प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक संजय कुमार मिश्र के सेवा विस्तार को अवैध घोषित करने के बाद फिर 15 सितंबर 2023 तक नौकरी में बने रहने की अनुमति देने के प्रकरण पर The Hindu का संपादकीय पढ़ने लायक है। अखबार के अनुसार “ईडी प्रमुख को पद पर बने रहने की अनुमति देकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही अधिकार को कमजोर कर दिया है।” लेकिन हम इस लेख में सुप्रीम कोर्ट के बजाय, इस सेवा विस्तार से ईडी की साख पर क्या असर पड़ेगा और कैसी चुनौती का सामना उसे करना पड़ेगा की चर्चा करेंगे।
द हिंदू लिखता है, “यदि सर्वोच्च न्यायालय को सरकार की इच्छाओं को अत्यधिक टालने के रूप में देखा जाता है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। केंद्र के अनुरोध पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख संजय कुमार मिश्र को 15 सितंबर तक पद पर बने रहने की अनुमति देने वाला आदेश अनावश्यक रूप से उदार है।”
यदि सेवा विस्तार के प्रकरण को देखें तो 11 जुलाई को ही सर्वोच्च न्यायालय ने संजय कुमार मिश्र को 2021 और 2022 में दिए गए विस्तार को अवैध घोषित कर दिया था। साथ ही सुचारु परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए उन्हें 31 जुलाई तक जारी रखने की अनुमति भी दे दी थी। फिर भी बिना यह बताए कि उनके उत्तराधिकारी के चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है, न्यायालय ने उन्हें 15 सितंबर तक पद पर बने रहने की अनुमति देने के लिए एक अपरिभाषित “व्यापक राष्ट्रीय हित” का आधार लिया है। यह व्यापक राष्ट्रीय हित काले धन पर नियंत्रण के लिए गठित अंतरराष्ट्रीय संगठन, FATF की समीक्षा बैठक है। जिसमें ईडी की भूमिका भी रहती है। निश्चित रूप से शीर्ष अदालत ने इस महत्वपूर्ण समीक्षा बैठक के कारण ही सरकार का अनुनय-विनय स्वीकार कर लिया होगा।
सरकार की प्रार्थना के अनुसार, सरकार की नजर में संजय मिश्र की सेवाओं की अपरिहार्यता का प्रत्यक्ष कारण यह है कि वह वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) के समक्ष देश की समीक्षा के दौरान मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकवाद की फंडिंग का मुकाबला करने के लिए अपने सिस्टम और उसके योगदान का प्रस्तुतिकरण करने तथा इस विषय में देश के प्रयासों को दिखाने वाली टीम का नेतृत्व कर रहे हैं। यह बहु-पक्षीय निकाय एक पारस्परिक मूल्यांकन प्रणाली को अपनाता है और भारत की चल रही समीक्षा जून 2024 तक चलेगी। सरकार ने उनकी सेवाओं को 15 अक्टूबर तक बढ़ाने की मांग की थी, शायद इसलिए क्योंकि तब तक देश की एजेंसियां और संस्थाएं एफएटीएफ प्रतिनिधिमंडल के दौरे के लिए तैयार हो सकें।
लेकिन अदालत ने एसके मिश्र की नौकरी, 14/15 सितंबर तक के लिए ही बहाल की है। और यह भी कहा है कि इस मामले में अब कोई अन्य प्रार्थना आगे नहीं सुनी जाएगी। संजय कुमार मिश्र अब तक के सबसे विवादित ईडी प्रमुख रहे हैं।
कुछ कारण देखिए:
1.इनके काल में राजनीतिक दलों के खिलाफ पड़े छापों और जांचों में 95 प्रतिशत छापे या जांच, गैर एनडीए/बीजेपी दलों से जुड़े नेताओं से संबंधित रही हैं।
2. गैर एनडीए/बीजेपी दलों के उन नेताओं की जांच, ठंडे बस्ते में चली गई जिन्होंने अपनी पार्टी छोड़ कर बीजेपी का दामन थाम लिया।
3.जहां-जहां विपक्षी सरकार गिराने के लिए बीजेपी ने ऑपरेशन लोटस किया, वहां-वहां ईडी के छापे और जांच गैर एनडीए/बीजेपी नेताओं के यहां पड़े। और इससे गैर एनडीए/बीजेपी नेताओं में दहशत फैली और जब उन्होंने बीजेपी सरकार के आगे घुटने टेक बीजेपी या एनडीए के रूप में सत्ता की ओर चले गए तो उनकी जांच बंद कर दी गई। या उन्हें बस इसलिए जिंदा रखा गया है ताकि उनकी लगाम सत्तारूढ़ बीजेपी के हाथ में रहे।
इस तरह देश में एक ऐसा माहौल बन गया कि प्रवर्तन निदेशालय, जिसका गठन काले धन को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए कानून पीएमएलए को दृढ़ता से लागू करने के लिए किया गया है, वह ऑपरेशन लोटस के लिए शिकार का जुगाड़ करने का एक संस्थान बन कर रह गया है। जब भी बीजेपी-एनडीए की बात होती है ईडी, सीबीआई और आयकर का नाम बीजेपी-एनडीए के सहयोगी के रूप में एक तंजिया लहजे में भी होने लगता है।
अगर कानून और कानूनी शक्ति तथा अधिकार की बात करें तो देश की सभी जांच एजेंसियों में प्रवर्तन निदेशालय की शक्ति और अधिकार सबसे अधिक हैं। किसी को गिरफ्तार करने उसे लंबे समय तक जमानत से वंचित रखवाने और तलाशी, जब्ती के बेहिसाब अधिकार है। इन अधिकारों के औचित्य पर भी सवाल उठे हैं और अब भी उठ रहे हैं। गिरफ्तारी के बाद रिमांड पर लिए जाने के अधिकार जो सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) के अंतर्गत एक पुलिस अधिकारी का अधिकार है, को अदालत में चुनौती भी दी गई है और अभी सुप्रीम कोर्ट में बहस चल भी रही है। इस मामले पर अलग से लेख लिखा जायेगा।
ईडी को काला धन नियंत्रण कानून पीएमएलए के संदर्भ में व्यापक अधिकार हैं और उसे इस व्यापक हो रहे अपराध को नियंत्रित करने के लिए व्यापक शक्तियां और अधिकार होने भी चाहिए। इस पर शायद ही किसी को आपत्ति हो। पर यह जांच एजेंसी का दायित्व और न्यायबोध है कि वह उन अधिकार और शक्तियों का दुरुपयोग न होने दे। यह दुर्भाग्यपूर्ण धारणा बन गई है कि प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख संजय कुमार मिश्र ने अपने कार्यकाल में ईडी को मिली इन वैधानिक शक्तियों का सत्तारूढ़ दल के हित में खुल कर दुरुपयोग किया है। यह बात प्रमाणित है या नहीं, यह अलग बात है। लेकिन यह धारणा बनती जा रही है और इस धारणा के कारण ऊपर मैने रेखांकित भी कर दिए हैं कि यह जांच एजेंसी बीजेपी के ‘चुनी हुई सरकार अस्थिर करो’ अभियान ऑपरेशन लोटस के एक सक्रिय लेकिन गोपन विस्तार के रूप में रूपांतरित हो चुकी है।
जांच एजेंसी के प्रमुख होने के नाते यह संजय कुमार मिश्र का कर्तव्य था और अब भी है कि वह जांच एजेंसी की किसी भी कार्यप्रणाली को एजेंसी के प्रति जनता में बन रही ऐसी धारणाओं का आधार नहीं बनने देते। और ईडी बिना किसी बाहरी दबाव या हस्तक्षेप के एक प्रोफेशनल जांच एजेंसी के रूप में अपने गठन के उद्देश्य और दायित्व के प्रति सजग और सतर्क रह कर काम करती रहती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मैं उनकी प्रोफेशनल काबिलियत पर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूं और न ही कोई संशय व्यक्त कर रहा हूं।लेकिन जिस तरह से एक सधी जुगलबंदी के साथ विपक्ष के नेताओं के खिलाफ ईडी की जांच की कार्यवाही और उनमें से कुछ का टूट कर बीजेपी की तरफ ध्रुवीकृत हो जाने का घटनाक्रम रहा है उससे ईडी की साख पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ा है।
हाल ही में जब केंद्र सरकार के लगभग दयनीय दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 15 सितंबर तक का सेवा विस्तार दिया है तो इस सेवा विस्तार को भी FATF के कारण नहीं बल्कि ऑपरेशन लोटस के अभी कुछ बचे हुए उद्देश्यों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा मांगा गया बताया जा रहा है। यह साख का संकट है। डेढ़ महीने के इस सेवा विस्तार के दौरान ईडी प्रमुख एसके मिश्र की गतिविधियों पर सबकी नजर रहेगी और उनके लिए भी यह एक उचित अवसर है कि वह अपने प्रति देश में बन चुकी विपरीत धारणा को कुछ हद तक दुरुस्त करने की कोशिश करें, जिससे एजेंसी की साख कुछ तो पटरी पर आए।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh