इतिहासकारों की इस भीड़ में यह नाम कुछ अलग लग रहा है न । परंपरागत इतिहासकारों , सर जदुनाथ सरकार, डॉ ईश्वरी प्रसाद, डॉ आरसी मजूमदार, से लेकर प्रोफेसर विपन चन्द्र , डॉ इरफान हबीब, डॉ रोमिला थापर से होते हुए रामचन्द्र गुहा तक के नामों के बीच डीडी कौसाम्बी का नाम कुछ कम जाना पहचाना लगता है न ? वे अकादमिक इतिहासकार नहीं थे। मूलतः वे गणितज्ञ थे। गणित में उनका अकादमिक योगदान है। मैं गणित से शुरू से ही भागता रहा हूँ और गणित की किताबें मुझे नींद ला देती थीं तो उनका गणित में क्या अकादमिक योगदान रहा है, यह में नहीं बता पाऊंगा। फिर भी यह एक निर्विवाद तथ्य है कि, गणित के वह प्रकांड विद्वान थे और अंतिम समय तक उसकी शिक्षा देते रहे। सांख्यिकी और स्टेटिक्स सिद्धांत के क्षेत्र में उनका कार्य विज्ञान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया।
डीडी कौसाम्बी (31 जुलाई, 1907 - 29 जून, 1966) का जन्म, गोवा में कोसबेन नामक स्थान पर हुआ था। संभवतः कोसबेन से ही उनका सरनेम कौशाम्बी अद्भुत हुआ हो। वे गणितज्ञ, इतिहासविद तथा राजनीतिक विचारक थे। देश के स्वाधीनता संग्राम के निर्णायक काल, बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में, ज्ञान-विज्ञान और मानव के प्रयासों का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जिसमें विलक्षण विभूतियों का आविर्भाव न हुआ हो। साहित्य, कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग आदि सभी क्षेत्रों में वैश्विक प्रतिभाओं ने जन्म लिया। ऐसे ही काल खंड में, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डीडी. कौशाम्बी का आज जन्मदिन है, जो उन्हीं यशस्वी लोगों में से एक है। वे एक मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित इतिहासकार थे।
मार्क्सवाद केवल धरना प्रदर्शन, ज़िंदाबाद मुर्दाबाद और जुलूस आदि की स्थूल विचारधारा नहीं है। इस विचारधारा के बारे में बिना कुछ पढें और जाने लोग अक्सर इसे अराजक विचार मान बैठते है, जबकि अपने राजनीतिक स्वरूप के अतिरिक्त मार्क्सवाद एक समृद्ध दर्शन भी है। मार्क्सवाद ने लगभग सभी अकादमिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। चाहे वह अर्थशास्त्र हो, या राजनीति, दर्शन, साहित्य, कला, या इतिहास सभी के इसके अपने स्थापित स्कूल हैं। कौशाम्बी ने भारतीय इतिहास को मार्क्सवादी नज़रिए से देखा, समझा और लिखा है।
1956 में प्रकाशित उनकी पुस्तक इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री ने इतिहास की एक नई परिभाषा बताई। इतिहास को समझने की उन्होंने एक नई दृष्टि प्रस्तुत की और इतिहास लेखन का नया, परिवर्तनकामी मार्ग प्रशस्त किया। जहां एक ओर उन्होंने पश्चिमी इतिहासकारों की रचनाओं के आधार को चुनौती दी, वहीं दूसरी ओर उन्होंने प्राचीन काल को स्वर्ण-युग बताने वाले हमारे अपने देश के अहंकारी दरबारी इतिहासकारों के दंभ को एक्सपोज कर डाला। आज डीडी कौशांबी को मुख्य रूप से इसी योगदान के लिए याद किया जाता है।
कौशाम्बी, परिवर्तनकामी बुद्धिजीवी थे। वे इतिहास को भी उसी बदलाव की नज़र से देखते थे। वे ’इतिहास लेखन, जो अमूमन एक घटनकर्मो का तिथिवार विवरण समझा जाता है के अनुसार लिखने की बजाय, अतीत में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के अध्ययन और उनके कारणों की तह मे जाना चाहते थे। लेकिन इन परिवर्तनों का अध्ययन तब तक संभव नहीं है जब तक इतिहास की समझ न हो। इतिहास रट्टूपना नहीं है। हर ऐतिहासिक घटना के पीछे तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक दबाव होते हैं। पर जब इतिहास से हम रूबरू होते हैं तो अक्सर उन सामाजिक और आर्थिक दबाओ को या तो समझना नहीं चाहते या उनको नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इन्ही संदर्भों का बारीकी से अध्ययन करने के लिये वे इतिहास की ओर मुड़े और इतिहास लेखन की ओर आकर्षित हुए।
कोसंबी के पूर्व तक का इतिहास लेखन व्यक्तियों, राजवंशों और उससे जुड़ी घटनाओं का विवरण देना ही इतिहास लेखन का मुख्य उद्देश्य समझा जाता था। राजाओं के आक्रमण, सैन्य शौर्य और बलिदान की कहानियां ही इतिहास नहीं हैं। बल्कि तत्कालीन समाज मे जो परिवर्तन हो रहे थे उनका भी अध्ययन इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है। कौशाम्बी ने इस पक्ष को, उत्पादन के साधनों और सम्बंधों की जटिल अंतर्क्रिया के रूप में परिभाषित किया और अपने अध्ययन का मुख्य विंदु बनाया । उनके अनुसार,
“उत्पादन के साधनों और संबंधों में हाने वाले क्रमिक परिवर्तनों का कालक्रम से प्रस्तुत किया गया विवरण ही इतिहास है।”
इतिहास की इस परिभाषा में मार्क्स के उस मशहूर कथन की अनुगूँज है कि,
“भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है।”
यह सच है कि उत्पादन के साधनों का प्रभाव संबंधों पर पड़ता है। लेकिन ये संबंध निर्धारणवादी नहीं होते। इन पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब सिद्धांत लागू नहीं होता। इसीलिए कौशांबी ने कहा था,
“हमारा दृष्टिकोण यांत्रिक नियतिवाद से बहुत हटकर होना चाहिए, विशेषतः भारत पर विचार करते समय। क्योंकि भारत में बाह्य रूप को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है और अन्तर्वस्तु की उपेक्षा की जाती है। आर्थिक नियतिवाद भी किसी काम का नहीं है। यह अनिवार्य नहीं, सत्य भी नहीं, कि एक निश्चित मात्रा की धनराशि से एक निश्चित प्रकार का विकास अवश्य होगा। जिस सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया में समाज के स्वरूप का विकास होता है, उसका भी विशिष्ट महत्व है।”
इतिहास की एक विधा है इतिहास लेखन। मुद्राशास्त्र भी उसी का एक अंग है। इस विधा में सिक्को का अध्ययन कर के अतीत की सामाजिक और ऐतिहासिक स्थिति को जाना जाता है। मुद्राशास्त्र उनका प्रिय विषय था। अपने अध्ययन में, उन्होंने, तक्षशिला के (विशेष रूप से मगधकालीन) सिक्कों के विशाल भंडार और नियंत्रण साधन के रूप में आधुनिक सिक्कों का उपयोग किया। लगभग 12 हजार सिक्कों के अध्ययन के बाद उन्होंने कहा था कि पुरालेख और पुरातत्व से भिन्न एक विज्ञान के रूप में मुद्रा शास्त्र की नींव डाली जा सकती है।
डीडी कौशाम्बी का इतिहास अध्ययन मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित ज़रूर था, पर उनके लिये मार्क्सवाद कोई जड़ सूत्र या बंद सिद्धांत नहीं है, उन्होंने अत्यन्त खुलेपन के साथ मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की पद्धति का उपयोग अपने इतिहास लेखन में किया है। प्राचीन इतिहास पर लिखते हुए उनके समक्ष स्पष्ट आर्थिक आधार उपलब्ध नहीं था। अब जाकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास के पूर्व प्रोफेसर डॉ विशुद्धानन्द पाठक ने प्राचीन भारत का आर्थिक इतिहास लिखा। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इतिहास के प्रोफेसर डॉ इरफान हबीब ने मध्यकाल के आर्थिक इतिहास पर बहुत सारगर्भित इतिहास लेखन किया है। यह राजनैतिक इतिहास से अलग तरह का इतिहास लेखन है। लेकिन डीडी कौशाम्बी के समय तक आर्थिक आधार पर इतिहास लेखन की सामग्री का अभाव था। अतः उन्होंने बची-खुची अधिरचनाओं से आधार पर ही अपनी यह यात्रा तय की। इसलिए कुछ लोगों ने उन पर ’सांस्कृतिक निर्धारणवादी’ होने का आरोप लगाया। अपनी मार्क्सवादी दृष्टि के खुलेपन के कारण ही वे मार्क्स के ’एशियाई उत्पादन पद्धति’ जैसे सूत्रीकरण के विरोध का साहस जुटा पाये और श्रीपाद अमृत डांगे की पुस्तक – ’इंडिया फ्रॉम प्रिमिटिव कम्युनिज्म टु स्लेवरी’ की निर्मम आलोचना कर सके।
मार्क्सवादी अन्तर्दृष्टि के साथ इतिहास लेखन में वे जहाँ जैसी भी आवश्यकता पड़ी, उन्होंने पुरातत्व, नृतत्व, सिक्काशास्त्र, साहित्य और भाषा जैसे विविध अनुशासनों का सार्थक इस्तेमाल किया। कोसंबी की मार्क्सवादी अवधारणा के अनुसार, भारत के इतिहास को आदिम साम्यवाद,-दासप्रथा,-सामंतवाद और पूँजीवाद के खाँचों में फिट नहीं किया जा सकता क्योंकि यूनान और रोम की तरह भारत में दासप्रथा लगभग नहीं था। यहाँ दासों की प्रायः खरीद-बिक्री नहीं होती थी और न ही श्रम आपूर्ति में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका थी। दासों की भूमिका हमारे समाज में सबसे निम्न वर्ण के शूद्र लोगों ने निभायी। लेकिन उनकी स्थिति दासों से भिन्न थी। अपनी इस समझ के आधार पर उन्होंने डांगे की उपर्युक्त पुस्तक की आलोचना की। सामंतवाद के यूरोपीय मॉडल को भी उन्होंने ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया। हमारा समाज यूरोपीय समाज या अरब के कबीलाई समाज की तरह जर खरीद गुलामों का समाज नहीं रहा है। सामाजिक स्तरों में शूद्रों की स्थिति निम्न और दयनीय रही है पर वे समाज व्यवस्था के एक अनिवार्य अंग थे।
उनके अनुसार सामंत वाद के प्रथम चरण में,
“सम्राट या शक्तिशाली राजा अपने अधीनस्थों से उगाही करता था जो स्वयं शासक थे और जब तक सर्वोच्च शासक को भुगतान करते थे, अपने-अपने राज्य में मनमानी करते थे। ये अधीनस्थ शासक कबीलाई सरदार भी हो सकते थे और लगता है कि बगैर वर्ग की मध्यस्थता के जो कि असल में भूमि स्वामी संस्तर था, सीधे प्रशासन द्वारा इलाके पर शासन करते थे। नीचे से सामंतवाद का अर्थ है अगला चरण जहाँ गाँव में राज्य और कृषक वर्ग के बीच भूस्वामियों का एक वर्ग विकसित हो जाता है, जो स्थानीय जनता के ऊपर सशस्त्र बल रखता था।”
मार्क्स एंगेल्स के यहाँ इस तरह ऊपर और नीचे से सामंतवाद के दो स्तरों की कोई अवधारणा नहीं है। यह दामोदर धर्मानंद कोसंबी की भारतीय परिपे्रक्ष्य में की गयी नयी व्याख्या थी। हलाँकि आगे चलकर अन्य इतिहासकारों ने अपने व्यापक अध्ययन के आधार पर इस मॉडल से अपनी असहमति जतायी।
भारतीय समाज के विश्लेषण के लिए उत्संस्करण (एकल्चरेशन) की अवधारणा भी कोसंबी की मौलिक अवधारणा है। इसके आधार पर कबीलाई या जनजातीय समूहों का कृषक समाज में बिना हिंसा के विलयन किया जा सका। इसके लिए एक तरफ ब्राह्मणों के द्वारा आदिवासी देवी -देवताओं और मिथकों का आत्मसातीकरण किया गया तो दूसरी ओर कबीले के कुछ सरदारों को वर्ण व्यवस्था में ऊँचा दर्जा दिलाकर उन्हें शासक वर्ग में शामिल कर लिया गया। शेष कबीले के लोगों को निचली जाति के किसानों के रूप में मान्यता देकर मिला लिया गया । एक तरह से यह उत्संस्करण बिना किसी हिंसा के जनजातीय या कबीलाई समूह को वर्गीय समाज का हिस्सा बना लेने की प्रक्रिया थी। इस प्रकार कौशाम्बी द्वारा की गयी एशियाई उत्पादन पद्धति की आलोचना, भारत में दास प्रथा का अभाव, ऊपर और नीचे से सामंतवाद तथा उत्संस्करण की अवधारणा का शास्त्रीय मार्क्सवाद से कोई सीधा संबंध नहीं है। ये उनकी मौलिक अवधारणाएँ हैं। प्राचीन भारतीय समाज के विश्लेषण में सहायक सिद्ध होती हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को उन्होंने आँख मूँदकर भारतीय समाज पर यंत्रवत् लागू नहीं किया।
संस्कृत साहित्य में कोशांबी ने भर्तृहरि और भास की रचनाओं की ओर विशेष ध्यान दिया और उनके भाष्य उत्कृष्ट माने जाते हैं। संस्कृत साहित्य से वह उसकी सामाजिक पीठिका, प्राचीन भारत के इतिहास की ओर बढ़ गए। 1938-39 के बाद से उन्होंने इस विषय पर अनेकानेक निबंध लिखे। आज डीडी कौशाम्बी का जन्मदिन है । इतिहास को एक अलग दृष्टि से देखने वाले इस महान गणितज्ञ, सांख्यिकीविद, साहित्य और इतिहास के अनुसंधित्सु का विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह