योग संस्कृत धातु 'युज' से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन। योग अत्यंत प्राचीन भारतीय ज्ञान है। यद्यपि कई लोग योग को केवल शारीरिक व्यायाम ही मानते हैं जहाँ लोग शरीर को तोड़ते - मरोड़ते हैं और श्वास लेने के जटिल तरीके अपनाते हैं | वास्तव में देखा जाए तो ये क्रियाएँ मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमताओं की तमाम परतों को खोलने वाले ग़ूढ विज्ञान के बहुत ही सतही पहलू से संबंधित हैं| योग विज्ञान में जीवन शैली का पूर्ण सार आत्मसात किया गया है , जिसमें ज्ञान योग या तत्व ज्ञान,भक्ति योग या परमानन्द भक्ति मार्ग,कर्म योग या आनंदित कार्य मार्ग और राज योग या मानसिक नियंत्रण मार्ग समाहित हैं । राजयोग आगे और आठ भागों में विभाजित है। राजयोग प्रणाली के मुख्य केंद्र में उक्त विभिन्न पद्धतियों को संतुलित करना एवं उन्हे समीकृत करना ही योग के आसनों का अभ्यास है
आज विश्व योग दिवस है. राजपथ पर आयोजन है . नगर से लोग , कुलीन सत्ता तंत्र के सानिध्य में योगासन करेंगे. कहा जा रहा है, योग से तन और मन दोनों स्वस्थ रहता है. तन वसा रहित और मन विकार रहित हो जाता है. यूँ तो और भी बहुत से आसन है विधि में और प्राणायाम की भी अनेक विधियां हैं. पर सभी नहीं कुछ आसान जो होंगी वही यहां बतायी और कराई जाएंगी. देश स्वस्थ रहे यह आवश्यक तो है ही पर देश भूखा न रहे यह योग से भी अधिक अनिवार्य है. बुभुक्षितं किम न करोति पापम्. योग नियम में बांधता है. पर भूख सारे नियम को तोड़ देती है. धर्म भी भूख की स्थिति में अपने सभी नियम और प्रतिबन्ध शिथिल करने की अनुमति देता है और उस समय एक ही धर्म रहता है आपद्धर्म . संकट काल का धर्म. संकट काल का धर्म होता है. जीवन की रक्षा. चाहे जैसे भी हो खुद को बचाइये.
सुबह हुयी। योगासन हुआ । भीड़ जुटी ।सेहत का सन्देश गया । अब पेट की बात करें । अब भूख की बात करें । कसरत भूखे पेट तो होती नहीं । चर्बी हो तो उसे जलाने की सोचा जाय । दुनिया मान गयी योग को । दुनिया यह भी मान गयी हम परम योगियों की परंपरा के हैं. पर दुःख है कि दुनिया यह भी मानती है हम भुक्खड़ों में भी अव्वल हैं. यह भी मानती है कि हमारे शहर दुनिया के सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित शहर है. भ्रष्टाचार की तो बात ही मत कीजिये, सरकारी हमारी ज़ीरो टॉलरेंस वाली है. कुछ न कुछ तो करेगी ही. अब असली मुद्दों पर आइये. उन वादों पर आइये. जन समस्याओं पर आइये. आप को विश्व योग दिवस की बधाई । महर्षि पतंजलि की आत्मा प्रसन्न हो रही होगी. योग और इसका अभ्यास हम सब का मन भी विकार मुक्त करे यही कामना है !!
योग के लिए जो चटाइयां सरकार द्वारा मंगवाई गयी है, वह चीनी कंपनी की हैं. क्या मेक इन इंडिया के इस ज़माने और जज़्बे में देश में बनी चटाइयों का प्रयोग नहीं हो सकता है ? जो भी योग करने राजपथ पर जा रहा है वह स्वयं या उसका संगठन अपने आप चटाइयों की व्यवस्था नहीं कर सकता है. जो नियमित योग करता होगा वह निश्चित रूप से अपना आसन ले कर जाएगा. पर जो देखादेखी इस आयोजन में जा रहा है वह इसे तमाशा ही समझ कर जा रहा है. तमाशा मैं इस लिए कह रहा हूँ कि योग को विवादित करने का भरपूर प्रयास सरकार और विपक्ष ने किया. सूर्य नमस्कार और योग हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो भी होता था. पर वह अहंकार और दर्प की अभिव्यक्ति नहीं थी. आप सारे आसन कर लेते हैं. आप देर तक कपाल भाति कर देते है. पर इस से जो लाभ हो रहा है वह भी तो आप को हो रहा है. आप योग के लिए वातावरण बनाइये पर इसे विवादित न होने दीजिये. धर्म विशेष कर सनातन धर्म तो हर क्रिया कलाप में अपना दखल रखता है. क्यों कि यह उस तरह का धर्म है ही नहीं, जैसे रिलिजन से अन्य धर्मों की छवि उभरती है. यह तो एक जीवन पद्धति है. उसी प्रकार योग तन और मन को स्वस्थ और निरोग रखने की प्रवित्ति है.
सूर्य नमस्कार 12 योगिक आसनों का एक सम्पुटन है. जिसमें सूर्य के समक्ष हम विभिन्न मुद्राओं मंर नत होते हैं. सूर्य ऊर्जा का अक्षय श्रोत है. सुबह की सूर्य रश्मियाँ शरीर का पोषण करती है. यह आसन तो एक माध्यम है उस अक्षय श्रोत से ऊर्जस्वित होने का. कुछ लोग इसे धर्म विरुद्ध मानते हैं. कुछ सूर्य के पक्ष में ऐसे खड़े नज़र आते हैं गोया सूर्य ने उन्हें यहां उनको अपना मार्केटिंग एजेंट नियुक्त किया हो. दरअसल न सूर्य के ये पक्ष में हैं और न ही वे सूर्य के विरोध में वे हैं बल्कि दोनों का उद्देश्य इसे विवादित करना है. कुछ कहते हैं ॐ नहीं कहा जा सकता, अल्लाह कहा जाएगा. इस पर भी विवाद है. योग जब भी अस्तित्व में आया होगा तो उसके साथ मन्त्र भी जुड़े होंगे. उस समय संस्कृत ही मुख्य भाषा थी. अतः सारे मन्त्र संस्कृत में ही थे. वैसे भी ये मन्त्र एक प्रकार की प्रार्थना ही है. सूर्य के प्रत्येक पर्यायवाची के साथ उसके नमन का एक मन्त्र है.
दुर्भाग्य से हम जितनी ही तरक़्क़ी कर रहे हैं, उतने ही कुंद दिमाग के होते जा रह है. सर्वशक्तिमान , ईश्वर तो है , पर वह बेहद कमज़ोर दीखता है . हैंडल विथ केयर के समान. या तो आस्थावानों की आस्था ही कमज़ोर धरातल पर टिकी है या वह मति भ्रम के शिकार है. योग करें , जॉगिंग करें, जिम जाएँ या खानपान से तन स्वस्थ रखें यह सबकी निजी आदतों के अनुसार है. हर चीज़ में जिस दिन धर्म दखल दे देगा, उस दिन सड़क पर चलना मुश्किल हो जाएगा. धर्म और ईश्वर को अपने पास अपनी आस्था के अनुसार रखें. न तो योग को विवादित बनाएं और न ही इसकी मार्केटिंग करें. मुख्य उद्देश्य है स्वस्थ रहें और निरोग रहें. शरीर् माद्यम् खलु धर्म साधनं !
कुछ लोग योग करने से अधिक इस बात पर ध्यान मग्न हैं कि कौन कौन और क्यों नहीं योग कर रहा है . गोया जो योग नहीं करता वह एक कमतर प्राणी है . वैसे ही धार्मिक कर्मकांडों के साथ भी होता है . नवरात्रि का व्रत हो या रोज़ा , जो करता है उनमें से कुछ खुद को ईश्वर का नज़दीकी मान बैठने का भ्रम पाल लेते हैं . योग और धर्म से जुड़े कर्मकांड अगर इन्ही कारणों से किसी में अहंकार का समावेश करते हैं तो ऐसे योग और धर्म का कोई अर्थ नहीं है . जिस योग से चित्त शांत न हो वह योग कैसा ?
योग जोड़ता है. किस से ? स्वयं से ? समाज से ? ईश्वर से ? या प्रकृति से ? या कोई और है जिस से वह जोड़ता है ? अक्सर यह सवाल उठता रहता है मेरे मन मैं. अब जब विश्व योग दिवस की तिथि नज़दीक आ रही है तो यह प्रश्न और अकुलाहट के साथ उठ रहा है. एक कथा सुनें,
एक बार आदि शंकराचार्य किसी नदी के किनारे उसे पार करने हेतु किसी साधन की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे. शंकर का कुल जीवन ही 32 वर्ष का था. उस समय वह केवल 18 साल के एक किशोर सन्यासी थे. तभी एक हठयोगी उनके पास आया और कहा कि योग कर लेते हो ?
नहीं , शंकर ने कहा थोड़ा बहुत प्राणायाम कर लेता हूँ.
मैं पद्मासन में भूमि से ऊपर उठ जाता हूँ, योगी की बातों में अहंकार स्पष्ट था.
शंकर ने कहा , दिखाओ.
योगी ने पद्मासन लगाया और थोडा ऊपर उठा.
फिर विजयी भाव से उसने कहा, इस नदी के जल पर पैदल चल कर पार कर सकते हो ?
शंकर ने इनकार के भाव से सर हिलाते हुए कहा नहीं. पर वह शांत थे, चमत्कृत नहीं.
योगी ने कोई साधना की, और पैदल नदी पर चलता हुआ पार गया और वापस आ गया.
विजयी और दर्पीले भाव से उसने शंकर पर तुच्छ दृष्टि डालते हुए कहा , देखा यह योग होता है.
अप्रभावित शंकर, उस योगी को देखते रहे और फिर मुस्कुरा कर पूछा , इस साधना में आप का कितना समय लगा होगा.
योगी ने आँखे फैलाते हुए कहा, कि चालीस साल. चालीस साल की यह साधना है यह तब मैं जल पर पैदल चल सकता हूँ.
शंकर खिलखिला कर हंस पड़े. कहा, आपने चालीस साल केवल यह सीखने में लगा दिए कि जल पर पैदल कैसा चला जाता है. अरे नदी तो तैर कर या नाव से पार की जा सकती है.
योगी को क्रोध आ गया. उसने शंकर को बुरा भला कहा.
शंकर ने कहा, यह कैसा योग जो आप के मन को नियंत्रित न कर सके. यह कैसा योग जो आप को अहंकार से मुक्त न कर सके. यह कैसा योग जो जीवन के अत्यन्त महत्वपूर्ण समय को एक चमत्कार प्राप्त करने में बीत जाय.
तब तक नाव आ गयी थी और शंकर उस पर बैठ कर उस पार के लिए चल पड़े.
योग के दैहिक अभ्यास की सुंदरता यह है कि योग आसन आपको संभाले रखते हैं आप वृद्ध हो या जवान ,हृष्ट पुष्ट हों या कमज़ोर। उम्र के बढ़ने के साथ आपकी समझ आसनो के प्रति प्रगतिशील हो जाती है। आप आसनों के बाहरी संरेक्षण एवं प्रक्रिया से आगे बढ़कर आंतरिक शुद्धिकरण और अंततः केवल आसान में ही बने रहने तक पहुँच जाते है। योग हमारे लिए कभी भी पराया नहीं रहा है। हम योग तबसे कर रहे हैं जब से हम शिशु थे चाहे वह 'बिल्ली खिचाव' आसन हो जो मेरुदंड बनता हो या 'पवन मुक्त' आसन जो पाचन को बढ़ावा देता है। आप देखेंगे कि शिशु दिन भर में कोई न कोई आसन कर रहा होता है। विभिन्न लोगों के लिए योग के विभिन्न रूप हो सकते हैं । पर योग अगर अहंकार, दर्प , मिथ्याभिमान और आत्ममुग्धता के रोग से मुक्त नहीं करता है तो वह केवल एक पीटी परेड की तरह है.
( विजय शंकर सिंह )