उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति , कन्नड़ के सुप्रसिद्ध लेखक थे। उन्होंने
उपन्यास , कहानियां , लेख और कवितायें लिखी हैं कन्नड़
साहित्य में वे नव्या आंदोलन के अग्रदूतों में उनका स्थान था। कन्नड़ भाषा में
ज्ञानपीठ पुरस्कार कुल आठ लेखकों को मिला है। वे छठे लेखक थे जिन्हे यह सम्मान
मिला है। साहित्य का यह सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया था। 1998 में उन्हें पद्म भूषण के सम्मान
से सम्मानित किया गया था। वह केरल में 1980 में
महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं।
अनंतमूर्ति का जन्म शिमोगा जिले के तीर्थहल्ली तालुका के मेलिगे गाँव में
हुआ था। उन्होंने परम्परागत रूप से संस्कृत में अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। प्राथमिक
शिक्षा दूर्वासापुरा में और फिर तीर्थहल्ली और तदोपरांत मैसूर में हुयी थी। मैसूर
विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ़ आर्ट्स की डिग्री लेने के बाद वे बाद की पढ़ाई के लिए
इंग्लैंड चले गए। वहाँ वह राष्ट्रकुल देशों की एक छात्र वृत्ति पर गए थे। 1966 में उन्होंने बर्मिंघम विश्वविद्यालय
से उन्होंने डॉक्टरेट किया। उनका शोध प्रबन्ध , 1930 में राजनीति और साहित्य रहा है।
उनका कर्रिएर 1970 में मैसूर
विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के अध्यापक के रूप में शुरू हुआ। 1987 में वह महात्मा गांधी विश्वविद्यालय
कोट्टायम, केरल के
कुलपति बने। 1992 में वह
नेशनल बुक ट्रस्ट के वह अध्यक्ष बने। 1993 में वह साहित्य अकादेमी के प्रमुख का
पद सम्भाला। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली , एबरहार्ड केरिस विश्वविद्यालय टुबिंगेन
, लोवा
विश्वविद्यालय , तुफ़्त्स विश्वविद्यालय और शिवजी विश्वविद्यालओं में
विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी काम किया। वह दो बार फिल्म और टेलीविज़न संस्थान
के प्रमुख भी रह चुके हैं।
अनंतमूर्ति , देश और विदेशों में भी व्याख्यान के
लिए जाते रहते थे। दुनिया भर में उनके साहित्य के प्रसंशक उन्हें आमंत्रित करते
रहते थे। वह सोवियत रूस , हंगरी , फ्रांस ,और वेस्ट जर्मनी जाने वाले लेखकों के
शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में भी 1990 में जा चुके हैं। 1989 में वह एक
सोवियत समाचार पत्र के सलाहकार के रूप में भी गए थे। 1993 में
उन्होंने चीन की भी यात्रा की थी।
उन्होंने मद्रास आकाशवाणी के लिए महत्वपूर्ण हस्तियों के साक्षात्कार भी
लिए हैं। उनका यह कार्यक्रम आकासवाणी का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम था। उन्होंने , महान
रंगकर्मी के शिवराम कारंत , गोपाल कृष्ण अडिग , अंग्रेज़ी
के प्रसिद्ध लेखक आर के नारायण , प्रख्यात
कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण , और प्रथम भारतीय सेनाध्यक्ष , जनरल के
एम करियप्पा के साक्षात्कार लिए थे।
अनंतमूर्ति की रचनाओं का अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय भाषाओं और विदेशी
भाषाओं में हो चुका है। इनमें कई रचनाओं पर उन्हें पुरस्कृत भी किया जा चुका है।
उनकी मुख्य रचनाएं , संस्कार , भाव भारथीपुत्र और आवस्ति हैं। उन्होंने विपुल मात्रा में
कहानियां भी लिखी हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर कई फिल्मे भी बन चुकी हैं।
उनकी साहित्यिक रचनाओं में पात्रों का मनोवैज्ञानिक पक्ष बहुत ही गहनता से
उभरा है। उन्होंने , काल ,स्थान और परिथितियों के साथ अद्भुत
सामंजस्य बैठा कर अपने साहित्य लोक की सृष्टि की है। कर्नाटक के जाति व्यवस्था के
दंश और ब्राह्मण वर्चस्व के विरुद्ध उनकी रचनाएँ बहुत कुछ कह जाती हैं। उन्होंने
नौकरशाही के असंवेदनशील व्यवहार को भी अपनी कहानियों का प्लाट बनाया है। उनकी
रचनाओं में समसामयिक राजनीति की रुझान स्पष्ट रूप से दिखती है। जिस से उनकी
राजनीतिक सम्बद्धता का परिचय मिलता है।
उनके बहुत से उपन्यासों और कहानियों की कथा वस्तु , पात्रों पर पड़ने वाले सामाजिक राजनैतिक
विसंगतियों के दबाव और परम्परागत हिन्दू समाज की विसंगतियां रही हैं। पिता और
पुत्र , पति या
पत्नी , पिता और
पुत्री , या पुत्री
और परिवार के सोच और विचारों में जो आपसी द्वंद्व उभरे हैं , उनका कारण पीढ़ीगत सोच का अंतर तो है ही
और सामाजिक ताने बाने का जो असर पड़ता है , उसे भी उन्होंने बहुत ही कुशलता से
उभारा है। लेकिन तमाम विचार वैभिन्य के बावजूद भी उभय में जो अनुराग है वह कहीं भी
शिथिल नहीं हुआ है। यह उनकी विशेषता और विशिष्टता दोनों है। उनकी कहानी सूर्यना
कुदुरे, मौनी ,कार्तिका आदि में यह द्वंद्व बेहद
बारीकी से उभरा है। उन्होंने किसी व्यक्ति को पात्र न बना कर पूरे क्षेत्र और
क्षेत्र को मुख्या कथावस्तु बना कर भी रचना की है। उनका लघु उपन्यास 'बारा ' सूखा जिसका अर्थ है , में सूखा , अनावृष्टि आदि को केंद्रित कर लिखा है।
इस उपन्यास में नौकरशाही की असंवेदनशीलता को बहुत ही मार्मिक ढंग से वर्णित किया
गया है। इस उपन्यासिका में अकाल और उस से उत्पन्न कठिनाइयों और उसका समाज पर क्या
प्रभाव पड़ता है उसे भी दर्शाया गया है।
सूर्यना कुदेरे, उनका एक उपन्यास है। इसका पात्र वेंकट
अक्सर अपनी पत्नी और पुत्र से लांछित और धिक्कारित होता रहता है। क्यों कि वह किसी
काम को गंभीरता से नहीं लेता है। इस से
उसे किसी भी काम में सफलता नहीं मिलती थी। वह स्वयं को अभागा समझने लगता है। वह
खुद को घास पर रेंगने वाले कीड़े के सामान समझने लगता है। अंततः अवसाद ग्रस्त हो कर
देवी माँ के शरण में आ जाता है। परिवार से उपेक्षित , खुद से
आहत , वह पूर्णतः अकर्मण्य हो जाता है। उसका
बेटा उस से विद्रोह कर घर छोड़ कर चला जाता है। वह देवी माँ से अपनी छोटी सी छोटी
व्यथा भी बच्चों के सामान कहता है। वह अपना सामान्य बोध भी खो बैठता है। अपने
पुत्र को घर छोड़ कर जाते हुए वह एक उपेक्षित घास पर रेंगने वाले कीड़े समान जो सूर्य की रोशनी में निकल अाया है खड़ा
देखता रहता है। इस उपन्यास में पुत्र का विद्रोह , गृह
त्याग और पिता का अवसाद , उसकी अकर्मण्यता जन्य ग्रंथि आदि मनोभावों का विश्लेषण अनंतमूर्ति ने बहुत कुशलता से किया है। संस्कार
उनका एक और बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है।
अनंतमूर्ति को राजनीति में भी रूचि थी। वह लोक सभा का चुनाव भी लड़ चुके थे।
जनता दल सेकुलर के नेता एच डी देवगौड़ा ,ने उन्हें लोक सभा का टिकट देने की
पेशकश की थी। पर जब देवगौड़ा ने भाजपा का समर्थन ले लिया तब वे उनसे दूर चले गए। राजनीति
में वह भाजपा की विचारधारा के विरोधी थे। 2006 में वह राज्य सभा के लिए भी चुनाव लड़े
थे। बंगलौर से बंगलुरु नाम इन्ही के कहने पर तत्कालीन राज्य सरकार ने रखा है। इनका
तर्क था कि बंगलौर नाम ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा रखा गया था. जो औपनिवेशिक दासता
का प्रतीक था।
पुरस्कार
1984
राज्योत्सव पुरस्कार
1994
ज्ञानपीठ पुरस्कार
1995
मास्ति पुरस्कार
1998
पद्म भूषण
2008
कन्नड़ विश्वविद्यालय का नदोजा पुरस्कार
2011 द हिन्दू अखबार द्वारा , उनकी पुस्तक भारतीपुरा पर पुरस्कार
कृतियाँ ,
कथा संग्रह ,
इंडेंढिघु मुगियादु कथे , मौनी , प्रश्ने , घट
श्राद्ध , आकांक्षा मट्टू बेक्कु , एराडु
दक्षकडा कॅटेगलु , ऐडु दाक्षिकड़ा कॅटेगलु।
उपन्यास
संस्कार , भारतीपुरा , अवस्थे , भावा , दिव्या ,
नाटक
आवाहने
कविता संग्रह ,
15 पद्यगलु , मिथुन , अज्ज्ना
हेगला सुक्कुगलु ,
आलोचना और निबंध ,
प्रजने मथु परिसर , सनवेश , सनमक्षमा , पूर्वापरा
, युगपल्लता , वल्मीकिया
नेवदलली , मातु सोथा भारत , सद्य
मत्तु शास्वता।
सम्पादन
ऋजुवाथु
( विजय शंकर सिंह )