प्रधानमंत्री मोदी ने ह्यूस्टन में आयोजित अपने स्वागत समारोह, हाउडी मोदी से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासभा में अपनी बात रखा है, और इस दौरान दुनियाभर में हमारी कूटनीति किस तरह से बदल रही है, इस बार के विमर्श का यह मुद्दा है।
प्रधानमंत्री जी की विदेश यात्राएं तो होती ही रहती हैं पर सितंबर के अंतिम दस दिनों में प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा कई मामलों में महत्वपूर्ण रही और कुछ मामलों में तो वह लीक से हटकर भी थी। पहले प्रधानमंत्री ह्यूस्टन में हाउडी मोदी के नाम से आयोजित अप्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में शामिल हुये फिर उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के महासभा में अपना भाषण दिया। लगभग 8 दिन के विदेश प्रवास के बाद वे स्वदेश लौट आये।
ह्यूस्टन का हाउडी मोदी उत्सव कई कारणों से महत्वपूर्ण और चर्चित रहा। अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री का यह पहला जलसा नहीं था। बल्कि 2014 में सत्तारूढ़ होते ही प्रधानमंत्री जब अमेरिका की यात्रा पर गए थे वहां भी मैडिसन स्क्वायर में एक रंगारंग कार्यक्रम हुआ था जो अप्रवासी भारतीयों ने आयोजित किया था। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पीछे यूपीए 2 के अंतिम दिनों में जो आर्थिक घोटाले हुए और उन्हें लेकर जो जनरोष पनपा, उसी की प्रतिक्रिया में अन्ना हज़ारे का आंदोलन हुआ था। अन्ना हज़ारे के आंदोलन की लोकप्रियता भी 2014 में एनडीए के वापसी का एक कारण बनी।
2014 में नयी सरकार के आने बाद लोगो की अपेक्षाएं इस सरकार से बहुत अधिक थीं। यह अपेक्षाएं यूपीए 2 के अंतिम कुछ वर्षों के गम्भीर वित्तीय गड़बड़ियों के कारण भी थी। उस समय यह क्षवि बनायी गयी कि देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब है और विदेशों में भारत की प्रतिष्ठा बहुत ही गिरी हुयी है अतः विदेशी निवेश को आमन्त्रित और आकर्षित करने के लिये दुनियाभर में भारत की वैश्विक क्षवि को सुधारना होगा। इसी एजेंडे को सामने रख कर प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का दौरदौरा शुरू हुआ। अमेरिका में मैडिसन स्क्वायर पर आप्रवासी भारतीय समाज द्वारा पीएम का स्वागत, अमेरिका में अपने प्रकार का पहला जलसा था। और अब ह्यूस्टन का हाउडी मोदी समारोह इस कड़ी में अमेरिका का अब तक का नवीनतम जलसा बना।
पर ह्यूस्टन के हाउडी मोदी में कुछ घटनाएं ऐसी घटीं तो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के स्थापित मान्यताओ से अलग हट कर थीं। ऐसा भी नही है कि कूटनीतिक परंपराएं रूढ़ होती हैं, और वे जड़ की तरह सदैव एक जैसी ही बनी रहती हैं पर ह्यूस्टन में जो नयी परम्परा शुरू हुई वह कूटनीतिक मानदण्ड पर उचित है या नहीं यह तो कूटनीतिक विशेषज्ञ ही बता पाएंगे पर फिलहाल तो यह परंपरा अटपटी ही लग रही है। यह परम्परा है हमारे प्रधानमंत्री द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति के आसन्न चुनाव में उनके समर्थन में खुल कर बोलने की। हाउडी मोदी का समापन डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में इस नारे से हुआ कि अबकी बार ट्रंप सरकार। अचानक, यह समारोह एक चुनावी रैली में बदल गया। भारतीय प्रधानमंत्री के स्वागत समारोह के लिये आयोजित यह उत्सव एक विवादित चुनाव रैली के रूप में देखा जाने लगा।
विदेश नीति का मूल सिद्धांत होता है दोनो देशों के सम्बंध देशों के अंदरूनी राजनीतिक समीकरणों से अप्रभावित रहते है। पर इस समारोह में यह परम्परा और मूल सिद्धांत भुला दिया गया। 2020 में अमेरिका में किसकी सरकार बनती है, डोनाल्ड ट्रंप दुबारा चुने जाते हैं या नही यह अमेरिका की अंदरूनी राजनीति का हिस्सा है। भारत को वहां की अंदरूनी राजनीति में दखल देने का न तो कोई औचित्य है और न ही कूटनीतिक मर्यादाओं के अनुरूप है। यह भी कहा जा रहा है कि भारत के हित अमेरिका से सध सकते हैं। यह सच भी है। आज एक ध्रुवीय हो चुकी दुनिया मे अमेरिका सबसे सशक्त और समर्थ देश है जो दुनिया के सारे कूटनीतिक समीकरणों को प्रभावित करता है। अमेरिका से यह नज़दीकी अगर हमारे देश के हित मे होती है तो इस नज़दीकी का स्वागत किया जाना चाहिए। पर नज़दीकी देशो के बीच हो न कि देश के नेताओं के अपने देश की अंदरूनी राजनीतिक समीकरणों के बीच होनी चाहिये।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की यह अमेरिका यात्रा कुछ बदली परिस्थितियों में हुयी थी। यह बदली परिस्थिति हमारे घरेलू मामले कश्मीर से जुडी है। संविधान में जम्मूकश्मीर राज्य को अनुच्छेद 370 के अंतर्गत विशेष दर्जा दिया गया था जो उसे आंशिक प्रतीकात्मक स्वायत्तता भी देता था। लेकिन यह विशेष दर्जा जम्मूकश्मीर राज्य को देश से अलग बिल्कुल नहीं करता था पर इस आंशिक स्वायत्तता जैसे प्राविधान का जम्मूकश्मीर राज्य की जनता पर कि, उनका भारत से अलग अस्तित्व है, की मानसिकता का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता था। हालांकि अनुच्छेद 370 के 90 % प्राविधान शिथिल हो गए थे और संविधान में घोषित यह अस्थायी धारा अब एक औपचारिकता बन कर रह गयी। यह प्राविधान 5 अगस्त 2019 को संसद से संशोधित कर दिया गया और जम्मूकश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल 2019 के अनुसार यह राज्य लदाख, और जम्मूकश्मीर जैसे दो केंद्र शासित राज्यो में बंट गया। एक विशिष्ट और स्वायत्त समझा जाने वाले राज्य का अचानक केंद शासित राज्य में बन जाने से राज्य की जनता पर न केवल एक मनोवैज्ञानिक असर पड़ा है बल्कि इससे अलगाववादी तत्वो को कश्मीर की अवाम को भारत के विरुद्ध बरगलाने का भी अवसर मिला है।
कश्मीर में इस बिल के विरोध में गंभीर प्रतिक्रिया की सम्भावना से सरकार ने सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए हैं। आज साठ दिन से कश्मीर में प्रतिबंध हैं और जो खबरें कुछ कुछ श्रोतों से आ रही हैं वह बहुत अच्छी नहीं हैं । पर अनुच्छेद 370 का हटाना, कश्मीर में एहतियातन सुरक्षा प्रबंध बढाना, राज्य को केंद शासित राज्यों में विभाजित करना, यह सब हमारा आंतरिक मामला है। कश्मीर की अवाम और उसके नेता तो इन सब पर सवाल उठा सकते हैं पर पाकिस्तान या चीन को इस पर कोई भी सवाल उठाने का अधिकार नहीं है। उनके द्वारा उठाया गया कोई भी सवाल हमारे अंदरूनी मामले में दखलंदाजी है और यह कूटनीतिक परम्पराओ के विपरीत है। पर पाकिस्तान, जब से अनुच्छेद 370 को शिथिल किया गया है तब से, बौखलाया हुआ है और समस्त कूटनीतिक मर्यादाओ के विपरीत जा कर वह इस मसले को विश्व के अन्य देशों और यूएनओ के अंतरराष्ट्रीय मंच पर लगातार उठा रहा है। यह अलग बात है कि उसके इस तिकड़म भरे प्रयास को न तो यूएनओ मान रहा है और न ही कोई और देश।
पाकिस्तान कश्मीर को अभी भी द्विराष्ट्रवाद के आईने से देख रहा है जबकि यह सवाल 26 अक्टूबर 1947 को राजा हरि सिंह द्वारा भारत मे कश्मीर के विलय के बाद ही हल हो गया था। कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने के बावजूद पाकिस्तान में कश्मीर के न मिलने की खीज पाकिस्तान को आज भी है, और इसे ही पाकिस्तानी हुक्मरां अपना अधूरा एजेंडा कहते हैं। यही राग कश्मीर अभी संयुक्त राष्ट्र महासभा में इमरान खान ने छेड़ा है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद मोदी और पाकिस्तान के पीएम इमरान खान के भाषण हुए। यह अंतरराष्ट्रीय मंच द्विपक्षीय समस्याओं के हल के लिये नहीं बल्कि वैश्विक समस्याएं, आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, बिभिन्न देशो में तनाव , पर्यावरण, वैश्विक शांति आदि के सन्दर्भ में विश्व भर के नेताओ के विचार विमर्श के लिये आयोजित होता है। हर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को कुछ समय अपनी बात कहने के लिये दिया जाता है। इस मंच पर हमारे पीएम और इमरान खान ने भी अपनी अपनी बात रखी। पर इमरान खान कश्मीर के एजेंडे से खुद को अलग नहीं कर पाए उनका पूरा भाषण ही इस्लाम, इस्लामोफोबिया, और कश्मीर में मानवाधिकार हनन के अपुष्ट आरोपों पर केंद्रित रहा। हमारे पीएम का भाषण इमरान खान के भाषण के पहले हुआ था अतः इमरान खान के भाषण में जो बातें उठायी गयीं थी उनका सटीक और सधा हुआ उत्तर हमारे विदेश मंत्रालय के अधिकारी ने दिया।
भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी विदिशा मैत्रा जो संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रथम सचिव हैं ने इमरान के भाषण में उठे सवालों का बेहद सधे हुये शब्दो मे जवाब दिया। इमरान ने अपने भाषण में इस्लामोफोबिया का उल्लेख किया। इसका अर्थ है इस्लाम से पूर्वाग्रह भरा डर या विरोध। इमरान खान के भाषण के पहले अंश को पढ़ कर यह लगता ही नहीं कि यह किसी राष्ट्राध्यक्ष का उद्बोधन है। यह लगता है कि यह भाषण धर्म की पैरोकारी है। इस्लाम और आतंकवाद कैसे एक दूसरे के समानार्थी हो गए इसपर कुछ कहना विषयांतर हो जाएगा। अब इमरान खान के भाषण में भारत सम्बन्धित तथ्यों के बारे में, जो उत्तर भारत की तरफ से विदिशा ने दिया है, उसे पढ़े।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के भाषण के बाद यूएन एसेबली में भारत को जबाब देने का मौक़ा मिला ।
■ अब क्योंकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि मंडल को पाकिस्तान आमंत्रित किया है कि वे आकर जाँच ले कि आंतकवादी कैंप है के नहीं । तो हम उनसे निम्न सवालों के जबाब भी चाहते है -
● क्या यह सच नहीं कि पाकिस्तान 139 यूएन द्वारा घोषित आतंकवादियों और 25 यूएन द्वारा प्रतिबंधित आंतकी संगठनों का घर है ?
● क्या यह सच नहीं कि पाकिस्तान दुनिया का एकमात्र मुल्क है जो यूएन द्वारा घोषित अलक़ायदा आतंकी को पेंशन देता है ?
● क्या यह सच नहीं कि पाकिस्तान की बड़ी बैंक हबीब बैक की न्यूयार्क शाखा को इसलिए प्रतिबंधित कर बंद कर दिया गया क्योंकि वह अरबों डालर आंतकियो को फ़ंड के रूप में दे रही थी ?
● क्या यह सच नहीं कि स्वयम् प्रधानमंत्री खान ने अमरीका में आतंकी ओसामा बिन लादेन की खुली वकालत की ?
● क्या यह सच नहीं कि 1947 में 23% अल्पसंख्यक आबादी अब केवल 3% बची है पाकिस्तान में ?
इमरान खान जो क्रिकेटर भी रह चुके हैं, और इस 'जेंटलमैन' खेल पर विश्वास करते हैं, उनका यह भाषण असभ्यता की चरम सीमा तक पहुंच गया है जो कि एकदम दारा आदम खल की बंदूकों की तरह है ।
पाकिस्तान में दारा अदमखल नाम की एक जगह है जो पेशावर से 35 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ियों से घिरा एक कस्बा है। यह जगह पूरी दुनिया में खतरनाक हथियारों की कालाबाजारी के लिए जाना जाता है। यहां पर क्लाशिनिकोव राइफल तक बनाई जाती है जो अंतरराष्ट्रीय बाजार से काफी कम कीमत में बेची जाती है।
पाकिस्तान के साथ मूल समस्या यह है कि वह अपने जन्म का कारण भुला नहीं पाता है। भारत मे जब आज़ादी का संघर्ष चल रहा था तब पाकिस्तान के निर्माता इस्लाम के नाम पर एक धार्मिक राज्य, थियोक्रेटिक स्टेट के लिये लड़ रहे थे। ऐसा भी नहीं था सारे मुसलमान धर्म पर आधारित अलग राज्य चाहते थे, पर धर्मान्ध और कट्टरपंथी तत्व ज़रूर पाकिस्तान के पक्षधर थे और उनकी सांठगांठ कट्टर हिंदू महासभा के नेतृत्व से भी थी। पर हिंदू महासभा को बहुत कम हिंदुओं का समर्थन था। पाकिस्तान की नींव ही मुस्लिम बहुलता इलाक़ो के आधार पर पड़ी थी। कश्मीर की मुस्लिम बहुलता पाकिस्तान के साथ जाने के पक्ष में नहीं थी। वह आज़ाद तो रहना चाहती थी पर पाकिस्तान में अधिकांश कश्मीर के नेता मिलना नहीं चाहते थे। इसका कारण कश्मीर के इस्लाम का अनूठापन है जिसे कश्मीरियत के नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान अब भी इसी मत पर टिका हुआ है कि वहां मुस्लिम बहुलता है तो वह पाकिस्तान का अंग है। जबकि धर्म ही राष्ट्र है का घातक और अतार्किक सिद्धांत 1971 के बांग्लादेश मुक्ति के साथ ही ध्वस्त हो गया था। आजतक पाकिस्तान के हुक्मरान इस मिथ्या सोच से बाहर नहीं निकल पाए हैं। अब वे सीधे युद्ध करके कश्मीर ले नही सकते हैं, क्योंकि चार युद्धों में उन्हें जबरदस्त हार का सामाना करना पड़ा है, तो उन्होंने आतंकवाद के रास्ते से एक छद्मयुद्ध का खेल खेला है। पाकिस्तान की अनावश्यक महत्वाकांक्षा, आतंकवाद का खुला समर्थन और कश्मीर में अलगाववादी तत्वों को पालना पोसना, कश्मीर की वर्तमान अशांत समस्या का मूल है। पाकिस्तान आतंकवाद की नर्सरी है। यह तथ्य दुनियाभर को पता है।
निश्चित रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान को उनका अभीष्ट नहीं मिला पर तुर्की, चीन और मलेशिया के बयान हमारे लिये चिंताजनक हैं। तुर्की खुद को आज भी खलीफा ही समझता है और दुनियाभर में मुस्लिम हित के पक्ष में बोलता रहता है। यह उसकी अपनी समस्या है जो इजराइल और यहूदी - इस्लाम के संघर्ष से प्रेरित है। चीन का पाकिस्तान प्रेम धर्म प्रेरित नहीं है बल्कि अर्थ आधारित है। वन बेल्ट वन रोड और सीपैक योजनाओं में उसका भारी निवेश है और उसमें उसके हित पाकिस्तान की सेना के साथ इतने गहरे ढंग से जुड़े हैं कि, उसे पाकिस्तान का पक्ष लेना ही है। पर मलेशिया के पीएम महातिर मोहम्मद का यह कहना कि, भारत ने यूएन रिजोल्यूशन के बाद भी, कश्मीर को जबरन कब्ज़ा कर रखा है, न केवल उनकी इस मामले में अज्ञानता को प्रदर्शित करता है बल्कि हमारे अंदरूनी मामलों में दखल भी है। हमारी सरकार को मलेशिया के पीएम के इस गलत तथ्य का विरोध भी दर्ज कराना चाहिए और उन्हें कश्मीर समस्या का सच भी बताना चाहिए।
एक महत्वपूर्ण आर्थिक समझौता भी अमेरिका से भारत ने किया है, जिसे एक उपलब्धि के रूप में कहा जा सकता है। भारत की पेट्रोनेट एलएनजी ने अमेरिका की एलएनजी यानी तरलीकृत प्राकृतिक गैस का उत्पादन करने वाली कंपनी से एक समझौता किया है, जिससे भारत की प्राकृतिक गैस की जरूरत पूरी होगी। इसके तहत पेट्रोनेट की ओर से लूसियाना में स्थित एक सहायक कंपनी ड्रिफ्टवुड होल्डिंग्स में इक्विटी के जरिए निवेश किया जाएगा। कंपनी इसमें करीब 18 फीसदी निवेश करेगी। इस समझौते के तहत एलएनजी का उत्पादन करने वाली टेल्यूरियन इंक से भारत को हर साल 50 लाख टन एनएनजी खरीदने का अधिकार मिल जाएगा। पेट्रोनेट और टेल्यूरियम के बीच ये समझौता 31 मार्च 2020 तक पूरा हो जाएगा। जिन देशों तक पाइपलाइन के जरिए गैस भेजना मुश्किल होता है, वहां इस गैस को जहाजों के जरिए तरलीकृत अवस्था में लाने के बाद भेजा जाता है। यह डील अमेरिका के इतिहास में एलएनजी की सबसे बड़ी डील है, जो कुल 7.5 बिलियन डॉलर (करीब 53 हजार करोड़ रुपए) की है, जिसमें 2.5 बिलियन डॉलर (करीब 18 हजार करोड़ रुपए) का ड्रिफ्टवुड कंपनी में इक्विटी निवेश भी शामिल है.
कहा जा रहा है कि, इस डील से गैस की सप्लाई बढ़ेगी और सरकार को अपना टारगेट पूरा करने में आसानी होगी. प्रदूषण नियंत्रण के लिए सरकार तमाम उपाय कर रही है, जिनमें से एक ये भी है कि घर-घर खाना पकाने के लिए गैस पहुंचाई जाए। पर्याप्त गैस होने से सरकार को अपना ये लक्ष्य पूरा करने में भी मदद मिलेगी. वहीं दूसरी ओर पेट्रोल-डीजल से निर्भरता को कम करने और गाड़ियों के लिए सीएनसी की पर्याप्त सप्लाई में भी मदद मिलेगी।
उल्लेखनीय है कि भारत, अमेरिका और चीन के बाद ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाला तीसरा देश है। अब भारत गैस आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है और लक्ष्य है कि 2020 तक 1 करोड़ घरों को पाइपलाइन वाली गैस से जोड़ने की योजना है. भारत 2005 की तुलना में 2030 तक कार्बन गैसों के उत्सर्जन को 33-35 फीसदी कम करने का लक्ष्य लेकर चल रहा है। 2015 में पेरिस में 195 देशों के सम्मेलन में, में भारत ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था। अब इस आर्थिक और व्यापारिक समझौते से देश को क्या लाभ होता है, यह भविष्य में ही पता चल सकेगा।
कश्मीर को लेकर विश्व मे मानवाधिकार हनन के मुद्दे बहुत अधिक चर्चित हो रहे हैं। अनुच्छेद 370 का हटाना और राज्य को विभाजित करना निश्चय ही हमारा अंदरूनी मामला है और एक संप्रभु राज्य के अंदरूनी मामलो में किसी को कोई सवाल उठाने का अधिकार नहीं है। लेकिन यूएनओ के ह्यूमन राइट चार्टर के अनुसार, दुनियाभर में कहीं अगर मानवाधिकार हनन की शिकायतें मिलती हैं तो न केवल उसकी आलोचना होती है बल्कि उससे देश की क्षवि खराब होती है जिसका असर अंतरराष्ट्रीय संबंधों से लेकर आर्थिक निवेश पर पड़ता है। कश्मीर में पिछले 60 दिनों से संचार और आवागमन पर प्रतिबंध हैं और वहां के मुख्य धारा के बड़े नेता जो न तो अलगाववादी तत्वों के साथ हैं और न ही पाकिस्तान परस्त हैं, जेलों में निरुद्ध हैं। इसे लेकर ह्यूस्टन में हाउडी मोदी कार्यक्रम के दौरान प्रदर्शन भी हुये। ऐसे ही अन्य प्रदर्शन दुनिया के अन्य महत्वपूर्ण देशों की राजधानियों में भी हो रहे हैं। देश के अंदर भी इन प्रतिबन्धों को लेकर रोष है और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं भी दायर हैं।
भारतीय मूल की अमेरिकी सांसद प्रमिला जयपाल ने 13 अन्य अमेरिकी सांसदों गिल्बर्ट आर. सिसनेरोस, जूनियर जूडी चू, प्रमिला जयपाल, कैरोलिन मैलोनी, गेराल्ड कोनोली, इल्हान उमर, बारबरा ली, अल ग्रीन, जो लोफग्रेन, एंडी लेविन, माइक लेविन, जेम्स पी. मैकगवर्न, जैन शाकोव्स्की तथा कैटी पोर्टर द्वारा प्रधानमंत्री मोदी जी को संबोधित करते हुए संयुक्त रूप से एक बयान जारी किया है। इस संयुक्त बयान में कहा गया है कि, 'जम्मू कश्मीर में अपने परिवारों से संपर्क नहीं कर पाने वाले देशभर के हजारों परिवारों की ओर से हम प्रधानमंत्री मोदी से संचार पाबंदियां हटाने और मानवीय चिंताओं को दूर करने का अनुरोध करते हैं। भारत, अमेरिका का महत्वपूर्ण साझेदार है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. जैसे कि हमें उम्मीद है कि भारत सरकार नेतृत्व का प्रदर्शन करेगी और इन प्रतिबंधों को हटाएगी. जम्मू कश्मीर के लोगों को भी बराबर के अधिकार मिलने चाहिए जैसे कि भारत के अन्य नागरिकों को मिलते हैं। "
कूटनीति कभी भी भावुकता से नहीं चलती है। इसे ठोस और अपने देश के हितों के अनुरूप ही ढालना पड़ता है। अमेरिका से अगर हम यह उम्मीद करें कि वह हमारे हित के लिये पाकिस्तान के प्रति अपने हित का बलिदान कर देगा तो यह हमारी मूर्खता होगी। अमेरिका के लिये हम एक बड़े बाजार और दक्ष तथा कुशल युवा प्रोफेशनल के भंडार हैं तो, पाकिस्तान उसके लिये दक्षिण एशिया में अपना ठीहा जमाने का एक स्थान। उसे दोनों का साथ चाहिये। इसलिए वह उसके सामने उसकी और हमारे सामने हमारी बात करता है। पर यह भी सच है कि कश्मीर के मामले पर पाकिस्तान को कोई भी समर्थन किसी भी देश का नहीं है। इसका कारण 1972 का शिमला समझौता और बाद का लाहौर घोषणापत्र। लेकिन अगर कश्मीर में मानवाधिकार हनन की शिकायतें और नागरिक आज़ादी पर प्रतिबंध लंबे समय तक जारी रहे तो यह हमारी कश्मीर नीति को और जटिल बना देगी।
एक बात ध्रुव सत्य के रूप में हमें स्वीकार करनी होगी कि, कश्मीर की समस्या धर्म या हिन्दू मुस्लिम समस्या नहीं है। पाकिस्तान इसी चश्मे से इसे देखेगा और वह 1947 से ही इस चश्मे से इस समस्या को देख रहा है और इसी आधार पर समाधान चाहता है। वह यह भी चाहता है भारत के लोग भी इस समस्या को इसी चश्मे से देखें। हमे अपने संविधान के मूल और हज़ारों साल से चली आ रही बहुलतावादी संस्कृति के ही अनुसार इसे देखना होगा अन्यथा अगर हमने पाकिस्तान की जाल में फंस कर कश्मीर को हिंदू मुस्लिम दृष्टिकोण से देखना शुरू किया तो यह भाव पाकिस्तान के हित मे ही जायेगा।
© विजय शंकर सिंह