर कानून केवल पूंजीपतियों के हित को दृष्टि में रख कर बनाने की मानसिकता वाला रहता है, जब वे घर मे रहते हैं। पर बाहर, वे उदारता का लबादा ओढ़ लेते हैं। जबर्दस्ती ओढ़ा हुआ लबादा, बार बार सरकता है, थामे नहीं थमता है, असहज तो करता ही है, पर वे भी क्या करें, जब विचार दारिद्र्य और वैचारिक धुंधता हो तो ऐसा लबादा, दिखाने के लिये ही सही, ओढ़ना पड़ता ही है। दोहरा चरित्र जीना ही पड़ता है ! 

इनका राष्ट्रनिर्माण, और चरित्र निर्माण क्या है, यह आज तक आरएसएस के मित्र नही बता पाए। कभी उन्हें सबका डीएनए एक लगने लगेगा, कभी वे, सबका भारतीयकरण करने लगेंगे तो कभी, सभी जो इस देश मे रहते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, इन्हें हिंदू लगने लगते हैं ! आज तक यह संघी मित्र तय ही नहीं कर पाए कि, वे कहना और करना क्या चाहते हैं।  गांधी, नेहरू, पटेल, आज़ाद, सुभाष को न मानिये। कांग्रेस की नीतियों की खूब आलोचना भी कीजिये। कोई भी व्यक्ति या विचारधारा, आलोचना, बहस, समीक्षा से परे नहीं है। संघ और भाजपा भी अपनी विचारधारा के अनुसार, सरकार चलाने के लिये, स्वतंत्र है, पर हे आरएसएस के मित्रों आप यही बता दीजिए कि आप कैसा भारत चाहते हैं ? 

वैसा, जैसा, मोदी जी, अमेरिका में दिए इस बयान में कह रहे हैं, या वैसा जो आप लोग, एक दूसरे के कान में फूंकते हैं और अपने समूह में एक दूसरे से बतियाते हुए कहते हैं ? मैं मोदी जी के इस बयान से सहमत हूँ, पर मुझे संशय है कि, मोदी जी यह बात, घर मे भी इसी प्रकार से कहेंगे, जैसा वे बाहर कह रहे हैं। क्योंकि उन्हें भी घर मे श्मशान और कब्रिस्तान ही नज़र आने लगता है। वे भी कपड़ो से पहचानने का नुस्खा बताने लगते हैं। 'घरे बाहिरे' में सोच और मानसिकता का यह अंतर अब उन्हें सच मे, हास्यास्पद बना दे रहा है। उन्हें बाहर यानी विदेश में, गांधी,नेहरू के वे सब उद्धरण सुनने पड़ रहे हैं, जिनसे वे घर मे परहेज करते हैं। 

जब सरकार को यह रहस्य पता है कि, 'वैश्विक चुनौतियों का सामना, वैज्ञानिक सोच और प्रबुद्ध तार्किकता के साथ ही किया जा सकता है' तो सरकार ने साल 2014 में सत्ता पाने के बाद इस सोच के अनुरूप, किया क्या है, यह बात सरकार से पूछी जानी चाहिए ? क्या हम उम्मीद करें कि, जब प्रधानमंत्री जी स्वदेश वापस लौट कर आएंगे तो वे अपने इसी सुभाषित के अनुरूप हम सबको एक नया मार्ग दिखाएंगे ? उनकी सोच, मानसिकता और कलेवर बदला हुआ होगा ? अगर ऐसा हुआ तो यह परिवर्तन सुखद होगा। 

राष्ट्रवाद, एक भावना है जो, किसी को भी, उसके मन मे, अपने देश के प्रति समर्पण का भाव जगाती है। इसी उदात्त भावना ने, देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त होने के लिये अनुप्राणित किया और गांधी, भगत सिंह, सुभाष बाबू ने अपनी अपनी सोच से, इस अहंकारी और उपनिवेशवादी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिये, अपना सबकुछ समर्पित कर दिया। लाखों ज्ञात, अज्ञात, अल्पज्ञात, जैसे लोगो की आज़ाद भारत मे सांस लेने की मनोकामना पूरी हुयी। स्वाधीनता संग्राम को इसीलिए, राष्ट्रवादी आंदोलन कहा जाता है, क्योंकि वह धर्म, जाति, क्षेत्र की सीमाओं से परे था। पर यहीं एक सवाल उठ खड़ा होता है कि, आज बात बात पर खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले आरएसएस के लोग उस समय, जब आज़ादी की लड़ाई, गांव, देहात के खेतों, सड़कों से लेकर बर्मा की सीमा तक पर लड़ी जा रही थी, तब कहां थे ? अफसोस, वे अंग्रेजों और जिन्ना के साथ थे। क्या तब राष्ट्रवाद की भावना उनमे हिलोर नहीं मार रही थी ?

गांधी, भगत सिंह, सुभाष में मतभेद तब भी थे और कम नहीं थे। यह मतभेद, उनमे, स्वाधीनता संग्राम के तरीक़ो पर, अपनी अपनी विचारधारा के आधार पर, ब्रिटिश सरकार के प्रति रणनीति को लेकर थे, पर ये सब महानुभाव, इस बात पर एकमत थे कि, अंग्रेजों को भारत से भगा दिया जाना चाहिए। पर उसी समय 1925 मे गठित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), अंग्रेजों को भारत से भगाने के सवाल पर क्यों नही, इनके साथ खड़ा था ? अगर वह गांधी से असहमत भी था तो, उसने, स्वाधीनता संग्राम के उस महायज्ञ में, अलग से अपना कोई आंदोलन क्यों नही छेड़ा ? 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे अंग्रेजों के साथ क्यों बने रहे ? जिन्ना के साथ हमख़याल होने की उनकी क्या मजबूरी थी ? यह सवाल संघ के मित्रों से ज़रूर पूछा जाना चाहिए। 

राष्ट्रवाद जब भावना से अलग हट कर एक राजनीतिक कलेवर में किसी राजनीतिक वाद का रूप ले लेता है तो, वह देश और समाज के लिये खतरनाक भी हो जाता है। राष्ट्रवाद या सावरकर और जिन्ना मार्का राष्ट्रवाद, एक घातक औऱ उन्मादी राष्ट्रवाद है। दरअसल, राष्ट्रवाद कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है। यह मूलतः यूरोपीय फासिज़्म के समय की विकसित सोच है जो श्रेष्ठतावाद पर आधारित है। श्रेष्ठतावाद, हर दशा में भेदभावमूलक समाज का निर्माण करता है। श्रेष्ठतावाद, समरसता का विरोधी है। यह धर्म, जाति की श्रेष्ठतावाद में समाज को बांटे रखता है। इसी कौमी श्रेष्ठतावाद की सोच पर जिन्ना और सावरकर का द्विराष्ट्रवाद खड़ा हुआ और उसका परिणाम, भारत विभाजन के रूप में हुआ।

© विजय शंकर सिंह 

Saturday, 25 September 2021

अवधेश पांडेय - चर्चा गांधी बनाम भगतसिंह नहीं गांधी संग भगतसिंह होनी चाहिए.

जो कभी  नहीं बीतता  है और लगातार हमारे साथ साये की तरह चलता रहता है उसको इतिहास कहते हैं।इतिहास एकदम तटस्थ होता है न किसी के प्रति निर्दयी और न किसी पर मेहरबान होता है। इतिहास व्यक्तियों को नहीं  व्यक्तियों की परछाई को नापता है। जब व्यक्ति की परछाई बहुत बड़ी हो जाती है तो  वह व्यक्ति इतिहास के उस कालखंड को लांघकर  हमारे वर्तमान से जुड़ जाता है। लेकिन दुर्भाग्य से जिनका इतिहास नहीं होता वे किसी के कंधे का इस्तेमाल करके अपनी परछाई को बड़ी करने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन इतिहास उन्हें जगह नहीं देता है। 

इतिहास अपने बड़े पात्रों  को सहेजता है और उन्हें वर्तमान की ओर ढकेल देता है। महात्मा गांधी और भगतसिंह दोनों बड़े पात्रों को इतिहास ने हमारे सम्मुख धकेल दिया है । दुर्भाग्य से हम छोटे लोग इतिहास के इन बड़े पात्रों के बारे में कुछ नहीं जानते। पाकिस्तान के लाहौर की सेंट्रल जेल में आज से 90 साल पहले 23 मार्च 1931 को जो तीन सपूत फांसी के फंदे पर झूले और कुछ देर कुछ देर थरथराने के बाद शांत हो गए। उन तीन बड़े लोगों के बारे में हम छोटे लोग कुछ नहीं जानते।  आज अगर ये तीन सपूत बोल सकते तो वे हमसे पूछते कि हम भारत के लिए शहीद हुए या पाकिस्तान के लिए?   इस प्रश्न का  जवाब किसी के पास नहीं है।  आज पाकिस्तान के लाहौर में सेंट्रल जेल का कोई अस्तित्व नहीं वहां एक बड़ा सा कॉम्प्लेक्स बन गया है और चमचमाती सड़कों पर  रातदिन गाड़ियां दौड़ती रहती हैं। 

इतिहास इन तीन लाशों पर रुका नहीं  इतिहास लाहौर से चला और 30 जनवरी 1948 को  बिड़ला हाउस दिल्ली पहुंच गया। यहां एक 78 साल के बूढ़े आदमी को जिसे हम राष्ट्रपिता कहते थे , प्रार्थना के समय जाते हुए सामने से आकर एक हट्टाकट्टा आदमी तीन गोलीं मारता है। जिस तरह से वे तीन लाशें फांसी पर लटकते हमने देखीं उसी तरह एक बड़ा आदमी जिसे हम अपना वटवृक्ष कहते थे तीन गोलियां खाकर भर भरा कर गिर गया। उसकी भी लाश थोड़े समय तक थरथराती है और शांत हो जाती है।

जो हरा घाव है उस घाव को भरना सीखो।
जो भरी आंख है उस आंख में उतरना सीखो।
ये अपने या पराए हैं ये बात बहुत छोटी है।
तुम बड़े लोग हो तो बड़ी बात करना भी सीखो।।

आज हम  गांधी और भगतसिंह को लड़ाने में इतना व्यस्त हैं कि हम खुद कहाँ खड़े हैं हम  खुद किससे लड़ रहे हैं हमें पता ही नहीं। गांधीजी और भगतसिंह दोनों के रास्ते अलग हैं, कार्यक्रम अलग हैं, दोनों के संगठन अलग हैं, दोनों के काम करने के तरीके बिल्कुल अलग हैं। लेकिन फिर भी दोनों में समानता है दोनों के लक्ष्य देश को आजाद कराना है ।

भगतसिंह का एक गम्भीर व्यक्तित्व थे। वे कहते थे कि क्रांति का मतलब केवल बम या पटाखे चलाने से नहीं है, अपितु  गंभीर चिंतन  और विचार विमर्श से जनता की गोलबंदी करना है। उन्होंने कहा भी था कि वे महात्मा गांधी और उनके अहिंसा के तरीके का इसलिए विरोध कर रहे थे क्योंकि देश वर्तमान में अहिंसा की भाषा समझने लायक नहीं है।  इसलिए कि उनको लगता था कि महात्मा गांधी एक अत्यंत असंभव आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं।लेकिन वे गांधीजी के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए कहते हैं कि महात्मा गांधी ने लोक जागरण का जो महान कार्य किया है उंसके लिए उन्हें कोटि कोटि सलाम ।

दूसरी ओर गांधीजी कहते हैं कि मैं भी क्रांतिकारी हूँ लेकिन बंदूख की दम पर हम अंग्रेजों से नहीं जीत सकते।   जब हम हिंसा का सहारा लेकर राजनीतिक या सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं तो संघर्ष सिकुड़ जाता है। अंग्रेजों पर बन्दूखें बहुत हैं हम उनसे उस हथियार से लड़ेंगे जिसका उन्हें अभी ज्ञान भी नहीं है। 

गांधीजी जानते थे कि  क्रांतिकारियों के सशत्र दल गोपनीय होते हैं, जो छिपकर दुश्मन पर घात लगाने की पद्धति पर आधारित होते हैं। ऐसी स्थिति में भारत की गरीब, असहाय जनता इन हिंसक आंदोलनों का खुलकर साथ नहीं दे सकती।

गांधी का मानना था कि कोई भी हिंसात्मक संघर्ष स्वभाव से जनतांत्रिक नहीं होता। इसलिए गांधी जो सिद्धांत गढ़ रहे थे उसमें कोई गोपनीयता नहीं, कोई घात या प्रतिघात नहीं था, उसमें कोई षड़यंत्र की बू नहीं थी, जो कुछ है वह जनता के सामने है। इसलिए गांधी के अहिंसा  के व्यापक सिद्धांत में भगतसिंह का विशिष्ट सिद्धांत भी समाहित था। 

ऐतिहासिक दस्तावेज कुछ और सत्य से किसे लेना देना है। कौन इतना पढ़ेगा कि दरअसल गांधीजी ने भगतसिंह की फांसी को लेकर कितनी बहस वाइसराय से की। वायसराय गांधीजी को प्रस्ताव देते हैं कि हम करांची कांग्रेस तक फांसी टाल सकते हैं।  अंग्रेजों की गांधीजी को घेरने की कूटनीति और गांधीजी की दूरदृष्टि ही थी कि  गांधीजी वाइसराय से उलटकर कहते हैं कि 'देखिये या तो आप भगतसिंह की फांसी को हमेशा के लिए रद्द करें और अगर फांसी रद्द नहीं कर सकते तो फिर मुझे कोई घूस न दें। मैं झेलूंगा जो मुझे झेलना है। लेकिन में आप से कोई घूस नहीं चाहता हूँ। फांसी का मुझ पर एक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा लेकिन मैं उसको झेलने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं  अंग्रेजों से कोई गुप्त समझौता नहीं कर सकता हूँ। या तो आप फांसी रद्द करो और नहीं तो फिर मेरे लिए बीच का रास्ता मत निकालो।'

24 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दिए जाने की अगली सुबह गांधीजी जैसे ही कराची के पास मालीर स्टेशन पर पहुंचते हैं तो लाल कुर्तीधारी नौजवान भारत सभा के युवकों ने काले कपड़े से बने फूलों की माला गांधीजी को भेंट की। गांधीजी विचलित नहीं हुए उन्होंने कहा-

'‘काले कपड़े के वे फूल तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे.’ 26 मार्च को कराची में प्रेस प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा –

‘‘मैं भगत सिंह और उनके साथियों की मौत की सजा में बदलाव नहीं करा सका और इसी कारण नौजवानों ने मेरे प्रति अपने क्रोध का प्रदर्शन किया है बेशक, उन्होंने ‘गांधीवाद का नाश हो’ और ‘गांधी वापस जाओ’ के नारे लगाए और इसे मैं उनके क्रोध का सही प्रदर्शन मानता हूं। मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा हूँ, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया। मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी।

लेकिन इन सब बातों के बावजूद आज जब भी चर्चा भगत सिंह की शहादत की होती है तो वह अंततः गांधी तक ही जा पहुंचती हो? लेकिन जब हम दोनों शख्शियतों को देखते है तो ऐसी चर्चाएं मात्र 23 साल के युवा भगतसिंह की अद्भुत शहादत का गुमान और एक बूढ़े गांधी द्वारा उन्हें न बचाये जा सकने की शिकायत एक साथ मौजूद रहती है। हम शहीद सपूत को शहीद राष्ट्रपिता से लड़ाकर अपना कद बड़ा करने की कोशिश करते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम उस कालखंड में जाकर इन महान शख्सियतों को समझने की कोशिश करें। यही भगतसिंह व गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

© अवधेश पांडे
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास (1)

साइबेरिया एक सोया हुआ प्रदेश। 
दुनिया के सबसे विशाल देश का सबसे बड़ा क्षेत्र, जहाँ लगभग उतने ही लोग रहते हैं, जितने भारत के एक राज्य पंजाब में। आज से सौ साल पहले वहाँ इसके दशांश रहते थे, जबकि इस क्षेत्र में चार भारत जैसे देश समा जाएँ। 

मेरी इच्छा है कि कभी मॉस्को से व्लादीवॉस्तोक की वह दुनिया की सबसे लंबी ट्रेन यात्रा करूँ, जो लगभग छह दिन तक चल कर नौ हज़ार किलोमीटर से अधिक का सफर तय करती है। यूराल के पहाड़ों को पार कर एक ऐसे वीराने में ले जाती है, जहाँ पृथ्वी का कठिनतम मौसम है। जहाँ ठंड होती है तो -70 डिग्री का तापमान, और गर्मी होती है तो 34 डिग्री। 

कई वर्षों तक यह एक रहस्यमय प्रदेश रहा, जहाँ सभ्यता का ‘स’ भी नहीं पहुँच पाया था। जब रूस के ज़ार (सम्राट) का इस क्षेत्र पर कब्जा हुआ, उस समय भी यह इलाका ऐसा नहीं था जहाँ ‘मनुष्य’ रहते हों। किंवदंतियाँ प्रचलित थी कि यहाँ कुछ नरभक्षी तांत्रिकों और जंगली आदि-मानवों का वास है।

यहाँ का कानून दुनिया के कानून से अलग था। यह रूस में होकर भी रूस नहीं था। एशिया में होकर भी एशिया नहीं था। यहाँ ज़ार से लेकर स्तालिन तक के समय तक ‘काला पानी’ की तरह यातना देने के लिए भेजा जाता। एक साधारण मानव को अगर साइबेरिया में यूँ भी छोड़ दिया जाता; वह या तो मर जाता, या पशु बन जाता। जानवरों को मार कर कच्चा खाने का आदी बन जाता। धीरे-धीरे कुछ जुझारू शिकारी-किसान यहाँ आकर बसने लगे। जिन्हें लगा कि पृथ्वी का यह विशालतम वीरान भू-भाग आखिर वीरान क्यों रहे। 

आज जो कहानी शुरू कर रहा हूँ वह इस मानव-रहित, सभ्यता-रहित जमीन से शुरू तो होती है, मगर खत्म आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी मानव-क्रांति से होती है। इस कहानी को सोचते हुए सत्तर के हिप्पी दशक का एक गीत सुनने लगा, जो किसी कारणवश अभी वायरल हो चला है। 

गीत के बोल हैं-

There lived a certain man in Russia long ago
He was big and strong, in his eyes a flaming glow
Most people looked at him with terror and with fear
But to Moscow chicks he was such a lovely dear

He could preach the Bible like a preacher
Full of ecstasy and fire
But he was also the kind of teacher
Women would desire

‘सालों पहले रहता था रूस में एक आदमी,
वह था बड़ा और तगड़ा, उसकी आँखें थी चमकीली
उसे देख कर लोग खाते थे खौफ़, लेकिन
उससे प्यार करती मॉस्को की हर छोरी

वह पढ़ता था बाइबल जैसे कोई उपदेशक
उसकी वाणी में थी अग्नि, और था परमानंद
लेकिन वह था ऐसा शिक्षक
जिसे चाहती थी हर स्त्री’
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha
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Friday, 24 September 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (1) जीवन में कितने घाट

भीगे चोटी, भीगे कान। 
पंडित जी हो गए असनान।।

हमारे एक दोस्त थे वीर सिंह गुर्जर। सवा छह फ़िट की काया और खूब श्याम रंग, बाल घुंघराले। स्वभाव से एकदम बच्चे, निर्मल और निर्दोष। नोएडा के गाँव चौड़ा रघुनाथ पुर (अब सेक्टर 22) के निवासी थे। पक्के कांग्रेसी थे और उसमें भी बहुगुणा ख़ेमे वाले। लेकिन राजीव गांधी को बहुत पसंद करते थे। उनके पास एक जिप्सी गाड़ी थी। जिसे लेकर वे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आवास पर गए और राजीव जी ने वह गाड़ी ड्राइव भी की। राजीव जी भी उनके भोलेपन के मुरीद थे। वीर सिंह अक्सर मेरे आईटीओ स्थित जनसत्ता के दफ़्तर आते और हम लोग उस मारुति जिप्सी में दिल्ली दर्शन को निकल जाते थे। कभी किसी लाल बत्ती पर न रुकते और क्या मजाल कि कोई पुलिस वाला उन्हें रोक ले। इतनी ज़ोर से हड़काते थे कि डीपी वाला सिपाही पैंट गीली कर देता। लेकिन शाम को हर हाल में एक अंग्रेज़ी शराब की बोतल और पूरे एक मुर्ग़े का गोश्त उनकी दिनचर्या का हिस्सा थे। 

एक दिन मुझसे बोले कि सर जी, बुंदेलखंड घूमने की इच्छा है, घुमा दो। मैंने कहा ठीक है, यहाँ से झाँसी चलते हैं वहाँ से पंडित विश्वनाथ शर्मा वाहन का प्रबंध कर देंगे। बोले, नहीं इसी जिप्सी से चलते हैं। एक सुबह हम निकले। पहले दिल्ली से आगरा और फिर वहाँ से बाग़ी-मार्ग पकड़ा। बाग़ी-मार्ग यानी डकैतों वाला रास्ता। यमुना और चम्बल के बीच का बाह वाला मार्ग। तब यह रास्ता ऊबड़-खाबड़ तो था ही, यहाँ डकैतों के मिल जाने का भी डर था। किंतु वीर सिंह निडर आदमी थे। हम शाम सात बजे ऊदी पहुँचे। वहाँ से इटावा आए। इटावा में तब नई-नई मुलायम सिंह सरकार का रौब था। मैंने उनसे कहा, कि यहाँ अपने नोएडा के अंदाज़ में बात न करना। लेकिन उन्होंने एक यादव जी से अबे-तबे कर ही थी। किसी तरह उनको संकट से निकाला। शाम को वहाँ के एक दबंग और मुलायम सिंह के प्रतिद्वंदी दर्शन सिंह यादव ने भोजन पर बुलाया। हम लोग गए। उनके यहाँ प्रवेश के पूर्व उनके अंगरक्षकों ने हमारी पूरी तलाशी ली। जब हम उनके ड्राइंग रूम में पहुँचे तो भगवान श्रीकृष्ण की एक विशालकाय प्रतिमा रखी थी। वीर सिंह जी प्रतिमा के समक्ष दण्डवत लेट गए। लेकिन भोजन के पूर्व वीर सिंह जी ने इशारा किया कि बिना ‘पान’ के वे भोजन नहीं करेंगे और भोजन में सिर्फ़ बटर चिकेन खाएँगे। अब दर्शन सिंह जी विशुद्ध शाकाहारी। दोनों ही चीजें निषिद्ध। इसलिए मैंने कहा कि हमारे मित्र तो मंगल वार का व्रत करते हैं। मुझे भी ज़्यादा भूख नहीं है। वहाँ से निकलने के बाद उन्होंने अपना पसंदीदा ब्रांड ख़रीदा और पूरी बोतल ख़ाली कर गए। रेलवे स्टेशन के पास एक सरदार जी के ढाबे पर बटर चिकेन मिल गया, जिसे उन्होंने उदरस्थ किया। हम लोग वहाँ से निकले ही थे कि सामने से दर्शन सिंह यादव का क़ाफ़िला गुजरा। मुझे देख कर उनका क़ाफ़िला रुका। ढाबे का मालिक भाग कर आया और उनके पाँव छुए। मैंने कहा, कुछ नहीं बस सरदार जी से पुराना परिचय है इसलिए हम लोग मिलने आ गए। सरदार जी कुछ बोलते उसके पूर्व ही उनका क़ाफ़िला रवाना हो गया, तब ज़ान में ज़ान आई। 

रहने के लिए इटावा में ज़िला परिषद का गेस्ट हाउस मिल गया। उस समय ज़िला परिषद के अध्यक्ष राम गोपाल यादव जी थे। सुबह वीर सिंह जी जब स्नान को गए तब घंटे भर बाद लौटे। मैंने कहा, यहाँ पानी की कमी है, इतनी देर नहाओगे तो हो चुका। और मैं बाथरूम गया तो नल से बस एक बाल्टी पानी निकला। बाहर आया तो वीर सिंह बोले- 
“भीगे चोटी, भीगे कान, 
पंडित जी हो गए असनान।।” 
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 
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दिल्ली दंगो के मुकदमों के लिये दिल्ली पुलिस आयुक्त ने नयी एसआईटी गठित की

दिल्ली पुलिस आयुक्त राकेश अस्थाना ने फरवरी, 2020 में राष्ट्रीय राजधानी में हुए दिल्ली दंगों की जांच की निगरानी के लिए एक विशेष जांच प्रकोष्ठ (एसआईसी) का गठन करने का आदेश जारी किया है। यह आदेश अस्थाना ने 19 सितंबर 2021 को जारी किया गया है। 

"जांच में तेजी लाने और उसे सुव्यवस्थित ढंग से सम्पन्न करने के लिए, उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के मामलों की उचित तरह से जांच और अदालत में 'पैरवी' सुनिश्चित करने के अतिरिक्त, उत्तर-पूर्वी दिल्ली जिले में दर्ज और जांच  किये जा रहे मुकदमो की विवेचना हेतु, एक विशेष जांच प्रकोष्ठ (एसआईसी) का गठन किया गया है।" 
इस आदेश में एसआईसी के मुखिया, विशेष पुलिस आयुक्त होंगे। इसके अलावा, विशेष जांच प्रकोष्ठ में पूर्वी रेंज के लिए एक संयुक्त सीपी, उत्तर-पूर्व के लिए एक डीसीपी और उत्तर-पूर्व के लिए एक अतिरिक्त डीसीपी-I भी शामिल रहेंगे।

आदेश में निम्न कार्यों को सूचीबद्ध किया गया है। 

1. समिति उत्तर-पूर्वी जिले में जांच किए जा रहे सभी लंबित जांच/लंबित ट्रायल दंगा मामलों का जायजा लेगी और दंगों के मामलों की त्वरित जांच और प्रभावी अभियोजन सुनिश्चित करने के लिए तुरंत एक समयबद्ध रणनीति तैयार करेगी। जांच के लिए वैज्ञानिक और तकनीकी साक्ष्य पर जोर दिया जाना चाहिए।

 2. लंबित तफटीशों के सभी मामलों की ठीक से जांच की जाएगी और सभी संभावित सबूत जोड़कर जांच को अधिक प्रभावी और समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिए उपयुक्त रूप से निर्देशित किया जाएगा।

3. समिति सभी पूरक आरोपपत्रों को न्यायालय में शीघ्रता से दाखिल करना सुनिश्चित करेगी।

4. सभी मामलों में, जहां फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (एफएसएल) के परिणाम लंबित हैं, एफएसएल परिणामों में तेजी लाने के अनुरोध के साथ निदेशक एफएसएल के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क कर के कार्रवाई की जाएगी।  एफएसएल परिणाम प्राप्त करने के लिए, इन मामले को प्राथमिकता के आधार पर संबंधित एफएसएल डिवीजनों के साथ बातचीत किया जाएगा। 

5. प्रत्येक तारीख पर अभियोजन पक्ष के मामले का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व करने के लिए, सभी मामलों में अदालत में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए यह अधिकारी व्यक्तिगत रूप से विशेष लोक अभियोजकों (एसपीपी) के साथ संपर्क में रहेंगे।  सुनवाई की प्रत्येक तारीख से पहले उन्हें पहले से ही पूरी तरह से सभी मामलो में ब्रीफ कर दिया जाएगा।

6. मामले में विशेष  लोक अभियोजक, यदि किन्ही, अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण अदालत में उपस्थित होने में असमर्थ है, तो अदालत को यह बात पहले से बता दी जाएगी। ताकि अदालत को कोई असुविधा न हो और न्यायालय से आवश्यकतानुसार उपयुक्त स्थगन लिया जा सके।  ऐसे मामलों में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अदालत में तथ्यों को प्रभावी ढंग से पेश करने के लिए अदालत में मौजूद रहेंगे।

7. टीम यह सुनिश्चित करेगी कि सभी गवाह और जांच अधिकारी समय पर अदालत में पेश हों। उन्हें ठीक से अपने मामले की जानकारी हो और वे अच्छी तरह से अदालत में अपना पक्ष रखने के लिये तैयार रहें। यदि किसी मामले में, आईओ अदालत में उपस्थित होने में असमर्थ है, तो, एसआईसी स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) को निर्देश देगा कि या तो मामले में स्वयं उपस्थित हों या अदालत की सहायता के लिए मामले के तथ्यों से अच्छी तरह से परिचित एक जिम्मेदार अधिकारी को नियुक्त करें। 

8. पुलिस मुख्यालय ने 14 पुलिस अधिकारियों को इस टीम के साथ संबद्ध किया है, जो पहले से ही दंगों के दौरान उत्तर-पूर्वी जिले में नियुक्त रह चुके हैं, और इन मामलों की जांच में अपना योगदान दे चुके हैं, ताकि लंबित तफ़्तीशों के मामलों की, शेष जांच को पूरा किया जा सके।  निगरानी प्रकोष्ठ यह सुनिश्चित करेगा कि इन सभी अधिकारियों को वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए उचित रूप से कार्य और निगरानी की जा रही है या नहीं। 

9. केजी त्यागी, एसीपी (सेवानिवृत्त) को अदालती मामलों में दंगा मामलों की निगरानी के लिए सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया है।  

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 21 September 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान में ट्रेन का सफ़र (3)

                    ( असग़र वजाहत )

सर्दी इतनी बढ़ गई थी कि मैं कूपे में टहलने पर मजबूर हो गया था। एक स्टेशन पर  ट्रेन रुकी।  बाहर प्लेटफार्म से 'चाय चाय' की आवाजें आने लगीं । मैंने चाय वाले को आवाज दी लेकिन कोई नहीं आया। मैंने कुछ और ऊंची आवाज में  चाय वाले को पुकारा  लेकिन कोई नहीं आया।  फिर मैं चीखने लगा  लेकिन कोई चाय वाला नहीं आया।

ट्रेन  रेंगने लगी। इतना चीखने चिल्लाने से  सर्दी और ज्यादा लगने लगी थी  लेकिन कूपे के अंदर टहलने के अलावा  और कोई रास्ता न था।  शायद मैं सभी कपड़े  पहन चुका था  क्योंकि बैग  काफी खाली लग रहा था।

अगले स्टेशन पर भी यही हुआ। बात समझ में आई कि चाय वाले हैं फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट की तरफ नहीं आते। इसका मतलब यह था की पूरी रात मुझे चाय न मिल सकेगी और कूपे में टहलते हुए रात गुजारनी पड़ेगी।

लेकिन चाय के मामले में किस्मत इतनी खराब नहीं थी। एक बड़े स्टेशन पर चाय वाला आया मैंने उसे सौ का नोट दिया और पांच चाय मांगी। उस जमाने में पाकिस्तान में बीस रुपये की एक चाय मिला करती थी। चाय वाले ने मेरी तरफ कुछ अजीब नजरों से देखा लेकिन जल्दी ही खिड़की पर उसने छोटे-छोटे चाय के पांच कप रख दिए। एक कप मैंने फौरन हलक में उंडेल लिया। लगा गला ऊपर से नीचे तक किसी ने चाकू से काट दिया हो। चाय सकरीन में बनाई गई थी ।लेकिन इस तकलीफ के बावजूद मैं चार कप चाय और  पी गया। सोचा हलक का जो हाल होगा सो देखा जाएगा फिलहाल सर्दी से बचने का इंतजाम जरूरी है।

बहावलपुर स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो कूपे में एक साहब आ गए ।अधेड़ उम्र वाले दुबले पतले सज्जन ने ऊपर की सीट पर अपना बिस्तर बिछाया और सामने बैठ गए । मुझसे पूछने लगे,  क्या मैं सिगरेट पी सकता हूं? 
मैंने कहा, जरूर जरूर पियें। 
मैं उनसे यह कह नहीं सकता था कि उनके आ जाने से मैं इतना खुश हूं कि अगर वो कुछ और भी कहते तो मैं उसके लिए भी तैयार हो जाता।
सिगरेट पीने के बाद सज्जन ऊपर चले गए। लेट गए और शायद जल्दी ही सो गए। मैं उनको दिखाने के लिए सीट पर लेट गया लेकिन नींद आने का सवाल न था। छोटी-छोटी  झपकियां आती रहीं। इसी दौरान किसी स्टेशन पर तीन लोग कूपे में और आए। इनमें दो आदमी थे और एक महिला। आते ही तीनों ने लंबी तानी।

सूरज नहीं निकला था लेकिन हल्का सा उजाला हो गया था। मैंने खिड़की से बाहर देखा। दूर एक तालाब दिखाई दिया जिसका पानी चमक रहा था। तालाब के किनारे एक दो मंजिला कच्चा मकान नजर आया जिसकी एक खिड़की से रोशनी आ रही थी। दूसरी तरफ खजूर के कुछ पेड़ भी खड़े थे। मैंने कैमरा निकाला और सोचा, रात भर तकलीफ उठाने के बाद अगर सुबह एक अच्छी तस्वीर मिलती है तो यह घाटे का सौदा न होगा।

मैंने कई बार कैमरा क्लिक किया। सामने की सीट पर लेटी महिला जाग गयीं। 
उन्होंने मुझसे कहा -  लगता है आपको फोटोग्राफी का बड़ा शौक है?
मैंने कहा -  मैं जो कुछ देख रहा हूं वह शायद दोबारा न देख सकूंगा.... इसलिए चाहता हूं कि  जो कुछ अच्छा नजर आ रहा है उसे कैमरे में कैद कर लूं।
महिला ने कहा -  आप कहां से आए हैं?
पाकिस्तान में जिन लोगों ने मुझसे यह सवाल किया था कि आप कहां से आए हैं उनको मैंने एक ही जवाब दिया था और वह यह कि मैं दिल्ली से आया हूं।
इस जवाब के पीछे छिपी धारणा, विश्वास और विचार को जो लोग समझ लेते थे, मुस्कुरा देते थे और जो नहीं समझते थे उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता था।

दिल्ली सुनते ही ऊपर सोए दोनों आदमी नीचे उतर आए और हम लोगों के बीच बातचीत शुरू हो गई। महिला ने एक बड़ा सा फ्लास्क खोला गरम गरम चाय अपने दो साथियों को देने के बाद मेरी तरफ भी बढ़ाई। वाह मजा आ गया। कुछ खाने को भी था।
बातचीत पाकिस्तानी रेलवे पर होने लगी।
मैंने पूछा - सीटों पर जो रकसीन चढ़ा है उस पर ER क्यों लिखा है?
उनमें से एक ने कहा, यह पार्टीशन के टाइम मिला हुआ डिब्बा है।
- इतना पुराना अब तक चल रहा है?
एक ने कहा -  पाकिस्तान रेलवे का हाल  न पूछिए।
दूसरा बोला -  रेलवे की न जाने कितनी ज़मीन बेंच कर खा गए।
पहले ने कहा -  ज़मीन.... अरे साहब जमीन तो छोटी चीज है इन्होंने  पटरिया बेच डालीं... सिग्नल बेंच डालें.... रेलवे को बिल्कुल खोखला कर दिया..
मैंने कहा -  कोई पूछताछ करने वाला नहीं है ।
एक बोला -  जनाब  इस पूरे मुल्क में किसी की अकाउंटेबिलिटी नहीं है, कोई जवाबदेही नहीं है। - लोग बैंकों से करोड़ों का  लोन लेकर वापस नहीं करते कोई पूछने वाला नहीं।
- फौज इस मुल्क को खा गई ....पहले दो टुकड़े करवा दिए और अब दीमक की तरह लगी हुई है 

मैं यह सब सुनकर  बहुत हैरान न था। क्योंकि मुझे पता था कि ये लोग जो कह रहे हैं वह सच है। मुझे डॉ आयशा सिद्दीका की किताब याद आ गई जो उन्होंने पाकिस्तानी सेना द्वारा किए जाने वाले  व्यापार पर लिखी है। उन्होंने एक नया टर्म दिया है - Milbus  यानी मिलिट्री बिजनेस। उन्होंने  बहुत गंभीरता से, शोध करने के बाद, आंकड़े और उदाहरण देते हुए यह साबित किया है कि पाकिस्तान की सेना देश की सब से बड़ी लैंडलॉर्ड  ( ज़मीन की मालिक /भूस्वामी) है। सेना जमीन बेचने का कारोबार ही नहीं करती बल्कि उसके  अन्य व्यापार भी हैं जिसमें सिटी मॉल वगैरा भी शामिल है। सेना द्वारा किए जाने वाले इस  व्यापार का मुनाफा सबसे ऊंची अधिकारी से लेकर  सैनिक तक को मिलता है।

कुछ देर के बाद बातचीत भारत-पाकिस्तान की तुलना पर आ गई। बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान से आए लोग भारत और पाकिस्तान की तुलना करते हुए पाकिस्तान को बड़ा और अच्छा सिद्ध करने की कोशिश करते थे। यह कोशिश काफी बचकानी होती थी लेकिन मध्यम वर्ग को आकर्षित करती थी।  जैसे पाकिस्तान में 'टेरिलीन' बहुत सस्ता है, जापानी गाड़ियां कितनी सस्ती है, खाना-पीना कितना सस्ता है, कितनी आसानी से मकान बनाया जा सकता है। कितनी आसानी से नौकरियां मिलती हैं।
बांग्लादेश बन जाने के बाद स्थिति बिल्कुल बदल गई है अब कोई पाकिस्तानी कभी यह नहीं कहता कि पाकिस्तान भारत से अच्छा है।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत का एक रुपया पाकिस्तान के दो रुपए के बराबर है। भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में जो काम हुआ है (जो अपर्याप्त है और जिसकी हम सब आलोचना करते हैं) वह पाकिस्तान की तुलना में बहुत उल्लेखनीय है।

उनमें से एक ने कहा -  आप चाहे जो कहें, भारत में लाख कमियां हो  सकती हैं ..लेकिन भारत  ने तरक्की की है.... और कोई मुल्क जब तरक्की करता है तो उसका फायदा सबको होता है...
महिला ने कहा-  मेरी तो भारत जाने की बड़ी ख्वाहिश है।
एक आदमी बोले-  पाकिस्तान में तो हर दूसरा आदमी भारत जाना चाहता है... देखने के लिए घूमने के लिए....
मैंने कहा -  भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो एक बार पाकिस्तान आना, देखना और घूमना चाहते हैं 
उनमें से एक ने कहा- लेकिन दोनों तरफ की सरकारें यह नहीं चाहतीं।
दूसरे ने कहा-  देखिए किसी भी मुल्क के अवाम किसी भी दूसरे मुल्कों के अवाम के दुश्मन नहीं होते... अब पाकिस्तानी अवाम को भारत दुश्मनी से क्या मिल जाएगा? हां दोस्ती से बहुत कुछ मिल सकता है..... लेकिन अफसोस यह है कि सरकारों को दुश्मनी से बहुत कुछ मिलता है.....
मुझे रघुवीर सहाय की कविता 'पैदल आदमी' याद आ गयी।

कराची कंटोनमेंट रेलवे स्टेशन पर वे उतर गए। मैं अकेला रह गया। ट्रेन लगता था अपने गंतव्य पर पहुंचने के प्रति बहुत उदासीन है। इस तरह चल रही थी जैसे कोई ठेल रहा हो।

कराची रेलवे स्टेशन पर इतना सन्नाटा था कि मुझे बहुत बुरा लगा। स्टेशन तो बड़ा था लेकिन कोई चहल-पहल नजर न आती थी। न तो ट्रेनें ही खड़ी थीं, न मुसाफिर। यह लगता था जैसे इस स्टेशन का बहुत कम इस्तेमाल होता है।
अलीगढ़ के पुराने दोस्त डॉ जमाल नकवी जरूर मुझे लेने के लिए खड़े थे।
(समाप्त)

असग़र वजाहत
© Asghar Wajahat

पाकिस्तान में ट्रेन का सफर (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/2_21.html 

असग़र वजाहत, हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार और नाटककार हैं और जामिया यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर रह चुके हैं।
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