मुद्राराक्षसम् का संक्षिप्त भावानुवाद: पंचम अंक ~
मुद्राराक्षस के इस अंक का नाम है कूटलेख. यानी कपट-पत्र और उसकी लक्ष्यपूर्ति। इस पत्र को लिखा गया था पहले अंक में लेकिन इसकी महिमा खुलती है इस अंक में. याद होगा, इसका मसौदा तैयार किया था चाणक्य ने, लिखावट है राक्षस के मित्र और निजी सचिव शकटदास कायस्थ की, और मोहर लगी है राक्षस की. और इसका वाहक है सिद्धार्थक, चाणक्य का ख़ास गुप्तचर जो ‘समझा-बुझाकर’ राक्षस के पास भेजा गया था, अकेले नहीं, फाँसी के लिए वध-स्थल पर ले जाए गए शकटदास को छुड़ाकर, उसके साथ. वह राक्षस का विश्वासपात्र बन गया, और अभी तक तो बना हुआ है. लेकिन आगे ?.... पत्र विस्फोटक है, पाँसा पलट सकता है.
पाँचवें अंक का पहला दृश्य:
स्थान है सैन्य-शिविर. राक्षस के सेनापतित्व में कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) पर आक्रमण के लिए कूच करती मलयकेतु और उसके पाँचों सहयोगी राजाओं की सेनाएँ अब गंतव्य से ज़्यादा दूर नहीं हैं. वहीं कहीं स्थित है यह पड़ाव.
परदा उठता है तो सिद्धार्थक हाथ में वह पत्र और आभूषणों की एक मोहरबंद पेटी लिए हुए मंच पर प्रवेश करता है.
तभी क्षपणक (बौद्ध श्रमण) जीवसिद्धि भी उधर ही आ निकलता है. पाठक जानते हैं, यह भी चाणक्य का ही आदमी है और सिद्धार्थक की तरह ही राक्षस का विश्वासपात्र बना हुआ है. इसे पर्वतक की हत्या में शामिल होने के अपराध में प्रायोजित तरीक़े से तिरस्कारपूर्वक कुसुमपुर से निकाल दिया गया था, जिसके बाद यह मलयकेतु के यहाँ आकर जम गया था। यह भी शिविर में मौजूद है।
जीवसिद्धि घुसते ही एक विनीत श्रमण की तरह सभी को बौद्ध मानकर प्रणाम करता है--बौद्ध जो बुद्धि की गम्भीरता से संसार में लोकोत्तर साधनों से सफलता प्राप्त करते हैं. वह सभी को श्रावक (बुद्धोपासक) कहकर संबोधित करता है, जब कि सभी उसे भदन्त कहकर (प्रकटत:) सम्मान से बुलाते हैं. यह विशाखदत्त के युग की मर्यादा रही होगी.
[कुछ वामपंथी और दलित चिंतकों और इतिहासकारों ने बड़े स्तर पर बौद्धों के संहार की जो बात फैलाई है, उसका विश्वसनीय प्रमाण इस अकिंचन को तो कहीं मिला नहीं. पुष्यमित्र शुंग से जुड़े कुछ बौद्ध ग्रंथों के विद्वेष और अतिरंजना से भरे वर्णनों के सिवा, जिनकी ऐतिहासिकता किसी अन्य स्रोत से समर्थित न होने के कारण हमेशा संदेहास्पद रही. इत्सिंग, फाह्यान और ह्वेनसांग-जैसे चीनी बौद्ध यात्रियों के संस्मरण तक इसका कोई ज़िक्र नहीं करते. और आदि शंकराचार्य (788-820 ई.) पर ऐसा कुत्सित आरोप! वे तो कभी किसी राजा के आश्रयी रहे नहीं, उनका अल्प जीवन, लंबा अध्ययन-काल, फिर पूरे भारत का भ्रमण, कई-कई स्तोत्रों के अलावा प्रस्थान-त्रयी (ब्रह्मसूत्र, ग्यारह प्रमुख उपनिषद् और गीता) का विस्तृत भाष्य—उन्हें इतना समय कहाँ मिला होगा कि बौद्ध-संहार संगठित करते! वे तो शास्त्रार्थ करके बौद्ध विद्वानों को क़ायल करनेवाले थे; फिर उस युग में सनातनी तांत्रिकों की तरह वामाचार और पंच मकार की साधना में लिप्त हो चुके वज्रयानी बौद्धों ने यदि सामान्य जन को तथागत के उपदेशों से दूर कर दिया तो इसमें शंकराचार्य का क्या दोष? संहार का साक्ष्य तो जैनों, आजीविकों और घोर अनीश्वरवादी लोकायतों का भी नहीं मिलता, बौद्ध धर्म तो महायान के रूप में सनातन की समावेशी धारा से घुलमिल गया था। सही है कि शूद्रों और अंत्यजों के साथ घोर अन्याय हुआ था, उसका उचित प्रतिकार भी हो रहा है। लेकिन ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि तज्जनित कलुष और नफ़रत सत्य को आच्छदित कर दे. तब तो हम पूर्व के गुनाहगारों की ग़लती ही दोहरा रहे होंगे, और गर्हित में लिपटा यदि कोई शुभ तत्व हुआ तो उससे भी वंचित होकर एक स्थाई हीन-ग्रंथि के शिकार हो जाएँगे.]
सिद्धार्थक शिविर से बाहर निकलकर कुसुमपुर जाने के लिए उद्यत है, लेकिन बस उद्यत है, उसे कहीं जाना-वाना नहीं है. उसको तो यहीं रहते हुए कुछ विशिष्ट, कुछ सनसनीख़ेज़ करना है. और कुसुमपुर जाने का उपक्रम उसी का हिस्सा है...लेकिन अभी थोड़ा इंतज़ार कीजिए.
तो फ़िलहाल मंच पर उपस्थित हैं सिद्धार्थक और बौद्ध भिक्षु जीवसिद्धि.
जीवसिद्धि: ‘देखो श्रावक, पहले तो इस शिविर में लोगों का आना-जाना बेरोक-टोक था, लेकिन अब कुसुमपुर के निकट आ जाने से, उसके लिए मंत्री भागुरायण (पाठक जानते हैं, कुसुमपुर से भागकर मलयकेतु के यहाँ शरण लेने और उसका मंत्री बननेवाला यह भागुरायण भी चाणक्य का ही आदमी है) का मोहर लगा परिचय-पत्र चाहिए. ऐसा न हो कि सुरक्षा-अधिकारियों द्वारा हाथ-पाँव बाँधकर राजकुल के सामने पहुँचा दिए जाओ.’
सिद्धार्थक: ‘भदन्त, क्या वे नहीं जानते कि मैं अमात्य राक्षस का ख़ास आदमी हूँ?’
जीवसिद्धि: ‘राक्षस के ख़ास आदमी हो या पिशाच के, बिना परिचय-पत्र के जाने का कोई उपाय नहीं.’ (जीवसिद्धि थोड़ा क्रोध में आ जाता है.)
सिद्धार्थक: ‘कुपित न हों भदन्त, आशीर्वाद दें कि मेरा कार्य सिद्ध हो.’
‘जाओ, तुम्हारा कार्य सिद्ध हो. मैं चलता हूँ, मुझे भी परिचय-पत्र बनवाना है.’
दूसरा दृश्य:
अनुचर की तरह राजपुरुष द्वारा अनुसरण किए जाते हुए भागुरायण का प्रवेश.
भागुरायण: ‘कुमार (मलयकेतु) मुझे दूर नहीं होने देना चाहते, इसलिए यहीं उनके सभा-मंडप में मेरा आसन लगा दो. अनुमति-पत्र देनेवाला काम यहीं से करूँगा…..अब बाहर जाओ और इस सम्बंध में जो मुझसे मिलना चाहे, उसे लेकर अंदर आना’.
तभी द्वार-रक्षिका विजया द्वारा अनुसरण किए जाते हुए मलयकेतु का मंच पर (पार्श्व में) प्रवेश.
मलयकेतु: (स्वगत) ‘नन्दकुल से सम्बद्ध चंद्रगुप्त द्वारा चाणक्य को निकाल दिए जाने के बाद, नन्दवंश के प्रति प्रबल भक्ति के कारण, राक्षस चंद्रगुप्त से संधि कर लेगा, या मेरी श्रद्धा की स्थिरता को अधिक महत्व देता हुआ मेरे प्रति दृढ़प्रतिज्ञ बना रहेगा? इसी द्वंद्व में मेरा चित्त कुम्हार के चाक पर चढ़ा हुआ-सा लगातार घूम रहा है.’ (प्रकट) ‘विजये, भागुरायण कहाँ हैं?’
विजया: ‘शिविर से बाहर जाने को इच्छुक लोगों के लिए परिचय-पत्र बनाते वह रहे.’
‘ठीक है. वे दूसरी ओर मुँह किए हुए, इधर नहीं देख रहे. हम भी कुछ देर निश्चल खड़े रहें.’
[यहाँ से मलयकेतु भागुरायण को देख-सुन सकता है, भागुरायण उसे नहीं.]
(मंच के मुख्य भाग में)--
राजपुरुष अंदर आकर भागुरायण को सूचित करता है कि एक श्रमण अनुमति-पत्र के लिए मिलना चाहता है.
‘आने दो.’
प्रवेश करते हुए श्रमण-वेशी जीवसिद्धि: ‘श्रावकों की धर्मसिद्धि हो.’
भागुरायण: (स्वगत) ‘अरे, राक्षस का मित्र जीवसिद्धि यहाँ!’ (प्रकट) ‘भदंत, राक्षस के किसी कार्य से बाहर जा रहे हैं क्या?’
जीवसिद्धि: (कानों पर हाथ रखकर) ‘पाप शांत हो. ऐसा न कहो श्रावक. मुझे वहाँ जाना है, जहाँ राक्षस-पिशाच का नाम तक न सुनाई पड़े.’
भागुरायण: ‘अपने मित्र से बहुत रूठे हुए (प्रणय-कुपित) लगते हैं. उन्होंने ऐसा क्या अनिष्ट कर दिया?’
जीवसिद्धि: ‘वे क्या करेंगे, मैं मंदभाग्य अपना ही अनिष्ट कर रहा हूँ.’
भागुरायण: ‘आप तो जिज्ञासा पैदा कर रहे हैं. कुछ बताएँगे?’
‘मैं भी सुनना चाहता हूँ.’ पार्श्व में द्वार-रक्षिका के साथ खड़ा मलयकेतु बुदबुदाता है.
जीवसिद्धि: ‘श्रावक, जो सुनने लायक नहीं है, उसे सुनकर क्या करोगे?’
भागुरायण: ‘यदि रहस्य है तो रहने दिया जाए.’
जीवसिद्धि: ‘रहस्य तो नहीं है श्रावक, किंतु अत्यंत क्रूरतापूर्ण है’.
भागुरायण: ‘रहस्य नहीं है, तो कह डालिए.’
जीवसिद्धि: ‘रहस्य नहीं है, फिर भी नहीं कहूँगा.’
भागुरायण: ‘तो अनुमति-पत्र भी नहीं दूँगा.’
जीवसिद्धि: (स्वगत) ‘जो इस तरह चाहता है, उसे बतलाना ही उचित है.’ (प्रकट)
‘यह सच है कि पाटलिपुत्र में रहते हुए मुझ मंदभाग्य से राक्षस की मित्रता हो गई. उसी समय राक्षस ने प्रच्छन्न विषकन्या के प्रयोग से (मेरे सहयोग द्वारा) पर्वतक को मरवा दिया.’
[यहाँ यह लक्ष्य करने योग्य है कि जीवसिद्धि इतनी हुज्जत के बाद, इस (प्रायोजित असत्य) को तब बताता है जब देखने-सुननेवाले को लगे कि बिना बताए उसका काम ही नहीं चल सकता था. इससे मलयकेतु को इसके अनर्गल प्रलाप होने का रंच मात्र भी संदेह नहीं रह जाएगा. विशाखदत्त का कथा-विधान अपनी त्रुटि-हीनता में इतना अक्षुण्ण है कि एक भी शब्द छोड़ने से कुछ न कुछ तो अवश्य खो जाता है.]
(मंच के पार्श्व में)--
मलयकेतु: (आँखें डबडबाई हुई) ओह, तो क्या मेरे पिता राक्षस द्वारा मरवाए गए, चाणक्य द्वारा नहीं?
(मंच के मुख्य भाग में)--
भागुरायण: भदन्त, उसके बाद क्या हुआ ?
जीवसिद्धि: फिर तो मुझे राक्षस का मित्र समझकर चाणक्य ने तिरस्कारपूर्वक कुसुमपुर से निकाल दिया....राक्षस फिर कुछ वैसा ही काम शुरू करने जा रहा है, उससे तो मैं संसार से ही निकाल दिया जाऊँगा.
भागुरायण: हमने तो सुना है कि वादा किया गया आधा राज्य न देना पड़े, इसलिए दुष्ट चाणक्य ने ही पर्वतक का वध करवाया था.
जीवसिद्धि: (कान ढककर) पाप शांत हो. चाणक्य ने तो विषकन्या का नाम तक नहीं सुना था.
भागुरायण: यह रहा मोहर-लगा परिचय-पत्र. यही बात मलयकेतु को भी सुना दीजिए.
मलयकेतु: (आगे बढ़कर) हे मित्र ! (राक्षस के) मित्र (श्रमण) के मुख से (मेरे) शत्रु (राक्षस) के बारे में जो कहा गया, कान को विदीर्ण करनेवाला वह कथन सुन लिया गया. पिता के वध से उत्पन्न होनेवाला दु:ख काफ़ी दिन बीत जाने पर भी आज दुगुना-सा होकर बढ़ रहा है.
जीवसिद्धि: (स्वगत) तो दुष्ट मलयकेतु ने सुन लिया. मैं कृतकृत्य हुआ.(ऐसा कहकर मंच से निकल जाता है.)
[स्वाभाविक है कि मलयकेतु पर इसकी प्रतिक्रिया बहुत उग्र हुई. उसने राक्षस को नाम से ही नहीं, कर्म से भी राक्षस कहा. भागुरायण को आशंका होती है कि अब मलयकेतु से राक्षस के प्राणों को ख़तरा है, जो उसके मैंडेट के विपरीत है. वह तुरंत पटरी बदल देता है.]
भागुरायण: ‘अर्थशास्त्र (दंडनीति या राजनीतिशास्त्र) का प्रयोग करनेवालों को उसी की व्यवस्था के अनुरूप लोगों को तीन श्रेणी में रखना पड़ता है--शत्रु, मित्र और तटस्थ. उस समय नंद को राजा के रूप में देखने के इच्छुक राक्षस के लिए, चंद्रगुप्त से अधिक आपके पिता के प्रबल होने के कारण, वही उसके घातक शत्रु लगे होंगे. इसलिए मैं राक्षस का पूरा दोष नहीं समझता. राजनीति है ही ऐसी चीज़—
मित्राणि शत्रुत्वमुपानयंती मित्रत्वमर्थस्य वशाञ्च शत्रून्।
नीतिर्नयत्यस्मृतपूर्ववृत्तं जन्मान्तरं जीवत एव पुंस:॥5:8॥
[राजनीति अवसरानुकूल मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र मनवा देती है, पुरुष के जीवित रहते ही उसका दूसरा जन्म करा देती है, इस तरह कि पीछे का सारा व्यवहार भूल जाए.]
तो कुमार, इस विषय में राक्षस को तब तक उलाहना नहीं देना चाहिए जब तक कि नंद (अब चंद्रगुप्त) का राज्य हस्तगत न हो जाए. उसके बाद आप राक्षस को ग्रहण करें या त्यागें, आपकी इच्छा.’
मलयकेतु: ‘ठीक है मित्र, तुमने ठीक सोचा है. अमात्य का वध कर देने पर प्रजा में उत्तेजना फैलेगी और हमारी विजय संदिग्ध हो जाएगी’
कूटपत्र-प्रसंग:
पूर्व दृश्य का विस्तार. मलयकेतु और भागुरायण पहले से मंच पर मौजूद हैं. राजपुरुष आकर सुरक्षा-चौकी के अधिकारी का संदेश देता है कि बिना मुद्रित परिचय-पत्र के शिविर से बाहर निकलते हुए एक व्यक्ति पकड़ा गया है, जिसके पास एक पत्र भी मिला है. भागुरायण से अंदर लाने का आदेश मिलने पर राजपुरुष के पीछे-पीछे बँधा हुआ सिद्धार्थक प्रवेश करता है. भागुरायण उसे देखकर राजपुरुष से पूछता है कि यह व्यक्ति बाहर से आया हुआ है, या यहाँ पर किसी का सेवक है? (भागुरायण इसी बिंदु से राक्षस पर आरोप मढ़ने की दिशा में काम करना शुरू कर देता है—उसे सारा माजरा पता रहा होगा).
राजपुरुष कुछ बोले इसके पहले सिद्धार्थक ही जवाब दे देता है —आर्य मैं तो अमात्य राक्षस का सेवक हूँ.
भागुरायण: ‘बिना परिचय-पत्र लिए शिविर से बाहर क्यों निकल रहे थे?’
सिद्धार्थक: ‘आर्य, काम के बोझ के चलते जल्दी में था.’
सिद्धार्थक: ‘काम का कैसा बोझ कि राजाज्ञा का उल्लंघन कर दो?’
मलयकेतु: मित्र भागुरायण, इसके पास का पत्र ले लो.
भागुरायण: (पत्र लेकर देखता है।) ‘इस पर जो मोहर लगी है उस पर तो राक्षस का नाम अंकित है.’
मलयकेतु: ‘मोहर को बचाते हुए खोलो’
भागुरायण खोलता है और मलयकेतु को दिखलाता है. मलयकेतु पूरा पत्र पढ़ता है—
“कल्याण हो.
किसी स्थान से कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट व्यक्ति को ठीक समय पर अवगत करा रहा है:
हमारे शत्रु* को तिरस्कृत करके आप-जैसे सत्यवादी@ द्वारा सत्य के प्रति विलक्षण आग्रह दिखाया गया है. अब पहले से संधि का प्रस्ताव रखनेवाले हमारे मित्रों# से किए गए वादे को पूराकर आप प्रेम का विस्तार करें. इस प्रकार अनुगृहीत हुए हमारे ये पाँचों मित्र, अपने आश्रय$ के विनष्ट हो जाने से, उपकार करनेवाले आप का आश्रय ग्रहण करेंगे. आप-जैसे सत्यवादी को भूला तो नहीं होगा, फिर भी हम स्मरण दिला रहे हैं. हमारे कुछ मित्र शत्रु$ के हाथियों के इच्छुक हैं तो कुछ उसका भूक्षेत्र चाहते हैं. आपके द्वारा आभूषणों का जो तीन सेट< भेजा गया था, वह मिल गया है. इस पत्र के साथ भी कुछ> भेजा जा रहा है, उसे स्वीकार करें. मौखिक संदेश इस विश्वसनीय पत्रवाहक से सुन लें.’’
[*चाणक्य, @चंद्रगुप्त, #मलयकेतु और राक्षस से सहयोग करनेवाले मलयकेतु के पाँच पड़ोसी राजा-- कुलूत, मलय, कश्मीर, सिंध, और पारसीक प्रदेशों के; $मलयकेतु, <स्वर्गीय पर्वतक के आभूषणों के वे तीन सेट जिन्हें चंद्रगुप्त ने पर्वतक के श्राद्ध में तीन ‘सुपात्र ब्राहणों’ (जो दरअसल चाणक्य के गुप्तचर थे) को दान किया था और जिन्हें बिना पहचाने राक्षस की अनुमति से शकटदास ने ‘व्यापारियों’ से ख़रीद लिया था, >वे आभूषण जो मलयकेतु ने राक्षस को धारण करने के लिए भिजवाए थे और जिन्हें राक्षस ने सिद्धार्थक को पुरस्कार में दे दिए थे.]
मलयकेतु : मित्र भागुरायण यह कैसा पत्र है ?
भागुरायण: ‘भद्र सिद्धार्थक, यह पत्र किसका है?
सिद्धार्थक: आर्य, मैं नहीं जानता.
भागुरायण: धूर्त, पत्र ले जा रहे हो और जानते नहीं किसका है...ख़ैर, पहले यह बताओ, मौखिक संदेश किसके लिए है?
सिद्धार्थक: (भय का अभिनय करते हुए) आप लोगों के लिए.
भागुरायण: (क्रोध के साथ) भारसुक (राजपुरुष), इसे बाहर ले जाओ और तब तक पिटाई करो जब तक यह बतला न दे.’
थर्ड डिग्री की पहली ख़ुराक के बाद राजपुरुष सिद्धार्थक के साथ लौटकर बताता है कि पिटाई के समय इसकी काँख से एक मोहरबंद पेटी गिरी है.
भागुरायण: ‘कुमार, पेटी की यह मोहर भी राक्षस के नाम की है.’
मलयकेतु के कहने से मोहर को बचाते हुए पेटी खोली जाती है.
मलयकेतु: ‘अरे, ये तो वही आभूषण हैं जो मैंने अपने शरीर से उतारकर राक्षस के लिए भेजे थे. तो साफ़ है कि पत्र चंद्रगुप्त के लिए लिखा गया है.’
भागुरायण: अभी सारा संदेह दूर हो जाता है.... भासुरक अभी और पीटो.
थर्ड डिग्री की दूसरी ख़ुराक के बाद राजपुरुष सिद्धार्थक के साथ लौटकर बताता है कि यह पूरा प्रकरण कुमार (मलयकेतु) को ही बताने की बात कर रहा है. [मिशन के लिए चाणक्य के एक गुप्तचर द्वारा दूसरे की पिटाई कराना और दूसरे का स्वेच्छा से बर्दाश्त करना एक विचित्र नाट्यतत्व का समावेश है, जिसके चाक्षुष असर की बस कल्पना ही की जा सकती है. ध्यान देने योग्य यह है कि यहाँ कोई किसी संकीर्ण, निजी हित के लिए काम नहीं कर रहा, सभी का एक समेकित और बृहत् राष्ट्रीय लक्ष्य है, जिससे अनुप्राणित होने पर असह्य भी सह्य हो जाता है.]
मलयकेतु: ठीक है. मुझे ही बताओ.
सिद्धार्थक मलयकेतु के पैरों पर गिरकर, बताने के पहले अभयदान की माँग करता है, जो इस आधार पर तुरंत दे दिया जाता है कि वह तो पराधीन है, दूसरों के लिए काम कर रहा है. अब वह मौखिक संदेश बताता है, जिसमें पाँचों सहयोगी राजाओं और उनके राज्यों का नाम लेकर राक्षस का चंद्रगुप्त के लिए संदेश है कि उसके सहयोगी ये पाँचों राजा चंद्रगुप्त के प्रति अनुरक्त हैं. इनमें से पहले तीन मलयकेतु का भूक्षेत्र और शेष दो उसकी हस्ति-सेना चाहते हैं. राक्षस ने कहलवाया है कि जैसे चंद्रगुप्त ने उसके प्रति प्रेम दिखाया है, वैसे ही इन पाँचों का भी मनोरथ पूरा करे.
[मलयकेतु के पिता पर्वतक या पर्वतेश्वर का सिकंदर के पोरस से काफ़ी साम्य है. पर्वतक पश्चिमोत्तर का प्रमुख राजा है, पोरस भी झेलम के आस-पास स्थित पौरव राज्य का राजा था, बहुत दुर्धर्ष युद्ध में उसे जीतने के बाद सिकंदर ने उसका राज्य लौटा दिया था, और भारत से लौटते समय, अपने कुछ और विजित प्रदेश भी उसके सुपुर्द कर गया था. पोरस की हस्ति-सेना बहुत विशाल और बलशाली थी. बरसात होने से उसकी पैदल सेना की गति बाधित हो गई थी और उसके घायल हाथी बेकाबू होकर अपने ही सैनिकों पर टूट पड़े थे, जिससे सिकंदर की द्रुतगामी अश्व-सेना का पलड़ा भारी पड़ गया था. इतिहास यह भी बताता है कि (नाटक में पर्वतक की तरह ही) पोरस की भी बाद में हत्या हो गई थी. यह पश्चिमोत्तर और पंजाब का इलाक़ा चंद्रगुप्त का भी प्रारम्भिक कार्य-क्षेत्र रहा था, और अभी वह किशोर ही था जब सिकंदर के शिविर में घुसकर उसे इस क़दर लताड़ दिया था कि रुष्ट सिकंदर ने उसे मार डालने की आज्ञा दे दी थी, लेकिन वह वहाँ से भाग निकलने में सफल रहा था. वहीं तक्षशिला में (संभवत: विदेशियों को निकाल बाहर करने का प्रस्ताव लेकर नंदों के पास गए और वहाँ से तिरस्कृत होकर लौटे) चाणक्य से उसकी मुलाक़ात हुई थी और दोनों ने मिलकर विदेशियों के प्रभुत्व से मुक्त एक अखिल भारतीय, सशक्त और सुशासित साम्राज्य का सपना देखा था. बाद में सेल्यूकस पर विजय के बाद नाटक के मलयकेतु और उसके पाँचों पड़ोसियों के भूक्षेत्र (फारस, और कश्मीर को छोड़कर) चंद्रगुप्त के साम्राज्य में वाकई शामिल हो गए थे.]
मौखिक संदेश सुनते ही मलयकेतु जैसे आकाश से गिरा—तो मुझसे सहयोग करने का दावा करनेवाले पाँचों पड़ोसी राजा भी मुझसे द्रोह करते हैं !... वह तुरंत राक्षस से मिलने चल देता है. साथ में भागुरायण, सिद्धार्थक, राजपुरुष भारसुक और द्वार-रक्षिका विजया भी.
तीसरा दृश्य:
राक्षस कुसुमपुर के करीब आ जाने से विजय-यात्रा की समुचित व्यूह-रचना में व्यस्त है. वह अपने सहायक प्रियंवदक के माध्यम से आदेश भेज रहा है कि उसके पीछे-पीछे खस और मगध गणों के सैन्य दल (जो नन्द सेना में अपने शौर्य के लिए विख्यात थे और संभवत: राक्षस के साथ मगध से निकल आए थे) चलेंगे. इस आक्रमणकारी दस्ते के बीच में यवन राजाओं और गांधार देश की सेनाएँ रहेंगी, उनके पीछे शक राजाओं की चीनी और हूण सेनाएँ रहेंगी और पाँचों सहयोगी राजा मलयकेतु को घेरे में लेकर चलेंगे.
तभी द्वार-रक्षिका मलयकेतु के आगमन की सूचना देती है. राक्षस को ध्यान आता है कि मलयकेतु ने उसके पहनने के लिए आभूषण भिजवाए थे, इसलिए आभूषण पहनकर ही उससे मिलना ठीक रहेगा. तभी याद आया, वे तो पुरस्कार में सिद्धार्थक को दे दिए गए हैं. फिर याद आया कि शकटदास ने उससे पूछकर व्यापारियों से तीन आभूषण खरीदे थे. तो उनमें से एक मँगवाकर पहनने के बाद ही वह मलयकेतु से मिलने जाता है.
मलयकेतु: (प्रणाम करने और आसन देने के बाद) बहुत दिनों से आपके दर्शन न होने से हम व्यग्र हैं.
राक्षस: मेरे कूच करने की व्यवस्था में लगे रहने से ही आपको ऐसे उलाहने का अवसर मिला.
मलयकेतु: कैसी व्यवस्था की गई है?
राक्षस अपने उपरोक्त आदेश को दोहरा देता है.
मलयकेतु: (स्वगत) तो जो पाँच राजा मेरा विनाश करके चंद्रगुप्त की सेवा में जाने के लिए तत्पर हैं, वही मुझे घेरे में लेकर चलेंगे. (प्रकट में) आर्य, क्या कोई व्यक्ति कुसुमपुर जा या वहाँ से आ रहा है?
राक्षस: अब जाने-आने का कोई प्रयोजन नहीं, अब तो थोड़े ही दिनों में हम ही वहाँ पहुँच जायेंगे.
मलयकेतु: यदि ऐसा है तो आर्य के द्वारा यह व्यक्ति (सिद्धार्थक की ओर इंगित करके) पत्र के साथ वहाँ क्यों भेजा जा रहा था?
राक्षस: अरे सिद्धार्थक ! यह क्या मामला है?
सिद्धार्थक: (आँखों में आँसू भरकर, घोर लज्जा का अभिनय करता हुआ) अमात्य नाराज़ न हों. पीटा जाता हुआ मैं ‘रहस्य’ को छिपा नहीं सका.
राक्षस: कैसा रहस्य, कौन-सा रहस्य ?
मलयकेतु: भागुरायण, अपने स्वामी से भयभीत और लज्जित यह नहीं बता पाएगा. तुम ही बता दो.
भागुरायण: अमात्य, यह कहता है, अमात्य ने इसे पत्र और जबानी संदेश के साथ चंद्रगुप्त के पास भेजा था.
राक्षस: भद्र सिद्धार्थक, क्या यह सत्य है ?
सिद्धार्थक: (लज्जा का नाटक करता हुआ) अत्यधिक पीटे जाते हुए मुझे कहना ही पड़ गया.
राक्षस: यह असत्य है. पीटा जाता हुआ व्यक्ति क्या नहीं कह सकता!
मलयकेतु: मित्र भागुरायण, पत्र दिखलाओ. जबानी संदेश यह सेवक ख़ुद बताएगा.
राक्षस: (पत्र पढ़कर) यह शत्रु की चाल है.
मलयकेतु: और साथ में यह जो आभूषण भेजा गया है ?
राक्षस: (पेटी के आभूषण को ध्यान से देखकर) कुमार (मलयकेतु) ने यह मेरे लिए भेजा था. मैंने भी किसी प्रसन्नता के क्षण में इसे सिद्धार्थक को दे दिया था.
भागुरायण:इतने बहुमूल्य और ख़ासकर कुमार द्वारा शरीर से उतारकर अनुग्रहपूर्वक आपको दिए गए आभूषण इसको (सिद्धार्थक को) दिए जाने योग्य हैं?
मलयकेतु: अब इस भले मानुस से मौखिक संदेश भी सुन लिया जाए.
राक्षस: कौन-सा मौखिक संदेश और किसके लिए. अरे, यह पत्र ही हमारा नहीं है.
मलयकेतु: और इस पर लगी यह मोहर ?
राक्षस: धूर्त लोग नकली मोहर बना सकते हैं.
भागुरायण: तुम्हीं बताओ सिद्धार्थक, यह पत्र किसके हाथों से लिखा गया है.
सिद्धार्थक: शकटदास के.
मलयकेतु: (द्वार-रक्षिका से) विजये, शकटदास को बुलाओ.
लेकिन भागुरायण जानता है कि शकटदास बुलाया गया तो वह उन परिस्थतियों का उल्लेखकर, जिनमें मूल पत्र से उससे यह नक़ल करवाई गई थी, संशय खड़ा कर सकता है. अस्तु--
‘कुमार, अमात्य के सामने शकटदास कभी स्वीकार नहीं करेगा. अत: शकटदास का दूसरा लेख मँगवाया जाए, और वह मोहर भी.’
दूसरा लेख, और मोहर के रूप में प्रयुक्त नामांकित अँगूठी (याद होगा, राक्षस ने सिद्धार्थक से अँगूठी पाने के बाद शकटदास को अपनी ओर से इस्तेमाल के लिए दे दी थी) आ जाने के बाद मलयकेतु दोनों लेखों का मिलान करता है—सारे अक्षर मिल रहे हैं.
[अभी एक कड़ी और बाक़ी है।]
मलयकेतु: पत्र में लिखा है ‘आपके द्वारा जो तीन आभूषण भेजे गए थे, वे मिल गए हैं’. तो उनमें क्या एक वही है जो आपने पहन रखा है?
राक्षस : व्यापारियों से खरीदा था.
मलयकेतु: (द्वार-रक्षिका से) विजये, क्या तुम इस आभूषण को पहचानती हो?
द्वार-रक्षिका: (ध्यान से देखकर और आँखों में आँसू भरकर) क्यों नहीं कुमार! प्रात:स्मराणीय पर्वतेश्वर महाराज इसे पहना करते थे.
अपने स्वर्गीय पिता का आभूषण देखकर मलयकेतु उनकी याद में शोकाकुल हो उठता है. अब जाकर राक्षस को महसूस होता है कितना बड़ा छल किया गया है! तो वे तीनों व्यापारी चाणक्य द्वारा ये आभूषण हमारे पास लाकर बेचने के लिए नियुक्त किए गए थे! पूरी चाल कितनी सुसम्बद्ध है! पत्र मेरा नहीं है--यह कोई उत्तर नहीं हुआ, क्योंकि इस पर मेरी मोहर लगी है. शकटदास ने सहसा मित्रता तोड़ दी है और षड्यंत्र में शामिल हो गया है, इस पर भी कौन विश्वास करेगा! चंद्रगुप्त स्वर्गीय पर्वतेश्वर के आभूषण बेचेगा, इसे भी कौन मानेगा! तो कोई गँवारू उत्तर देने के बजाए मान लेना ही ठीक है.
मलयकेतु: आर्य से पूछना चाहता हूँ कि....
राक्षस: जो आर्य हो उससे पूछिए. हम तो अनार्य हो चुके हैं.
मलयकेतु: फिर भी....चंद्रगुप्त आपके स्वामी का पुत्र (दासी-पुत्र ही सही) है, इसलिए वह आपके लिए सेव्य है. मैं आपके मित्र का पुत्र हूँ, इसलिए आप मेरे लिए सेव्य हैं. चंद्रगुप्त के यहाँ अमात्य-पद पाकर भी आपकी दासता ही बनी रहेगी, जब कि यहाँ आपकी प्रभुता ही प्रभुता है. तो कौन-सा प्रलोभन है जो आपको इतना अनार्य (अधम) बना रहा है?
राक्षस: कुमार ने तो अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं दे दिया है. प्रलोभन कोई नहीं, कुमार के सोचने की दिशा ही अनुचित है.
मलयकेतु: (पत्र और आभूषणों की पेटी की ओर इशारा करके) तो ये क्या हैं ?
राक्षस: (आँखों में आँसू भरकर) दैव (भाग्य) का खिलवाड़ है, कुमार। मनुष्यों की परख रखनेवाले जिन स्वामियों (नंदों) को, जिनके लिए हम पुत्र की तरह थे, जिस पापिष्ठ दैव ने विनष्ट कर डाला, उसी का खिलवाड़.
मलयकेतु: दैव का खिलवाड़! आपका लोभ नहीं!! अब भी आप छिपाने से बाज नहीं आ रहे. अरे कृतघ्न! तुम्हारे ऊपर अत्यधिक विश्वास करनेवाले मेरे पिता तीक्ष्ण विष से घातक बनाई गई विषकन्या के प्रयोग से मार डाले गए. और अब अमात्य पद की तुम्हारी अभिलाषा हमें भी विनाश के लिए शत्रु के हाथ मांस की तरह बेच रही है.
राक्षस: एक फोड़े के ऊपर दूसरा फोड़ा! अब महाराज पर्वतेश्वर की हत्या का इल्ज़ाम भी लगेगा. (दोनों कान हाथ से ढककर) पाप शांत हो, पाप शांत हो. मैंने पर्वतेश्वर के लिए विषकन्या का प्रयोग कभी नहीं किया.
मलयकेतु: तो किसके द्वारा मारे गए पिता जी ?
राक्षस: इस विषय में भी दैव से ही पूछना चाहिए.
मलयकेतु: (क्रोध के साथ) दैव से पूछना चाहिए या क्षपणक जीवसिद्धि से?
राक्षस: (स्वगत) तो क्या जीवसिद्धि भी चाणक्य का गुप्तचर है! तब तो मेरा हृदय (जीवसिद्धि को राक्षस के हृदय के सारे भेद पता हैं) भी शत्रुओं द्वारा वश में कर लिया गया।
मलयकेतु: (क्रोध और भी भड़क उठता है) राजपुरुष भारसुक, सेनापति शिखरसेन को मेरी ओर से आज्ञा दो कि राक्षस के मित्र, और मेरे प्राणों की आहुति देकर चंद्रगुप्त की सेवा करने के इच्छुक, पाँचों राजाओं को दंडित करें. कौलूत-नरेश चित्रवर्मा, मलयराज सिंहनाद और कश्मीर-पति पुष्कराक्ष, जो मेरे भूक्षेत्र पर नज़र गड़ाए हुए हैं, भूमि में ही गाड़कर मिट्टी से ढक दिए जाएँ. सिंधुराज सुषेण और पारसीक-नरेश मेघनाद, जिन्हें मेरी गजसेना की लालसा है, हाथी द्वारा ही कुचलवा दिए जाएँ.
राजपुरुष के ‘जैसी आज्ञा’ कहकर निकल जाने के बाद--
मलयकेतु: राक्षस, हे राक्षस! (‘आर्य’ वगैरह कुछ नहीं!) मैं तुम्हारी तरह विश्वासघात करनेवाला नहीं हूँ. मैं हूँ मलयकेतु. जाओ, जाकर हर तरह से चंद्रगुप्त का आश्रय ग्रहण करो (प्राण बख़्श दिया). मैं तुम्हारे साथ आ मिले चंद्रगुप्त को, और चाणक्य को भी, उसी तरह विनष्ट करने में समर्थ हूँ जैसे दुष्टनीति त्रिवर्ग—धर्म, अर्थ और काम—को विनष्ट कर देती है.
भागुरायण: समय नष्ट करना व्यर्थ है कुमार. अब कुसुमपुर को घेरने के लिए हमारी सेनाओं को प्रस्थान की आज्ञा दी जाए.
मलयकेतु अपने लाव-लश्कर के साथ निकल जाता है.
राक्षस: धिक्कार है, धिक्कर! ये बेचारे चित्रवर्मा वगैरह भी निर्दोष मारे गए. तो क्या राक्षस अपने शत्रुओं नहीं, मित्रों के विनाश के लिए यह सब कर रहा है? मैं हतभाग्य अब करूं तो क्या करुँ?
किं गच्छमि तपोवनं न तपसा शाम्येत्सवैरं मन:
किं भर्तृर्ननुयामि जीवति रिपौस्त्रीणामियं योग्यता।
किं वा खड्गसख: पताम्यरिवले नैतञ्च युक्तं भवेच्-
चेतश्चंदनदासमोक्षरभसं रुन्ध्यात्कृतघ्नं न चेत्॥5:24॥
[क्या मैं तपोवन चला जाऊँ? नहीं, तपस्या द्वारा प्रतिशोध-भाव से भरा मन शांत नहीं होगा. तो क्या शत्रु के जीते जी नंद स्वामियों का अनुसरण करता हुआ मृत्यु को गले लगा लूँ? नहीं, यह तो स्त्रियों की पद्धति होगी (नारीवादी क्षमा करेंगे, यह चौथी शताब्दी ई. पू. का प्रसंग है). तो क्या हाथ में तलवार लेकर शत्रु-सेना पर टूट पड़ूँ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि मित्र चंदनदास को मृत्यु-दंड से छुड़ाने के लिए मन विह्वल है, और अपने को इससे (टूट पड़ने से) न रोका तो घोर कृतघ्नता होगी. तो...??]
इसी के साथ कूटलेख नामक पाचवाँ अंक समाप्त होता है.
[पूर्व टिप्पणी में आ चुका है कि मौर्य काल में वर्ण और जाति व्यवस्था व्यवहार में अपवाद स्वरूप ही थी. ब्राह्मण कुलोत्पन्न राक्षस एक कुशल अमात्य के साथ-साथ एक दक्ष और साहसी सेना-नायक भी है. वह कर्मयोगी है, इसलिए तपोवन उसका मार्ग नहीं. लेकिन क्रूर राजनीति के पैतरों और नियति की ठोकरों ने उसे आज ऐसे मुक़ाम पर ला खड़ा किया है, जहाँ उसका सारा सिद्धांत, सारा जीवन-दर्शन, सारी आस्था और सारा विश्वास टूटकर खंड-खंड हो गया है. वह बिना लड़े ही हार गया है—एक सैनिक के जीवन की सबसे बड़ा त्रासदी. आज वह पददलित है, कुंठित है, कीचड़ में लथेड़ दिया गया है, और सबसे बढ़कर, बिना किसी अपराध के अपने आश्रयदाता और सहयोगी का विश्वास खोकर लांक्षित-कलंकित हो गया है। जिनपर विश्वास किया, उन्हीं से धोखा खाकर चोटिल और विदीर्ण-हृदय राक्षस अंधकार में दिशाहीन, असहाय है. उसका आगे का रास्ता क्या होगा? क्या इस असह्य पराजय-बोध से उबरने का कोई मार्ग है? यही आगे के दो अंकों का प्रतिपाद्य है. वस्तुत: राक्षस की यह व्यक्तिगत पराजय राष्ट्र के विजयोत्कर्ष की भूमिका है.
अभी तक तो सिर्फ़ ध्वंस हुआ है, चाणक्य ने अपने प्रतिद्वंद्वी राक्षस के एक-एककर सारे पंख काट दिये हैं, सारी योजनाएँ विफल कर दी हैं. लेकिन लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अभी पुनर्निर्माण का अहम चरण बाक़ी है. राक्षस का मानस-प्रक्षालन बाक़ी है. उसको और उसके गुणों और प्रतिभाओं को व्यापक राष्ट्रीय फलक से जोड़कर राष्ट्र-निर्माण के दुस्तर कार्य में नियोजित करना बाक़ी है. इस तरह चाणक्य का दूरगामी लक्ष्य अभी अधूरा है. और यही काम राक्षस की असफलता को सफलता में बदलनेवाला है।
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(क्रमश:)
कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi
विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम् (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/5_30.html