अपराध और दंड की मूल अवधारणा बदला लेना या प्रतिशोध नहीं है बल्कि दोषी को सुधारना है। यह आधुनिक अवधारणा है किसी धर्म संहिता की नहीं। धर्म संहिता कर्मों के भोग की बात करता है, पाप और पुण्य की बात करता है, नर्क और स्वर्ग की बात है, और पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर इस जन्म के कर्म को निर्धारित करने की बात करता है। पाप, पुण्य, स्वर्ग , नर्क, पुनर्जन्म, कर्मों का भोग होता है या नहीं यह सनातन वाद विवाद का विंदु रहा है और आगे भी रहेगा। लेकिन आधुनिक न्यायशास्त्र के अनुसार अपराध एक विधि के प्राविधान का उल्लंघन है और विधि के अनुसार ही उसका दण्ड भी निर्धारित है। दण्ड का उद्देश्य भी अपराधी को सुधारना है और उसे सुधार कर समाज की मुख्य धारा में लाना है।
एससीएसटी एक्ट के लागू करने से ही समाज में समता आ जायेगी और हम एक जातिविहीन समाज बन जाएंगे ऐसा मैं नहीं मानता हूं। कानून से कानून तोड़ने वालों में भय का संचार होता है और वे उस भय के कारण अपराध कर्म में लिप्त होने से बचते भी हैं पर न तो अपराध विहीन समाज कभी रहा है और न होगा। इसकी कल्पना करना, एक यूटोपिया है, काल्पनिक आदर्शवाद है। जाति व्यवस्था केवल सनातन धर्म या हिन्दू धर्म की ही व्याधि नहीं है यह दुनिया के हर समाज मे किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है और है। लेकिन केवल जाति के आधार पर किसी का अपमान करना, उसे सामान्य जीने, उपासना के अधिकारों से वंचित करना यह भी उचित नहीं है। जब डॉ आंबेडकर ने दलित समाज ( यह शब्द depressed class जो वे सदैव प्रयोग करते थे का अनुवाद है ) के लिये मुस्लिमों को अलग निर्वाचन क्षेत्र, अंग्रेजों द्वारा दिये जाने के बाद, अपने लिये मांगा तो उन्हें गांधी जी का विरोध झेलना पड़ा। गांधी जी ने कहा दलित हिन्दू समाज के अभिन्न अंग हैं और उन्हें अलग बिल्कुल ही नहीं माना जा सकता है। वे अनशन पर बैठे और अंत मे आंबेडकर को झुकना पड़ा और पूना में इस विंदु पर दोनों का समझौता हुआ। यह समझौता, 24 सितम्बर 1932 को साय पांच बजे यरवदा जेल पूना में गाँधी और डा. अंबेडकर के बीच हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ। इस समझौते में डॉ. अंबेडकर को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन (जैसा कि आजकल है) पद्धति को स्वीकार करना पडा, परन्तु साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया। इसी आधार पर जब संविधान बना तब आरक्षण की व्यवस्था लागू हुयी।
समाज बदल रहा है। जो स्थिति दलित समाज की मेरे बचपन मे गांवों में थी वह अब नहीं रही। हो सकता है आगे और सुधरे। लेकिन क्या यह स्थिति इस अधिनियम के कारण सुधरी है ? या कोई और कारण है ? समाज आवश्यकतानुसार बदलता है। जो लोग और समाज समय की ज़रूरतों के अनुसार नहीं बदल पाता वह जड़ हो जाता है और फिर मरने लगता है। आज दलित समाज जाग्रत है। वह अपने अधिकारों के लिये सचेत हैं और सन्नद्ध है। छुआछूत अब बहुत कम दिखती है। शहरों में तो बहुत ही कम। लेकिन अभी भी जिस जाति विहीन समाज की बात हम सोच रहे हैं वह बहुत दूर है। जब तक सम्मान का भाव जाति से ही जुड़ा रहेगा, आरक्षण की मांग होती रहेगी । आरक्षण ने दलित समाज को सम्पन्न किया है और आर्थिक संपन्नता ने उन्हें समाज मे, सम्मान भी दिलाया है।
© विजय शंकर सिंह
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