Wednesday, 31 July 2019

सीएनएन बिजनेस में जोमैटो और पं अमित शुक्ल / विजय शंकर सिंह

अमित शुक्ल द्वारा मुस्लिम डिलीवरी मैन से भोजन भेजे जाने पर धर्म के नाम पर इनकार कर देना, और फिर जोमैटो के मालिक दीपेंदर गोयल द्वारा भोजन का कोई धर्म नहीं होता, कह कर अपने स्पष्ट पक्ष रखना अब एक वैश्विक खबर बन गयी है। सीएनएन बिजनेस ने इसे छाप पर पूरी दुनिया मे फैला दिया है।

अब अमित शुक्ल के बचाव में आये लोग यह तर्क दे रहे हैं कि, हलाल और हराम मांस भी तो मांगा जाता है। चूंकि मुस्लिम हलाल और हिंदू या सिख झटका मीट खाने की बात करते हैं तो इस तर्क से अमित शुक्ल की बात को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं।

झटका और हलाल जानवर को मारने की अलग अलग विधि है और यह भी एक प्रकार का मूर्खतापूर्ण कर्मकांड है। मैंने भी कई होटलों या ढाबा में देखा है वहां यह लिखा रहता है कि यहाँ हलाल मीट बिकता है। यह वैसे ही है जैसे शुद्ध शाकाहारी भोजनालय, या जैन भोजनालय या ऐसे मारवाड़ी भोजनालय जिसमें बिना लहसुन प्याज का खाना मिलता है, आदि बंदिशें लिखी मिलती हैं ।

यहां अमित शुक्ल का ऐतराज, खाने को लेकर नही, खाना बनाने वाले रसोइया के धर्म और जाति को लेकर नहीं, बल्कि खाने वाले के धर्म को लेकर है, और यह अस्पृश्यता का मामला है जो संविधान में एक अपराध है। अगर खाना पहुंचाने वाला अनुसूचित जाति का व्यक्ति होता और अमित शुक्ल यह आचरण करते तो वे कानूनन दंड के भागी होते।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि अमित शुक्ल मासूम हैं और वह यह नहीं जानते कि जो ट्वीट वह करने जा रहे हैं, उसकीं क्या प्रतिक्रिया होगी। उन्हें यह पता है कि वे रातोंरात सोशल मीडिया पर छा जाएंगे। ऑफ उन्हें यह भी पता है कि मीडिया या लोग इस मुद्दे पर एक दूसरे के विरोध में खड़े हो जाएंगे। उन्हें यह भी पता है कि उनकी पीठ ठोंकने वाले लोग उनके पीछे खड़े हो जाएंगे औऱ यह भी वह जानते हैं उनकी निंदा और उन्हें कोसने वाले लोग भी उनके पीछे पड़ जाएंगे।

ऐसा बिलकुल भी नही है धर्मगत और जातिगत अस्पृश्यता पूरी तरह से समाप्त हो गयी हैं। शुचिता और संस्कारों के नाम पर यह अब भी अभी है। पर सत्तर सालों में एक बदलाव ज़रूर यह आया है कि लोग इस मानसिकता से उबर रहे थे, और अब सार्वजनिक स्थानों पर ऐसी मानसिकता के दर्शन नहीं होते थे। घरों के निजी किचेन में यह हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह क्या, कैसे, और किस प्रकार से खाता है। पर निजी जीवन मे भी अगर वह धर्म और जति के आधार पर अस्पृश्यता का आचरण करता है तो यह भी कानून और संविधान का उल्लंघन है।

सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि, मुस्लिम के हाथ खाना मत भेजो, मुस्लिम दुकान से सामान न खरीदो, हिंदू दुकानों से खरीददारी न करो, मुस्लिम की बनाई कांवर न खरीदो, इस मानसिकता का विकास 2014 ई के बाद ही क्यों हुआ है ? वे कारण हैं कि हम अचानक आगे बढ़ते बढ़ते प्रतिगामी हो गए हैं कि हम 1937 से 47 के युग मे पहुंच गए हैं जहां स्टेशनो पर खुलकर हिंदू पानी मुस्लिम पानी बोला जाता था ?

सोचिएगा, इसका उत्तर आप को ज़रूर मिलेगा। मुझे लगता है कभी कभी कि हम जाने या अनजाने एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय साज़िश की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं जहां देश की अर्थव्यवस्था तो चौपट और परमुखोपेक्षी होती जा रही है, और सामजिक स्थिति भेदभाव तथा साम्प्रदायिक वातावरण तनावपूर्ण होता जा रहा है, और यह सब जानबूझकर किया जा रहा है।

© विजय शंकर सिंह

भारत की अवधारणा - शाबाश जोमैटो / विजय शंकर सिंह

यह शब्द, भारत की अवधारणा, भी 2014 के बाद से प्रासंगिक हो कर चलन में आ गया है। पाकिस्तान की अवधारणा, यानी Idea Of Pakistan तो देश मे साम्प्रदायिकता के विकास  के साथ साथ बनता और पुष्ट होता गया, पर भारत की अवधारणा तो सनातन से है, अनादि है। आईडिया ऑफ पाकिस्तान, स्टीफेन कोहेन की एक प्रसिद्ध पुस्तक भी है जो पाकिस्तान के विचार और उस अवधारणा के ज़मीन पर उतरने की कहानी कहती है। यह भारत विभाजन पर एक आधिकारिक विवरण देती है। कोहेन का कहना है कि यह उनके पच्चीस साल के अध्ययन और लेखन का परिणाम है। वह एक खतरनाक विचार था, जिसका परिणाम बहुत घातक हुआ।

आज भारत की अवधारणा का उल्लेख और चर्चा इसलिए भी प्रासंगिक हो गयी है कि एक  अमित शुक्ल नाम के व्यक्ति ने बना बनाया खाना सप्लाय करने वाली, जोमैटो कंपनी से अपने लिये खाना मंगवाया और जब उसकी डिलीवरी लेकर कम्पनी का कर्मचारी गया तो उसने उस कर्मचारी से खाना लेने से मना कर दिया, और कहा कि वह किसी मुस्लिम डिलीवरी बॉय से खाना नहीं लेगा। जोमैटो कम्पनी के मालिक ने अमित शुक्ल से कहा कि, खाने का कोई धर्म नहीं होता है और हम आप को खाना देंगे ही नहीं।

धर्म के आधार पर यह भेद चालीस के दशक में साम्प्रदायिकता से पीड़ित भारत के रेलवे स्टेशन पर हिंदू पानी और मुस्लिम पानी के अलग अलग घड़ों की उस मानसिकता को याद दिलाता है जब पाकिस्तान की अवधारणा की विष बेल पनपने लगी थी। यह उंस घृणा का परिणाम है जो 2014 के बाद से समाज मे कुछ लोगो द्वारा जानबूझकर फैलाई जा रही है । यह दरअसल पाकिस्तान के अवधारणा की ही सहोदरी है। पाकिस्तान धर्म आधारित राज्य का एक प्रतीक है। दुनिया मे बहुत से इस्लामी और धर्म आधारित राज्य है। पर राज्य का अस्तित्व धर्म के आने के पहले से था। राज्य, भौगोलिक औऱ ऐतिहासिक कारणों से बनते बिगड़ते रहते है । महान साम्राज्यों के पहले छोटे छोटे राज्य थे, फिर महान साम्राज्य बने, वे फिर टूटे और अलग अलग हो गए। अब कल क्या होगा, क्या पता।

पर पाकिस्तान तो भारत का ही एक अंग था। राज्य ही नहीं वह प्राचीन भारतीय सभ्यता संस्कृति का केंद्र विंदु था। पर वह मुस्लिम बाहुल्य आइडिया ऑफ पाकिस्तान के नाम पर एक अलग इस्लामी मुल्क बना। पर धर्म के उन्माद का यह आधार भी उसे सुरक्षित नहीं रह पाया। यह उन्माद भी लंबा नहीं चलता है। बस पचीस साल में ही धर्म के  उन्माद पर, भाषा और संस्कृति का साहचर्य भारी पड़ गया और पाकिस्तान टूट गया।

यह भी एक विडंबना है कि आज भारत की अवधारणा के लिये हमें जाग्रत होना पड़ रहा है। अमित शुक्ल जैसे लोग संख्या में बहुत कम होंगे। पर ज़हर कम भी हो तो मारक होता है। आज सोशल मीडिया पर एक स्वर से उसकी निंदा और जोमैटो के मालिकों, पंकज चड्ढा और दीपेंदर गोयल की सराहना की जा रही है। नीचे अमित शुक्ल का एक ट्वीट है जो उसने बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन के एक फोटो पर किया है। उसका यह ट्वीट ही उसके मानसिक अपंगता को बताता है। अस्पृश्यता, श्रेष्ठतावाद, खुद को अलग और पवित्र दिखाने की सनक एक मानसिक रुग्णता है ।

© विजय शंकर सिंह

आर्थिक मंदी का अब असर अब नीचे तक आने लगा है / विजय शंकर सिंह

देश के आर्थिक हालात सुधर नहीं रहे हैं। बाजारों में सन्नाटा दिखाई देने लगा है। एक व्यापारी मित्र के अनुसार, बाजार में यह मंदी का संकेत है, जिसका असर सरकार को दिए जाने वाले करों पर पड़ रहा है। सरकार का राजस्व संग्रह घट रहा है। सरकार इस घटती कर संग्रह से, चिंतित भी है। यहां तक कि बहीखाता 2019 यानी बजट  में राजकोषीय घाटा का गलत आंकड़ा भी दिया गया। 

घटते कर संग्रह के कारण आयकर और जीएसटी विभाग पर उसे किसी भी तरह से बढ़ाने के लिये दबाव है। आयकर और जीएसटी के छापे, जांचे और अन्य सख्तियां दिन प्रतिदिन बढ़ रही है। कर चोरी करने वालों पर अंकुश आवश्यक है। पर जिस प्रकार से यह छापे पड़ रहे हैं, उनसे यह भी संदेश जा रहा है कि अधिकतर छापे और जांचे राजनीतिक दुर्भावना का परिणाम है। एक मित्र ने इसे extortion यानी जबरन वसूली की जगह Taxtortion यानी ज़बरन कर वसूली, का नाम दिया है। कुछ कर संग्रह हो तो रहा है पर व्यापारी समुदाय इससे प्रताड़ित भी हो रहा है। इसका असर उनके व्यापार पर भी पढ़ रहा है। व्यापार मंदा हो गया है। 

सरकार अक्सर कुछ अभियान चलाती है कभी अपराध नियंत्रण के लिये तो कभी कर वसूली के लिये। पर अक्सर इन अभियानों में होने वाली कार्यवाही सवालों के घेरे में आ जाती है। कभी कभी निर्दोष व्यक्ति भी पकड़े जाते हैं तो कभी कभी ऐसे अभियानों में अवैध धन की उगाही और भ्रष्टाचार की बहुत सी शिकायतें आने लगती है। आजकल जो आयकर और जीएसटी के छापे पड़ रहे हैं, उनको लेकर भी यही धारणा व्यापारिक समाज मे फैल रही है। 

व्यापार की मंदी का एक और कारण है नकदी के प्रवाह में कमी। 2016 में की गई नोटबंदी का असर अभी तक गया है। नकदी के प्रवाह के बाधित होने से बाजार को जो आघात लगा था, वह अभी और गहरा हो गया है। नोटबंदी ने, डिजिटल इकोनॉमी, काले धन पर लगाम और नकली मुद्रा के खात्मे जैसे एक भी लक्ष्य पूरे नहीं किये, उल्टे बाजार नकदी संकट से और ग्रस्त हो गया। परिणामतः लोग खर्च कम कर रहे हैं। इससे मांग कम हो रही है। मांग से उत्पादन पर असर पड़ रहा है और उत्पादन तो, उसी के अनुरूप घटाना पड़ेगा। मांग और आपूर्ति की इस  श्रृंखला में कच्चे माल से लेकर मार्केटिंग तक  पर आ रही इस मंदी का असर पड़ रहा है। 

सबसे दुःखद स्थिति यह है कि, इसका सीधा असर, रोजगार पर पड़े रहा है, जो अब तक सबसे कम स्तर पर पहुंच गया है। सरकार के ही आंकडो के अनुसार, देश 45 वर्षों के बाद सबसे बड़ी बेरोजगारी से जूझ रहा है। इस मंदी का असर शेयर बाजार पर भी पड़ रहा है। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से अब तक शेयर बाजार में, 12 लाख करोड़ रुपये का नुकसान निवेशकों को हो चुका है। यह नुकसान अब भी हो रहा है। आज भी शेयर बाजार गिरा है। 

शेयर मार्केट के गिरने का असर विदेशी पूंजी निवेश पर पड़ेगा। अभी जब लगातार गिरावट का ट्रेंड जारी रहेगा तो विदेशी निवेशक भी अपना स्टॉक बेचना शुरू करेंगे, तब बाजार और गिरने लगेगा। शेयर बाजार की बढोत्तरी और गिरावट के पीछे विदेशी निवेशकों की बड़ी भूमिका होती है। असल पूंजी निवेश उन्ही विदेशी निवेशकों का ही रहता है। सरकार को भी इस संभावित संकट का अंदाज़ा है। पर जब एक बार अर्थव्यवस्था जब रपटीली राह पर घिसटने लगती है तो उसे संभालने के लिये जिस प्रोफेशनल कुशलता और राजनैतिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत होती है उसका इस सरकार में अभाव है। 

सरकार ने 2004 के बाद नियमित पेंशन योजना बंद कर दी है और उसके स्थान पर, राष्ट्रीय पेंशन स्कीम एनपीएस NPS जारी की गई है। इसमे कर्मचारी अपनी तरफ से कुछ अंशदान करते हैं और कुछ सरकार भी देती है। खबर यह है कि सरकार यह धन, कही न कहीं निवेश कर रही है, विशेषकर म्युचुअल फंड में। 

शेयर मार्केट की गिरावट के बाद, म्युचुअल फंड की नेंट असेट वैल्यू NAV भी गिरना शुरू हो गई है। अक्सर निवेश सलाहकार म्युचुअल फंड को एक सुरक्षित निवेश बताते हैं, पर जब गिरावट आती है तो वह सभी आर्थिक सूचकांकों को भी प्रभावित करती है। इस योजना में करोड़ो वेतनभोगी लोग है जिसमे सुरक्षा बल के लोग भी हैं। जिनके नाम पर चुनाव 2019 लड़ा गया था। 

ऑटोमोबाइल सेक्टर के बैठने की खबर कई महीने से आ रही है। बडे शो रूम बंद हो रहे हैं और ऑटोमोबाइल यूनिट्स ने अपने कई कारखानों का काम कम कर दिया है। इससे इस सेक्टर में बेरोजगारी बढ़ने लगी है। ऑटोमोबाइल उद्योग के साथ साथ अनेक सहयोगी छोटी छोटी उत्पादन की इकाइयां भी होती हैं। मांग घटते ही वे भी बंद होने लगेगी। इससे मंदी और बढ़ेगी। निवेश का आलम यह है कि ऐसे विपरीत आर्थिक माहौल में कौन उद्योगपति पूंजी निवेश करेगा। 

कानून व्यवस्था की स्थिति भी  निवेश के संदर्भ में एक बड़ा मुद्दा है। अपराध दुनियाभर में होते है। अमेरिका में अपराध की दर हमारे यहां से अधिक है। पर अपराध को जब राजनैतिक संरक्षण की खबर फैल जाती है तो यह किसी भी व्यापारी के लिये वहां धन निवेश करना  बहुत मुश्किल हो जाता है। सरकार का संरक्षण हो या न हों, पर भीडहिंसा, गौरक्षा और बीफ के नाम पर साम्प्रदायिक विवाद जो फैल रहा है उसमें शामिल लोगों को सत्तारूढ़ दल के कुछ लोगों का स्पष्ट समर्थन है।

अर्थव्यवस्था की यह शृंखला एक आम उपभोक्ता से लेकर देश की सबसे बड़ी कम्पनी के मालिक तक पहुंचती है। मंदी का असर पहले नीचे बाजार में दिखता है फिर धीरे धीरे ऊपर तक यह पहुंचता है जो अमूमन दिखता नहीं है। हम उपभोक्ता मंदी को स्वीकार ही नहीं करते बल्कि उसे बार बार अपनी व्यथा की तरह कहते भी रहते हैं। पर बड़ी कम्पनिवां इससे निपटने के उपाय तलाशती हैं, प्रबंधन में जुटी हुयी मैनेज तो करती हैं पर मंदी की खबरें बाहर नहीं आने देती। क्योंकि ऐसी खबरों से उनके शेयर पर असर पड़ता है और प्रतिष्ठा हानि तो होती ही है। अब यह खीज उद्योगपतियों के खेमे में भी आ गयी है। कैफे कॉफी डे के सिद्धार्थ की दुःखद मृत्यु इसका एक उदाहरण है। 

आर्थिक मामलों पर अक्सर लिखने वाले गिरीश मालवीय की यह टिप्पणी भी पढ़ लें,

" इंडियन फाउंडेशन ऑफ ट्रांसपोर्ट रिसर्च एंड ट्रेनिंग की रिपोर्ट में फ्रेट डिमांड यानी माल ढुलाई की डिमांड में मौजूदा कमी की तुलना 2008-09 की ग्लोबल मंदी से की गई है, 

इस रिपोर्ट के मुताबिक नवंबर 2018 के बाद से ट्रक रेंटल में 15% की गिरावट आ चुकी है, लेकिन फ्लीट यूटिलाइजेशन इससे कहीं ज्यादा घटा है। सभी 75 ट्रंक रूटों पर ट्रांसपोर्टर बेड़े में कटौती कर रहे हैं। अप्रैल से जून के बीच फ्लीट यूटिलाइजेशन पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले 25% से 30% घट गया है। इससे ट्रांसपोर्टर्स की आय भी लगभग 30% घटी है। कई ऑपरेटर अगली तिमाही में फ्लीट की ईएमआई डिफॉल्ट की हालत में भी आ सकते हैं।

औद्योगिक उत्पादन में कमी का फ्रेट डिमांड पर साफ असर दिख रहा है। ट्रक ढुलाई में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से डिमांड न्यूनतम स्तर पर बनी हुई है। शहरों और ग्रामीण इलाकों में उपभोक्ता खर्च घटा है और कृषि क्षेत्रों में ढुलाई अप्रैल की पीक डिमांड के बाद लगभग सुस्त हो गई है। जून में एफएमसीजी से फल-सब्जियों की ढुलाई डिमांड भी 20% तक घट चुकी है।

ढुलाई डिमांड घटने के चलते पहली तिमाही में देश के सभी बड़े रूटों पर ट्रक फ्लीट में 30% तक कमी आई है, यह सब मोदी सरकार द्वारा मूर्खता पूर्ण आर्थिक नीतियों को लागू करने का नतीजा है। "

फिलहाल तो अर्थ व्यवस्था से जुड़े हर क्षेत्र से निराशाजनक खबरें आ रही हैं। बैंकिंग सेक्टर एनपीए से परेशान है, सरकार के पास पैसा नहीं है। वह कभी आरबीआई तो कभी सेबी से धन मांग रही है। आरबीआई के एक गवर्नर उर्जित पटेल और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य रिज़र्व फंड के मांग के सवाल पर इसे आरबीआई की स्वायत्तता पर आघात बता कर त्यागपत्र दे चुके हैं, हालांकि उन्होंने इस्तीफा देने का कारण निजी बताया है। डॉलर बांड के रूप में विदेशों से कर्ज लेने की योजना है। पर अर्थशास्त्री सरकार की इस कर्ज़ लेने की योजना को आत्मघाती योजना बता रहे हैं।  किसान, मंदी झेल ही रहे हैं। सरकार के सारे आंकड़े विश्वस्तर पर फ़र्ज़ी समझे जा रहे हैं। कुल मिलाकर आर्थिक स्थिति कठिन राह पर है। 

© विजय शंकर सिंह 


जन्मदिन 31 जुलाई - इतिहासकार डीडी कौसाम्बी को याद करते हुये / विजय शंकर सिंह

इतिहासकारों की इस भीड़ में यह नाम कुछ अलग लग रहा है न । परंपरागत इतिहासकारों , सर जदुनाथ सरकार, डॉ ईश्वरी प्रसाद, डॉ आरसी मजूमदार, से लेकर प्रोफेसर विपन चन्द्र , डॉ इरफान हबीब, डॉ रोमिला थापर से होते हुए रामचन्द्र गुहा तक के नामों के बीच डीडी कौसाम्बी का नाम कुछ कम जाना पहचाना लगता है न ? वे अकादमिक इतिहासकार नहीं थे। मूलतः वे गणितज्ञ थे। गणित में उनका अकादमिक योगदान है। मैं गणित से शुरू से ही भागता रहा हूँ और गणित की किताबें मुझे नींद ला देती थीं तो उनका गणित में क्या अकादमिक योगदान रहा है, यह में नहीं बता पाऊंगा। फिर भी यह एक निर्विवाद तथ्य है कि, गणित के वह प्रकांड विद्वान थे और अंतिम समय तक उसकी शिक्षा देते रहे। सांख्यिकी और स्टेटिक्स सिद्धांत के क्षेत्र में उनका कार्य विज्ञान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया।

डीडी कौसाम्बी (31 जुलाई, 1907 - 29 जून, 1966) का जन्म, गोवा में कोसबेन नामक स्थान पर हुआ था। संभवतः कोसबेन से ही उनका सरनेम कौशाम्बी अद्भुत हुआ हो।  वे गणितज्ञ, इतिहासविद तथा राजनीतिक विचारक थे। देश के स्वाधीनता संग्राम के निर्णायक काल, बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में, ज्ञान-विज्ञान और मानव के प्रयासों का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जिसमें विलक्षण विभूतियों का आविर्भाव न हुआ हो। साहित्य, कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग आदि सभी क्षेत्रों में वैश्विक प्रतिभाओं ने जन्म लिया। ऐसे ही काल खंड में,  बहुमुखी प्रतिभा के धनी डीडी. कौशाम्बी का आज जन्मदिन है, जो उन्हीं यशस्वी लोगों में से एक है। वे एक मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित इतिहासकार थे।

मार्क्सवाद केवल धरना प्रदर्शन, ज़िंदाबाद मुर्दाबाद और जुलूस आदि की स्थूल विचारधारा नहीं है।  इस विचारधारा के बारे में बिना कुछ पढें और जाने लोग अक्सर इसे अराजक विचार मान बैठते है, जबकि अपने राजनीतिक स्वरूप के अतिरिक्त मार्क्सवाद एक समृद्ध दर्शन भी है। मार्क्सवाद ने लगभग सभी अकादमिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। चाहे वह अर्थशास्त्र हो, या राजनीति, दर्शन,  साहित्य, कला, या इतिहास सभी के इसके अपने स्थापित स्कूल हैं। कौशाम्बी ने भारतीय इतिहास को मार्क्सवादी नज़रिए से देखा, समझा और लिखा है।

1956 में प्रकाशित उनकी पुस्तक इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री ने इतिहास की एक नई परिभाषा बताई। इतिहास को समझने की उन्होंने एक नई दृष्टि प्रस्तुत की और इतिहास लेखन का नया, परिवर्तनकामी मार्ग प्रशस्त किया। जहां एक ओर उन्होंने पश्चिमी इतिहासकारों की रचनाओं के आधार को चुनौती दी, वहीं दूसरी ओर उन्होंने प्राचीन काल को स्वर्ण-युग बताने वाले हमारे अपने देश के अहंकारी  दरबारी इतिहासकारों के दंभ को एक्सपोज कर डाला। आज डीडी कौशांबी को मुख्य रूप से इसी योगदान के लिए याद किया जाता है।

कौशाम्बी, परिवर्तनकामी बुद्धिजीवी थे। वे इतिहास को भी उसी बदलाव की नज़र से देखते थे। वे ’इतिहास लेखन, जो अमूमन एक घटनकर्मो का तिथिवार विवरण समझा जाता है के अनुसार  लिखने की बजाय, अतीत में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के अध्ययन और उनके कारणों की तह मे जाना चाहते थे। लेकिन इन परिवर्तनों का अध्ययन तब तक संभव नहीं है जब तक इतिहास की समझ न हो। इतिहास रट्टूपना नहीं है। हर ऐतिहासिक घटना के पीछे तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक दबाव होते हैं। पर जब इतिहास से हम रूबरू होते हैं तो अक्सर उन सामाजिक और आर्थिक दबाओ को या तो समझना नहीं चाहते या उनको नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इन्ही संदर्भों का बारीकी से अध्ययन करने के लिये वे इतिहास की ओर मुड़े और इतिहास लेखन की ओर आकर्षित हुए।

कोसंबी के पूर्व तक का इतिहास लेखन व्यक्तियों, राजवंशों और उससे जुड़ी घटनाओं का विवरण देना ही इतिहास लेखन का मुख्य उद्देश्य समझा जाता था। राजाओं के आक्रमण, सैन्य शौर्य और बलिदान की कहानियां ही इतिहास नहीं हैं। बल्कि तत्कालीन समाज मे जो परिवर्तन हो रहे थे उनका भी अध्ययन इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है। कौशाम्बी ने इस पक्ष को,  उत्पादन के साधनों और सम्बंधों की जटिल अंतर्क्रिया के रूप में परिभाषित किया और अपने अध्ययन का मुख्य विंदु बनाया । उनके अनुसार,
“उत्पादन के साधनों और संबंधों में हाने वाले क्रमिक परिवर्तनों का कालक्रम से प्रस्तुत किया गया विवरण ही इतिहास है।”
इतिहास की इस परिभाषा में मार्क्स के उस मशहूर कथन की अनुगूँज है कि,
“भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है।”

यह सच है कि उत्पादन के साधनों का प्रभाव संबंधों पर पड़ता है। लेकिन ये संबंध निर्धारणवादी नहीं होते। इन पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब सिद्धांत लागू नहीं होता। इसीलिए कौशांबी ने कहा था,
“हमारा दृष्टिकोण यांत्रिक नियतिवाद से बहुत हटकर होना चाहिए, विशेषतः भारत पर विचार करते समय। क्योंकि भारत में बाह्य रूप को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है और अन्तर्वस्तु की उपेक्षा की जाती है। आर्थिक नियतिवाद भी किसी काम का नहीं है। यह अनिवार्य नहीं, सत्य भी नहीं, कि एक निश्चित मात्रा की धनराशि से एक निश्चित प्रकार का विकास अवश्य होगा। जिस सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया में समाज के स्वरूप का विकास होता है, उसका भी विशिष्ट महत्व है।”

इतिहास की एक विधा है इतिहास लेखन। मुद्राशास्त्र भी उसी का एक अंग है। इस विधा में सिक्को का अध्ययन कर के अतीत की सामाजिक और ऐतिहासिक स्थिति को जाना जाता है। मुद्राशास्त्र उनका प्रिय विषय था। अपने अध्ययन में, उन्होंने, तक्षशिला के (विशेष रूप से मगधकालीन) सिक्कों के विशाल भंडार और नियंत्रण साधन के रूप में आधुनिक सिक्कों का उपयोग किया। लगभग 12 हजार सिक्कों के अध्ययन के बाद उन्होंने कहा था कि पुरालेख और पुरातत्व से भिन्न एक विज्ञान के रूप में मुद्रा शास्त्र की नींव डाली जा सकती है।

डीडी कौशाम्बी का इतिहास अध्ययन मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित ज़रूर था,  पर उनके लिये  मार्क्सवाद कोई जड़ सूत्र या बंद सिद्धांत नहीं है, उन्होंने अत्यन्त खुलेपन के साथ मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की पद्धति का उपयोग अपने इतिहास लेखन में किया है।  प्राचीन इतिहास पर लिखते हुए उनके समक्ष स्पष्ट आर्थिक आधार उपलब्ध नहीं था। अब जाकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास के पूर्व प्रोफेसर डॉ विशुद्धानन्द पाठक ने प्राचीन भारत का आर्थिक इतिहास लिखा। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इतिहास के प्रोफेसर डॉ इरफान हबीब ने मध्यकाल के आर्थिक इतिहास पर बहुत सारगर्भित इतिहास लेखन किया है। यह राजनैतिक इतिहास से अलग तरह का इतिहास लेखन है। लेकिन डीडी कौशाम्बी के समय तक आर्थिक आधार पर इतिहास लेखन की सामग्री का अभाव था। अतः उन्होंने बची-खुची अधिरचनाओं से आधार पर ही अपनी यह यात्रा तय की। इसलिए कुछ लोगों ने उन पर ’सांस्कृतिक निर्धारणवादी’ होने का आरोप लगाया। अपनी मार्क्सवादी दृष्टि के खुलेपन के कारण ही वे मार्क्स के ’एशियाई उत्पादन पद्धति’ जैसे सूत्रीकरण के विरोध का साहस जुटा पाये और श्रीपाद अमृत डांगे की पुस्तक – ’इंडिया फ्रॉम प्रिमिटिव कम्युनिज्म टु स्लेवरी’ की निर्मम आलोचना कर सके।

मार्क्सवादी अन्तर्दृष्टि के साथ इतिहास लेखन में वे जहाँ जैसी भी आवश्यकता पड़ी, उन्होंने पुरातत्व, नृतत्व, सिक्काशास्त्र, साहित्य और भाषा जैसे विविध अनुशासनों का सार्थक इस्तेमाल किया। कोसंबी की मार्क्सवादी अवधारणा के अनुसार, भारत के इतिहास को आदिम साम्यवाद,-दासप्रथा,-सामंतवाद और पूँजीवाद के खाँचों में फिट नहीं किया जा सकता क्योंकि यूनान और रोम की तरह भारत में दासप्रथा लगभग नहीं था। यहाँ दासों की प्रायः खरीद-बिक्री नहीं होती थी और न ही श्रम आपूर्ति में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका थी। दासों की भूमिका हमारे समाज में सबसे निम्न वर्ण के शूद्र लोगों ने निभायी। लेकिन उनकी स्थिति दासों से भिन्न थी। अपनी इस समझ के आधार पर उन्होंने डांगे की उपर्युक्त पुस्तक की आलोचना की। सामंतवाद के यूरोपीय मॉडल को भी उन्होंने ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया। हमारा समाज यूरोपीय समाज या अरब के कबीलाई समाज की तरह जर खरीद गुलामों का समाज नहीं रहा है। सामाजिक स्तरों में शूद्रों की स्थिति निम्न और दयनीय रही है पर वे समाज व्यवस्था के एक अनिवार्य अंग थे।

उनके अनुसार सामंत वाद के प्रथम चरण में,
“सम्राट या शक्तिशाली राजा अपने अधीनस्थों से उगाही करता था जो स्वयं शासक थे और जब तक सर्वोच्च शासक को भुगतान करते थे, अपने-अपने राज्य में मनमानी करते थे। ये अधीनस्थ शासक कबीलाई सरदार भी हो सकते थे और लगता है कि बगैर वर्ग की मध्यस्थता के जो कि असल में भूमि स्वामी संस्तर था, सीधे प्रशासन द्वारा इलाके पर शासन करते थे। नीचे से सामंतवाद का अर्थ है अगला चरण जहाँ गाँव में राज्य और कृषक वर्ग के बीच भूस्वामियों का एक वर्ग विकसित हो जाता है, जो स्थानीय जनता के ऊपर सशस्त्र बल रखता था।”
मार्क्स एंगेल्स के यहाँ इस तरह ऊपर और नीचे से सामंतवाद के दो स्तरों की कोई अवधारणा नहीं है। यह दामोदर धर्मानंद कोसंबी की भारतीय परिपे्रक्ष्य में की गयी नयी व्याख्या थी। हलाँकि आगे चलकर अन्य इतिहासकारों ने अपने व्यापक अध्ययन के आधार पर इस मॉडल से अपनी असहमति जतायी।

भारतीय समाज के विश्लेषण के लिए उत्संस्करण (एकल्चरेशन) की अवधारणा भी कोसंबी की मौलिक अवधारणा है। इसके आधार पर कबीलाई या जनजातीय समूहों का कृषक समाज में बिना हिंसा के विलयन किया जा सका। इसके लिए एक तरफ ब्राह्मणों के द्वारा आदिवासी देवी -देवताओं और मिथकों का आत्मसातीकरण किया गया तो दूसरी ओर कबीले के कुछ सरदारों को वर्ण व्यवस्था में ऊँचा दर्जा दिलाकर उन्हें शासक वर्ग में शामिल कर लिया गया। शेष कबीले के लोगों को निचली जाति के किसानों के रूप में मान्यता देकर मिला लिया गया । एक तरह से यह उत्संस्करण बिना किसी हिंसा के जनजातीय या कबीलाई समूह को वर्गीय समाज का हिस्सा बना लेने की प्रक्रिया थी। इस प्रकार कौशाम्बी द्वारा की गयी एशियाई उत्पादन पद्धति की आलोचना, भारत में दास प्रथा का अभाव, ऊपर और नीचे से सामंतवाद तथा उत्संस्करण की अवधारणा का शास्त्रीय मार्क्सवाद से कोई सीधा संबंध नहीं है। ये उनकी मौलिक अवधारणाएँ हैं। प्राचीन भारतीय समाज के विश्लेषण में सहायक सिद्ध होती हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को उन्होंने आँख मूँदकर भारतीय समाज पर यंत्रवत् लागू नहीं किया।

संस्कृत साहित्य में कोशांबी ने भर्तृहरि और भास की रचनाओं की ओर विशेष ध्यान दिया और उनके भाष्य उत्कृष्ट माने जाते हैं। संस्कृत साहित्य से वह उसकी सामाजिक पीठिका, प्राचीन भारत के इतिहास की ओर बढ़ गए। 1938-39 के बाद से उन्होंने इस विषय पर अनेकानेक निबंध लिखे। आज डीडी कौशाम्बी का जन्मदिन है । इतिहास को एक अलग दृष्टि से देखने वाले इस महान गणितज्ञ, सांख्यिकीविद, साहित्य और इतिहास के अनुसंधित्सु का विनम्र स्मरण।

© विजय शंकर सिंह

Tuesday, 30 July 2019

तीन तलाक़ बिल पास हो गया / विजय शंकर सिंह

आखिर कई चरण के बाद तीन तलाक़ बिल पास हो गया। सरकार बहुत चिंतित थी। उसने इस बिल को पास कराने के लिये काफी प्रयास किया, और उसका प्रयास सफल हुआ। सरकार को बधाई। अब देखना है कि इससे उन महिलाओं की ज़िंदगी मे क्या बदलाव आता है जो तीन तलाक़ बोल कर रफू चक्कर होने वाले पुरुषों से पीड़ित हो जाया करती थी। उम्मीद है जैसे बहुत से मुस्लिम देशों में तीन तलाक़ की प्रथा मान्य नहीं है वैसे ही यहां भी मुस्लिम समाज अपने शरीयत के हिसाब से ही इस प्रथा का अनुसरण करेगा।

मुस्लिम समाज अक्सर पर्सनल कानूनों की बात करता है और वह यह भी कहता है कि उसके कानून में राज्य का दखल नहीं होना चाहिये। मुस्लिम समाज के जो उलेमा और इस्लामी कानून के जानकार थे उन्होंने इस प्रथा को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। वे मुस्लिम महिलाओं के इस उत्पीड़न पर चुप रहे । न्याय का शून्य नहीं बन सकता है। अगर कोई संस्था जो न्याय या दुःख सुनने के लिये बनी है और उचित अवसर पर खरा नहीं उतरती है तो जो न्याय शून्यता बनेगी वह सदैव नहीं रह पाएगी। उस शून्य को कोई न कोई तँत्र भरने के लिये तत्पर हो जाएगा। चाहे वह विधिमान्य तँत्र हो या अराजक तंत्र।

आज के समाज मे विवाह विच्छेद या तलाक़ बहुत बढ़ गए हैं। चाहे वह किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के हों अदालती के पारिवारिक न्यायालय ऐसे मुकदमों से भरे पड़े हैं। उलेमा या पर्सनल लॉ बोर्ड वाले यह तो मानते हैं कि तलाक़ ए बिद्दत यानी तीन तलाक़ शरीयत में मान्य नहीं है। पर इस अमान्य प्रथा को वे क्यों अपने समाज मे चलने दे रहे थे ?.उन्होंने इसके समाधान के लिये कोई उपाय क्यों नहीं किया ? यह उनके नेतृत्व की कमी है या वे जानबूझकर कर इस कुप्रथा को चलने दे रहे थे ? समाज या धर्म का नेतृत्व, राजनैतिक नेतृत्व से अधिक तथ्यपरक और स्पष्ट होना चाहिये। समाज और धर्म का नेतृत्व आसान नही होता है। यहां जनता इतना अधिक अपने नेतृत्व के प्रति अंधभाव से ग्रस्त रहती है कि वह बिना सोचे समझे इन नेतृत्व का अनुगमन करती रहती है। वह कुप्रथाओं को भी मान्य प्रथा समझ बैठती है। ऐसे अंधत्व में घिरे अनुगामी समाज को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का जो दायित्व इन समाज और धर्म के ठेकेदारों का रहा वे इस विंदु पर असफल रहे।

भाजपा का राजनीतिक एजेंडा भले ही इस बिल के पारित हो जाने से सधता हो, पर यह बात भी अपनी जगह सही है कि इस अशरीयतन प्रथा का बहुत दुरुपयोग हुआ। कोई भी धर्म समाज के अंदर अपने खोल में छुप पर नहीं जी सकता है। एक बहुलतावादी समाज मे तो बिल्कुल भी नहीं। बहुलतावादी समाज कभी भी अलग अलग खानों में बंटे होने के बावजूद भी अलग अलग तेल पानी के समान असंपृक्त हुये नहीं रह सकता है। भारतीय मुस्लिम की अधिकांश जनसंख्या धर्मांतरित है। वे पहले हिंदू दे बाद में कतिपय कारणों से धर्म बदलते गये। धर्म और पूजा पद्धति तो बदली पर अवचेतन में उनके अपनी परंपराएं, सोच,  मानसिकता बनी रही। क्योंकि समाज एक साथ रहता है और जन्म से मृत्यु तक साथ साथ ही जीता मरता है। मुस्लिम समाज के रहनुमाओं को यह बात माननी चाहिये कि इस मामले में वे समय के बदलाव के साथ नहीं बदले और जड़ बने रहे।

इस बिल के बहस के दौरान बहुत सी बातें जानकारी में आयी। यह भी कहा गया कि यह सिविल प्रकृति का मामला है इसे आपराधिक मामला नहीं बनाया जा सकता है। तीन तलाक़ से जब विवाह विच्छेद ही नहीं हुआ तो फिर एफआईआर किस अपराध की होगी। पति के जेल जाने पर और उसके जमानत न होने पर यह महिला परेशान होगी। आदि आदि व्यवहारिक समस्याओं के साथ साथ कुछ कानूनी विंदु भी उठाए गए। यह बिल सुप्रीम कोर्ट में भी विचार हेतु जा सकता है। या यह भी हो सकता है कोई पीड़ित ही इस बिल में कोई कानूनी विंदु खोज ले । पर यह बाद की बात है। फिलहाल तो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बन जायेगा और इसी विषय पर जारी अध्यादेश भी खत्म हो जाएगा।

फिलहाल पिछले तीन साल से सरकार इस कानून को बनाने में जुटी थी। अब यह बन गया है। सरकार भी खुश, सरकार के समर्थक भी खुश, मुस्लिम महिलाओं ने भी राहत की सांस ली कि अब एक झटके में तलाक तलाक़ तलाक़ बोल कर कोई भाग नहीं पाएगा, भागेगा तो थाना पुलिस पकड़ लेगी। यानी सभी पक्ष खुश। दुखी तो बस वे टीवी चैनल वाले होंगे जो इस पर लगातार बेतुकी और फिजूल की बहस कर कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना साधते रहे। अब वे नयी सुरसुरी छोड़ेंगे। ब्रह्मांड की सीमा जानी जा सकती है लेकिन मानव मूर्खता की सीमा नहीं, आइंस्टीन के इस उद्धरण को टीवी चैनल पर लागू करके कहीं भी उदाहरण के लिये आप दे सकते हैं।

उम्मीद है, अब एक बड़ी, ज्वलंत और बेहद पेचीदी समस्या का समाधान करने के बाद सरकार अपने संकल्पपत्र 2014 के वादों को पूरा करने में जुटेंगी। यह एक बड़ी समस्या थी जो सरकार को कुछ सार्थक करने नहीं दे रही थी। 2019 में तो कोई वादा इसलिए नहीं किया गया था कि 2014 के ही वादे अभी पूरे नहीं हो सके थे। अब सरकार थोड़ी रिलैक्स है और अब काम करेगी।

© विजय शंकर सिंह