Friday, 31 October 2014

Remembering 31 Oct 1984 / 31 अक्टूबर 1984 , कुछ स्मृतियों से / विजय शंकर सिंह



31 अक्तूबर, 1984, मैं मिर्ज़ापुर में डी एस पी चुनार के पद पर था. मथुरा से तबादले पर गया था. वहाँ एक थाना है अदलहाट. अदलहाट थाने में ही एक गाँव है कोलना. उसी गाँव में हर साल सरदार पटेल की जयन्ती मनाई जाती थी. हर साल की तरह, इस दिन भी जयन्ती मनाई जानी थी. उनकी प्रतिमा का अनावरण भी किया जाना था. गाँव एक पूर्व विधायक और इलाके के प्रतिष्ठित व्यक्ति राम चरण सिंह का था. वह कांग्रेस से विधायक थे. उस समय कांग्रेस के नेता , स्व. लोकपति त्रिपाठी स्वास्थ्य मंत्री थे और मिर्ज़ापुर के ही क्षेत्र लालगंज से विधायक भी थे. उन्ही के द्वारा उस प्रतिमा का अनावरण किया जाना था. गाँव में उत्सव का माहौल था. मैं भी वहीं था. मंत्री जी को हेलीकाप्टर से आना था. गाँव में इस उड़न खटोले को देखने के लिए बहुत भीड़ लगती है. हेलीकाप्टर, यात्रा की थकान और समय तो बचाता ही है पर वह गाँव देहात में भीड़ बटोरने का भी उत्तम साधन है. उस समय निजी हेलीकाप्टर सेवा आज की तरह सुलभ नहीं थी. जो हेलीकाप्टर थे वे भी राज्य सरकार थे. उत्सव के माहौल में देशभक्ति के गीत चल रहे थे. रंग विरंगी तिकोनी झंडियाँ, पतंगी कागजों की, सजावट की गयी थी. मुख्य अतिथि के पहुँचने का समय था 11 बजे.

देर होने लगी, हेलीकाप्टर को लखनऊ से आना था. बारह बजे, फिर एक बजे. उस समय फ़ोन सुविधा इतनी सुलभ नहीं थी. जगह जगह एक्सचेंज थे जो ट्रंक कॉल या लाइटनिंग कॉल , जो त्वरित दूरभाष सेवा थी से बाहर के शहरों से बात होती थी. बड़ी मुश्किल से डेढ़ बजे सूचना मिली कि कार्यक्रम निरस्त हो गया और मंत्री जी मुख्य मंत्री के साथ दिल्ली निकल गए. उस समय मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी थे. किसी को किसी अनहोनी की आशंका नहीं थी. स्थानीय सांसद ने ही प्रतिमा का अनावरण कर दिया गया. हम लोग तीन बजे तक घर आ गए. तब तक यह पता चला कि इंदिरा गाँधी पर हमला हुआ है और वह एम्स में भर्ती हैं. ब्रेकिंग न्यूज़ जैसी किसी सनसनी का जन्म नहीं हुआ था. चुनार वैसे भी छोटी जगह है. सोता हुआ पर प्राचीन क़स्बा. चीनी मिटटी के बर्तनों के लिए प्रदिद्ध, इस कसबे में शेरशाह के ज़माने का बना किला भी था. उसमे पुलिस ट्रेनिंग स्कूल स्थापित है. चुनार के पत्थर जगत विख्यात है. अंग्रेजों के कब्र पर तो शिलालेख बनते थे, उनमे, चुनार के ही पत्थरों का, प्रयोग होता था. मेरा आवास कसबे की छोर पर था. कसबे से दूर. कोई चाह कर ही आ सकता था. अब सूना है उधर भी बस्ती बन गयी है.

शाम पांच बजे के समाचार से लगा कि कुछ अनहोनी घट गयी है. बात में पता चला कि इंदिरा गाँधी पर हमला हुआ था. वह नहीं रही. किसने किया, कैसे किया, कब किया, कुछ भी स्पष्ट नहीं था. रात नौ बजे राष्ट्रीय समाचारों का समय होता है. समाचार वाचक की गंभीर आवाज़ सुनाई दी. पता लगा कि इंदिरा गाँधी नहीं रही. राष्ट्रपति ग्यानी जैल सिंह ने राजीव गाँधी को प्रधान मंत्री पद की शपथ दिलाई. तब समाचार संक्षिप्त होते थे. कोई बहस का पैनेल नहीं होता था. खबर सुनते ही, कुछ तो उत्कंठा वश और कुछ सावधानी वश मैं और एस डी एम जो मेरे बगल में ही रहते थे, सीधे थाने पहुंचे और थाने पर यह सूचना मिली कि जिला मुख्यालय पर एक ज़रूरी मीटिंग बुलाई गयी है. रात में ही ग्यारह बजे हम मिर्ज़ापुर पहुंचे. जिलाधिकारी आवास पर सारे अधिकारी थे. इतना तो आभास हुआ कि गड़बड़ है, पर कितना गड़बड़ है, नहीं पता चला. तब तक सिख विरोधी दंगों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं हो पायी थी. रात दो बजे तक वापस आये.

सुबह देर से उठने की पुरानी आदत है, आज भी बनी हुयी है. अब भी देर से सोने और देर से उठने की आदत है. सुबह सात बजे ही एस एच ओ चुनार एक मिश्र जी थे  आये और उन्होंने कहा कि कसबे में पंद्रह सिख परिवार है. उनपर खतरा हो सकता है. मैंने कहा हुआ क्या,? उन्होंने कहा कि अखबार वाली गाडी आयी है, बनारस में सिखों की दुकानों पर लूट पाट हो रही है. यहाँ भी हो सकती है. चुनार बनारस के नज़दीक था. बल्कि गंगा पार करते ही बीस किलोमीटर था. तुरनत जब तक अफवाह फैलती, सारे सिख परिवारों को, चुनार किले में पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के बैरेक्स में पहुंचा दिया गया. और उनके घर और दुकानों पर पुलिस की ड्यूटी लगा दी गयी. हालांकि चुनार कोई संवेदनशील क़स्बा नहीं था. और न ही कोई दंगे का इतिहास इस से जुड़ा था. पर इस सतर्कता से लाभ ही हुआ.

दोपहर तक रेडियो पर ख़बरें आने लगी. बनारस में कर्फ्यू लग गया है, इलाहाबाद में कर्फ्यू लग गया. दंगे भड़क गए थे. अप्रत्याशित, अकल्पनीय, और एक दम से पुलिस को किम्कर्तव्य विमूढ़ कर गए. देश में हिन्दू मुस्लिम दंगों का इतिहास है. लोगों ने इतना ज़हर घोल दिया है. कि हिन्दू मुस्लिम दंगे अप्रत्याशित नहीं दिखते हैं. पर सिख विरोधी दंगे की तो कोई संभावना ही नहीं थी. पंजाब में आतंकवाद पैर पसार चुका था. वहाँ के हालात बेहद संगीन हो चुके थे. धीरे धीरे जैसे जैसे समाचार बुलेटिन आने लगे, वैसे वैसे हालात की गंभीरता का पता चलने लगा. हम सब ने चाहे वह पुलिस हो या मजिस्ट्रेट किसी के जूते दो दिन तक नहीं खुले. केवल भ्रमण और भ्रमण. वायरलेस सेट पर या तो हाल पूछा जा रहा था, या निर्देश दिए जा रहे थे. कानपुर, दिल्ली, जमशेदपुर के हालात बेहद खराब थे. यह दंगा नहीं एकतरफा साम्प्रदायिक उन्माद था. बेहद दुखद और बेहद दुर्भाग्यपूर्ण.


ऐसे अवसरों पर अफवाहें बे लगाम हो जाती है. किसी ने कहा सिखों का पलायन हो रहा है. किसी ने कहा कि सिखों ने पंजाब में हिन्दुओं का क़त्ले आम करना शुरू कर दिया है. किसी ने कुछ कहा किसी ने कुछ. दिल्ली में राजनैतिक स्तर और शीर्ष स्तर पर भी भ्रम था. पुलिस और अन्य बल ऐसी विपदा के लिए न तो साधन संपन्न थे और न ही मानसिक रूप से तैयार . पुलिस सिख अधिकारी खुद भी अपने आवासों में पड़े थे. एक घटना ने पूरी की पूरी कौम को, जिसने हर युद्ध में अपनी बहादुरी के डंके गाड़े थे, को खलनायक बना दिया. ह्त्या, आगज़नी, लूट, कुछ भी बाकी नहीं रहा. सिख बुजुर्गों को पकिस्तान के बाद का पलायन याद आ गया. यह दंगा नहीं प्रतिशोध था. प्रतिशोध भी उनसे, जिन्होंने वह अपराध किया भी नहीं था. दूसरे दिन के बाद, दो नवम्बर को अखबार आये. पूरा अखबार, हैवानियत की खबरों से भरा पडा था. न देखे जा सकने वाली चित्र बिखरे पड़े थे. सरकार जो हैंग हो गयी थी फिर सक्रिय हुयी. नए प्रधानमंत्री राजीव खुद निकले, लोगों का पागलपन थमा. हर उन्माद और भाव कितना ही गिरे उठे, पर अंततः वह अपने सामान्य भाव में भी आ जाता है. जैसे विज्ञान कहता है, कि हर चीज़ अपने सामान्य ताप और दबाव पर आती ही है. यह दंगा भी थमा.

दो तारीख को ही मिर्ज़ापुर के एक और कसबे कछवा में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने शोक सभा का आयोजन किया. धारा 144 लागू थी, अतः बिना अनुमति के कोई सभा जुलूस नहीं निकल सकता था. अनुमति, पुलिस थाने की रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट या तो दे सकता है या मना कर सकता है. लोगों ने बनारस इलाहाबाद नेशनल हाइवे पर ही जाम लगा दिया और सिख ट्रक ड्राइवर्स को रोकना, पीटना और लूटना शुरू कर दिया. न यह आक्रोश था, न दुःख बल्कि यह एक अपराध था. बेहद संगीन. आक्रोश की प्रतिक्रिया क्षणिक होती है. वह सोच समझ कर नहीं होती हैं. जो सोच समझ कर होता है, वह प्रतिशोध होता है. मैं और मेरे साथी मजिस्ट्रेट, वहाँ पहुंचे. यही रास्ते में तय हुआ कि पहुँचते ही धुन दिया जाय. यही हुआ. अगर बात होती तो बात बढ़ती फिर बात खराब भी होती और हज़ार बातें बनने लगतीं. भीड़ से बात न हो सकती है और न ही की जानी चाहिए. न तो वहाँ बात करने का कोई विवेक होता है और न ही सुनने का धैर्य. स्थिति संभली. शाम के रेडियो ने दंगा कुछ कुछ थमने की बात बतानी शुरू की. अगले दिन तीन नवम्बर को, स्थित सुधरी तो सुधरने ही लगी.

इंदिरा गाँधी  का  कोई सामान्य व्यक्तित्व नहीं था. किसी ज़माने में कांग्रेस के तपे तपाते , धुरंधर नेता गण, काम राज, एन संजीवा रेड्डी, मोरार जी देसाई, राम सुभग सिंह, अतुल्य घोष, और चन्द्र भानु गुप्त जैसे धुरंधर नेताओं से लोहा लिया था. नयी रोशनी की तरह वह दिखीं उन्होंने राजाओं का प्रिवी पर्स और उनके विशेषाधिकार ख़त्म किये. यह कोई बड़ा आर्थिक कदम नहीं था. पर यह एक प्रतीकात्मक कदम था. सामंतवाद का शव जैसे दफना दिया गया हो. लोकतंत्र एक कदम आगे बढ़ा. कांग्रेस विरोध की धार जिसे डॉ लोहिया के गैर कांग्रेस वाद ने तेज़ की थी को कुंद कर दिया था. 1969 में कांग्रेस फिर बंटी  इस कांग्रेस का नाम पडा, इन्डियन नेशनल कांग्रेस आई यानी इंदिरा. दूसरी कांग्रेस जो खुद को मूल समझ और कह रही थी, कांग्रेस एस बनी अपने तत्कालीन अध्यक्ष एस निज्लिंगाप्पा के नाम पर. इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष जगजीवन राम के नेतृत्व में 1971 के चुनाव हुए. अभूतपूर्व सफलता मिली थी इंदिरा गाँधी को. फिर बांगला देश बना, और वह उनकी लोकप्रियता का शिखर था. 



शिखर पर पहुंचना कठिन तो होता ही है, पर शिखर पर टिके रहना और भी मुश्किल. जब लोकप्रियता आती है तो, जड़ता भी आ जाती है. चाटुकार भी सक्रिय हो जाते हैं. यहाँ भी यही हुआ. देवकांत बरुआ ने इंदिरा इस इण्डिया इंडिया इस इंदिरा क्या कहा, चारण समाज एकत्र हो गया. और फिर वही होता है जो चारणों की विरुदावली कराती है. प्रभा मंडल धुंधलाने लगा. लोग मुखर होने लगे. गुजरात से नव निर्माण के बैनर तले सरकार विरोधी आन्दोलन शुरू हो गया. गूँज यू पी , बिहार में सूनी गयी. जय प्रकाश नारायण जो सन बयालीस के हीरो थे, ने कमान संभाली और सम्पूर्ण क्रान्ति की उम्मीद जगाये एक आन्दोलन भड़क उठा. तभी ड्राइंग रूम सलाहकारों ने आपात काल लगाने की सलाह दे दी. मुसीबत कभी अकेले नहीं आती है. आपात काल की घोषणा की पृष्ठ भूमि में इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला था, जो राज नारायण की याचिका पर था. उन्हें चुनावी अनियमितता का दोषी माना कोर्ट ने. उनके जीत को अवैध करार दिया. तभी आपात काल लगा. सारे बड़े विपक्षी नेता, और सक्रिय कार्यकर्ता जेल भेज दिए गए.

फिर 1977 के आम चुनाव के पहले आपात काल हटा. पर इंदिरा सहित कांग्रेस बुरी तरह हारी. उत्तर प्रदेश और बिहार में खाता तक नहीं खुला. पर जो आये थे, वह बाढ़ में एकजुट हुयी मानसिकता के विभिन्न विचारों और पृष्ठभूमि के थे. तीन साल ही चल सकी. जिस गाडी में आगे पीछे बैल जुते हों वह कैसे चल सकती है. 1980 के चुनाव में वह फिर प्रधान मंत्री बनीं. इस तरह उनकी जीवन यात्रा 31 अक्तूबर 1984 को, बेहद दुखद और अकल्पनीय परिस्थितियों में समाप्त हुईं. उनकी शहादत को नमन और विनम्र स्मरण !!


विजय शंकर सिंह

Thursday, 30 October 2014

Chhath Pooja / छठ पूजा और बिहार / विजय शंकर सिंह


दिवस का अवसान समीप था, 
गगन था कुछ लोहित हो चला, 
तरुशिखा पर थी अविराजती, 
कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा !!



यह पंक्तिया है, हरि औध जी की. हरिऔध जिनका पूरा नाम अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध था, हिंदी के कवि थे. छठ के अवसर पर डूबते सूरज को अर्ध्य देते हुए आप को कुछ इसी तरह का मनोरम दृश्य दिखेगा. आज कमर पर पानी में खड़े होकर, सूर्योपासना के कर्म में सूर्य को अर्ध्य दे कर विदा किया जाता है. सुबह फिर भास्कर का स्वागत अर्ध्य प्रणाम कर के किया जाएगा.

सूर्योपासना का इतिहास बहुत पुराना है. संभवतः आदिम युग से ही. उपासना की विधि विक्सित न हुयी हो, फिर भी उपासना तो होती ही थी. वैदिक काल में आज के परम्परागत देवताओं की कल्पना नहीं हो पायी थी. प्रकृति के प्रतीक ही देवता बन गए थे. जो जो कुछ जीवन को देता गया, उसी के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित की जाती रही और सिर उसी की और झुका, हाँथ वहीं जुड़े. ऋग्वेदिक ऋचाएं उषा, जो सूर्य का आगमन घोषित करती हैसूर्य जो अन्धकार को छांट देता है, इंद्र जो बारिश से धरती को सींचता है, वरुण, जो जल संग्रह सागर का प्रतीक है, पवन, जो प्राण वायु, लिए जीवन का अनिवार्य है और अग्नि, जिसके बिना सभ्यता के उद्भव की कल्पना ही सम्भव नहीं है, की प्रसंशा में ढेरों ऋचाएं हैं. तब इनके वैज्ञानिक रहस्यों का पता नहीं था. उसी कालखंड में यह उपासना कभी प्राम्भ हुयी होगी.पहले ईश्वर की कल्पना हुयी होगी. फिर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु उपासना की. धीरे धीरे जब पौरोहित्य परम्परा प्रारम्भ आरम्भ हुयी तो, उपासना पद्धति या पूजा पद्धति विक्सित हुयी और कर्मकांड का स्वरुप भी बना.



यह पर्व, बिहार का मुख्य पर्व है. बिहार में ही सूर्योपसाना का यह स्वरुप क्यों और कब विक्सित हुआ, यह शोध का विषय है. लेकिन इसका कुछ सम्बन्ध अंग देश से मिलता है. वसिष्ठ और विश्वामित्र की आपसी प्रतिद्वंद्विता के बहुत से किस्से वैदिक आख्यानों में मिलते हैं. विश्वामित्र ने वसिष्ठ के छ पुत्रों को जिनके नाम क्रमशः अंग, बंग, औड्र, पौड्र, चोड्ड्य, और पौड्य को शाप दे दिया था. इन्ही के नाम पर देश के छ क्षेत्र, अंग, जो भागलपुर, यानी उत्तर पूर्वी बिहार, बंग, यानी बंगाल, ओड्र यानी उड़ीसा, पौडर यानी, उड़ीसा के नीचे का भाग, चोडय यानी आन्ध्र,, पांड्य यानी सुदूर दक्षिण. इन्हें शूद्र हो जाने का श्राप दिया था.

महाभारत काल में अंग का राज  दुर्योधन ने कर्ण को दे दिया था, जब उसने प्रतियोगिता के लिए अर्जुन को ललकारा पर द्रोणाचार्य ने यह कह कर कि वह राजा नहीं है, अतः वह इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता है, अंग का राजा उसे बनाया तो गया, पर सूत पुत्र होने के कारण उसे उस प्रतियोगिता में  भाग लेने का अवसर नहीं मिला. सूर्य पुत्र होने के कारण सूर्योपासना की एक नयी कथा इस से जुड़ गयी. लेकिन इस उपासना के कई अन्य कारण भी मिलते हैं.
महाभारत की ही एक कथा के अनुसार, वनवास के दौरान जब पांडव कष्ट में थे, तो उनके कष्ट के निवारण के लिए दरौपदी ने ऋषि धौम्य के कहने पर छठ बरत रखा था. 



जैसे इतिहास बदलता रहता है, सभ्यताएं भी उसी के अनुरूप बदलती है. सूर्य तो पुरुष हैं फिर छठी माई, जिसके नाम पर यह पूजा होती है और अर्ध्य दिया जाता है कहाँ से आ गयीं ? हिन्दू धर्म में कर्मकांड का अधिकतर भार महिलाओं ने संभाल रखा है. पुरुष, युद्ध, जीवन यापन की व्यवस्था, आदि में लगे रहते थे. महिलायें इस प्रकार कुछ तो समय बिताने के लिए, और कुछ बाहर गए पुरुषों के कुशल क्षेम के निमित्त पूजा पाठ में व्यस्त हो गयी. तभी स्थानीय रिवाजों द्वारा क्षेत्र क्षेत्र की पूजा पद्धतियों में कर्मकान्डीय परिवर्तन होने लगा. यह पर्व भी मुख्यतः महिलाओं द्वारा ही संपन्न किया जाता है. सूर्योपासना का यह एक प्रकार से मात्रि सत्तात्मक रूप है. हो सकता है छठी माता के सम्बन्ध में कोई और कथा भी हो.

आज का विहार इतिहास का मगध वंश का ही भाग है. मगध राजवंश भारतीय ज्ञात इतिहास का सबसे प्रथम साम्राज्य था. नन्द वंश का विनाश कर चाणक्य के शिश्यत्व में चन्द्रगुप्त ने इस साम्राज्य की आधार शिला रखी. महान अशोक ने इसे शिखर पर पहुंचाया. चंडाशोक से देवानाम्पिय अशोक तक रूपांतरित होने की कथा, इतिहास का एक अद्भुत अध्याय है. छठ पूजा पूरे मगध में प्रचलित थे. जहां जहां मगध का साम्राज्य था वहाँ यह होती थी. वर्तमान बिहार का निर्माण बंगाल को काट कर किया गया है. यह अंग्रेजों ने बुद्ध के विहार स्थल, बोधगया, नालंदा, राजगृह आदि के स्थित रहने के कारण इसे नाम दिया. उन्होंने मगध नाम नहीं दिया, क्यों कि इस नाम में एक महान विरासत और साम्राज्य का समावेश था. 



बिहार आज़ादी के लड़ाई में सबसे अग्रणी प्रान्तों में रहा है. गाँधी का प्रथम आन्दोलन का प्रयोग, चंपारण, से लेकर 1942 के भारत छोडो आन्दोलन तक बिहार ने अंग्रेज़ी राज का जम कर विरोध किया था. इसी लिए अंग्रेज़ी राज में बिहार की बदहाली ही रही. आज़ादी के बाद भी बिहार, जिसमे आज का झारखंड भी था, में भी कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुआ. भूमि सुधार की तरफ भी बिहार में कोई विशेष कार्य नहीं हुआ. परिणामतः, बिहार से रोजी रोटी के लिए लोगों का पलायन व्यापक स्तर पर हुआ. कोलकाता, शुरुआती बरसों में ऐसे लोगों का पसंदीदा शहर बना. फिर जहां ज़रूरतें ले गयीं वहाँ लोग जाते रहे. यह दुर्भाग्य ही मैं कहूँगा, कि शस्य श्यामला भूमि, नदियों से सिंचित, यह भूमि आर्थिक दृष्टिकोण से विपन्न ही रही. इसके पहले भी, ब्रिटिश राज में भी लोग रोजी रोटी के लिए सागर पार तक गए. 



पलायन का मुख्य माध्यम रेल ही बनी. रेलों द्वारा लोग अपने परिवार को, पत्नी को अपने घर छोड़ कर कोलकाता, मुंबई और पंजाब जाते थे. भोजपुरी के बेहद मार्मिक गीतों मे विरह के गीतों की संख्या बहुत अधिक है. इसी से बिरहा की शैली विक्सित हुयी. भिखारी ठाकुर बिहार के अद्भुत लोक कवि थे. भोजपुरी साहित्य के आलोचक इन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर मानते हैं.  इन्होने   बिदेसिया गीतों की अलग शैली विक्सित की जो अत्यंत प्रसिद्ध हुयी. विरह के दर्द से भरी यह शैली बिहार के उस पलायन को चित्रित करती है जहां लोग अपनी पत्नी, प्रियतमा, सबको छोड़ कर रेलों में लंदे फंदे , पेट के लिए परदेसी हो गए. आप इसे बिहार का योगदान भी कह सकते हैं . आशावादी भाव यही शब्द कहेगा, पर मैं इसे बिहार का दुर्भाग्य भी कहूंगा. इसी प्रकार जहां जहां भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग गया वहाँ सूर्योपासना की यह पद्धति भी गयी. 



सूर्य का एक विश्व विख्यात मंदिर ओडिशा में कोनार्क में है. तेरहवीं सदी का यह मंदिर, राजा नरसिंह देव, जो गंग वंश के थे, द्वारा बनाया बताया जाता है. यह मंदिर जहा हैं वहाँ सूर्य की किरणे सबसे पहले पहुँचती है. सूर्योपासना की यह पद्धति जो बिहार में नहाय खाय के अर्ध्य जिसे अर्धा कहा जाता है , यहाँ प्रचलित नहीं है. हिन्दू धर्म और संस्कारों पर स्थानीय रंग बहुत चढ़ा है. कर्मकांड का मूल एक ही रहा पर स्थानीय रिवाज़ उन पर हावी रहे. अब जब से मीडिया से सारे त्योहारों को प्रचारित कर दिया तो यह त्यौहार भी देश भर में फ़ैल गया. मेरे बचपन में मेरे गाँव में छठ नहीं होती थी जब कि मेरा गाँव वाराणसी में बिहार सीमा से सत्तर किलोमीटर दूर है. लेकिन अब कुछ कुछ शुरू हो गया है.




लेकिन जैसे दुर्गा पूजा बंगाल का, गणेशोत्सव महाराष्ट्र का, बौसाखी पंजाब का, बिहू, आसाम का, ओणम केरल का, पोंगल आन्ध्र का, मुख्य पर्व है उसी प्रकार छठ बिहार का है. ' पाटलिपुत्र की गंगा ' राम धारी सिंह दिनकर की एक प्रसिद्ध कविता है. उनकी यह पक्तियां पढिये , आप को आनंद आयेगा...

अस्तु, आज गोधूलि लग्न में
गंगे मंद मंद बहना, 
गाँवों नगरों के समीप चल, 
दर्द स्वर में कहना,

करते हो तुम विपन्नता का, 
जिसका अब इतना उपहास, 
वहीं कभी मैंने देखा है
मौर्य वंश का विभव विलास !!

आप सब पर भगवान् भास्कर की कृपा बनी रहे. शुभकामनाएं !!
विजय शंकर सिंह

Wednesday, 29 October 2014

एक भुलावा काले धन का / विजय शंकर सिंह




कभी कभी छोटे बच्चे जब मेले में जाते हैं तो वह कुछ न कुछ लेने के लिए मचल जाते हैं. उनके माता पिता उसे उस से बेहतर चीज़ दिलवाने का भुलावा देते हैं. बच्चा मान भी जाता है, और भूल भी जाता है. पर उसे वह भी नहीं मिलता जिसके लिए वह जिद कर रहा था, और वह भी नहीं जिसके लिए उस से वादा किया गया था. बच्चा बड़ा भी हो जाता है. सब कुछ बिसरा कर नयी बातों में लग जाता है. कुछ लोग जनता को इसी अपरिपक्व मन का समझ बैठते है. खूबसूरत क्षितिज को और इशारा करते हैं. जब कि क्षितिज स्वयं एक भ्रम है छलावा है. जो प्राप्य नहीं है, वह सदैव सुन्दर लगता है, आकर्षित करता है. दूर से कूड़े का पहाड़ भी हरी भरी पहाडी लगता है.

आज दिन भर काले धन पर जो घमासान बड़की अदालत में चलेगा उसे सुनिए. काला धन आये न आये, मनसायन तो रहेगा ही. काला धन सदैव से भारतीय ही नहीं विश्व अर्थ व्यवस्था के लिए कैंसर की गाँठ की तरह रहा है. जिस धन पर कर नहीं चुकाया गया है, वह काला धन है. बहुत पहले से तनखाह के ऊपर की इनकम पूछने और जानने का जिज्ञासु भाव सब के मन में उठता रहा है. धन कमाना, संचित करना यह एक मानवीय प्रवित्ति है. चाणक्य ने भी इसे इंगित किया है और तभी से राजस्व समय से और निर्धारित राशि न जमा करने के लिए दंड का प्राविधान किया गया था. आज भी कर प्रशासन ऐसे कई कदम उठाता है जिस से करापवंचन न हो. पर अपराध करना भी एक मानवीय प्रवित्ति है. जब तक समाज और मनुष्य रहेगा अपराध भी रहेगा. विकास के सापेक्ष यह जटिल भी होता जाएगा और बढेगा भी.

हम विदेशों में ज़मा काले धन को ले कर चिंतित हैं. उसकी सूची मय खाताधारकों के सोशल साईट पर वायरल बुखार की तरह फ़ैल रही है. वित्त मंत्री जी नाम न बताये कोई बात नहीं, वह फाइल दबाये रहें, वैसे भी सचिवालय में फाइलें दबने की परम्परा पुरानी है. सुप्रीम कोर्ट को सूची के लिए सरकार को फटकार लगानी पड़े, पर वह सूची पूरे आधिकार के साथ विदेशी बैंक के लेटर हेड पर छपी हुयी रमेश की मोबाइल में मौजूद है. आप सोच रहे होंगे, जेठमलानी, सुब्रमण्यम स्वामी, अरुण जेटली जैसे प्रसिद्ध किरदारों के बीच यह कौन है और कहाँ से नमूदार हो गया. जी, रमेश मेरा कुक है, और वह भी जन धन योजना में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की एक शाखा में खाता खुलवा कर अपने हिस्से का पंद्रह लाख पाने का स्वप्न लाखों देशवासियों की तरह देख रहा है. उसके लिए धन उसकी आवश्यकता की पूर्ति का साधन ही है. जो न काला है , न लाल न सफ़ेद.

शुरू में बच्चे और मेले की कथा, आप की उत्कंठा बढ़ा रही होगी कि, इसका क्या सम्बन्ध है काले धन से. इसका सम्बन्ध काले धन से नहीं बल्कि इसका सम्बन्ध थोथे आश्वासनों पर टिकी राज नैतिक दलों की मानसिकता से है. जहां हर प्रकार का आश्वासन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. रोटी देने की बात कोई नहीं करेगा. पर चाँद और ईश्वर देने की बात सभी करेंगे. और जनता उस अपरिपक्व मस्तिष्क के बच्चे के समान भुलावे में आ ही जाती है. लेकिन अब के बच्चे मेले युग के बच्चे नहीं रहे. स्मार्ट फोन के माया जाल ने उन्हें समय से पहले ही स्मार्ट बना दिया है. इस लिए अब भुलावा देना भी कब खतरनाक हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है.

विदेश से सूची का क्या उप्स्योग एस आई टी करती है. जुर्म साबित होता है या नहीं, धन वापस लाने की क्या प्रक्रिया है, आदि आदि बहुत समय लेने वाली प्रक्रिया है. हो सकता है धन आ जाए हो सकता है, अदालतों में ही उलझ जाए. लेकिन यह धन उद्गमित जहां से होता है उसे भी तो रोकने का प्रयास किया जाय. हालांकि सरकार ने इ टेंडर आदि पारदर्शी व्यवस्था की शुरुआत की है. लेकिन, अभी उसका असर आने में देर लगेगी. ऐसे धन का एक सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार है. यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं कर रहा हूँ, सभी को मालूम है. भ्रष्टाचार के जो मामले सामने नहीं आये हैं उनकी बात छोड़ दें, पर जो मामले जांच में हैं, या अदालतों में हैं उनकी ही सुध ले लें तो कुछ न कुछ असर पड़ेगा. जयललिता को सज़ा देने में अठारह साल लगे. अभी अपील के दो अवसर उनके पास शेष भी हैं. इसी तरह के आंकड़े अगर देश के सभी राज्यों के ए सी बी, और सतर्कता अधिष्ठानों, और सी वी सी के यहाँ से जुटाए जाएँ तो वह हैरान करने वाला भी होगा. जब तक त्वरित और पर्याप्त दंड किसी अपराध का नहीं मिलता है, तब तक उस अपराध में कमी नहीं आती है. मानव मन स्वभावतः अप्राधोन्मुख होता है.

विदेश से धन लाने की जो प्रक्रिया है वह जटिल होगी. क्यों कि उसमे दूसरे देशों का कानून, और अन्तराष्ट्रीय क़ानून भी आड़े आ सकते हैं. वह धन योग बल से नहीं लाया जा सकता है. अतः किसी मुगालते में न रहें. पर जो काला धन देश में पनप रहा है संचित है, और नए नए रूपों में रूपांतरित हो रहा है, उसे सामने लाने में, उनके दोषियों को दंड देने में क्या बाधा है ? मेरी समझ में सिवाय इच्छा शक्ति के कोई बाधा नहीं है. जब जांच और ज़ब्ती आदि की कार्यवाही बढ़ेगी तो स्वतः कालेधन पर अंकुश भी लगेगा और ऐसे सफ़ेद पोश अपराधियों के विरुद्ध न केवल वातावरण बनेगा बल्कि बहुत सी उपयिगी सूचनाएं भी मिलेंगी. अभी यह धारणा बैठ गयी है, कि शिकायत से कुछ नहीं होता, सब सेटिंग कर के अधिकारी निपटा देते हैं. यह बातें बरामदे में घूमने रहने वाले दलाल फैलाते रहते हैं, हालांकि इसमें कुछ न कुछ तथ्य भी रहता है. इस दिशा में ठोस परिणाम की गुंजाइश भी रहती है.

मेले के बच्चे के सामान अपरिपक्व मानसिकता छोडिये, और भ्रम से मुक्त रहना सीखिए. राजनीति अब मार्केटिंग और प्रचार से युक्त हो रही है. मंच, रंग मंच में बदल रहे हैं, नेता मन की बात कम, नाटकों की तरह संवाद अदायगी अधिक करने लगें है. न्यूज़ चैनेल, खबरे कम, और मनोरंजन अधिक परोसने लगें है.
विजय शंकर सिंह


Tuesday, 28 October 2014

राजा का कोई रिश्तेदार नहीं होता / विजय शंकर सिंह




विश्व नाथ प्रताप सिंह, भारत के प्रधान मंत्री थे. धीरू भाई अम्बानी , जो रिलायंस के मालिक थे, उस समय जीवित थे. वह सत्ता के बेहद करीबी शुरू से ही रहे हैं. बताते हैं कि उनकी त्वरित विकास गाथा के पीछे, कांग्रेस और इंदिरा गाँधी का वरद हस्त था. बाद में वह राजीव गाँधी के भी काफी निकट रहे. धीरू भाई प्रधान मंत्री वी पी सिंह से मिलना चाहते थे, लेकिन वह यह मुलाक़ात अकेले में और निजी तौर पर चाहते थे. उन्होंने इस के लिए उपयुक्त व्यक्ति की तलाश करना शुरू कर दिया पर वी पी सिंह ने कोई भी मुलाक़ात धीरू भाई से अकेले में करने से मना दिया. यह मुलाक़ात दो व्यक्ति के बीच नहीं एक प्रधान मंत्री और एक प्रख्यात उद्योगपति के बीच होनी थी. अंततः उद्योग्पत्यों के शिष्टमंडल से उनकी मुलाक़ात हुयी. जो बिलकुल औपचारिक और सरकारी थी.


श्री नरेन्द्र मोदी, निजी तौर पर किसी के भी मित्र हो सकते हैं. पर प्रधान मंत्री निजी तौर पर किसी का भी मित्र नहीं हो सकता है. . राजा का कोई रिश्तेदार नहीं होता है. यह बहुत पुरानी कहावत है. यह इस लिए कि उसका निष्पक्ष होना तो ज़रूरी है ही, निष्पक्ष दिखना और भी ज़रूरी है. प्रधान मंत्री के एक एक बयान, चित्र, और देह भाषा की मीमांसा होती है. जो विरोधी हैं वह तो करते ही है, जो साथ हैं वह भी करते हैं. सत्ता के कॉरिडोर में अक्सर खुसुर पुसुर भरी आवाजें सब कुछ बयान कर देती है. सचिवालय की अक्सर तीर्थ यात्रा करने वालों से आप इस की पुष्टि कर सकते हैं. 


जो चित्र मुकेश अम्बानी का, प्रधान मंत्री की पीठ पर हाँथ रखे चर्चित हो रहा है, उसमें मुकेश अम्बानी की आत्मीयता तो है, पर यह निकटता, सत्ता के उन दलालों के कान खड़े करने के लिए काफी है, जो परजीवी की तरह कोई न कोई टार्गेट अपने हित के लिए ढूंढते रहते हैं. उद्योगपतियों की भी अपनी लॉबी होती है और उनके विभिन्न दबाव ग्रुप भी. सब एक दूसरे से जाहिरा तौर पर बड़े निकट दिखते हैं, पर वास्तव में सब एक दूसरे के प्रति सशंकित और जासूसी भी करते रहते है. इस चित्र के कई निहितार्थ वे भी खोजेंगे. और खोज भी रहे होंगे. नौकरशाही तो घोड़े की तरह होती ही है. वह सवार पहचानती है, और वह यह भी परख रखती है, कि सवार अनाडी है या मंजा हुआ. इस चित्र से मुकेश अम्बानी नौकरशाही को कोई सन्देश दें या न दें, पर नौकरशाही इस सन्देश को बखूबी पढ़ लेगी.

शिखर पर पहुँचने का अलग ही सुख है, पर शिखर जो अकेलापन देता है, वह कभी कभी पीड़ित भी करता है. आज प्रधान मंत्री श्री मोदी शिखर पर हैं. उन्हें ऐसे किसी भी क्रिया कलाप से बचना चाहिए जो उन्हें प्रतिकूलता में प्रचारित करे. मनमोहन सिंह एक सरल और प्रतिभावान प्रधान मंत्री थे, पर दस जनपथ के प्रति स्वामिभक्ति, और साष्टांग ने उनमें जो दास भाव का बीजारोपण कर दिया, उस से उनकी जो क्श्वि बनी और विक्सित हुयी, उस से वह आज भी उबर नहीं पा रहे हैं.
विजय शंकर सिंह