Monday, 31 August 2020

एक्ट ऑफ गॉड या सरकार की नीतिगत विफलता ? / विजय शंकर सिंह


 

जीएसटी काउंसिल की बैठक के बाद मीडिया वित्तमंत्री जी ने कहा कि,

" देश की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस के रूप में सामने आए असाधारण 'एक्ट ऑफ गॉड' का सामना कर रही है, जिसकी वजह से इस साल अर्थव्यवस्था के विकास की दर सिकुड़ सकती है।"

वित्त मंत्रालय के अनुमान के अनुसार, जीएसटी क्षतिपूर्ति अंतर 2.35 लाख करोड़ रुपये होने की उम्मीद है। यह इसलिए है क्योंकि केंद्र को कोविड द्वारा प्रभावित आर्थिक गतिविधियों के कारण जीएसटी उपकर से केवल 65,000 करोड़ रुपये एकत्र करने की उम्मीद है। पहले, इससे 3 लाख करोड़ रुपये जीएसटी कलेक्शन की उम्मीद थी। 

बैठक में जीएसटी के मुआवजे पर मंथन के बाद, वित्त मंत्री ने राज्यों को दो विकल्प प्रदान किए हैं। 
पहला विकल्प, आरबीआई के परामर्श से राज्यों को एक विशेष कर्ज़ की योजना सुलभ कराना है। यह कर्ज़, उपकर के संग्रह से पांच साल बाद चुकाया जा सकता है।
केंद्र इस पहले विकल्प के दूसरे चरण के रूप में एफआरबीएम अधिनियम के तहत राज्यों की उधार सीमा में 0.5 प्रतिशत की और छूट देगा। इससे राज्यों को अपनी क्षतिपूर्ति कमी को कवर करने के लिए बिना शर्त अधिक उधार लेने की अनुमति मिलेगी। महामारी के कारण पनपे विपरीत हालातों के कारण राज्य अपेक्षित मुआवजे से परे, अधिक उधार लेने का विकल्प चुन सकते हैं। 
दूसरा विकल्प यह है कि इस साल पूरे जीएसटी मुआवजे के अंतर को आरबीआई से सलाह लेने के बाद उधार के जरिए पूरा किया जाए। 

यानी दोनों विकल्पों की बात करें तो पहले विकल्प के तौर पर केंद्र खुद उधार लेकर राज्यों को मुआवजा देने की बात कर रहा है और दूसरे विकल्प के तौर पर आरबीआई से सीधे उधार लेने की बात कही गई है। यानी अब केवल एक ही रास्ता है, ऋणं कृत्वा घृतम पीवेत। 

31 अगस्त को,जून तिमाही में जीडीपी के आंकड़े जारी हुए हैं जो माइनस 23.4 % है। आज़ादी के बाद की यह सबसे बड़ी गिरावट है। दुनिया की बात करें तो जीडीपी की गिरावट के मामले में भारत से बाद सिर्फ ब्रिटेन है, जिसकी अर्थव्यवस्था में 21.7% की गिरावट आई है। 

लेकिन यह सारी गिरावट भले ही कोरोना के मत्थे मढ़ने की कोशिश की जाय, लेकिन इस महामारी का इस आर्थिक दुरवस्था में केवल अकेले ही योगदान नहीं है। महामारी, एक्ट ऑफ गॉड हो तो हो, पर जिस प्रकार से देश की आर्थिक नीतियों का संचालन 2016 से सरकार कर रही है, न केवल वे नीतियां ही त्रुटिपूर्ण हैं बल्कि उनका क्रियान्वयन भी बेहद दोषपूर्ण है। नीतियां एक्ट ऑफ गॉड नहीं हो सकती हैं, वह तो एक्ट ऑफ सरकार ही कही जाएगी। निर्दोष ईश्वर पर विफलता का ठीकरा फोड़ने के बजाय सरकार को अपनी आर्थिक नीतियों और उनके क्रियान्वयन का स्वतः मूल्यांकन करना चाहिए, ताकि वह इस मिथ्या नियतिवाद से बाहर आकर स्थिति को संभालने के लिये कुछ न कुछ सार्थक कदम उठाये।

देश मे कोरोना के आने के पहले से ही देश के सारे आर्थिक संकेतकों में गिरावट आने लगी थी। यूपीए 2 के बाद जिस गुजरात मॉडल के मायामृग ने हमे छला था उसका दुष्परिणाम आज सबके सामने है। कोरोना न भी आता तो भी देश के बाजारों में मंदी रहती, लोगों की नौकरिया जातीं, आर्थिक विकास अवरुद्ध होता और जीडीपी गिरती। कोरोना ने अर्थव्यवस्था की इस गिरावट को भूस्खलन जैसी गति दे दी है जबकि यह गिरावट तो 8 नवम्बर 2016 को रात 8 बजे की गयी नोटबन्दी की घोषणा के बाद से ही शुरू हो गयी थी। सरकार के तीन महत्वपूर्ण निर्णय, नोटबन्दी, जीएसटी का अकुशल क्रियान्वयन, और कोरोना में लॉक डाउन की तृटिपूर्ण घोषणाओं, ने देश की विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था को बेपटरी कर दिया। पर सरकार केवल कोरोना का उल्लेख कर, इसे एक्ट ऑफ गॉड बताती है, ईश्वर को कठघरे में खड़ा करती है, उस पर दोष मढती है और जब सरकार की नीतियों पर सवाल उठते हैं, उनके क्रियान्वयन की कमियां दिखाई जाती है, समस्याओं की ओर इंगित किया जाता है, या समस्याओं के समाधान के बारे में पूछा जाता है तो सरकार मौन रहती है और सरकारी दल अपने विभाजनकारी एजेंडे पर आ जाते हैं। 

लगभग सभी अर्थशास्त्रियों ने 2016 की नोटबन्दी को एक अनावश्यक और आत्मघाती कदम बताया था और डॉ मनमोहन सिंह ने तो उसके तुरंत बाद ही यह घोषणा कर दी थी कि इससे जीडीपी में 2 % की गिरावट होगी। डॉ सिंह की यह घोषणा कोई राजनीतिक घोषणा नहीं बल्कि एक पेशेवर अर्थशास्त्री का आकलन था जो बिल्कुल सही साबित हुआ। उसके बाद सरकार ने अफरातफरी में अनेक ऐसे कदम उठाए जिससे अर्थव्यवस्था में कोई भी सुधार नहीं हुआ और 31 मार्च 2020 तक जीडीपी गिर कर 4.1% पर रह गयी। इसके बाद तो कोरोना ही आ गया। 

एक्ट ऑफ गॉड के पहले एक्ट ऑफ सरकार द्वारा की गयी नोटबन्दी के कुछ दुष्परिणाम तो तुरन्त ही दिखने लगे थे। 
● नोटबंदी के अर्थव्यवस्था की विकास दर पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को तो अब हर कोई मान रहा है। अंतर बस इसके परिमाण को लेकर है। इससे विकास दर लगभग दो फीसदी कम हो गई और इसके बाद तो, हर साल जीडीपी की दर गिरती ही जा रही है और अब तो वह शून्य से भी नीचे जाने लगी है। 
● नोटबंदी का सबसे बड़ा कुप्रभाव, रोजगार पर पड़ा है। नोटबन्दी का एक चेन रिएक्शन हुआ। नोटबन्दी के कारण, रीयल स्टेट, असंगठित क्षेत्र आदि पर सीधा असर पड़ा और जब वे मंदी के शिकार हुए तो, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, सेवा सेक्टर, और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर बुरी तरह से प्रभावित हुए और लोगों की नौकरिया जाने लगीं। कोरोना काल के बहुत पहले, 2016 से ही, सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देने बंद कर दिए थे। अकेले कोरोना काल मे ही 40 लाख लोगो की नौकरिया जा चुकी हैं। छोटी विनिर्माण इकाइयां और सेवा क्षेत्र के व्यवसाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए।  ग्रामीण अर्थव्यवस्था जो मूलत: खेती पर आ​श्रित होती है, पर भी इसका खासा असर देखने को मिला।
● नोटबंदी से सरकार को कई स्रोतों से मिलने वाले राजस्व पर भी असर पड़ने लगा। जब लोगो की, क्रय क्षमता कम होगी तो, बाजार में मंदी आने लगेगी, इससे अप्रत्यक्ष कर की वसूली पर पड़ेगा। आय कम होने से प्रत्यक्ष कर भी घटने लगेगा। यह एक सरल सिद्धान्त है। 
● बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं.  बैंकों की दशा नोटबंदी से और खराब हुई। नोटबंदी के पहले ही फंसे हुए कर्ज की मात्रा लगातार बढ़ते जाने से बैंक खुलकर कर्ज बांटने से बच रहे है। वे लगातार कर्ज़ की वसूली न कर पाने से  एनपीए के गिरफ्त में आने लगे। सिलसिला अब भी जारी है । वहीं नोटबन्दी के बाद मांग सुस्त हो जाने से कारोबारी भी कर्ज लेने को लेकर इच्छुक नहीं रहे। 
● नोटबंदी के दौरान जमा हुई राशि पर बैंकों को ग्राहकों को ब्याज देना पड़ा ओर नोटबंदी को लागू करने में भी बैंकों को अच्छा खासा खर्च करना पड़ा। सामान्य बैंकिंग कारोबार के प्रभावित होने से भी उन्हें नुकसान हुआ। जानकारों के अनुसार इससे बैंकों की दशा सुधरने के बजाय और पस्त ही हुई। यही वजह है कि सभी बैंक अपना नुकसान पूरा करने के लिए ग्राहकों से सेवा और रखरखाव शुल्क के नाम पर कई तरह का चार्ज वसूलने लगे हैं। अब तो बैंकों के निजीकरण की ही बात चलने लगी है। 
● केंद्र सरकार का दावा है कि नोटबंदी से महंगाई में कमी हुई जिससे ब्याज में कटौती हुई। इस बीच पिछले एक साल में आरबीआई ने ब्याज दरों में केवल चौथाई फीसदी की कमी की है। जानकार इन दोनों बदलावों को बहुत बड़ा नहीं मानते. इसके उलट नोटबंदी के बाद किसानों और असंगठित क्षेत्र के लोगो की हालत पस्त हुयी। इससे राजकोषीय घाटा बढ़ा और इससे, महंगाई के और भी बढ़ने के अंदेशा है। 
● नोटबन्दी के कुछ उद्देश्य, कालाधन की खोज, नकदी के प्रवाह में कमी और नकली मुद्रा पर रोक, बताये गए थे। सरकार आज तक यह नहीं बता पायी कि, नोटबन्दी से लाभ क्या हुआ और इसकी ज़रूरत क्या थी। 

नोटबन्दी जैसे एक्ट ऑफ सरकार के बाद सरकार ने आधी रात को एक देश एक टैक्स जैसी योजना को काफी उत्सवपूर्ण माहौल में शुरु किया था। यह कर सुधारों की दिशा में, एक महत्वपूर्ण कदम था। पर अपनी जटिल प्रक्रिया और त्रुटिपूर्ण प्रशासनिक क्रियान्वयन से इस कर सुधार ने व्यापार और व्यापारियों को नुकसान ही पहुंचाया। लालफीताशाही को कम करने के उद्देश्य से लाये गए इस कर सुधार ने अनेक जटिलताओं को ही जन्म दिया। अब तो यह कर तंत्र देश के संघीय ढांचे के लिये ही खतरा बनने लगा है। जीएसटी की नीतियां और नियमावली जैसी बनाई गयी उससे बड़े व्यापारियों को तो भले ही लाभ हुआ हो, पर गांव कस्बों के छोटे और मझोले व्यापारियों को नुकसान ही उठाना पड़ा है। 

देश मे कोरोना का पहला मामला 31 जनवरी को केरल में आया था लेकिन सरकार ने, 13 मार्च तक इसे गम्भीरता से नहीं लिया। न तो विदेश से आने वालों की कोई नियमित चेकिंग की व्यवस्था हुयी और न ही स्वास्थ्य ढांचे के सुधार के लिये कोई कदम उठाया गया। मार्च के दूसरे तीसरे हफ्ते तक तो, मध्यप्रदेश में सरकार के गिराने का ही खेल होता रहा। फिर 23 मार्च को एक दिन का ताली थाली पीटो मार्का प्रतीकात्मक लॉक डाउन हुआ, और फिर 18 दिन के महाभारत की तर्ज़ पर 21 दिनी लॉक डाउन अचानक घोषित कर दिया। तब से अब तक यह सिलसिला चल रहा है। आज दुनियाभर में महामारी संक्रमण में दूसरे स्थान पर हैं। 

सरकार ने कहा कि, लॉक डाउन की अवधि का कामगारों को वेतन मिलेगा, लेकिन यह वादा नहीं पूरा हुआ। उद्योगपति धनाभाव के बहाने पर सुप्रीम कोर्ट चले गए, और अदालत में सरकार, उद्योगपतियों के ही हित मे खड़ी दिखी। कामगारों का ऐतिहासिक देशव्यापी पलायन हुआ, जिसे 1947 के बंटवारे के  महा पलायन के बाद का सबसे बड़ा पलायन कहा गया। स्टेशन पर अपनी मृतक मां की मृत्यु से अनजान एक छोटी  बच्ची का उसके ऊपर पड़ी चादर से खेलना, सरकार के प्रशासनिक विफलता की एक प्रतीकात्मक तस्वीर है, जिस पर सरकार या सत्तारूढ़ दल के किसी भी व्यक्ति ने कुछ भी नहीं कहा। क्या यह कुप्रबंधन भी एक्ट ऑफ गॉड ही कहा जायेगा ? 

वित्तमंत्री का यह कहना सच है कि, लॉकडाउन से देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा है। कोरोना एक  महामारी के रूप में एक्ट ऑफ गॉड हो सकता है पर ऐसी महामारियों से निपटने में सरकार की रणनीति और उसकी प्रशासनिक विफलता तो एक्ट ऑफ गॉड नहीं बल्कि एक्ट ऑफ सरकार ही कही जाएगी। मार्च के तीसरे सप्ताह से देश अभूतपूर्व तालाबंदी में जी रहा है और सारी व्यावसायिक गतिविधियां, लगभग ठप हैं। मई के अंत मे एसोचैम जो उद्योगपतियों की एक शीर्ष संस्था है, ने देश की अर्थव्यवस्था पर अपने जो निष्कर्ष दिये थे, उसे देखे। 

निवेशकों के साझा कोष का प्रबंध करने वाली कंपनी कोटक महिंद्रा एसेट मैनेजमेंट के प्रबंध निदेशक (एमडी) निलेश शाह ने कहा कि, 
" कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम के लिये देश भर में लागू किये गये लॉकडाउन से भारतीय कंपनियों को 190 अरब डॉलर (करीब 14 लाख करोड़ रुपये) के उत्पादन का नुकसान उठाना पड़ा है। उन्होंने कहा कि कारोबारियों को दोबारा काम-काज शुरू करने के लिये काफी लागत उठानी होगी।" 
यह आंकड़ा मई 2020 के अंत का है, जबकि अब तक तीन महीने बीत चुके हैं। अब आगे पढिये, शाह ने कार्यक्रम में कहा, ‘
‘हमारी अर्थव्यवस्था (जीडीपी) सालाना करीब तीन हजार अरब डॉलर की है। कारोबार पूरी तरह से बंद हो तो एक माह का उत्पादन नुकसान 250 अरब डॉलर होगा। यदि 50 फीसदी काम-काज ही बंद हों तो एक महीने में यह नुकसान 125 अरब डॉलर का होगा। इस तरह यदि हम मान कर चलें कि अब कारोबार पूरी तरह खुल जायेगा, तो केवल मई के अंत तक उत्पादन का नुकसान 190 अरब डॉलर का था, अब इससे और अधिक बढ़ गया होगा। "

पूंजीपतियों के संगठन एसोचैम ने अर्थव्यवस्था में सुधार की राह भी बताई। पर दिक्कत यह है कि ऐसे संगठन जब कोई राह सुझाते हैं तो, उनके प्रेस्क्रिप्शन में उन्ही की समस्याओं का निदान होता है न कि जनता की मूल समस्याओं का। एसोचेम की विज्ञप्ति के अनुसार,  शाह ने कहा कि 
" कच्चा तेल सस्ता होने से इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था को 40-50 अरब डॉलर का लाभ होगा। इसी तरह यदि भारत चीन में बने सामानों की जगह स्थानीय स्तर पर सामानों का विनिर्माण करा पाये तो इससे 20 अरब डॉलर की बचत हो सकती है। ऐसे में हमें लॉकडाउन के कारण हुए उत्पादन नुकसान में सिर्फ बचे 130 अरब डॉलर की भरपाई करने की ही जरूरत बचेगी। उन्होंने कहा कि इस समय कुछ उद्योगों को अनुदान या सब्सिडी की जरूरत है। इसके लिये राजकोषीय प्रोत्साहन जरूरी है। "

इस प्रकार यदि आप पिछले छह सालों के सरकार की आर्थिक नीतियों का मूल्यांकन करेंगे तो सरकार की हर नीति, चाहे वह नोटबन्दी की हो, जीएसटी की हो, कोरोना लॉकडाउन की हो, बैंकों को उबारने की हो, आरबीआई से रिज़र्व धन लेने की हो, रोजगार के लिये मुद्रा लोन की हो, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को ऋण पैकेज का हो, या महामारी से निपटने के लिये 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का हो, सरकार आज तक इन कदमो से क्या लाभ भारतीय आर्थिकी को हुआ है न तो बता पा रही है और न ही इनसे जुड़े सवालों पर कोई उत्तर दे रही है। एक अजीब सी चुप्पी है। 

देश आज प्रतिभा के अभाव से भी जूझ रहा है। कम से कम अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तो यह बात जगजाहिर है। हमारा थिंक टैंक नीति आयोग हर मर्ज का एक ही इलाज सुझा रहा है कि, जो भी सार्वजनिक क्षेत्र की संपदा है उसे बेच दो। निजीकरण से देश को लाभ क्या होगा, यह भी सरकार को पता नहीं है। आज जब देश की जीडीपी शून्य से नीचे जा रही है और के मुकेश अंबानी और अडानी ग्रुप की संपत्तियां बेहिसाब बढ़ रही हैं, तो इसका सीधा अर्थ यह है कि, देश की संपत्ति का, चंद पूंजीपति घरानों में केंद्रीकरण हो रहा है और जनता विपन्न होती जा रही है। 

नेतृत्व की पहचान और परख संकट में ही होती है । सब कुछ ठीक है तो नेतृत्व की परख नहीं हो सकती है । जब कोई संकट आसन्न हो तो उस समय नेतृत्व उस संकट से कैसे उबरता है और कैसे सबको ले कर बढ़ता है यह महत्वपूर्ण है। दिन के उजाले में तो कोई भी हमराह बन जाएगा । पर जब अँधेरा हो और मुसीबतें तथा समस्याएं सामने खड़ी हों तभी नेतृत्व की कुशलता की पहचान होती है। ऐसे समय यदि, निष्पक्ष और स्पष्ट सोच, नेतृत्व के पास नहीं है तो, वह तो भटकेगा ही, साथ ही, अपने अनुयाइयों को भी भटका देगा । यह स्थिति नेतृत्व के हर स्तर पर लागू होती है । चाहे आप किसी परिवार का नेतृत्व कर रहे हों या किसी कॉरपोरेट का या किसी प्रशासनिक ईकाई का या किस प्रदेश या देश या किसी राजनैतिक दल का । 

विपत्ति या संकट काल में सबसे अधिक ज़रूरी होता है नेतृत्व की साख  या उस पर भरोसा । अगर भरोसा और आपसी विश्वास है तो कोई भी संकट पार किया जा सकता है । पर अगर भरोसे का अभाव और साख का संकट है तो सारी सामर्थ्य रखते हुए भी उस संकट से पार पाना कठिन होता है । कभी कभी युद्धों के इतिहास में ऐसे भी क्षण आये हैं कि छोटी सेना की टुकड़ी ने बड़ी और सन्नद्ध सैनिक बटालियनों को भी मात दी है । यही स्थिति राजनैतिक या सरकार के नेतृत्व की भी है। इस समय, देश में जैसा कि स्टेट्समैन राजनैतिक नेतृत्व की कल्पना की जाती है उसका पर्याप्त अभाव है। 

सरकार इस संकट के बारे में तब तक कोई निदान नहीं ढूढ़ सकती, जब तक कि वह यह स्वीकार न कर ले कि उसकी आर्थिक नीतिया और उसके द्वारा उठाये गए कुछ कदमो से देश को नुकसान पहुंचा है और अब जो स्थिति सामने है उससे उबरने के लिये उसे दक्ष और प्रोफेशनल अर्थशास्त्री समूह की आवश्यकता है। रोग और महामारी को, भले ही एक्ट ऑफ गॉड कह कर, हम निश्चिंत हो जांय पर इस महामारी से निपटने के लिये जो  तैयारियां होती हैं उन्हें तो एक्ट ऑफ सरकार से ही पूरा किया जा सकता है। आज समस्या जटिल है और स्वास्थ्य के साथ साथ, उससे अधिक गम्भीर रूप में अर्थव्यवस्था के सामने है। अब देखना है कि, सरकार इस दुर्गति से किस प्रकार निपटती है।  

( विजय शंकर सिंह )

Saturday, 29 August 2020

रेल, जहाज, स्कूल, अस्पताल के बाद अब जंगलो का भी निजीकरण ! / विजय शंकर सिंह

रेल, जहाज, स्कूल, अस्पताल के बाद देश के जंगल भी बिकेंगे। यह सोच है, देश के सबसे बड़े और प्रभावी थिंक टैंक नीती ( एनआइटीआई ) आयोग का। 2014 के बाद योजना आयोग को भंग कर बड़े जोर शोर से देश का आर्थिक कायाकल्प करने के इरादे से, नीती आयोग का गठन हुआ था। पर देश के कायाकल्प के नाम पर, इस आयोग या थिंक टैंक के दिमाग मे बस एक ही चीज आती है कि देश की बिगड़ती आर्थिकी की एक ही दवा है, निजीकरण। 

इसी क्रम में सरकार के साथ खड़े और इलेक्टोरल बांड के ज़रिए सत्तारूढ़ दल को गुप्त दान देने वाले, चंद पूंजीपतियों को, देश की सारी संपदा, धीरे धीरे बेच दी जाय। इस प्रक्रिया का नाम भले ही, विनिवेशीकरण रखा जाय या निजीकरण कह कर आत्मतुष्टि के बोध से प्रमुदित हो लिया जाय, पर यह सारी कार्यवाही, देश की औद्योगिक संपदा को अपने चहेते पूंजीपतियों को कम दामों में देकर उपकृत करने की है। यह एक प्रकार का गिरोहबंद पूंजीवाद या क्रोनी कैपिटलिज़्म है। यह पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे घृणित रूप है। 

केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने अब 
देश की वन संपदा पर अपनी निगाह गड़ाई है। कहा जा रहा है कि, जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिये उसका निजीकरण करना ज़रूरी है। मतलब, जिन जंगलों में अवैध कटान और अन्य कब्जे करने वाले माफियाओं आदि को रोके जाने की ज़रूरत है, उसी वन संपदा को, अवैध कटान और वन भूमि पर कब्ज़ा करने वाले गिरोह को लिखा पढ़ी में सौंप देनी की बात, अब थिंक टैंक सोच रहा है। सरकारी शब्दावली में, वनों को पुनर्जीवित करने के लिए लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल लागू करने पर विचार किया जा रहा है। 

मीडिया में इस संबंध में जो जानकारी उपलब्ध है, उसके अनुसार,प्राकृतिक जंगलों को बचाने और वनरोपण कार्यक्रम के लिए आयोग, निजी कंपनियों के साथ एक समझौता करने की योजना पर विचार कर रहा है। द प्रिंट वेबसाइट 
में छपी एक खबर के अनुसार, नीति आयोग ने एक प्रेजेंटेशन में बताया कि अभी देश में जारी वन्यीकरण कार्यक्रमों का कोई वांछित प्रभाव नहीं पड़ा है। इसलिए इस क्षेत्र में भी अब पीपीपी मॉडल को लागू किए जाने की जरूरत है, ताकि निवेश को बढ़ाया जा सके और क्षमता और मैनपावर के साथ वन्यीकरण में आधुनिक तकनीक लाई जा सके।

इसी प्रेजेंटेशन में आगे बताया गया है कि, "जिन क्षेत्रों में पीपीपी मॉडल लागू किए जा सकता है, उनमें लकड़ी और गैर-लकड़ी के जंगली चीजों से तैयार किए गए उत्पाद, ईको कैंपिंग, ऑर्गेनिक खेती जैसे क्षेत्र शामिल हैं।" अब तक के वन सम्बन्धो कानूनो के अनुसार, वन्यीकरम कार्यक्रम में अभी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां और कोऑपरेटिव पीएसयू, राज्य सरकार के अंतर्गत आने वन विकास निगम, ग्राम सभा-पंचायत, स्वायत्त जिले और ग्राम विकास बोर्ड, एनजीओ को शामिल किया गया है। लेकिन नीति आयोग की योजना अब इसमें कॉरपोरेट को भी घुसाने की है। अगर सरकार अपने थिंक टैंक की राय से सहमत रहती है, तो आने वाले समय में प्राइवेट कंपनियां भी इस लिस्ट का हिस्सा बन सकेंगी।

सरकार की तरफ से कहा गया है, प्रस्तावित योजना एक ड्राफ्ट है। अभी किसी निर्णय पर सरकार नहीं पहुंची है। उक्त ड्राफ्ट के अनुसार, जिन कंपनियों को सरकार अपने साथ वन्यीकरण कार्यक्रम में जोड़े सकेगी उनमें छोटे और मध्यम स्तर के फसल काटने वाले, कॉरपोरेट और टूरिज्म सेक्टर से जुड़ी कंपनियां शामिल हो सकती हैं। पर्यावरण मंत्रालय की ओर से मिली जानकारी के मुताबिक, इस योजना को इसी महीने, सरकार के सामने पेश किया जाना था, पर कुछ तकनीकी खा’मियों की वजह से इसे अभी प्रस्तुत नही किया जा सका है ।

वन हमारी धरोहर एवं जीवन रेखा हैं। वनों के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वन संपदा की वर्तमान स्थिति के संबंध में भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून द्वारा जारी, भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2019 के अनुसार,  हमारे देश में कुल 807276 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में वन स्थित हैं, जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.67 प्रतिशत है। सर्वाधिक वन क्षेत्रफल वाला राज्य मध्यप्रदेश है जहां 77482 वर्ग किलोमीटर वन हैं। वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार भारत के 144 पहाड़ी जिलों में 544 वर्ग किलोमीटर वनों में वृद्धि हुई है। भारत के वनों का कुल कार्बन स्टॉक लगभग 7142.6 मिलियन टन है। वनों की स्थिति के संबंध में जारी "भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2019" में वन एवं वन संसाधनों के आंकलन के लिये पूरे देश में 2200 से अधिक स्थानों से प्राप्‍त आँकड़ों का प्रयोग किया गया है। 

वर्ष 1936 में हैरी जॉर्ज चैंपियन ने भारत की वनस्पति का सबसे लोकप्रिय एवं मान्य वर्गीकरण किया था। वर्ष 1968 में चैंपियन एवं एसके सेठ  ने मिलकर स्वतंत्र भारत के लिये इसे पुनः प्रकाशित किया। यह वर्गीकरण पौधों की संरचना, आकृति विज्ञान और पादपी स्वरुप पर आधारित है। इस वर्गीकरण में वनों को 16 मुख्य वर्गों में विभाजित कर उन्हें 221 उपवर्गों में बाँटा गया है। वनों में रहने वाले व्यक्तियों की ईंधन, चारा, इमारती लकड़ियों एवं बाँस पर आश्रितता के आंकलन के लिये एक राष्ट्रीय स्तर का अध्ययन किया गया है। भारतीय वन सर्वेक्षण ने भूमि के ऊपर स्थित जैवभार  के आंकलन के लिये भारतीय राष्‍ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय स्तर की परियोजना प्रारंभ की है और असम राज्य में भारतीय वन सर्वेक्षण के आँकड़ों के आधार पर जैवभार का आंकलन किया जा चुका है।

आईएसएफआर 2019 से संबंधित प्रमुख तथ्य इस प्रकार हैं।
● देश में वनों एवं वृक्षों से आच्छादित कुल क्षेत्रफल 8,07,276 वर्ग किमी. (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.56%)
● कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का वनावरण क्षेत्र 7,12,249 वर्ग किमी. (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.67%)
● कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का वृक्षावरण क्षेत्र 95,027 वर्ग किमी. (कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.89%)
● वनाच्छादित क्षेत्रफल में वृद्धि 3,976 वर्ग किमी. (0.56%)
● वृक्षों से आच्छादित क्षेत्रफल में वृद्धि 1,212 वर्ग किमी. (1.29%)
● वनावरण और वृक्षावरण क्षेत्रफल में कुल वृद्धि
5,188 वर्ग किमी. (0.65%)

● सर्वाधिक वनावरण प्रतिशत वाले राज्य
मिज़ोरम 85.41%
अरुणाचल प्रदेश 79.63%
मेघालय 76.33%
मणिपुर 75.46%
नगालैंड 75.31%

● सर्वाधिक वन क्षेत्रफल वाले राज्य
मध्य प्रदेश 77,482 वर्ग किमी.
अरुणाचल प्रदेश 66,688 वर्ग किमी.
छत्तीसगढ़ 55,611 वर्ग किमी.
ओडिशा 51,619 वर्ग किमी.
महाराष्ट्र 50,778 वर्ग किमी.

● वन क्षेत्रफल में वृद्धि वाले शीर्ष राज्य
कर्नाटक 1,025 वर्ग किमी.
आंध्र प्रदेश 990 वर्ग किमी.
केरल 823 वर्ग किमी.
जम्मू-कश्मीर 371 वर्ग किमी.
हिमाचल प्रदेश 334 वर्ग किमी.

इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के रिकार्डेड फारेस्ट एरिया  में 330 (0.05%) वर्ग किमी. की मामूली कमी आई है। भारत में 62,466 आर्द्रभूमियाँ देश के रिजर्व फारेस्ट एरिया क्षेत्र के लगभग 3.83% क्षेत्र को कवर करती हैं। वर्तमान आंकलनों के अनुसार, भारत के वनों का कुल कार्बन स्टॉक लगभग 7,142.6 मिलियन टन अनुमानित है। वर्ष 2017 के आंकलन की तुलना में इसमें लगभग 42.6 मिलियन टन की वृद्धि हुई है। भारतीय वनों की कुल वार्षिक कार्बन स्टॉक में वृद्धि 21.3 मिलियन टन है, जो कि लगभग 78.1 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड  के बराबर है। भारत के वनों में ‘मृदा जैविक कार्बन’ स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन एसओसी ) कार्बन स्टॉक में सर्वाधिक भूमिका निभाते हैं, जो कि अनुमानतः 4004 मिलियन टन की मात्रा में उपस्थित हैं। एसओसी, भारत के वनों के कुल कार्बन स्टॉक में लगभग 56% का योगदान देते हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के पहाड़ी ज़िलों में कुल वनावरण क्षेत्र 2,84,006 वर्ग किमी. है, जो कि इन ज़िलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 40.30% है। वर्तमान आंकलन में आईएसएफआर - 2017 की तुलना में भारत के 144 पहाड़ी जिलों में 544 वर्ग किमी. (0.19%) की वृद्धि देखी गई है।
भारत के जनजातीय ज़िलों में कुल वनावरण क्षेत्र 4,22,351 वर्ग किमी. है जो कि इन ज़िलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 37.54% है। वर्तमान आंकलन के अनुसार, इन ज़िलों में  के अंतर्गत आने वाले कुल वनावरण क्षेत्र में 741 वर्ग किमी. की कमी आई है तथा RFA के बाहर के वनावरण क्षेत्र में 1,922 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है।

किसी देश की संपन्नता उसके निवासियों की भौतिक समृद्धि से अधिक वहाँ की जैव विविधता से आँकी जाती है। भारत में भले ही विकास के नाम पर बीते कुछ दशकों में वनों को बेतहाशा उजाड़ा गया है, लेकिन हमारी वन संपदा दुनियाभर में अनूठी और विशिष्ट है। ऑक्सीजन का एकमात्र स्रोत वृक्ष हैं, इसलिये वृक्षों पर ही हमारा जीवन आश्रित है। यदि वृक्ष नहीं रहेंगे तो किसी भी जीव-जंतु का अस्तित्व नहीं रहेगा।

वन संपदा के क्षेत्र में कॉरपोरेट के घुसने का क्या असर पड़ेगा, इस पर तो तभी स्पष्ट रूप से बताया जा सकेगा, जब नीति आयोग की यह ड्राफ्ट नीति सरकार द्वारा विचार विमर्श के बाद, धरातल पर आ जाए। पर सरकार की जो नीतियां पर्यावरण या वन संपदा के बारे में इधर हाल में आयी हैं, उनका झुकाव, प्रकृति और वन संपदा की ओर कम, अपितु, उनका झुकाव स्पष्ट रूप से कॉरपोरेट घरानों की ओर अधिक दिखता है। उद्योग धंधे और उनका विकास, देश की समृद्धि के लिये आवश्यक है तो, जल, जंगल और प्रकृति के बिना तो जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। वन संपदा और प्रकृति से छेड़छाड़ के नतीजे हम 2013 में केदारनाथ आपदा सहित देश भर में हो रही दैवी आपदाओं में देखते आ रहे है। 

वन संपदा की जब बात होती है तो देश के आदिवासी समाज की ओर हम सबका ध्यान बरबस चला जाता है। पर प्रकृति की कृपा से परिपूर्ण राज्यो में आदिवासी समाज का जो निरन्तर शोषण, विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर हो रहा है उससे यह उम्मीद नहीं पाल लेनी चाहिए कि सरकार का यह कदम, वन संपदा की समृद्धि के हित मे होगा। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में लाभ एक प्राइम मूवर के रूप में रहता है, और इस नयी नीति में भी सरकार पूंजीपतियों के हित साधक के रूप में ही नज़र आएगी। यह आशंका निराधार नहीं है, जब आप रेल, सरकारी कंपनियों, एयरपोर्ट, राजमार्गों के निजीकरण का पागलपन भरे अभियान का अध्ययन करेंगे तो। 

( विजय शंकर सिंह )

Friday, 28 August 2020

सुबह होने तक इसी अंदाज में बाते करो !' / विजय शंकर सिंह

फ़िराक़ साहब का यह इंटरव्यू, इलाहाबाद के प्रसिद्ध कवि उमाकांत मालवीय ने लिया है। इसे गुफ्तगू कहें या बतकही भी कह सकते हैं, पर फ़िराक़ साहब के मिजाज से जो लोग वाकिफ होंगे वे इसे इंटरव्यू नहीं कहना चाहेंगे। यह इंटरव्यू ऐसे ही कुछ पढ़ते रहने के दौरान, मुझे 'बनारस' ब्लॉग पर मिला है। आज फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की जयंती पर उन्हें स्मरण करते हुए, आप सब से साझा कर रहा हूँ। 

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फ़िराक़ : अमाँ, कैसी अहमकपने की बातें करते हो

फ़िराक़ गोरखपुरी ( 1896 - 1982 ) को बीसवीं सदी की उर्दू शायरी के सबसे बड़े हस्ताक्षरों में एक माना जाता है. उनका असल नाम रघुपति सहाय था. पेशे से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थे. तबीयत से हाजिरजवाब शायर. फ़िराक़ को जितनी ख़्याति अपनी शायरी से मिली उतनी ही उनसे जुड़े क़िस्सों से. वो इलाहाबाद के बौद्धिक तबके समेत समस्त हिन्दी-उर्दू जगत में एक लीजेंड बन चुके हैं. इस इंटरव्यू में आपको उनके मिज़ाज का थोड़ा अंदाज ज़रूर हो जाएगा.
 
उमाकांत मालवीय : 
आपके शायर की उम्र कम से कम साठ-बासठ साल की हो गयी, अब आप जहाँ जिस मुकाम पर हैं, वहाँ से मुड़ कर जब आप पीछे देखते हैं तो अपने कृतित्व पर आपको कृतार्थता का बोध या यह कहें कि सेन्स ऑफ़ फुलफिलमेंट महसूस होता है?

फिराक़ गोरखपुरी : 
नहीं भाई बिलकुल नहीं, कृतार्थता का आँचल तो मेरे हाथ से बहुत पहले ही फिसल गया था. मैं एक अच्छा शायर नहीं, एक अच्छा गृहस्थ होना चाहता था. जहाँ तक मुझे मालूम है, मेरी जानकारी जात्ती है, आदमी की सर्वोत्तम समुन्नत स्टेज अच्छा गृहस्थ होने की है. इससे ऊपर की किसी स्टेज की जानकारी मुझे तो नहीं है, तुम्हें या और किसी को हो तो मुझे बतलाये.

उमाकांत मालवीय: 
क्या आपने कभी अपने विचारों को पूरी-पूरी सही अभिव्यक्ति देने के लिए अपनी भाषा को नाकाफी महसूस किया है?

फिराक़ गोरखपुरी: 
मैं उस विचार को बड़ा नहीं मानता जिसके लिए भाषा में शब्द न हों जिसकी अभिव्यक्ति के लिए अल्फ़ाज़ की तलाश में कसरत करनी पड़े. क्रोचे कहता है शब्दों में ढलने के क्रम में ही विचारों के बड़े होने की यात्रा शुरू होती है. रचनाकार का सामर्थ्य उसकी क्षमता की बात है. टू सी ए वर्ल्ड इन ग्रेन ऑव सैंड / ए हेवन इन ए वाइल्ड फ्लावर.......मौला की देखना है तो बन्दे को देख लो / दरिया को देखना है तो कतरे को देख लो......मेरी तो बारहा यह कोशिश रही है कि उर्दू में लोग बाग मेरे साहित्य को समझें उसमें हिन्दुस्तान का कल्चर अपनी टोटैलिटी में बोले.

उमाकांत मालवीय: 
आप अपनी रचना प्रक्रिया या क्रिएटिव प्रोसेस के नितांत आत्मीय घनीभूत अथवा मोस्ट इंटिमेट मोमेंट्स की कोई एक झलक दे सकें.

फिराक़ गोरखपुरी : 
ये साहब, यह रचना प्रक्रिया यह क्रिएटिव प्रोसेस यह क्या कहते हैं आप घनीभूत आत्मीयता के क्षण यह मोस्ट इंटिमेट मोमेंट्स, जनाब यह सब चोंचले हैं चोंचले!

मेरी रचना प्रक्रिया में ऐसा कुछ महत्वपूर्ण नहीं घटता जिसे मैं अहमियत दे सकूँ ...मैं तो आदमी में और रचना में भी महानता और गहनता का कायल हूँ बस...इससे ज्यादा कुछ नहीं...इससे कम कुछ नही.

उमाकांत मालवीय: 
एक लम्बी जिंदगी जीने के क्रम में हमारे अनजाने ही हमारी आदतों में रूढ़ियाँ पूर्वाग्रह प्रिजुडिसेज अथवा कॉमप्लेक्स ग्रंथियां बनती रहती हैं एक जागरूक रचनाकार होने के नाते क्या आप बराबर इस सन्दर्भ में स्वयं को रिव्यू  करते रहते हैं.

फ़िराक़ गोरखपुरी : 
कैसा कॉमप्लेक्स कैसे प्रिजुडिसेज यह रूढ़ियाँ बूढ़ियाँ यह पूर्वाग्रह दुर्वाग्रह मैं यह सब नहीं मानता ..साहब दुनिया में, बिना अंग्रेजी जाने कोई भारतीय बड़ा नहीं बन सकता....अंग्रेजी न जानने की वजह से दयानंद में कुछ छोटायियाँ आ गयीं थी....भारतीयता के ये दुश्मन ..यह मैथिली शरण गुप्त... यह भारतेंदु ...यह महावीर प्रसाद द्विवेदी.

उमाकांत मालवीय : 
आपकी दृष्टि में आज धर्म की प्रासंगिकता क्या है?

फ़िराक़ गोरखपुरी: 
कोई प्रासंगिकता नहीं है साहब ! आज विज्ञान का युग है...धर्म केमिस्ट्री फिजिक्स बॉट्नी में क्या कंट्रीब्यूट कर सकता है. महज हिंदुत्व के बल पर कुछ नहीं बनेगा हिन्दू शक्तिशाली होगा सुदृढ़ होगा अगर वह अंग्रेजियत और इस्लाम की सांस्कृतिक सम्पन्नता से समन्वित रूप से लाभ उठाये.

उमाकांत मालवीय: 
आप उन रचनाकारों में हैं जो अपने जीवन काल में ही किम्वदंती बन गए हैं...आपके विट्स और रिपोर्ताज तथा अन्य ढेर सारे सन्दर्भों में कुछ सच कुछ झूठ नमक मिर्च मिली किम्वदंतियाँ प्रचलित हैं उन पर आपकी क्या प्रतिक्रिया होती है?

फ़िराक़ गोरखपुरी : 
मैं खुद को कभी इतनी अहमियत नहीं देता कि उन पर रिएक्ट करूँ. अगर हैं किम्वदंतियाँ या मेरे बारे में ऐसा कुछ प्रचलित हो गया तो मैं कहाँ से कसूरवार ठहरता हूँ. इसका न मुझे श्रेय है न ही दोष ...मुझे खूबसूरती अच्छी लगती है....मुझे लड़के ज्यादा अच्छे लगते हैं...मैं बदसूरत लड़के को नौकर के रूप में अपने घर में बर्दाश्त नहीं कर सकता.

उमाकांत मालवीय : 
उपलब्धियों और उम्र के जिस मुकाम पर आप खड़े हैं, वहां पहुँच कर आपको सूर तुलसी मीरा कबीर सहयात्री या फेलो ट्रेवेलार्स मालूम पड़ते होंगे.

फ़िराक़ गोरखपुरी : 
अमाँ, कैसी अहमकपने की बातें करते हो, करोड़ों मील आगे हैं ये सब...वहां तो कालिदास , टैगोर, ग़ालिब, इकबाल भी दूर-दूर तक नहीं नज़र आते ..फिर भला फिराक़ की क्या बिसात ! हाँ हिन्दुस्तान के कथा साहित्य में बंकिम को उनका ड्यू नहीं मिला ....  

उमाकांत मालवीय  : 
समसामयिक सन्दर्भों को मद्देनज़र रखते हुए आपको अपने देश का भविष्य कैसा लगता है ?

फिराक़ गोरखपुरी : 
बड़ी शंका होती है, क्या भारत स्वयं को या दुनिया को कोई नया गिफ्ट दे सकेगा? गांधी जी बड़े थे, मगर वे भी भारत और दुनिया को वैसा कुछ नहीं दे पाए जैसा लेनिन ने रूस को और संसार को दिया है ...मैं फिर कहता हूँ ..गांधीजी बेशक बड़े थे मगर जनाब फिर भी...हिन्दुस्तान किसी तरह जीता रहेगा...टाइम पास करेगा मगर दुनिया की तहजीब को संसार के तमद्दुन को कुछ वर्थ वाइल कंट्रीब्यूट कर सकेगा इसमें संदेह है...यह एक बड़ा प्रश्न है...पंडित गंगानाथ झा कहा करते थे इन तीन-चार सौ वर्षों में भारत ने स्वयं को और संसार को कुछ नहीं दिया.

तिलक महाराज का रथ जिन लोगों ने खींचा था उनमें से एक मैं भी था. वे एक महान विद्वान विचारक निडर तेज तर्रार पत्रकार त्यागी और देशभक्त और बलिदानी थे. रियली ही वाज ए सुपर मैन लेकिन शायद मैन होना उनके नसीब में नहीं था. वे इतने बड़े थे कि समाज के वीकेस्ट आदमी में त्याग बलिदान और संघर्ष की कितनी गुंजाइश है इसका अंदाजा ही नहीं था उन्हें. वो सबको एक बटखरे से तौलते थे.

गांधी जी बजात खुद बहुत बड़े आदमी थे ऐसा लगता था कि उनके प्रभाव से सड़े से सड़ा आदमी भी ऊपर उठ जाता था. मगर साहब उनके साथ ही छोटेपन का दौर शुरू हुआ. उफ़ हमारे छोटेपन की कितनी खुशामद की गयी. ग़रीबी को आयडियलाइज और आयडोलाइज किया गया. जब भी इसका ख़्याल आता है तो मैं ग़म में डूब जाता हूँ.

हम कहाँ आ गए हैं विश्व चेतना, इतिहास चेतना, विराट मानवीय सन्दर्भ से कटा हटा अपने कोटर में अपने घोंघे में क्षुद्र स्वार्थों में सड़ता हुआ ओछा हमारा अध्यापक वर्ग है, वह चाहे प्राइमरी स्कूल का हो या विश्वविद्यालय का. उनसे भी ज्यादा खस्ता हाल है वकीलों का. वकील और टीचर मुल्क की इंटलेक्चुअल कम्युनिटी के दो नुमाइंदे......छिः ....

कोई जाति किसी जाति को नहीं मार सकती...जातियां गुलामी में नहीं मरतीं. उन्हें उनके अंतर्विरोध मारते हैं. वह अपने भीतर लगे घुन से मरती हैं. अब देखिये न अब तो अँग्रेज नहीं रहे पर अब भी हमारी नस्ल क्यों मरी जा रही हैं.

प्रेमचंद महान रचनाकार थे. ग़रीबी और भारतीय परेशानियों के अपने ढंग के वे एकमात्र चितेरे थे. रूढ़ियों, जड़ संस्कारों और उदात्त संस्कारों में रचे बसे एक आम हिन्दुस्तानी की आत्मा की पकड़ उनके पास थी लेकिन वे भी जब देह को गैर हाजिर रख कर वासना रहित प्रेम की बात करते हैं तो अपनी ऊंचाई से फिसल जाते हैं और मीडिआकर लगने लगते हैं.

हमारे संस्कृत साहित्य में प्रेम के सन्दर्भ को लेकर खासी अच्छी फ्रैंकनेस से काम लिया गया है. उसमें किसी तरह का दुराव-छुपाव नहीं है, कोई काम्प्लेक्स नहीं है. प्रेम को बहुत ही स्वस्थ धरातल पर ग्रहण किया गया है. देह आकर्षण को माइनस कर दें तो प्रेम-व्रेम सब मीनिंगलेस हो जाता है. प्रेमचंद भले ही प्रेमचंद रहें हों मगर साहब प्रेम को छोड़ कर बाकि सब कुछ उन्होंने अच्छा रचा है . शरीर को निकाल कर जनाब मैं किसी प्रेम का कायल नहीं हूँ . ऐसे में प्रेम का ख्याल तक बड़ा वाहियात होता है. और साहब टैगोर तो लिखते क्या हैं हम गरीबों पर एहसान करते हैं. इसी कारण मुझे काबुलीवाला भी पसंद नहीं आई. अगर हम इस फिसलन के मारे न होते तो भी कुछ है वी कुड हैव बीन दी मेकर्स एंड शेकर्स ओफ सोसायटी बट वी फेल्ड.

( यह इंटरव्यू राजपाल प्रकाशन से साभार. तस्वीर गूगल से है जो मैंने बनारस  ब्लॉग  से लिया है। आभार )

( विजय शंकर सिंह )
#vss 

Wednesday, 26 August 2020

सुशांत केस की तफतीश और टीवी चैनल / विजय शंकर सिंह

एक बात समझ मे नहीं आ रही है कि, सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या के लिये उकसाने, या हत्या, जिस भी आपराधिक धारा में सीबीआई ने मुकदमा दर्ज किया हो, की जांच में सीबीआई की केस डायरी लीक होकर मीडिया के पास पहुंच रही है या फिर सीबीआई मीडिया के खुलासे का अपनी केस डायरी में उपयोग कर ले रही है ?

सीबीआई की जांच बेहद गोपनीय होती है। इतनी गोपनीय कि अगर वे किसी जांच में स्थानीय पुलिस की सहायता या सहयोग लेते भी हैं तो, बस उतना ही जितना उनके लिये जरूरी होता है। न तो उनसे कोई अनर्गल पूछता है, और न ही वे कुछ बताते हैं।

सीबीआई वाले बात बडी विनम्रता से करते हैं। एक एक सुबूत और दस्तावेज वे, धैर्य से देखते हैं और फिर उनका परीक्षण कर के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। पर वे हांकते नहीं है जैसा की अमूमन हम में से कुछ की आदत होती है कि हमने तो रगड़ दिया, घुटनो पर ला दिया, आदि आदि।

सीबीआई के विवेचक को भी, जांच करने की, उतनी ही वैधानिक शक्तियां प्राप्त है,  जितनी कि, देश के किसी भी थाने में नियुक्त, एक सामान्य सब इंस्पेक्टर को। लेकिन सीबीआई के पास समय होता है, एक टीम होती है, कानूनी सलाहकार होता है और फिर केवल कुछ मुकदमो की विवेचना का ही काम रहता है तो, वे किसी भी केस की गहराई में पहुंचने की कोशिश करते हैं।

इसके विपरीत थाने के सब इंस्पेक्टर या इंस्पेक्टर के पास विवेचना के अतिरिक्त, कानून व्यवस्था से जुड़े, अन्य काम भी होते हैं, जो प्राथमिकता में, विवेचना से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं, तो उतनी गम्भीरता से वे दी गयी विवेचना का कार्य नहीं कर पाते हैं, जितनी दक्षता से उन्हें विवेचना कार्य करना चाहिए। इससे विवेचना की गुणवत्ता पर भी, असर पड़ता है जिसका प्रभाव अदालत में ट्रायल पर भी पड़ता है।

1980 से राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की रिपोर्ट में यह संस्तुति धूल खा रही है कि, विवेचना और कानून व्यवस्था यानी लॉ एंड ऑर्डर के लिये अलग अलग पुलिस तंत्र की व्यवस्था की जाय। 2007 से प्रकाश सिंह की याचिका के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट भी कह रहा है कि, पुलिस सुधार लागू किये जांय। पर इस पर किसी भी सरकार का कोई ध्यान नही है। किसी भी सरकार को विधिपालक पुलिस नहीं रास आती है, उसे जी जहाँपनाह पुलिस अधिक सुहाती है। यह एक तल्ख हक़ीक़त है।

अमूमन जिला पुलिस से तफ़्तीशों को इसलिए भी सीबीआई में स्थानांतरित किया जाता है, जिससे जो कुछ भी राजनीतिक दबाव हो, स्थानीय पुलिस पर पड़ रहा है, वह सीबीआई के ऊपर न पड़े और बिना किसी बाहरी अवैध दबाव के सीबीआई उस विवेचना को पूरा कर सके। लेकिन अब यह तर्क अविवादित नहीं रहा है। सीबीआई के खिलाफ भी राजनीतिक दबाव के सामने झुक जाने की शिकायतें आने लगीं है। 2012 में सीबीआइ को सुप्रीम कोर्ट ने तो केज्ड पैरट यानी पिजड़े में बंद तोता कह दिया था और मजेदार बात यह है कि, तत्कालीन सीबीआई प्रमुख ने प्रेस के सामने सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से सहमति भी जता दी थी।

आज कल पिछले कई हफ़्तों से हम टीवी पर सुशान्त केस के इन्वेस्टिगेशन के संबंध में जो बातें देख और सुन रहे हैं, उससे लगता है कि, या तो टीवी पत्रकार अपनी कोई समानांतर जांच चला रहे हैं या सीबीआई से उन्हें कोई नियमित ब्रीफ कर रहा है। यह ब्रीफिंग, न्यूज़ वैल्यू के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि प्रोपेगैंडा मैटेरियल के रूप में हो रही है। जो भी हो, दोनो ही स्थितियों में यह प्रथा अनुचित है।

जिला पुलिस के पास चूंकि कानून व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है तो उसे ऐसे हाई प्रोफाइल मामलों में प्रेस को ब्रीफ करना ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि शहर या लोगो की सब जानने की उत्कंठा बनी रहती है, और ऐसे चर्चित मामलो में कुछ न कुछ सार्थक परिणाम लाने का दबाव भी पुलिस पर लगातार पड़ता रहता है।  ऐसे में थोड़ी बहुत चीज़े, प्रेस को ब्रीफ कर दी जाती हैं, जिससे प्रेस भी संतुष्ट हो जाय और यह सतर्कता भी बरती जाती है जिससे, जांच की गोपनीयता भी बनी रहे। अगर प्रेस को अधिकृत रूप से कुछ खबरे नहीं दी जाएंगी तो वे फिर सूत्रों के हवाले से खबरें छापेंगे और यह अदृश्य सूत्र, उनकी कल्पनाशीलता भी हो सकती है। क्योंकि उन पर भी ऐसी महत्वपूर्ण जांचों के अपडेट करने का दबाव रहता है।

पुलिस इन्वेस्टिगेशन या जांच और अदालत के ट्रायल में मौलिक अंतर है। पुलिस इन्वेस्टिगेशन या जांच एक गोपन प्रक्रिया है। सीबीआई या सीआईडी या एसटीएफ या कोई भी अन्य जांच एजेंसी अगर कोई इन्वेस्टिगेशन या जांच कर रही है, तो एजेंसी के बॉस और उक्त केस के विवेचक तथा सुपरवाइजरी अधिकारी के अतिरिक्त किसी को भी, उक्त इन्वेस्टिगेशन की अधिकृत जानकारी नहीं साझा की जाती है और अमूमन कोई पूछता भी नहीं है।

जबकि ट्रायल एक खुली अदालत में होता है। सारी गवाही, जिरह, बहस जनता के सामने होती है और सबके लिये सुलभ रहती है। उसमें कोई भी जाकर अदालत की कार्यवाही देख सकता है और उसे छाप सकता है। पर कुछ ट्रायल इन कैमरा भी होते है यानी बंद दरवाजे में, तो ऐसे ट्रायल को लोग नहीं देख सकते हैं। अदालत के बाहर उक्त ट्रायल से जुड़े पक्ष विपक्ष के वकील या वादी प्रतिवादी से टीवी पत्रकार पूछते भी हैं और उनकी बाइट भी लेते हैं।

जिस तरह से सीबीआई जांच की कमेंट्री और विवरण, चटखारे ले लेकर टीवी चैनलों पर दिखाया जा रहा है, उसका उद्देश्य जो भी हो, और इससे भले ही, किसी का कोई  मक़सद हल हो पर, इससे इस केस की इन्वेस्टिगेशन पर असर भी पड़ सकता है और जब जांच के निष्कर्ष, टीवी द्वारा गढ़े गए, परसेप्शन के विपरीत जाते हैं तो जांच के ऊपर ही अनेक सवाल उठने लगते हैं और जांच एजेंसी की विश्वसनीयता को भी आघात पहुंचता है।

सीबीआई में भी जनसम्पर्क और प्रेस से लाइजन के लिये पीआरओ का पद होता है। उत्तर प्रदेश में भी डीजीपी मुख्यालय में एक पीआरओ का पद है जहां एडिशनल एसपी स्तर का अधिकारी नियुक्त रहता है। मैं 1995 - 96 में डीजीपी हेडक्वार्टर में पीआरओ रह चुका हूं। पीआरओ, महत्वपूर्ण केसों की विवेचना की प्रगति के बारे में प्रेस रिलीज जारी करता है और प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ सवालों के जवाब भी देता है। यदि, कोई महत्वपूर्ण निष्कर्ष होता है तो, पुलिस या सीबीआई के बड़े अफसर भी प्रेस के सामने आते हैं, और अपनी बात रखते हैं।

लेकिन, यह भी सही है कि, ऐसी प्रेस रिलीज या प्रेस वार्ता से टीवी चैनलों को ऐसी सामग्री नहीं मिल सकती है जिससे वे मसालेदार, ब्रेकिंग न्यूज़ की हेडिंग बना सकें। उनका उद्देश्य खबर देना नहीं खबर परोसना है और जब खबर परोसी जाएगी तो तीखी, चटपटी और मसालेदार बनानी ही होगी। अन्यथा वह न लोगो का ध्यान खींचेगी और न दिलचस्पी बनाये रखेगी जैसा कि सस्पेंस वाले क्राइम थ्रिलर सीरियल बनाये रखते हैं।

दस्तावेज, बयानों के शब्दशः विवरण, व्हाट्सएप्प चैट, आदि आदि, जो, टीवी स्क्रीन पर सार्वजनिक हो रहे हैं वे, विवेचना के अंग है और सुबूत के दस्तावेज हैं और, उन्हें जब तक अदालत में प्रस्तुत न कर दिया जाय, सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। पर इस विवेचना पर जैसी हास्यास्पद टीवी रिपोर्टिंग हो रही है उसे क्या कहा जाय।

सीबीआई को अधिकृत प्रेस वार्ता करके, इस मामले में, अगर अब तक कोई प्रगति हुयी है, और यदि इससे केस की इन्वेस्टिगेशन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो, उसे प्रेस को  बता देना चाहिए और टीवी चैनल्स को  अनावश्यक रूप से अपनी कल्पना से गढ़ी गयी जांच प्रगति को, जो केवल सनसनी फैलाने के लिये प्रसारित किया जा रहा है को,  रोकने के लिए भी कहा जाना चाहिये। मीडिया इन्वेस्टिगेशन की यह परंपरा गलत है और इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday, 25 August 2020

सुप्रीम कोर्ट, माफी का आग्रह और महात्मा गांधी / विजय शंकर सिंह

इन ट्वीट्स से 'न्यायपालिका की चूलें हिल गयीं हैं,' ऐसा माननीय न्यायमूर्तियों ने 14 अगस्त को प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराते हुए कहा था। अब भारतीय न्यायपालिका के ऊपर कभी केरल हाई कोर्ट के एक समारोह में बोलते हुए देश के प्रसिद्ध कानूनविद और जज जस्टिस कृष्ण अय्यर ने जो कहा था, उसे पढ़े।

जस्टिस अय्यर ने कहा था,
इस देश में ईसा मसीह तो सूली पर चढ़ रहे हैं और जल्लाद न्यायपालिका की कृपा से बच रहे हैं।  एक अंदरूनी जानकार होने के कारण मैं बहुत सी बातें खुलकर नहीं कह रहा हूं। हमारा न्यायिक अप्रोच कई बार सभ्य बर्ताव से पृथक हो जाता है। साफ साफ कहूं तो भारतीय न्यायपालिका अस्तित्वहीन ही हो गई है।

इस पर तब भी बवाल मचा था। अवमानना की बाते तब भी उठी थीं। लेकिन हाईकोर्ट ने कहा, यह टिप्पणी उन्हें उनकी कार्यशैली में सुधार के लिये प्रेरित करेगी।

आज कहा जा रहा है,
हम सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं, हमे आपस मे ही एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए। एक दूसरे से मिल बैठ कर रहना चाहिए।
यही शब्द तो न्यायमूर्ति अरुण मिश्र ने नहीं कहा लेकिन जो आपसी भाईचारे जैसी चीज कही, उसका मूल आशय यही था।

सुप्रीम कोर्ट के प्रति किसी के मन मे निरादर का भाव नहीं है। वही तो किसी भी कठिन समय मे एक प्रकाश स्तम्भ सा दीखता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट यह तो कहता है कि वह स्वस्थ आलोचना का स्वागत करता है, लेकिन जब स्वस्थ आलोचना होने लगती है तो अपनी झेंप को अवमानना के आरोप के पीछे छुपाने लगता है।

न्यायपालिका एक संस्थागत अहमन्यता के प्रभामंडल में जीता है। अदालत में ऊंचे डायस पर बैठे हुए न्यायमूर्ति में वादी प्रतिवादी सबकी आशाएं समाहित हो जाती है। जो भी आदेश होता है पक्ष विपक्ष सभी उसे स्वीकार करते है। अगर निर्णय से असहमत हैं तो अपील करते हैं और अगर निर्णय सुप्रीम कोर्ट का है तो रिव्यू, क्यूरेटिव पिटीशन आदि कानूनी उपचार भी होते हैं।

लेकिन इन विविध उपचारों के पीछे यह सोच है  कि, पीठासीन अधिकारी, चाहे वह एक मैजिस्ट्रेट हो या सुप्रीम कोर्ट का न्यायमूर्ति, मूलतः मनुष्य ही होता है और मनुष्य गलत्तिया कर सकता है। इसी आधार पर यह भी सोचना चाहिए कि, मनुष्य भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, पक्षपातवाद भी कर सकता है। पर आज तक न्यायपालिका ने ऐसा कोई तंत्र गठित या विकसित करने की बात नहीं सोची, जिससे न्यायपालिका में व्याप्त अंदरूनी कदाचार की जांच हो सके या दोषी को दंडित कर सके।

यह काम सरकार या कार्यपालिका नहीं करेगी। अगर ऐसा होता है तो इसे न्यायपालिका अपने क्षेत्र में हस्तक्षेप और संवैधानिक चेक और बैलेंसेस के सिद्धांत के उल्लंघन की बात करेगी। यह हो भी सकता है कि, न्यायपालिका में सेंधमारी करने का एक रास्ता सरकार को मिल भी जाय। फिर यह और भी विकट स्थिति होगी।अतः अपने घर को साफ सुथरा रखने का दायित्व न्यायपालिका को लेना ही होगा। इससे न केवल न्यायतंत्र सुदृढ होगा, वह साफ सुथरा होगा, बल्कि जनता का भरोसा भी न्यायपालिका के प्रति बढ़ेगी और न्यायपालिका की साख जो इधर गिरी है उस पर भी रोक लगेगा।

20 अगस्त, औऱ आज 25 अगस्त की अदालत की पूरी कार्यवाही को अगर गम्भीरता से पढ़े तो जब जब, 2009 के तहलका इंटरव्यू में जजो के ऊपर भ्रष्टाचार और प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे में उल्लिखित जजो के भ्रष्टाचार की बात, चाहे वह प्रशांत भूषण के वकील, दुष्यंत दवे ने उठाया हो, या राजीव धवन ने या अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने, तब तब अदालत असहज हुयी और भ्रष्टाचार के आरोपों वाले उस अंश को अदालत में पढने से रोक भी दिया। अंत मे आज 25 अगस्त को, उनमे से कुछ अंश पढ़े और फिर अदालत ने यह मामला बड़ी बेंच को संदर्भित कर दिया, जिसकी तारीख 10 सितंबर को पड़ी है।

जस्टिस अरुण मिश्र ने गांधी जी को उद्धृत करते हुए जो कहा है, वह तो बेहद आपत्तिजनक है। गांधी जी ने अपने पूरे जीवनकाल में ऐसी परिस्थितियों में कभी भी माफी नहीं मांगी। जस्टिस अरुण मिश्र ने गांधी जी के बारे में जो कहा है, उसे पहले पढिये,

" आप ही बताइए, माफी शब्द के प्रयोग में क्या बुराई है ? माफी मांगने में क्या बुरा है ? माफी मांग लेने से क्या आप दोषी हो जाएंगे ? माफी एक जादुई शब्द है। यह कई ज़ख्मो को भर देता है। मैं यह बात सामान्य रूप से कह रहा हूँ, न कि प्रशांत भूषण के मामले में। यदि आप क्षमा याचना करते हैं तो, इससे आप महात्मा गांधी की श्रेणी में आ जाएंगे। गांधी जी भी माफी मांगा करते थे। यदि आप ने किसी को आहत किया है तो उस पर आप ही को मलहम लगाना है । माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता है।"

अब गांधी जी से जुड़ा एक प्रकरण, यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसे भी पढ़ लें।

मोहनदास करमचंद गांधी और महादेव हरिभाई देसाई "यंग इंडिया" नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक और प्रकाशक थे। अहमदाबाद के जिला मजिस्ट्रेट (श्री बीसी कैनेडी) की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखे गए एक पत्र को प्रकाशित करने और उस पत्र के बारे में टिप्पणी प्रकाशित करने के कारण उनके खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू की गई।

मजिस्ट्रेट कैनेडी द्वारा लिखा गया पत्र अहमदाबाद कोर्ट के वकीलों के बारे में था, जिन्होंने "सत्याग्रह प्रतिज्ञा" पर हस्ताक्षर किए थे और रोलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था। यह पत्र 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में शीर्षक ओ डायरिज़्म इन अहमदाबाद के साथ प्रकाशित किया गया था। दूसरे पृष्ठ पर आलेख का शीर्षक शेकिंग सिविल रेजिस्टर्स था।

लगभग दो महीने बाद, हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी जी को 20 अक्टूबर 1919 को चीफ जस्टिस के कक्ष में उपस्थित होने का अनुरोध करते हुए एक पत्र लिखा और उन्हें पत्र के प्रकाशन और उस पर टिप्पणियों के बारे में अपना स्पष्टीकरण देने को कहा।

गांधी जी ने कहा, "मेरा विनम्र विचार है कि उक्त पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना, एक पत्रकार के रूप में मेरे अधिकारों के तहत था। मेरा विश्वास था कि पत्र सार्वजनिक महत्व का है और उसने सार्वजनिक आलोचना का आह्वान किया है।"
रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी जी को फिर से लिखते हुए कहा कि चीफ जस्टिस ने उनके स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं पाया। फिर उन्होंने 'माफी' का एक प्रारूप दिया और उसे 'यंग इंडिया' के अगले अंक में प्रकाशित करने के लिए कहा।

गांधी ने रजिस्ट्रार जनरल को फिर पत्र लिखा। उन्होंने 'माफी' प्रकाशित करने से इनकार करते हुए खेद व्यक्त किया और अपना 'स्पष्टीकरण' दोहराया। उन्होंने अपने पत्र में कहा, "माननीय, क्या इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, मैं सम्मानपूर्वक उस दंड को भुगतना चाहूंगा जो माननीय मुझे देने की कृपा कर सकते हैं।"

इसके बाद, हाईकोर्ट ने गांधी और देसाई को कारण बताओ नोटिस जारी किया। दोनों अदालत में पेश हुए। गांधी ने अदालत को बताया कि उन्होंने जिला जज पर जज के रूप में नहीं, बल्‍कि एक व्यक्ति के रूप में टिप्पणी की थी।
"अदालत की अवमानना ​​का पूरा कानून यह है कि किसी को कुछ भी नहीं करना चाहिए, या अदालत की कार्यवाही पर टिप्पणी करना, जबकि मामला विचाराधीन हो। हालांकि यहां जिला मजिस्ट्रेट ने निजी स्तर पर कोई कार्य किया था।"

महात्मा गांधी ने अपने बयान में कहा था, "मेरे खिलाफ जारी किए गए अदालत के आदेश के संदर्भ में मेरा कहना है: - आदेश जारी करने से पहले माननीय न्यायालय के रजिस्ट्रार और मेरे बीच कुछ पत्राचार हुआ है।

11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा था, जिसमें पर्याप्त रूप से मेरे आचरण की व्याख्या की गई थी। इसलिए, मैं उस पत्र की एक प्रति संलग्न कर रहा हूं। मुझे खेद है कि माननीय चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सलाह को स्वीकार करना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके अलावा, मैं सलाह को स्वीकार करने में असमर्थ हूं क्योंकि मैं यह नहीं समझता कि मैंने मिस्टर कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उसके विषय में टिप्पणी करके कोई कानूनी या नैतिक उल्लंघन किया है।

मुझे यकीन है कि माननीय न्यायालय मुझे तब तक माफी मांगने को नहीं कहेगा, जब तक कि यह सच्‍ची हो और एक ऐसी कार्रवाई के लिए खेद व्यक्त करने के लिये कहेगा, जिसे मैंने एक पत्रकार का विशेषाधिकार और कर्तव्य माना है।

सम्पूर्ण गांधी वांग्मय में संभवतः एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा, जिससे यह आभास होता हो कि महात्मा गांधी ने कभी ऐसी परिस्थितियों में माफी मांगी हो। न तो अपने दक्षिण अफ्रीका के प्रवास के दौरान और न ही भारत मे। अब यह मामला, केवल एक व्यक्ति को दंडित करने या न करने का नहीं रह गया है, बल्कि यह मामला, न्यायपालिका की साख का है और साख के लिये यह ज़रूरी है कि, न्यायपालिका अपना अन्तरावलोकन करे और ऐसे कदम उठाए जिससे इस चौथे खंभे में दीमक न लगे और इसका क्षरण रुक सके ।

( विजय शंकर सिंह )

खामोश अदालत जारी है - प्रशांत भूषण के खिलाफ मुकदमा / विजय शंकर सिंह

24 अगस्त तक के समय के बाद आज 25 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की बेंच जस्टिस अरुण मिश्र की अध्यक्षता में बैठी। प्रशांत भूषण, उनके वकील डॉ राजीव धवन और अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल अदालत मे उपस्थित थे। 
 
कार्यवाही शुरू हुयी। सुनवाई के दौरान, जस्टिस अरुण मिश्र ने अटॉर्नी जनरल से पूछा, कि प्रशांत भूषण को, इस मामले में क्या दंड दिया जाय ? 

इस पर अटॉर्नी जनरल ने उन पांच जजों तथा कुछ जजो के खिलाफ जो बातें प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में कही थी, के बारे में पढ़ना शुरू किया। फिर कहा, 
उन्हें सजा नहीं दी जानी चाहिए। अदालत को ऐसे मामलों में उदारता दिखानी चाहिए। प्रशांत भूषण ने जो कहा है वह तो कई पूर्व सुप्रीम कोर्ट के जज भी कह चुके हैं। अतः सुप्रीम कोर्ट को न्याय तंत्र में सुधार के लिये सोचना चाहिए, न कि प्रशांत भूषण को अनावश्यक सज़ा देने के बारे में। या तो उन्हें छोड़ दिया जाय या अधिक से अधिक चेतावनी दे दी जाय। 

सुनवाई जारी है। 
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि, प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के दो मामले चल रहे हैं। 

● एक मामला तहलका इंटरव्यू के बारे में है जिंसमे कुछ जजो के बारे में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे, औऱ वह 2009 से लंबित है। उस मामले में तहलका के संपादक तरुण क्षेत्रपाल सुप्रीम कोर्ट में पहले ही माफी मांग चुके है। पर उस मामले में भी प्रशांत भूषण ने माफी नहीं मांगी थी। वह भी सुनवाई के लिये आज लगा था। 

अदालत ने वह मामला बड़ी बेंच को रेफर कर दिया है और इसकी तारीख, 10 सितंबर रखी गयी है। अब इसमें सुनवाई नयी बेंच और नए जजो की पीठ करेगी। 

● दूसरा मामला दो ट्वीट के बारे में है। एक मोटरसाइकिल पर बैठे सीजेआई की फ़ोटो पर कमेंट के बारे में और,
दूसरा लॉक डाउन में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मानवाधिकारों से जुड़े मामलों में कार्यवाही न करने और यह कहने पर कि पिछले छह सालों, औऱ विशेषकर आखिरी चार सीजेआई के कार्यकाल पर एक टिप्पणी है। इन ट्वीट के मामले में अभी सुनवाई चल रही। प्रशांत भूषण को अदालत दोषी घोषित कर चुकी है। अब सज़ा कितनी दी जाय और क्या दी जाय, इस पर बहस हो रही है। 

बेंच ने फिर कहा है कि 
" प्रशांत भूषण को माफी मांगने के बारे में सोचने के लिये क्या और अवसर दिया जाना चाहिए। "
अभी इसका जवाब प्रशांत भूषण के एडवोकेट राजीव धवन दे रहे हैं। 

अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने अदालत से सजा न देने के लिये कहा है। 

सुनवाई अभी चल रही है। 
अब आधे घँटे के लिये प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही रुक गयी है। 

इसके बाद जब सुनवाई शुरू होगी तो फिर से बेंच, प्रशांत भूषण और उनके वकील राजीव धवन से बात करेगी। 

अजीब कशमकश है। अदालत चाहती है कि मुल्ज़िम अफसोस जता कर उसे ही इस अजीब धर्मसंकट से बचाये और यह मामला खत्म हो। 

अब मुल्ज़िम और उसके वकील क्या चाहते हैं, यह आधे घँटे के बाद। 

सुनवाई अभी जारी है। 
आधे घँटे के बाद अदालत बैठी। और अब प्रशांत भूषण ने प्रशांत भूषण के एडवोकेट राजीव धवन ने अपनी बात कहनी शुरू की।

राजीव धवन ने कहा, 
" मैंने एक हज़ार लेख सुप्रीम कोर्ट के बारे मे लिखा है और यह तक लिखा है कि, सुप्रीम कोर्ट एक मिडिल क्लास मानसिकता से ग्रस्त है। 
तो क्या मैंने अदालत की अवमानना की है ? 

जस्टिस अरुण मिश्र जब कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे तब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि, न्याय बिकता है औऱ उसे पैसे से खरीदा जा सकता है। 

तब क्या अदालत की अवमानना नहीं हुयी थी ? 
तब जस्टिस अरुण मिश्र ने ममता बनर्जी के खिलाफ अदालत की अवमानना का मुकदमा क्यों नहीं की चलाया। तब स्वतः संज्ञान क्यों नहीं लिया। " 

आगे कहा, 
बार बार अदालत का माफी माँगने के लिये कहना और बिना शर्त माफी मांगने का आदेश देना, और फिर बार बार समय देना, यह तो मुल्ज़िम पर माफी मांगने के लिये बेजा दबाव देना हुआ । 

बहस अब दिलचस्प मोड़ पर है। अभी सुनवाई जारी है। 
■ 
अब बहस अवमानना कानून की धारा 13 के अंतर्गत सज़ा क्यों नहीं दी जा सकती, इस पर चल रही है। 

राजीव धवन ने यह कहा कि,
एक्ट में ही कहा गया है कि अगर आरोप झूठ साबित होते हैं तभी सज़ा दी जा सकती है। प्रशांत भूषण के दिये गए तथ्यो पर तो कोई चर्चा ही नही हुयी, फिर इसे कैसे अवमानना माना जा सकता है।

आगे कहा है कि, 
अवमाननाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के प्रति अपना सर्वोच्च सम्मान रखने की भावना स्पष्ट की है। उसने यह नही कहा कि, लॉक डाउन में सुनवाई नहीं हुई, बल्कि उसने यह कहा कि, मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों को प्राथमिकता नहीं दी गई, जिसे देना चाहिए था। 

यह भी कहा कि, 
प्रशांत भूषण ने, अपना हलफनामा जो उन्होंने अपने बचाव में दिया है उसे वापस नहीं लेंगे। उसमे दिया गया एक एक आरोप सत्य पर आधारित है। मेरे मुवक़्क़ील ने कोई अवमानना नहीं की है। 

अब माफी क्या है ? इस पर बहस चल रही है। सुनवाई अभी जारी है।
■ 
एक बार फिर जस्टिस अरुण मिश्र ने प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन से पूछा कि क्या सज़ा दी जाय। 

इस पर राजीव धवन ने कहा कि, 
आप स्टेट्समैन शिप दिखाइए और दोषी घोषित करने वाला निर्णय वापस ले लीजिए। 
या 
जो उचित समझे वह सज़ा दे दें। 

इस पर जस्टिस मिश्र ने कहा कि प्रशांत भूषण भी एक कोर्ट के आफिसर हैं अतः उन्हें ऐसी बात नही बोलनी चाहिए थी और न ही प्रेस में जाना चाहिए। हमे बहुत सी ऐसी बातें एक दूसरे के बारे में पता होती हैं। हमे एक दूसरे को संरक्षण देना चाहिए। 

इस पर प्रशांत भूषण ने कहा, 
मैं कोर्ट के ऑफिसर या न्याय तंत्र का हिस्सा हूँ, इसीलिए जो कमियां मैं देख रहा हूँ, उसे अदालत के ही संज्ञान में तो ला रहा हूँ। 

अजीब तर्क है जस्टिस मिश्र का कि हमे एक दूसरे की कमियों को मिल कर छुपाए रखना चाहिए। 
सुनवाई अभी जारी है ।
■ 
अंत मे अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल से उनकी अंतिम सलाह मांगी गयी। अटॉर्नी जनरल ने अंतिम मशविरे के रूप में कहा कि, 
इसमे एक और पक्ष है । वह पक्ष है वे भूतपूर्व जज जिनका उल्लेख बचाव मे कहा गया है। क्या आप उनका भी पक्ष सुनेंगे ? 

जब उनका पक्ष ही नहीं सुना गया तो, फिर यह अवमानना कैसे हुयी ? अब यह केस और भी उलझता जा रहा है। अतः बेहतर है, यह मामला यही समाप्त कर दिया जाना चाहिए। 

सज़ा के बारे में वे पहले ही कह चुके हैं कि सज़ा नहीं दी जानी चाहिए। 
अभी सुनवाई जारी है। 
■ 
सुनवाई पूरी हुई। फैसला सुरक्षित।

अंत मे जस्टिस मिश्र ने कहा कि माफी मांगना बुरा नहीं है। माफी व्यक्ति को महान बनाती है। गांधी जी भी माफी मांगते थे। 

फिर तुरंत कहा कि, 
वे यह बाद सामान्यतः कह रहा हूँ। प्रशांत भूषण के संदर्भ में नहीं। 

लेकिन यहाँ जस्टिस अरुण मिश्र गांधी जी के बारे में, बिल्कुल गलत तथ्य कह रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में गांधी जी ने माफी कभी भी नहीं मांगी थी। 

डॉ Rakesh Pathak का यह प्रोग्राम देख सकते हैं। गांधी जी ने कभी भी अंग्रेजी अदालत से माफी नहीं मांगी थी।
ऐसे थे हमारे बापू         
(Episode-5)
https://youtu.be/dkPdK4EizIs
■ 
जस्टिस अरुण मिश्र ने प्रशांत भूषण मामले में गांधी जी के संदर्भ में, आज 25 अगस्त को अदालत में जो कहा, वह यह है, 

"Tell us what is wrong in using the word 'apology'? What is wrong in seeking apology? Will that be reflection of the guilty? Apology is a magical word, which can heal many things. I am talking generally and not about Prashant. You will go to the category of Mahatma Ganghi, if you apologise. Gandhiji used to do that. If you have hurt anybody, you must apply balm. One should not feel belittled by that", 
( Justice Mishra )

" आप ही बताइए, माफी शब्द के प्रयोग में क्या बुराई है ? माफी मांगने में क्या बुरा है ? माफी मांग लेने से, क्या आप दोषी हो जाएंगे है ? माफी एक जादुई शब्द है। यह कई ज़ख्मो को भर देता है। मैं यह बात सामान्य रूप से कह रहा हूँ, न कि प्रशांत भूषण के मामले में। यदि आप क्षमा याचना करते हैं तो, इससे आप महात्मा गांधी की श्रेणी में आ जाएंगे। गांधी जी भी माफी मांगा करते थे। यदि आप ने किसी को आहत किया है तो उस पर आप ही को मलहम लगाना है । माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता है।" 
( जस्टिस अरुण मिश्र )

माफी के संदर्भ में जस्टिस अरुण मिश्र का यह संदर्भ तथ्यो के सर्वथा विपरीत है। 
अब अदालती कार्यवाही समाप्त हुयी और फैसला सुरक्षित है। 

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 24 August 2020

न्यायपालिका को अपने आंतरिक दोषों से खुद ही निपटना होगा / विजय शंकर सिंह

लोकतंत्र को खतरा, सवाल उठाने से नहीं सवालों पर चुप्पी और मूल मुद्दों को नजरअंदाज करने से है। सुप्रीम कोर्ट ने ही कभी, कहा था,
" लोकतंत्र को बड़ा खतरा, लोक विमर्श को हतोत्साहित करने से है। जो विचार और सिद्धांत समाज के लिये हानिकारक हैं उनसे वैचारिक बहस से ही लड़ा जाना चाहिए।" 
प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामला के साबित हो जाने के बाद, अब केवल अदालत द्वारा सज़ा की औपचारिकता ही शेष है, जो 25 अगस्त तक पूरी हो सकती है। पर इस मामले ने अवमानना को लेकर कुछ अहम सवाल उठाए हैं। 

प्रशांत भूषण के दो ट्वीटों और 2009 के तहलका इंटरव्यू पर  अवमानना यह का मामला टिका है। 
●  एक   ट्वीट में, जिंसमे सीजेआई को एक महंगी मोटर साइकिल पर बैठे दिखाया गया है, पर अदालत ने इसे अवमानना नहीं माना है। 
● दूसरा ट्वीट जिस पर लॉक  डाउन में सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली का उल्लेख है और यह कहा गया है कि पिछले 6 सालों और विशेषकर पिछले चार सीजेआई के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली, मौलिक अधिकारों के संरक्षण के रूप के सन्देह के घेरे में है। 
● तीसरा मामला 2009 का तहलका को दिए गए इंटरव्यू से जुड़ा है जिंसमे सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार आदि के आरोप लगाए गए हैं। 

इस प्रकार, प्रशांत भूषण ने दो सवाल उठाए हैं, एक, सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों के प्रति अपना दायित्व निर्वहन उस प्रकार नहीं किया जिस प्रकार, उसे करना चाहिए था, और दूसरा, सुप्रीम कोर्ट में भी उच्चतम स्तर पर भ्रष्टाचार की शिकायतें हैं और उन पर कभी बात नहीं होती है और उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। प्रशांत भूषण के खिलाफ इस अवमानना मामले ने, जहां तक मौलिक अधिकारों की बात है, सुप्रीम कोर्ट की संविधान और मौलिक अधिकारों के संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता तथा दायित्व, तथा न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को बहस के केंद में ला दिया है। हाल ही में, कुछ मामलों के द्वारा, सुप्रीम कोर्ट ने, सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैसे देखा है इस पर एक संक्षिप्त चर्चा करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर, जनवरी से अब तक के कुछ फैसलो का एक संक्षिप्त विवरण देखें तो कुछ अजीब विरोधाभास मिलते हैं, जो सुप्रीम कोर्ट को ही कठघरे में खड़े करते हैं। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त, एक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है। भारत मे अभिव्यक्ति की आज़ादी की अवधारणा बहुत पुरानी है और इसी अवधारणा के कारण शास्त्रार्थ की परंपरा विकसित हुयी जिससे दर्शन और दार्शनिक चिंतन परंपरा की नींव पड़ी। राज्य के विरुद्ध, अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के लिये अदालत में दायर याचिका को, राज्य बनाम नागरिक अधिकार का एक महत्वपूर्ण मामला माना जाता है। लेकिन इस साल जनवरी से अब तक कुछ मामलों की इंडियन एक्सप्रेस अखबार द्वारा एक समीक्षा की गयी तो, उन्हें लेकर एक दिलचस्प निष्कर्ष सामने आ रहा है। इन सभी मामलों में याचिकाकर्ता, अपनी अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की रक्षा के लिये अदालत गया, और किसी को वहां राहत मिली तो किसी को राहत नहीं मिल सकी। 

जनवरी 2020 के बाद जो पहला मुकदमा था, जिंसमे सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को राहत दी थी वह रिपब्लिक टीवी के अर्नब गोस्वामी का था। अर्नब गोस्वामी में 21 अप्रैल को महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं और उनके वाहन चालक की पीट पीट कर हत्या कर देने के मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के विरुद्ध कुछ टिप्पणी की थी।  जिस पर मुम्बई सहित  अन्य जगहों पर अर्नब गोस्वामी के खिलाफ अभियोग पंजीकृत कराया गया था। यह मामला राजनीतिक मोड़ ले चुका था और अर्नब का बयान और उनके खिलाफ कराये गए दर्ज सभी मुकदमे भी राजनीति से प्रेरित थे। अर्नब ने इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात कहा और सुप्रीम कोर्ट से सभी दर्ज एफआईआर को रद्द करने का आदेश देने का अनुरोध किया। 19 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक एफआईआर को छोड़ कर शेष दर्ज सभी एफआईआर रद्द कर दिया और यह कहा कि, यह कानूनी प्राविधान का दुरुपयोग है। 

इसी प्रकार न्यूज़ 18 के एंकर और पत्रकार, अमिश देवगन पर, धार्मिक भावनाओं को भड़काने का आरोप लगाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने न केवल इन एफआईआर की विवेचनाओं को स्थगित कर दिया बल्कि सभी दर्ज एफआईआर को विवेचना के लिये नोयडा, गौतमबुद्ध नगर में स्थानांतरित कर दिया। 

अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के मामले में, भारत सरकार का पक्ष सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने रखा था, जिन्होंने अदालत से इन दोनों पत्रकारों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने की दलील दी थी। अर्नब गोस्वामी के मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने महाराष्ट्र पुलिस के विरुद्ध अपनी दलील दी थी और पालघर साधू भीड़ हिंसा के मामले में पुलिस के भूमिका की आलोचना भी । उन्होंने इस मुकदमे की जांच, सीबीआई को भी स्थानांतरित करने की बात भी कही थी। 

26 जून को अवकाशकालीन, दो जजो की बेंच ने पत्रकार नुपुर शर्मा को, उनके खिलाफ, पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा दर्ज मुकदमे में,  इकतरफा सुनवाई करते हुए स्थगनादेश दे दिया और किसी भी अग्रिम दंडात्मक कार्यवाही पर रोक लगा दिया। अपनी याचिका में नूपुर शर्मा ने केंद्रीय सरकार को भी एक पक्ष बनाया था, पर अदालत ने बिना पश्चिम बंगाल पुलिस और केंद्रीय सरकार को सुनें ही, नूपुर शर्मा को पहली सुनवाई पर ही राहत दे दी। 

अब कुछ उन मामलों की चर्चा करते हैं, जो उपरोक्त मामलो की ही तरह अभिव्यक्ति के विरुद्ध सरकारी कार्यवाही के हैं, पर उन पर सुप्रीम कोर्ट ने अलग दृष्टिकोण अपनाया और इन्हें, अर्नब गोस्वामी, अमीश देवगन और नूपुर शर्मा की तरह राहत नहीं मिल सकी। 

हरियाणा के कांग्रेस नेता पंकज पूनिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 30 मई को सुनवाई करते हुए दखल देने से इनकार कर दिया था। पंकज पूनिया के भी खिलाफ उनके एक ट्वीट को लेकर, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में अनेक मुकदमे दर्ज कराए गए हैं। यह मुकदमे भी, अर्नब गोस्वामी के खिलाफ दर्ज कराए गए मुकदमो की तरह राजनीतिक दृष्टिकोण से दर्ज कराए गए हैं। लेकिंन अर्नब गोस्वामी को जहां सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी, वहीं पंकज पूनिया के मामले में, अदालत ने दखल देने से इनकार कर दिया। 

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र शरजील इमाम के एक आपत्तिजनक भाषण पर, उनके खिलाफ, पांच राज्यो, असम, अरुणांचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मणिपुर में देशद्रोह और घृणा वक्तव्य, हेट स्पीच का एक मुकदमा दायर किया गया। शरजील इमाम ने, 26 मई को, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके, सुप्रीम कोर्ट से यह अनुरोध किया कि, इस सभी मुकदमो को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया जाय। पर अब तक शरजील की यह याचिका लंबित है। पिछले ही सप्ताह यह मुकदमा, आदेश के लिये सुप्रीम कोर्ट में लंबित था, पर अदालत ने इसे अगले एक हफ्ते के लिये टाल दिया। 

जैसे दो पत्रकारों, अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के खिलाफ विवादास्पद एंकरिंग करने और हेट स्पीच का मामला दर्ज है और उन्हें सुप्रीम कोर्ट से तुरंत राहत मिल गयी, वैसे ही प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भी हिमाचल प्रदेश में देशद्रोह, सेडिशन का एक मुकदमा, कुमारसाई पुलिस थाने दर्ज है। विनोद दुआ ने भी अदालत से स्थगन आदेश के लिये सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है, पर सुप्रीम कोर्ट ने जितनी तेजी और आसानी से अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन को राहत दी, विनोद दुआ के मामले में, सुप्रीम कोर्ट का स्टैंड उससे, बिल्कुल अलग रहा। 

21 अगस्त शुक्रवार को विनोद दुआ के मामले में अदालत ने उनके वकील को सुना। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता इस मामले में अदालत में, कह चुके हैं कि, विनोद दुआ के मामले को अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के मामलों की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन, दोनो ही की तरफ से सॉलिसिटर जनरल अदालत में उपस्थित हो चुके है। यानी सरकार उक्त दोनों पत्रकारो के मामले में, उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ थी, पर विनोद दुआ के मामले में वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में खड़ी नहीं दिख रही है। क्या केवल इसलिए कि, विनोद दुआ सरकार के आलोचक पत्रकार हैं और अर्नब गोस्वामी तथा अमीश देवगन, सरकार और सरकारी दल के एजेंडे के ध्वजवाहक हैं ? 

अब एक और दिलचस्प मामला है गोरखपुर के डॉ कफील खान का। गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कफील खान से उत्तर प्रदेश सरकार की नाराजगी 2017 के अगस्त से है जब अस्पताल में, कई बच्चों की ऑक्सिजन की कमी से इलाज के दौरान नृत्यु हो गयी थी। इसकी जांच हुयी और जांच में डॉ कफील खान को अब तक दोषी नहीं पाया गया है। बाद में डॉ कफील खान ने मेडिकल कॉलेज से त्यागपत्र दे दिया और सामाजिक कार्यो में लग गए। इसी बीच 2019 में जब नया नागरिकता कानून पास हुआ तो उसका व्यापक विरोध हुआ और यह विरोध देशव्यापी था। इसी क्रम में डॉ खान ने, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक भाषण दिया, जिसे आपत्तिजनक मानते हुए सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत निरुद्ध कर दिया। 

डॉ कफील खान की मां, नुज़हर परवीन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने जहां नूपुर शर्मा को राहत, पहली ही सुनवाई पर दे दी थी, वहीं इस याचिका को यह कह कर के खारिज कर दिया कि, पहले इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर किया जाय और उत्तर प्रदेश सरकार के, घृणा बयान वाले एफआईआर को चुनौती दी जाय। अब यह सवाल उठता है कि नूपुर शर्मा जिनके खिलाफ, पश्चिम बंगाल में एफआईआर दर्ज किया गया था, उन्हें क्यों नहीं, पहले  कलकत्ता हाईकोर्ट जाने और वहीं से राहत लेने को कहा गया ? इलाहाबाद हाईकोर्ट में अभी तारीख पड़ रही है और डॉ कफील खान, एनएसए में अब भी जेल में निरूद्ध हैं। 

शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों के धरने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की याचिका आज तक लंबित है। मार्च महीने में उसकी तारीख़ पड़ी थी, और अब तक सुनवाई लंबित है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही आंदोलनकारियों से बातचीत करने के लिये सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े एवं एक अन्य सीनियर एडवोकेट को धरना स्थल भेजा था। दोनो वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है पर यह मामला अभी तक लंबित है। मार्च के बाद अब तक वह मुकदमा सूचीबद्ध भी नहीं हुआ।

हर्ष मंदर एक पूर्व आईएस अफसर और मानवाधिकारों तथा नागरिक आज़ादी के मुद्दों पर अक्सर मुखर रहने वाले एक्टिविस्ट हैं। सरकार कोई भी हो जनता के मौलिक अधिकारों के लिये वे सतत संघर्षरत रहते हैं। हर्ष मंदर ने फरवरी 2020 में हुए दिल्ली दंगो के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और अदालत से दखल देने को कहा। इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने, अदालत में यह कहा कि हर्ष मंदर पर तो दिल्ली दंगों को भड़काने का आरोप है। सुप्रीम कोर्ट ने हर्ष मंदर के वकील को अपनी बात रखने का भी अवसर नहीं दिया। 

5 अगस्त 2019 को जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक पारित करने के बाद, पूरे राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया और सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन सब प्रतिबंधों और अनुच्छेद 370 को संशोधित करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गयी। उन पर, अब तक कोई अंतिम आदेश नहीं हो सका है। इंटरनेट और कुछ नेताओं की गिरफ्तारी को लेकर ज़रूर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राहत भरे आदेश दिए हैं, पर वे धरातल पर लागू नहीं हैं। पर यहां यह भी कहना है जम्मू कश्मीर लम्बे समय से आतंकियों के निशाने पर है और राज्य पुनर्गठन विधेयक के अनुसार दो केंद शासित राज्यों में बंट जाने के बाद वहां अभी भी कानून व्यवस्था की स्थिति सामान्य नहीं हो पायी है। अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने इन याचिकाओं की सुनवाई पर यह कहा था कि, जम्मू कश्मीर के संदर्भ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के बारे में जब बात की जाय तो, यह भी ध्यान रखा जाय कि वहाँ आतंकवाद की एक जटिल समस्या है। अभी भी अनुच्छेद 370 के बहाली की मांग वहां के नेता कर रहे हैं। स्थिति अब भी वहां सामान्य नहीं है। मुकदमे लंबित हैं। 

लेकिन 23 जुलाई को अभिव्यक्ति और व्यक्ति स्वातंत्र्य के मुद्दे पर, सुप्रीम कोर्ट का एक बिल्कुल अलग स्वरूप सामने आया है। राजस्थान में सचिन पायलट के नेतृत्व में 19 विधायकों ने कांग्रेस विधायक दल से विद्रोह कर दिया । इसे लेकर, भाजपा और कांग्रेस में लंबी खींचतान चली। उसी दौरान 19 बागी विधायकों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका दायर पर सुनवाई करते हुए जस्टिस अरुण मिश्र ने कहा कि, " लोकतंत्र में विरोध के स्वर को दबाया नहीं जा सकता है। "  यह एक आदर्श वाक्य है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। 

इस प्रकार ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं , उनमे तीन अलग अलग प्रवित्तियाँ दिखती हैं। एक जगह, पत्रकार अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के खिलाफ मुकदमो में अदालत का रवैया, इन दोनों पत्रकारों के पक्ष में, यानी उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ओर रहता है, और अदालत ही नहीं सॉलिसिटर जनरल की पैरवी भी इन्ही पत्रकारों की तरफ रहती है। वहीं विनोद दुआ के संदर्भ में यही अदालत आज भी सुनवाई कर रही है और सॉलिसिटर जनरल का बिनोद दुआ के मुकदमे के संदर्भ में यह कहना कि, इस मामले की तुलना, अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन के मुकदमे से नहीं है, एक पक्षपाती दलील है। उल्लेखनीय है कि अर्नब और अमीश के खिलाफ दर्ज मुकदमे, कांग्रेस शासित राज्यो के हैं, जबकि विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज मुकदमा भाजपा शासित राज्य का है। सॉलिसिटर जनरल का दृष्टिकोण सत्तारूढ़ दल की ओर, एक सरकारी वकील होने के कारण तो हो सकता है पर एक ही तरह के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का ऐसा रुख हैरान करता है। दूसरी प्रवित्ति, नूपुर शर्मा और डॉ कफील खान के बारे में हैं जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है और तीसरी  राजस्थान के विद्रोही विधायको के बारे में सुप्रीम कोर्ट का आदर्श वाक्य है जिसे ऊपर स्पष्ट कर दिया गया है। 

यह सब उदाहरण, अदालती प्रतिभा और दलीलों के द्वारा लंबी बहसों में तो उलझाए जा सकते हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि न्यायपालिका या सुप्रीम कोर्ट पर, तहलका इंटरव्यू में, कुछ जजों पर, भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाए गए हैं, उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट खामोश क्यो है ? लॉक डाउन में काम न करने की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने आंकड़े देकर यह बताने की कोशिश की कि, वह लॉक डाउन में भी मुकदमो का निपटारा कर रही थी। लेकिन जब भी जजो पर भ्रष्टाचार की बात होती है अदालत मौन हो जाती है या फिर अवमानना के कानून का सहारा लेकर ऐसे शिकायत करने वालों को कठघरे में खड़ा करने लगती है। 

अब एक सवाल उठता है कि, क्या न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है ? जब न्यायपालिका कहा जाता है तो उसका आशय केवल सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई ही नहीं बल्कि मैजिस्ट्रेट से होती हुयी, ऊपर तक का पूरा न्याय तंत्र है। क्या यह खंभा, भ्रष्टाचार, घूसखोरी, पक्षपातवाद आदि अन्य व्याधियों, जो कार्यपालिका के अन्य विभागों में गहरे तक जड़ जमा चुकी हैं, से मुक्त हैं ? 

अगर आप समझते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नहीं है तो यह सवाल आप नज़रअंदाज़ कर दें। लेकिन, यदि आप मानते हैं और आप का अनुभव है कि न्यायपालिका भी देश के अन्य प्रशासनिक विभागों की तरह उपरोक्त व्याधियों से ग्रस्त है, तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि, 
● न्यायपालिका ने अपने अंदरूनी तंत्र में भ्रष्टाचार न हो सके, इसके लिये क्या उपाय किये हैं ? 
● न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों पर क्या कार्यवाही होती है और जनता ऐसे लोगो के खिलाफ़ कहां, किसके पास किस फोरम में शिकायत कर सकती है ? 
● क्या न्यायपालिका की सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई सुप्रीम कोर्ट या राज्यो में हाईकोर्ट के पास ऐसा कोई आंकड़ा है कि हर साल, कितने न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ करप्शन की शिकायतें आयीं, कितनो के खिलाफ कार्यवाही हुयी और कितने दंडित किये गए ? 
ऐसा आंकड़ा आप को सरकार के सभी विभागों से मिल जाएगा। 
● शिकायत आमंत्रित करने और फिर जांच करने का, जो मेकेनिज़्म सरकार के अन्य विभागों के लिये, विजिलेंस, एन्टी करप्शन विंग के रूप में सभी राज्यो में, सभी सरकारी कॉर्पोरेशन में विजिलेंस अधिकारी और शीर्ष पर, मुख्य सतर्कता आयुक्त के रुप में है, के प्रकार का क्या कोई तंत्र न्यायपालिका में भी गठित है ? 
● भ्रष्टाचार के आरोपों पर अदालतें अवमानना कानून के आड़ में अपनी झेंप क्यों मिटाने लगती हैं ? 
● क्या यह न्यायिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार जो खुल कर कचहरियों में चर्चा का विषय बनता रहता है को उजागर करने वालो को हतोत्साहित करना नहीं हुआ ? 
यह सब सामान्य सवाल हैं जो बहुतों के मन मे उठ रहे हैं। 

न्यायालय में चल रहे प्रशांत भूषण अवमानना केस में, अदालत ने न तो प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामा में लिखे, उन अंशो को पढ़ा, जिंसमे उन्होंने कुछ जजो के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप मय सुबूतों के लगाए थे और न ही प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन को, उन्ही अंशो को, अदालत में जस्टिस अरुण मिश्र ने पढ़ने दिया। यहां तक कि जब अटॉर्नी जनरल ने 20 अगस्त को यह कहा कि वे पांच जजो के बारे में कुछ कहना चाहते हैं तो, उन्हें भी रोक दिया गया। कहने का आशय यह है कि जब जब जजो के खिलाफ भ्रष्टाचार की बात कही जाती है, तब तब अदालत में एक मौन पसर जाता है औऱ सुप्रीम कोर्ट जो न्याय प्रशासन का सर्वोच्च प्रशासनिक प्रमुख भी है अक्सर असहज होने लगता है। 

जब तक व्याधि की पहचान नहीं होगी, तब तक उसका निदान कैसे होगा ? इस महत्वपूर्ण सवाल पर केवल सुप्रीम कोर्ट को ही सोचना है। न्यायपालिका में भी मनुष्य ही हैं। वे भी काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी मानवीय प्रवित्तियों से अलग नहीं है। वे भी देश के कानून से ऊपर नहीं है। फिर क्यों नहीं न्यायपालिका को भी अपने अधिकारियों और जजो के विरुद्ध शिकायत आमंत्रित करने, जांच कराने, और दोषी पाए जाने पर उनके विरुद्ध कार्यवाही करने के  संबंध में एक इन हाउस तंत्र का गठन और विकास नहीं किया जाना चाहिए ? 

और अंत मे पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी का इस मामले में क्या कहना है, पढा जाना चाहिए, 
" एक शख्स को अपने आरोपों को सही साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए। अगर भूषण अपने आरोपों के तथ्यों को स्थापित करने के लिए तैयार हैं तब आप उन्हें ऐसा करने से कैसे रोक सकते हैं…..उन्हें जबरन चुप नहीं कराया जाना चाहिए। निश्चित तौर पर अगर उनके आरोप आधारहीन, मनगढ़ंत हैं तब ज़रूर उन्हें दंडित करिए। लेकिन केवल यह कहने के लिए उन्हें दंडित मत कीजिए। ”

( विजय शंकर सिंह )




Thursday, 20 August 2020

प्रशांत भूषण - न च दैन्यम न पलायनम ! / विजय शंकर सिंह


प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में और जटिलता आ गयी है। कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जा सकता है न कि कानून के इतर तरीके से। अदालत, मुल्ज़िम से कह रही है कि, खेद व्यक्त कीजिए, और कुछ समय हम दे रहे हैं, उस पर पुनर्विचार कीजिए। 

मुल्ज़िम का कहना है कि, न तो मूझे मेरा जुर्म बताया गया, न शिकायत की कॉपी दी गयी, न तो मेरे जवाब पर चर्चा हुयी न उस पर जिरह और बहस हुयी, और सीधे माफी के लिये कह दिया जा रहा है ! 
मुल्ज़िम ने कहा कि, मैं अपनी सफाई के बयान पर अडिग हूँ और माफी नहीं  मांगूंगा। यानी, न च दैन्यम न पलायनम ! 

प्रशांत भूषण के अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेच द्वारा जिस तरह से यह मुकदमा सुना गया है वह न केवल हैरान करने वाला है बल्कि कहीं कहीं इसमे हास्यास्पद विरोधाभास भी है। 

● पहले तो मुकदमे की बुनियाद ही त्रुटिपूर्ण हैं। महक माहेश्वरी की याचिका को बिना अटॉर्नी जनरल की सहमति से स्वीकार कर लिया गया। महक माहेश्वरी सुप्रीम कोर्ट के एक वकील हैं, जिन्होंने प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर अवमानना की याचिका दायर की थी। 

● अवमानना कानून के अनुसार, यह याचिका पर तब तक सुनवाई नहीं हो सकती, जब तक इस पर अटॉर्नी जनरल की लिखित सहमति न प्राप्त हो जाय। अदालत ने इस अधूरी और डिफेक्टिव याचिका पर ही सुनवाई शुरू कर दिया जो नियमविरुद्ध है। 

● इसके साथ ही, इसी याचिका के आधार पर, नियम विरुद्ध जा कर स्वतः संज्ञान से सुनवाई शुरू कर दी गयी।

● आरोपी को आरोप और शिकायत क्या है, इसकी कोई प्रतिलिपि भी नहीं दी गयी, जो न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतो के विपरीत है। 

● आरोपी के द्वारा 134 पेज की सफाई पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी।  

● सफाई में कुछ ऐसे विन्दुओ पर चर्चा से कतरा कर निकल लिया गया जो न्यायपालिका को असहज कर सकते थे। 

● जब अटॉर्नी जनरल से उनकी सहमति के संदर्भ में पूछा जाना चाहिए था तब अदालत ने यह कह दिया कि, हम इसकी जरूरत नहीं महसूस करते हैं। 

● अचानक, अटॉर्नी जनरल, से यह पूछ बैठना कि, इस मामले में क्या सज़ा देनी चाहिए, और अटॉर्नी जनरल का यह कह देना कि, सज़ा नहीं देनी चाहिए,  स्वाभाविक रूप से यह उत्कंठा जाग्रत करता है कि, जब प्रारंभ में ही जब, नियमानुसार अटॉर्नी जनरल से सहमति ली जानी चाहिए थी, तब उनसे नहीं पूछा गया और अब सीधे उनसे सज़ा के विंदु पर उनकी राय मांगी जा रही है ! 

● अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने स्पष्ट राय दी कि,
" प्रशांत भूषण को सज़ा नही दी जानी चाहिए। "
लेकिन जब रात तक अदालत का आदेश निकला तो, उसमे अटॉर्नी जनरल की उपस्थिति और अदालत द्वारा, उनसे पूछा गया परामर्श, उक्त आदेश और 20 अगस्त की इस मुकदमे की कार्यवाही के रिकॉर्ड्स में शामिल नहीं किये गए हैं। 

● इसका सीधा अर्थ यह है कि अटॉर्नी जनरल की राय ली गयी होती तो हो सकता है वे इसे अवमानना मानते ही नही और यह मामला यही खत्म हो जाता। हो सकता हो, अदालत को यह उम्मीद रही होगी कि, अटॉर्नी जनरल, सज़ा के पक्ष में बोलेंगे, और इस उम्मीद पर, अदालत ने उनसे पूछ लिया। पर उन्होंने अपनी राय सज़ा के खिलाफ दे दी। अटॉर्नी जनरल की इस राय से, आरोपी प्रशांत भूषण को एक मजबूत सहारा मिल गया। 

● बार बार आरोपी से यह कहना कि, पुनर्विचार के लिये कुछ समय ले लिजिये, और आरोपी का बार बार इनकार करते रहना, कि मुझे और समय नहीं चाहिए, मैं जो कह चुका हूं उस पर अडिग हूँ, क्या यह सब, अदालत की एक बेबसी जैसी अवस्था नहीं लगती है ? 

दरअसल, अक्सर अवमानना मामलों में आरोपी माफ़ी मांग लेते हैं और इस संकट से मुक्त हो जाते हैं। अदालत को भी लग रहा  था कि, या तो प्रशांत भूषण सीधे माफी मांग लेंगे या अपने बचाव में कुछ ऐसा कहेंगे जो अफसोस जताते हुए दिखेगा। उसी आधार पर, वे इस मामले के पटाक्षेप के लिये एक सरल मार्ग खोज लेंगे। 

पर ऐसा नहीं हुआ । पर प्रशांत भूषण के दृढ़ रवैये, मीडिया में लगातार चर्चा होते रहने और देश और दुनियाभर में वकीलों, बुद्धिजीवियों और जनता में हो रही प्रतिक्रियाओं तथा उत्सुकता से यह मामला दिलचस्प बन गया। प्रशांत भूषण ने जो जवाब दाखिल किया, उसमें कुछ ऐसे तथ्य उन्होंने दिए जिसे प्रशांत भूषण के ही वकील दुष्यंत दवे ने, फैसले के पहले, सुनवाई के दौरान, यह कह कर पढ़ने से मना कर दिया था, कि इससे कुछ लोग असहज हो सकते हैं, और इसे जज साहबान खुद ही पढ़ लें। 

आज भी जब इसी विंदु पर प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन ने उस अंश को पढ़ना शुरू कर दिया तभी जस्टिस अरुण मिश्र ने उन्हें रोक दिया। आरोपी के बचाव पर फिर न तो कोई बहस हुयी और न ही चर्चा और न ही 14 अगस्त के इस मुकदमे के फैसले में इसका कोई उल्लेख किया गया। 

जस्टिस अरुण मिश्र का यह कहना, 
" आपने अपने जवाबी हलफनामे में अपना बचाव किया है या हमे उकसाया है " 
बहुत कुछ कह देता है। 

अटॉर्नी जनरल ने भी, जब पांच जजों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की आलोचना का उल्लेख करना शुरू किया तो जस्टिस अरुण मिश्र ने उन्हें रोक दिया कि, आप मेरिट पर न कुछ कहें। इसके पहले, अटॉर्नी जनरल,  के वेणुगोपाल यह कह चुके थे कि, आरोपी को सज़ा नहीं देनी चाहिए। 

मेरिट पर कुछ न कहें यानी मुकदमा, मेरिट पर नहीं तो फिर किस पर सुना जाएगा।  कानूनी जानकर, इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं, और दुनियाभर के कानूनविदों की, इस पर नज़र हैं। यह मुकदमा, लीगल हिस्ट्री में एक चर्चित मुकदमे के लिये जाना जाएगा। शायद सुप्रीम कोर्ट ने भी यह नहीं सोचा होगा कि यह केस इतना जटिल हो जाएगा। प्रशांत भूषण को, सज़ा मिले या न मिले, यह अब महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने सारी कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए, एक पारदर्शी सुनवाई की है ? 

यह सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रही थी, अन्यथा अगर यह नियमित और वास्तविक न्यायालय कक्ष में होती तो और बेहतर होता। प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में अदालत में आज 20 अगस्त को जो बयान दिया, उसे आप यहां पढ़ सकते हैं। 
■ 
Statement by Prashant Bhushan, Respondent 1

I have gone through the judgment of this Hon'ble Court. I am pained that I have been held guilty of committing contempt of the Court whose majesty I have tried to uphold -- not as a courtier or cheerleader but as a humble guard - for over three decades, at some personal and professional cost. I am pained, not because I may be punished, but because I have been grossly misunderstood.

I am shocked that the court holds me guilty of "malicious, scurrilous, calculated attack on the institution of administration of justice. I am dismayed that the Court has arrived at this conclusion without providing any evidence of my motives to launch such an attack. I must confess that I am disappointed that the court did not find it necessary to serve me with a copy of the complaint on the basis of which the suo motu notice was issued, nor found it necessary to respond to the specific averments made by me in my reply affidavit or the many submissions of my counsel.

I find it hard to believe that the Court finds my tweet "has the effect of destabilizing the very foundation of this important pillar of Indian democracy". I can only reiterate that these two tweets represented my bonafide beliefs, the expression of which must be permissible in any democracy. Indeed, public scrutiny is desirable for healthy functioning of judiciary itself. I believe that open criticism of any institution is necessary in a democracy, to safeguard the constitutional order. We are living through that moment in our history when higher principles must trump routine obligations, when saving the constitutional order must come before personal and professional niceties, when consideration of the present must not come in the way of discharging our responsibility towards the future. Failing to speak up would have been a dereliction of duty, especially for an officer of the court like myself.

My tweets were nothing but a small attempt to discharge what I considered to be my highest duty at this juncture in the history of our republic. I did not tweet in a fit of absence mindedness. It would be insincere and contemptuous on my part to offer an apology for the tweets that expressed what was and continues to be my bonafide belief. Therefore, I can only humbly paraphrase what the father of the nation Mahatma Gandhi had said in his trial: I do not ask for mercy. I do not appeal to magnanimity. I am here, therefore, to cheerfully submit to any penalty that can lawfully be inflicted upon me for what the Court has determined to be an offence, and what appears to me to be the highest duty of a citizen.
■ 
माननीय न्यायालय का फैसला सुनने के बाद मैं आहत और दुखी हूं कि, मुझे उस अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है, जिसके प्रभुत्व को बनाये रखने के लिये, मैं निजी और पेशेगत रूप में, तीस सालों से, किसी चाटुकार और दुंदुभिवादक की तरह बल्कि एक विनम्र रक्षक के रूप में मुस्तैद रहा हूँ । मुझे इस बात की तकलीफ नहीं है कि, मुझे सज़ा दी जा रही है, बल्कि मैं इसलिए आहत हूँ कि, मुझे गलत समझा गया है। 

मैं स्तब्ध हूँ कि मुझे अदालत ने, न्याय व्यवस्था पर, दुर्भावनापूर्ण, और योजनाबद्ध तरीके से हमले का दोषी पाया है। और मुझे पीड़ा भी हुई कि अदालत ने मुझे वह शिकायत नहीं प्रदान की जिसके आधार पर अवमानना ​​की गई थी। मैं इस बात से निराश हूं कि कोर्ट ने मेरे हलफनामे पर विचार नहीं किया. मेरा मानना ​​है कि संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा के लिए किसी भी लोकतंत्र में खुली आलोचना होनी चाहिए इसी के तहत मैने अपनी बात रखी थी.  मुझे यह सुनकर दुःख हुआ है कि मुझे अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है।मुझे दुख इस बात का नही है की मुझको  सजा सुनाई जाएगी, लेकिन मुझे पूरी तरह से गलत समझा जा रहा है।मैंने जो कुछ कहा वो अपने कर्तव्य के तहत किया ।

अगर माफी मांगूंगा तो कर्तव्य से मूंह मोड़ना होगा। मेरे ट्वीट एक नागरिक के रूप में मेरे कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए थे।ये अवमानना के दायरे से बाहर हैं ।अगर मैं इतिहास के इस मोड़ पर नहीं बोलता तो मैं अपने कर्तव्य में असफल होता। मैं किसी भी सजा को भोगने के लिए तैयार हूं जो अदालत देगी ।माफी मांगना मेरी ओर से अवमानना के समान होगा। मेरे ट्विट सद्भावनापूर्ण विश्वास के साथ थे ।मैं कोई दया नहीं मांग रहा ।ना उदारता दिखाने को कह रहा हूं ।जो भी सजा मिलेगी वो सहज स्वीकार होगी".
■ 
यहां पर यह साफ हो जाता है कि प्रशांत भूषण अपने ट्वीट के लिए माफी मांगने के लिए तैयार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने माफी के बारे में एक बार फिर 24 अगस्त तक सोच लेने का वक़्त दिया है। अदालत ने प्रशांत भूषण को अपमानजनक ट्वीट के लिये क्षमा याचना से इंकार करने संबंधी अपने बगावती बयान पर पुनर्विचार करने और बिना शर्त माफी मांगने के लिये 24 अगस्त तक का समय दिया। न्यायालय ने अवमानना के लिये दोषी ठहराये गये भूषण की सजा के मामले पर दूसरी पीठ द्वारा सुनवाई का उनका अनुरोध ठुकराया दिया है। 

हालांकि, प्रशांत ने कोर्ट में ही कहा कि मुझे समय देना कोर्ट के समय की बर्बादी होगी, क्योंकि यह मुश्किल है कि मैं अपने बयान को बदल लूं। इस बीच अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल भी सुप्रीम कोर्ट से प्रशांत भूषण को सजा न देने की अपील की।

अवमानना के इस मामले में अवमाननाकर्ता को अधिकतम छह महीने की साधारण कैद या दो हजार रुपए तक का जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है। 

अब प्रशांत भूषण ने कितनी अवमानना की है और कितनी नहीं की है यह विंदु अब नहीं रहा, बल्कि अब यह सवाल है कि क्या खुद की अवमानना से निपटने के लिये, अदालत, स्थापित और आवश्यक कानूनी प्रक्रिया को भी बाइपास कर सकती है ? अगर ऐसा है तो, नियम, कायदा, कानून, गवाही, जिरह, बहस, रूलिंग, आदि का कोई मतलब ही नहीं रहा। अदालत यह तो चाहती है कि, प्रशांत भूषण माफी मांग कर इस धर्मसंकट से मुक्त करें, पर वह उनके विस्तृत बयान जिंसमे अन्य जजो के बारे में भी उल्लेख है, पर चर्चा न की जाय। क्योंकि वह चर्चा न्यायपालिका को असहज कर सकती है। बार बार ट्वीट की बात की जा रही है। ट्वीट में यह कहा गया है कि पिछले 6 सालों और विशेषकर पिछले चार सीजेआई के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलो से लोकतंत्र को आघात पहुंचा है। अब यह आघात कैसे पहुंचा है यह प्रशांत भूषण ने अपने 134 पेज के जवाब में बताया है। पर इस पर तो बहस ही नहीं हुयी और न ही चर्चा। अदालत यही चाहती रही कि प्रशांत भूषण माफी मांगे और यह मामला निपट जाय। अब 24 अगस्त तक का इंतजार है। अगली तारीख 25 अगस्त को निर्धारित है। 

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 19 August 2020

कानून के जानकारों ने कहा - प्रशांत भूषण के अवमानना फैसले में गंभीर कानूनी खामियां हैं / विजय शंकर सिंह


प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में जस्टिस अरुण मिश्र की बेंच ने जो फैसला दिया है, उसकी समीक्षा और चर्चा, क़ानून के जानकारों द्वारा की जा रही है। अगर कोई और अवमानना मामला होता तो न शायद इतनी चर्चा होती और न ही मीडिया या सोशल मीडिया कवरेज मिलता । पर अवमानना करने वाला सुप्रीम कोर्ट का एक वरिष्ठ एडवोकेट है और अवमानना के केंद्र में सीजेआई खुद हैं तो ऐसे मामलों में चर्चा का होना स्वाभाविक है। 

" प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय गम्भीर खामियो से भरा पड़ा है। " यह कहना है सुप्रीम कोर्ट के ही एक सीनियर एडवोकेट, अरविंद दातार का। अरविंद दातार ने लीगल वेबसाइट, बार एंड बेंच में एक लेख लिख कर उक्त फैसले में व्याप्त कानूनी खामियो का विश्लेषण किया है। मैं इस लेख में अरविंद दातार, सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े, जस्टिस एपी शाह सहित कानून के जानकार लोगों की प्रतिक्रिया और समीक्षा के आधार पर एक अकादमिक और कानूनी दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

21 जुलाई 2020 को सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट महक माहेश्वरी ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। उक्त याचिका में उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि, " वे सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट, प्रशांत भूषण के विरुद्ध, उनके 29 जून के ट्वीट के सम्बंध में, न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही शुरु करे।" 
यह याचिका ट्वीट के एक महीने बाद दायर की गयी। चूंकि इस याचिका में अटॉर्नी जनरल की सहमति नहीं ली गयी थी तो सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने अपनी प्रशासनिक शाखा को यह विचार करने के लिये भेजा कि, क्या इसे सुनवाई के लिये सूचीबद्ध ( लिस्ट) किया जाय या नहीं। रजिस्ट्री का कदम एक हैरानी भरा और परंपरा से हट कर था। रजिस्ट्री, हर याचिका को पहले चेक करती है और यह देखती है कि कोई कानूनी खामी तो नहीं है। कानूनी खामी वाली याचिकाओं को रजिस्ट्री की शब्दावली में डिफेक्टिव याचिका कहा जाता है। डिफेक्टिव याचिका का डिफेक्ट दूर करने के बाद ही उसे सुनवाई के लिये अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। पर इस याचिका में ऐसा नहीं हुआ है और इस याचिका में डिफेक्ट था, जिसे हम आगे देखेंगे। रजिस्ट्री का यह हैरानी भरा कदम, इसलिए भी था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट, रूल्स टू रेगुलेट प्रोसिडिंग फ़ॉर कंटेम्प्ट ऑफ द सुप्रीम कोर्ट, 1975,  के नियम 3 के अंतर्गत केवल उन्ही याचिकाओं को सुनवाई के लिए स्वीकार कर सकती है, जिस पर अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति हो। जबकि महक माहेश्वरी की इस याचिका में ऐसी कोई सहमति थी ही नहीं।

अब  नियम क्या कहता है, यह आप यहां पढ़ सकते हैं,

" नियम ( रूल ) 3, अवमानना के मामले में, केवल उन मामलो को छोड़ कर, जिनका संदर्भ रूल 2 में दिया गया है, न्यायालय यह कार्यवाही ( एक्शन ) कर सकती है, 

(a) स्वतः संज्ञान, सुओ मोटो, या
(b) अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल द्वारा दी गयी कोई याचिका, या
(c) ऐसी कोई याचिका, जो किसी भी व्यक्ति द्वारा, दायर की गयी हो, और अगर वह आपराधिक अवमानना है तो, अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल की सहमति के बाद ही उसकी सुनवाई का निर्णय लिया जाएगा। 

इस प्रकार, नियम 3(c) के अंतर्गत, 
" यदि अटॉर्नी जनरल की सहमति नहीं है तो, उक्त सहमति के अभाव में यह याचिका ही पोषणीय ( मेंटनेबल ) नहीं है। महक माहेश्वरी की यह याचिका,  अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल की सहमति के लिखित अभाव के कारण खारिज कर दी जानी चाहिए थी। ऐसा कोई प्राविधान ही नहीं है कि रजिस्ट्री यह सवाल खड़ा करे कि इसे सुनवाई के लिये सूचीबद्ध किया जाय या नहीं।"  याचिका की यह खामी, तब और बढ़ गयी जब न्यायालय ने एक दोषपूर्ण ( डिफेक्टिव ) याचिका को अपने समक्ष प्रस्तुत करने के लिये  नियम ( रूल ) 3(a) के अंतर्गत, अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, निर्देशित कर दिया। 

इस प्रकार, इस याचिका के प्रारंभ में ही, अटॉर्नी जनरल के समक्ष प्रस्तुत किये जाने की औपचारिकता के नियमों का उल्लंघन हो गया। सबसे पहले बने, अवमानना अधिनियम, 1952  के अंतर्गत, सिविल और आपराधिक अवमानना में कोई भेद नहीं रखा गया है, और न ही, एडवोकेट जनरल या किसी अन्य विधि अधिकारी के सहमति की आवश्यकता का प्राविधान ही है। लेकिन,   1963 में, सान्याल कमेटी की रिपोर्ट आयी। यह कमेटी अवमानना के विभिन्न पक्षों के बारे में अध्ययन करने और कानून को बेहतर तथा युक्तियुक्त बनाने के लिए गठित की गयी थी। उक्त सान्याल कमेटी ने, अपनी रिपोर्ट में, अवमानना के मामलों में, एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल की सहमति प्राप्त करने की संस्तुति की थी, जिसे स्वीकार कर लिया गया है। यह संस्तुति, ब्रिटिश विधि व्यवस्था में, लॉर्ड शाक्रॉस और फिलिमोर कमेटी द्वारा सुझाई गयी संस्तुति कि, अवमानना मामले में, एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल की लिखित संस्तुति होनी चाहिए, पर आधारित है।  

अब सान्याल कमेटी की क्या संस्तुति है, इसे देखते हैं। सान्याल कमेटी की रिपोर्ट ( अध्याय X, पैरा 5 ) में अंकित है कि, एडवोकेट जनरल के सहमति की आवश्यकता इस लिये है कि,  इससे न केवल अदालत का काम हल्का होगा, बल्कि अवमानना के आरोपी व्यक्ति और जनता को भी, यह अहसास होगा कि उसके मामले में पर्याप्त रूप से विचार करने के बाद ही यह कार्यवाही अदालत द्वारा शुरू की गयी है। यह प्रक्रिया, एक प्रकार से स्क्रीनिंग प्रक्रिया है जिससे यह गम्भीरता पूर्वक जांच लिया जाय कि, अवमानना हुयी भी है नही। सान्याल कमेटी के अनुसार, 
" अतः हम यह संस्तुति करते हैं कि, अदालत के बाहर हुयी अवमानना के हर मामले में,कार्यवाही तभी शुरू की जाय जब एडवोकेट जनरल या अटॉर्नी जनरल की सहमति प्राप्त कर ली जाय।" 

इस महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु पर, सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट, अरविंद दातार का कहना है कि, 
" अतः नियम 3(c) के अंतर्गत प्राप्त किसी याचिका पर स्वतः संज्ञान ले लेना उचित नहीं है। इस पर संज्ञान लेना, न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।' इस प्रकार अवमानना अधिनियम के अंतर्गत दायर, ऐसी किसी भी याचिका पर केवल अटॉर्नी जनरल का ही अधिकार है कि वह इसकी समीक्षा कर के, अदालत को बताएं कि, इस मामले में, अवमानना हुयी है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट, केवल इस आधार पर कि, उन्हें किसी भी मामले में स्वतः संज्ञान लेने की शक्ति है, अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल के कार्य और शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकते हैं। यह हज़ारो बार कहा जा चुका है कि जब कानून की ज़रूरत हो कि, कोई भी कार्य उसी के मुताबिक हो तो, उसे विधिनुकूल ही सम्पन्न होना चाहिए, नहीं तो नहीं होना चाहिए।" 
विधि को लागू केवल विधि के अनुसार ही किया जा सकता है, यह न्याय के प्रदान का नैसर्गिक सिद्धांत है। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी याचिका पर सुनवाई की और फैसला सुनाया जो आरंभ से ही डिफेक्टिव याचिका थी और अवमानना कानून के अनुरूप नहीं थी। 

अरविंद दातार अपने लेख में अवमानना कानून के हवाले से कहते हैं, 
" कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1971 की धारा 15, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को, अवमानना के मामले में, या तो स्वतः संज्ञान लेने या अटॉर्नी जनरल अथवा एडवोकेट जनरल [देखिये, धारा 15 (1)(a)] द्वारा प्रस्तुत किसी प्रस्ताव ( मोशन ) पर, या किसी भी व्यक्ति को जिसके पास, अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल द्वारा प्रदत्त सहमति हो  [ देखिये, धारा 15(1)(b) ] अवमानना की कार्यवाही करने की शक्ति देती है। बाद की दो श्रेणियां, किसी प्रस्ताव ( मोशन ) पर शुरू की जाने वाली कार्यवाहियां कही जाती हैं। इसमे धारा 17(2) में, आरोपी अवमानना करने वाले को कोई भी नोटिस जारी करने, जो उसने, अवमानना योग्य कहा है को हलफनामे के साथ, मय अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल के प्रस्ताव के साथ,  न्यायालय में दाखिल करना आवश्यक है। यह अधिनियम, न्यायालय को यह अनुमति नहीं देता कि, वह धारा 15(1)(b) के अंतर्गत दायर किसी याचिका को,  स्वतः संज्ञान में बदल दे।" 
यानी, अदालत महक माहेश्वरी की याचिका को स्वतः संज्ञान में नहीं बदल सकती। जब किसी की याचिका पर सुनवाई हो रही है तो फिर संज्ञान तो लिया जा चुका है, अतः स्वतः संज्ञान का कोई अर्थ ही नही रहा। स्वतः संज्ञान तो तब होता जब यह ट्वीट पहली बार सार्वजनिक होते ही अदालत द्वारा लिया जाता। लेकिन यह याचिका महल माहेश्वरी एडवोकेट द्वारा दायर की गई और वह भी अधूरी, तो उस याचिका की आड़ में स्वतः संज्ञान लेना नियमविरुद्ध ही हुआ। 

प्रशांत भूषण ने 27 जून 2020 को दो ट्वीट किए थे। 27 जून के दूसरे ट्वीट में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी की है, जो बहुत अधिक प्रसारित हो चुकी है। यह ट्वीट, 22 जुलाई 2020 के एक अंग्रेजी अखबार में , अचानक पुनः प्रकाशित हो गयी, जिस पर महक माहेश्वरी की याचिका आधारित है। सुप्रीम कोर्ट ने इसी ट्वीट पर स्वतः संज्ञान ले लिया, जबकि इस संबंध में महक माहेश्वरी की याचिका को नियम 3(a) के अंतर्गत लिया जाना चाहिए था। लगभग एक माह पुराने ट्वीट का पुनः अचानक अखबार में छपना, एक संयोग है या प्रयोग, पता नही। 

कानून के विद्वानों के अनुसार, इस मुकदमे में दूसरी सबसे बडी और गंभीर खामी यह है कि, अवमानना करने वाले ने अपने जवाब में जिन विन्दुओ को, अपने जवाबी हलफनामे में उठाया है, उस पर अदालत ने सुनवाई के दौरान कोई विचार नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कुल 108 पृष्ठों का है जिंसमे 93 पृष्ठों में, केवल अवमानना से जुड़े उन फैसलों के उद्धरण हैं, जो समय समय पर, भारतीय और इंग्लैंड के न्यायालयों ने, अवमानना के मामलों में दिए हैं। अरविंद दातार अब फैसले में दिए निष्कर्षो पर अपनी टिप्पणी करते हैं। उनके अनुसार, 
" पृष्ठ संख्या 93, के पैरा 60 में सुप्रीम कोर्ट ने, ऊपर ( 93 पृष्ठों में दिये गए भारतीय, और इंग्लैंड के अवमानना संबंधी ) दिए गए फैसलों के आलोक में जो निर्देशित सिद्धांत हैं, के अनुसार विचार किया है। पैरा 2 में सुप्रीम कोर्ट ने यह उल्लेख किया है कि प्रशांत भूषण ने अपने विस्तृत हलफनामे, जो 134 पृष्ठों और 463 पृष्ठों के संलग्नकों का है,में विस्तार से अपने, दोनो ट्वीट्स के संबंध में, बचाव को स्पष्ट किया है। इस हलफनामे में, प्रशांत भूषण ने अपना बचाव और स्पष्टीकरण विस्तार से दिया है। सुप्रीम कोर्ट का यह अधिकार है कि, या तो वह उस बचाव को स्वीकार करे या खारिज कर दे। लेकिन यह आवश्यक है कि अदालत, उस पर विचार करे और स्वीकार तथा खारिज करने का युक्तियुक्त आधार स्पष्ट करे। इसके विपरीत, पीएन डूडा बनाम शिव शंकर ( एआईआर 1988 एससी 1208 ) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आपत्तिजनक बयानों पर गंभीरता से विचार किया था और यह पाया कि कोई अवमानना नहीं हुयी है। " 
अरविंद दातार के इस उद्धरण से लगता है कि, सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे पर कोई विचार ही नहीं किया और अगर किया तो, उसपर कोई टिप्पणी ही नहीं की। 

अब अगर पहले ट्वीट के बारे में जिंसमे, लॉक डाउन में सुप्रीम कोर्ट के बंद होने की बात का उल्लेख है, की बात करें तो,  उसके बारे में अदालत ने केवल यही कहा है कि, अदालत, इस आलोचना को उचित नही मानती है और फिर फैसले में यह उल्लेख किया गया है कि कैसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा अदालत अपना काम कर रही थी। लेकिन प्रशांत भूषण के जवाबी हलफनामे पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी है। 

प्रशांत भूषण ने अपने दूसरे ट्वीट, जिंसमे उन्होंने पिछले 6 सालों में अघोषित आपातकाल और सुप्रीम कोर्ट की गिरती साख और विशेषकर अब तक के अंतिम चार सीजेआई के बारे में टिप्पणी की है, पर, प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे के पैरा 39 से 174, जो पृष्ठ 37 से 134 तक विस्तारित है में विस्तार से अपने बचाव में तथ्य और तर्क दिए हैं। कानूनी जानकारो का कहना है कि प्रशांत भूषण के हलफनामे के इस अंश पर भी विचार किया जाना चाहिए था, जो अदालत ने नहीं किया है। बचाव के सभी विन्दुओ पर विचार करने के बाद ही आपराधिक अवमानना का मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। अवमानना अधिनियम की धारा 13 में यह अंकित है कि, जो बचाव में कहा जा रहा है वह कितना सच है और जो बात अवमानना में कहना बताया जा रहा है वह, क्या वास्तव में न्याय में बाधा पहुंचाने के उद्देश्य से ही कहा गया है या नही, इसे देखा जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से अदालत ने, जो ट्वीट में कहा गया है, उस आलोचना को जस का तस, बिना जवाबी हलफनामे में दिए गए बचाव के विन्दुओ पर गहनता से विचार किये,  अदालत की अवमानना मान लिया गया है, और उसी ट्वीट पर यह कह दिया गया है कि, इससे, भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद हिल गयी और इसे सख्ती से निपटना होगा। यह हास्यास्पद लगता है कि दो ट्वीट से लोकतंत्र की बुनियाद हिल जाती है और न्यायपालिका आधार विचलित हो जाता है। 

सुप्रीम कोर्ट एक अपीलीय न्यायालय है और वह इस संदर्भ में सर्वोच्च है। उसके फैसले अंतिम होते हैं। लेकिन, जब वह अवमानना के मुकदमो में सुनवाई करने के लिये बैठता है तो, उसकी स्थिति एक ट्रायल कोर्ट की तरह हो जाती है। अब यही अदालत एक ट्रायल कोर्ट है और यही अपीलीय कोर्ट और उसमे भी सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय। धारा 19(1) नागरिक को अपील करने का एक संवैधानिक अधिकार देती है, अगर कोई व्यक्ति, हाईकोर्ट में दायर अवमानना के मामले में दंडित हो जाता है तो। जबकि सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अवमानना के मुकदमे में आरोपी को अपील करने का भी अधिकार नहीं मिल सकता, क्योंकि, सुप्रीम कोर्ट के ऊपर कोई अन्य बड़ी कोर्ट है भी नहीं। अतः ऐसी परिस्थिति में, सुप्रीम कोर्ट का यह अहम दायित्व है कि वह ट्रायल कोर्ट की तरह किसी मुकदमे की सुनवाई करे तो, सारे तथ्यो, तर्कों और विन्दुओ पर गहनता से विचार विमर्श कर के ही अपना निर्णय दे, क्योंकि वह अंतिम है। 

इस संदर्भ में पंजाब के एक मुकदमे का उल्लेख आवश्यक है। पंजाब का एक प्रसिद्ध मुकदमा है मुख्तियार सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1995 का। इस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने, उसके सामने जो साक्ष्य रखे गए थे, उन पर युक्तियुक्त विचार नहीं किया है। इस पर ट्रायल कोर्ट के फैसले पर प्रतिकूल टिप्पणी करते हुये, सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है, वह पढिये,  
" न्याय की सबसे पहली ज़रूरत है कि, ट्रायल कोर्ट, से यह अपेक्षा है कि, वह, उन सभी साक्ष्यों, गवाहियों और दस्तावेजों का संज्ञान लेकर विचारण करे जो उसके सामने प्रस्तुत किये जाते हैं और वकीलों द्वारा मुकदमे के ट्रायल के दौरान जो, कुछ भी कहा जाय उस पर भी विचार करें। इस मामले में, ट्रायल कोर्ट ने ऐसा नहीं किया है। अतः ट्रायल कोर्ट अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल रहा है। यह फैसला इतना अपूर्ण है कि, हम यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि, आखिर अदालत कैसे इस निष्कर्ष पर पहुची है । ट्रायल कोर्ट के फ़ैसले को देख कर लगता है कि, कानून की निगाह में यह कोई फैसला है ही नहीं।" 

प्रशांत भूषण के दूसरे ट्वीट ने बेहद अहम सवाल उठाये हैं। उस ट्वीट में जो कहा गया है उससे किसी को भी असहमत होने का अधिकार है, पर अपने बचाव में जो उन्होंने अपने हलफनामे में कहा है वह बेहद महत्वपूर्ण और न्यायपालिका के बारे में सोचने के लिये बाध्य करता है। प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में, 12 जनवरी 2018 को की गयी, चार जजो की ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में उक्त जजो द्वारा कहे गए उद्धरणों को उद्धृत किया है, जिस पर यह फैसला कोई भी टिप्पणी नहीं करता है। बल्कि अदालत ने प्रशांत भूषण के हलफनामे के इस अंश को लगता है नज़रअंदाज़ ही कर दिया है। उनके हलफनामे में, नवम्बर दिसंबर 2018 में , जस्टिस कुरियन जोसेफ द्वारा कहा गया यह अंश, " कुछ मामलों को, सुनवाई हेतु, चुनिंदा जजो को ही आवंटित करने के लिये कोई बाहरी दबाव रहता है " बेहद आपत्तिजनक है और यह वाक्य, सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर एक गम्भीर टिप्पणी है। पर इसे तो अवमानना नहीं माना गया। यहीं तक जस्टिस कुरियन नही रुके बल्कि यह भी कहा कि, 
" हमने महसूस किया कि कोई बाहर से सीजेआई को नियंत्रित कर रहा है। " 
वह बाहर वाला कौन है जो देश के संविधान की रक्षा करने के लिये शपथबद्ध न्याय के शीर्ष को नियंत्रित कर रहा है ? अपने अन्तरावलोकन का यह कार्य सुप्रीम कोर्ट का ही है। 

फैसले की समीक्षा से यह स्पष्ट होता है कि प्रशांत भूषण के जवाबी तर्कों पर अदालत ने विचार नहीं किया। अवमानना कानून निजी खुन्नस या ज़िद पूरी करने के लिये नहीं बनाया गया है बल्कि यह न्याय और न्यायलय की गरिमा को बनाये रखने के लिये बनाया गया है, जो जनता की तमाम झंझावातों के बीच एक अंतिम आश्रय के रूप में आकाशदीप की तरह प्रज्वलित है। 
अब एक उद्धरण पढ़ लीजिए, जो मैं अरविंद दातार के लेख से लेकर उद्धृत कर रहा हूँ। 

" यह अवधारणा कि, न्यायधीशों का बचाव कर के, न्यायपालिका के प्रति सम्मान अर्जित किया जा सकता है, अमेरिकी पब्लिक ओपिनियन के प्रति गलत धारणा बनाना है। अमेरिकी जनता का यह एक महत्वपूर्ण विशेषाधिकार है कि वह अपनी बात, सभी सार्वजनिक संस्थानों के संबंध में खुल कर कहती है।  यह बात अलग है कि कभी कभी वह अभिव्यक्ति अच्छे शब्दो मे नहीं होती है। लेकिन, जजों की गरिमा के लिये एक थोपा गया मौन, चाहे वह कितना भी अल्प हो, आक्रोश, सन्देह और अवमानना को ही बढ़ाएगा, न कि न्यायपालिका के सम्मान को। 
( पर ह्यूगो ब्लैक, जज, ब्रिजेस बनाम कैलिफोर्निया ( 1941) 314 US 252 पृ. 271 -72.

( विजय शंकर सिंह )