Monday, 2 April 2018

2 अप्रैल भारत बंद में हिंसा - एक प्रतिक्रिया  / विजय शंकर सिंह

भारतबंद में जगह जगह हिंसा हो रही है। जैसे साम्प्रदायिक दंगे सख्ती से निपटे जाते हैं वैसे इसे भी सख्ती से नियंत्रित करना चाहिये।

सामूहिक हिंसा की इन वारदातों को जो शांतिपूर्ण प्रदर्शन के नाम पर हो रही हैं वह कानून व्यवस्था की एक गम्भीर समस्या है। पर इन समस्याओं से निपटने में सरकार ने दल या विचारधारा के हित को विधि के हित को ऊपर रखा। चाहे गौरक्षकों की अराजक गुंडई हो, या गूजरों का आन्दोलन हो, या हरियाणा के जाटों का हिंसक आंदोलन हो, या राम रहीम के सज़ा के बाद उनके समर्थकों का आंदोलन हो, या भीमा कोरेगांव हिंसा हो, या बंगाल का मालदा पुरुलिया और आसनसोल हो, या भागलपुर का केंद्रीय मंत्री के बेटे द्वारा आयोजित हिंसक तमाशा हो, हर जगह दल और दल की विचारधारा, विधि के ऊपर हावी रही। इन सभी दंगो से कुछ न कुछ राजनीतिक फल की कामना की गयी। यह मैं पिछले चार साल का किस्सा बता रहा हूँ, पीछे आप को और भी उदाहरण मिलेंगे। आज दलितों का भारत बंद भी उन्ही सब हिंसक उदाहरणों से ली गयी सीखों का परिणाम है। जब दंगाइयों के खिलाफ मुक़दमे वापस लेने की वकालत करेंगे तो पुलिस और जिला प्रशासन से कैसे यह उम्मीद करेंगे कि वह दंगाइयों के नेताओं को पकड़े और उन पर एनएसए लगाए ? आज के भारत बंद में भी जो जो दोषी हों और हिंसा में लिप्त हैं उनके खिलाफ तत्काल प्रभावी करनी होगी। विरोध का अधिकार संविधान ने दिया है , हत्या करने और फूंकने तापने का नहीं।

सरकार को चाहिये कि कानून और व्यवस्था के मामले में दलगत सोच और एजेंडा को हावी न होने दे। जो भी कानून तोड़ता है वह एक अपराधी है उससे कानून में ही दिए गए प्राविधानों के अनुसार निपटना चाहिये। अन्यथा हम अच्छे दंगाई और बुरे दंगाई की मानसिकता जो इस्लास्मिक आतंकवाद झेल रहे देशों में पनप रही मानसिकता बुरा आतंकवाद और अच्छा आतंकवाद के समान मानते हुये से पीड़ित हो जायेंगे। पीड़ित ही नहीं हम असाध्य रूप से रुग्ण हो जाएंगे।  इतनी अराजक हालत के बाद क्या कोई विदेशी निवेशक यहां तशरीफ़ ले आएगा। आंकड़े चाहे जो बनाते रहिये, पर सच तो यह है कि, गोलगप्पे का ठेले वाला भी उस चौराहे पर नहीं जाता जहां रोज़ रोज़ मारपीट होती है। 

शांतिपूर्ण प्रदर्शन के नाम पर गुंडई और अराजकता फैलाने का महामार्ग किसने दिखाया है मित्रों ?

अदालत के आदेश की अराजक अवहेलना की परंपरा किसने और कब शुरू की थी ?

ज़रा याद कीजियेगा ।
तलवार का खुलेआम प्रदर्शन तो कोई भी कर सकता है। कल राम के नाम पर तलवार भांजी जा रही थी, आज भीमराव रामजी आंबेडकर के नाम पर !!

जो जो हो चुका है उसका लोग अपनी सुविधा के अनुसार अपने हित लाभ के लिये अनुसरण करते हैं। और आगे भी करेंगे।

राजनीति और स्वार्थ की चाशनी में पगी अधिकार की लड़ाई हिंसक भी हो सकती है।


© विजय शंकर सिंह 

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