Wednesday, 28 November 2018

इस राज में, चैंन न राम को है, न हनुमान को ! / विजय शंकर सिंह

सरकार को यह बात पता है कि नोटबंदी से देह व्यापार में उल्लेखनीय कमी आयी है।पर यह नहीं पता है कि व्यापार और रोज़गार पर क्या असर पड़ा है।  कमाल की सरकार निकली यह तो। इसके पास देह व्यापार के तो आंकड़े हैं पर 2016 के बाद न रोज़गार के आंकड़े हैं और न हीं किसानों की खुदकुशी के।

मंदिर तोड़ फिर मंदिर बनाने का आंदोलन करने वाले मंदिर वैसे भी नहीं बना पा रहे हैं और बनारस के पुराने मंदिर एक एक कर के तोड़ और दे रहे हैं। सरकार अब हनुमानजी को जाति प्रमाणपत्र दे रही है। बजरंगबली को चैंन न त्रेता में मिला, न द्वापर में और न अब कलियुग में सरकार चैंन लेने दे रही है।  त्रेता में राम ने मिशन सीता पर लगा रखा था। द्वापर में कृष्ण ने कह दिया रथ के ऊपर बैठे रहिये। भीम ने भी उन्हें चैंन से आराम नहीं करने दिया । वह भी एक बार उनसे कुश्ती लड़ने को भिड़ गए। अब कलिकाल मे उनकी जाति का खुलासा कर के सरकार ने उन्हें और असहज कर दिया। लोग जाति पर आंदोलित हैं। ब्राह्मण सभा ने योगी आदित्यनाथ को नोटिस जारी कर दिया कि कैसे उन्होंने एक ब्राह्मण को दलित के खाने में डाल दिया। उधर रावण भी डर गया कि कहीं पूंछ में आग लगाने के आरोप में कोई मुक़दमा न दर्ज करा दे। अब तो जमानत का भी जुगाड़ नहीं रहा।

राम को घरबार से बेदखल कर के हिंदुत्व वालों ने तंबू में रख ही दिया था, और अयोध्या के बंदर तो 1992 से ही अयोध्या में पुलिस पीएसी और सीआरपी के जमावड़े से इतना दुखी हैं कि वे दर्शनार्थियों के अभाव में भोजन पानी को तरस गये । बची खुची कसर सरकार ने हनुमानजी को विवादित कर के पूरा कर दिया। जब जब वे फेसबुक देखते होंगे वह क्या सोचते होंगे वही जानें।  अब राम अपनी समस्या हल करें कि हनुमान की। वह भी यही सोच रहे होंगे कि इस अयोध्या के जंजाल से तो चित्रकूट ही बेहतर था। चित्रकूट में जब तक राम रहे कोई विघ्न बाधा उन्हें वहां नहीं आयी। जब वे चित्रकूट छोड़ कर सघन वन प्रान्तर में दक्षिण की ओर बढ़े और पंचवटी में डेरा जमाए तभी मुसीबतों का पहाड़ उन पर टूट पड़ा।
रहीम ने चित्रकूट को ही विपदा स्थल का प्रवास स्थल माना है। उन्ही के शब्दों में पढें,
चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश,
जेहि पर विपदा पड़त है सोहि आवत एहि देस !!
रहीम भी एक संकट में जब पड़े थे तो यहां आये थे।

चित्रकूट में डॉ राममनोहर लोहिया ने पचास साल पहले रामायण मेला शुरू किया तो कोई विवाद नहीं खड़ा हुआ। यह उनकी अनोखी परिकल्पना थी। राम तुलसी के आराध्य हैं, कबीर के निर्गुण के आधार, इकबाल के इमाम ए हिन्द, गांधी के जीवन की प्रेरणा, और अब 1985 से सत्ता पाने और बचाने का एक हथियार बन गये हैं। डॉ लोहिया के रामायण मेला का सबने स्वागत किया। पर जब से संघ/ वीएचपी/भाजपा यानी संघ परिवार राम मंदिर के मामले में कूदा है तब से राम न घर के रहे न घाट के। कारण साफ है। उनका राम से कोई सरोकार ही नहीं है। राम जहां सबके लक्ष्य हैं वहीँ वह कुछ स्वार्थी राजनेताओं और दलों के लिये सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ियां हैं, जहां पहुंच कर राम की सीढ़ी को वे तपेट कर रख देते हैं, ताकि वक़्त ज़रूरत वे फिर काम आएं। डॉ लोहिया राम को सियासत की नज़र से नहीं देश की आत्मा के रूप में देखते थे, पर संघ, वीएचपी, आदि आदि राम को केवल सियासत की नज़र से देखते हैं। जब ऐसा विकट  दृष्टिदोष हो तो क्या राम, और क्या हनुमान। जो विष्णु के ग्यारहवे अवतार, मिथ्यावतार कहें वही सही।

आरएसएस जो एक सांस्कृतिक संगठन के नाम पर देश की सियासत में जहर घोल रहा है, अपनी कुंठा और भड़ास सुप्रीम कोर्ट के ऊपर निकाल रहा है। उसके लिये धर्म केवल और केवल एक राजनीति का मामला है। वह न धर्म जानता है न दर्शन। वह बस एक दूसरे से लड़ाना जानता है और देश को बांटना चाहता है। झूठ तो लगता है कि प्रथम उपदेश की तरह घुट्टी में ही दे दी जाती है। अयोध्या में जमावड़ा हुआ और भीड़ नहीं जुटी तो, मुंबई की मराठा रैली की फ़ोटो छाप दी। झूठ और फरेब चाहे जितना फ़ैला लीजिये इनसे, पर  देश की आर्थिक उन्नति, विकास, वैज्ञानिक सोच और समतावादी समाज मे इनकी कोई रुचि नहीं है।

© विजय शंकर सिंह 

Tuesday, 27 November 2018

कविता - उम्मीद की धूप / विजय शंकर सिंह

लोग जुटते हैं अक्सर,
अयोध्या में जैसे,
सर्वत्र घट घट में बसने वाले,
राम के लिये,
एक अदद आशियाने
की ईंट दर ईंट जोड़ने,
के वादे पर।

काश, कभी ऐसा भी हो,
कि लोग जुटें
दिल्ली और लखनऊ में भी,
उम्मीद की भीड़ लिये,
वहां के चमचमाते,
प्रशस्त राजमार्गो पर।
जहां विराजती है ताकत,
फटा पड़ता है ऐश्वर्य ।

अपनी सूखी त्वचा,
भूख से पीड़ित पेट,
पीठ पर बंधे बस्ते में,
अपनी डिग्रियां,
सूखे और पपड़ियाये होंठ,
और आंखों में बेबसी के कतरे,
रोजी और उम्मीद में,
कतार दर कतार उमड़ते हुये,
हुजूम लोगों का।

फ़्लैश होते हुये कैमरे,
आभिजात्य समाज की चौंकती
संवेदना से जिनका दूर दूर तक,
कोई ताल्लुक न हो,
ऐसी सजी धजी आंखों के बीच,
पंक्तियों दर पंक्तियों तक
चुपचाप उमड़ते लोग।

और तब सत्ता,
पत्थर के ठस और
बेदिल सौध की,
राजसी सीढ़ियों से उतर कर,
अधरों पर दुःख भुला देने वाली,
दृढ मुस्कान लिये,
उन्हें इत्मीनान और उम्मीद बंधाती आंखों से,
दिलासा देती,
उनकी बातें सुनती ।

और सत्ता बाहें फैला,
उनके बेबस और बेहिस चेहरे,
नम आंखों की लरजती,
मोतियों का हाल पूछती,
सहानुभूति के दो शब्द बोलती,
अपना होने का एहसास दिलाती,
अचानक कंपकंपाती सर्दी मैं,
उम्मीद की गरमाहट भरी,
एक धूप पसर जाती!
तो कैसा होता दोस्त !!

© विजय शंकर सिंह

अथ गोत्र कथा उर्फ कैमोफ़्लाज / विजय शंकर सिंह

राहुल गांधी का गोत्र पता चल गया यह सरकार की एक बड़ी उपलब्धि है। डॉ  सम्बित पात्रा का शुक्रिया कि अगर उन्होंने सही वक्त पर यह सवाल नहीं उठाया होता तो आज देश किस दशा में रहता यह कहा नहीं जा सकता है। उधर सम्बित का सवाल गूंजा जो पहले ही जनेउ धारण किये , कैलास रिटर्न राहुल गांधी के निरंतर मंदिर मंदिर भ्रमण पर असहज हो रहे थे, और इधर मनुस्मृति से लेकर गूगल के सच्चे झूठे लिंक तक लोग गोत्र पर शोध करने के लिये सक्रिय हो गए। मुझे भी यह जानने की जिज्ञासा हुयी कि आखिर गोत्र अचानक इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया और यह है क्या ? भारतरत्न पीवी कांडे की वृहदाकार पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास मेरे पास है सोचा इसी में से गोत्र का संदर्भ ढूंढ कर कुछ अपना ज्ञान बढाऊँ और सोशल मीडिया पर हो रहे गोत्रचर्चा में एकाध अपनी पोस्ट भी डालूं पर तब तक इतनी अधिक सूचनाएं आ गयीं कि मैंने सोचा कांडे साहब का गरिष्ठ लेखन कौन पढें। अब जाकर राहुल गांधी के गोत्र का सामाधान पुष्कर तीर्थ के तीर्थ पुरोहित ने कर दिया है । उन्होंने कोई बही देखी और कुछ दहा कर कह दिया कि इनका गोत्र दत्रात्रेय है।

इस रहस्य के खुलते ही सभी आरगुमेन्टेटिव इंडियंस के भीतर की शास्त्रार्थ परम्परा जाग उठी और पितृसत्तात्मक समाज से लेकर मनुस्मृति से होते हुये सत्यकाम जाबालि तक के किस्से सोशल मीडिया पर अवतरित होने लगे। एक पक्ष इस पर बज़िद है कि उनका गोत्र है तो दूसरा यह मानने को तैयार ही नहीं है कि राहुल का गोत्र भी हो सकता है। है, और नहीं है। अस्ति और न अस्ति का विवाद सनातन है। आज तक यह जारी है। जब कि यदि ईश्वर है तो भी दुनिया ऐसी ही रहती और अगर नहीं है तो भी दुनिया ऐसी ही रहती। दुनिया बनती बिगड़ती है हमारे पुरुषार्थ और फितरत से। ईश्वर तो कभी हमारे पचड़े में नहीं पड़ता है, हमी हर समय उसके चक्कर मे मुब्तिला रहते हैं। तो गोत्र पर यह बहस भी वैसे ही हो गयी। अचानक याद आया दुनिया मे एक हमीं भाग्यशाली हैं जिनके पास एक अदद गोत्र है और दुनिया के सारे विकसित राष्ट्र इस दैवी कृपा से वंचित हैं। कमबख्त हैं सब, भले ही कितने भी विकसित और संपन्न हों ।  ऐसे विकास और संपन्नता का क्या कीजे जब कोई गोत्र ही नहीं है उनके पास !

चुनाव के दौरान जब ऐसी बहस जिसका सरकार के क्रियाकलाप से कुछ भी लेना देना न हो, छिड़ जाती है तो सबसे राहत की सांस सरकार ही लेती है। वह तब किसी के निशाने पर नहीं होती है। उसके क्रियाकलाप, उसकी कमियां, उपलब्धियां आदि पर कोई चर्चा नहीं करता है। बिल्कुल वह बिना तैयारी के क्लास में आये हुए उस विद्यार्थी की तरह राहत की सांस लेती हैं, जिसके क्लास का टेस्ट लेने की घोषणा कर के मास्टर साहब कक्षा में आएं और कक्षा में कोई और मसला जंग की सूरत लिये  छिड़ा हो। तो मित्रो, अब राहुल का गोत्र पता चल गया है । अब सरकार के कामकाज की खबर लें। यह गोत्र का सवाल भी जानबूझकर कर उठाया गया सवाल था। इसका उद्देश्य ही यह था कि कुछ ऐसे मुद्दे, जो सीधे सरकार के कामकाज और उपलब्धियों से जुड़े हों, थोड़ा नेपथ्य में ही रहें और हम खम्भे पर चढ़ते उतरते तर्कों का तमाशा देखते रहें। अब यह तमाशा भी खत्म हुआ और रहस्य भी। तो अब उम्मीद की जाय कि कुछ सार्थक और लोकहित से जुडा विमर्श होगा।

( विजय शंकर सिंह )

किसान समस्या - अन्नदाता की व्यथा कथा - विजय शंकर सिंह

भारत एक कृषि प्रधान देश है । भारत माता ग्रामवासिनी, धूल भरा मैला सा आँचल । अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे ! आदि आदि। यह सब पंक्तियां जब बचपन के किसान और ग्रामीण जीवन पर निबंध लिखने के लिये कहा जाता था तो बरबस याद आ जाती थीं। आज फिर याद आ रही हैं। यह हम सब बचपन से सुनते आए हैं कि किसान अन्नदाता है। अनाज उपजाता है। खुद भूखा रह जीवन हमको देता है। हम उसके ऋणी हैं। सुंदर शब्द अगर लालित्य से भर जांय तो तरंगायित हो कविता लगने लगते हैं। आदर्शवाद का यह चेहरा यथार्थ की धरातल पर आते ही कैसा विद्रूप हो जाता है, कभी गांव देहात में जाइये तो आभास हो।

काल्पनिक जगत से हट कर अब कुछ यथार्थ की चर्चा हो जाय । सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जेएस केहर की अध्यक्षता में तीन जजों वाली एक बेंच जो सिटिजन रिसोर्स एंड एक्शन इनीशिएटिव की तरफ से दायर की गई एक याचिका, जो किसानों की स्थिति और उसमें सुधार की कोशिशों से सम्बंधित थी की सुनवायी कर रही थी। अदालत ने सरकार से किसानों की आत्महत्या के बारे में आंकड़े मांगे। सरकार के अनुसार, हर साल 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में, सरकार ने बताया कि,  देश में साल 2014 से 2016 तक, तीन वर्षो के दौरान ऋण, दिवालियापन एवं अन्य कारणों से करीब 36 हजार किसानों एवं कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की है। कृषि मंत्री ने 2014, 2015 के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े तथा वर्ष 2016 के अनंतिम आंकड़ों के हवाले से लोकसभा में यह जानकारी दी।

गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ‘भारत में दुर्घटना मृत्यु तथा आत्महत्याएं’ नामक प्रकाशन में आत्महत्याओं से जुड़ी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 में 12360 किसानों एवं कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की । जबकि वर्ष 2015 में यह आंकड़ा 12602 था । वर्ष 2016 के लिये राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनंतिम आंकड़ों के मुताबिक 11370 किसान एवं कृषि श्रमिकों के आत्महत्या की बात सामने आई है। कृषि मंत्रालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्ष 2015 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में दिवालियापन या ऋण के कारण 8007 किसानों और 4595 कृषि और कृषि मज़दूरों ने अपनी जान दी।

कितना अंतर है रूमानी आदर्शवाद और इस तल्ख हक़ीक़त में। देश के प्रमुख पत्रकार और किसानों की दशा और दिशा पर नियमित अध्ययन करने वाले मैग्सेसे पुरस्कार विजेता, पी. साईनाथ ने एक अध्ययन में बताया  कि " 1991 से 2011 के बीच लगभग 2000 किसानों ने रोज खेती छोड़ी।  इस अवधि में,  खेती से कुल 1 करोड़ 49 लाख किसान कृषि कार्य से दूर हुए। " उन्होंने किसान और सीमांत किसान के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए बताया कि वर्ष में 180 दिन से ज्यादा खेती करने वाला व्यक्ति जनगणना के अनुसार किसान है और 180 दिन से कम खेती से जुड़ा व्यक्ति सीमांत किसान है। उन्होंने बताया कि सीमांत किसानों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। वे आगे कहते हैं कि " खेती पर 1997 से ही संकट के बादल मंडराने लगे थे । लेकिन न तो मीडिया ने और न ही जनप्रतिनिधियों ने इस विपदा के बारे में कोई उत्सुकता दिखायी। 2000 ई के बाद ही अखबारों में इस विषय पर कुछ चर्चा करनी शुरू की।

किसानों की आत्महत्या के आंकड़े इकट्ठा करने में सरकारें घालमेल कर रही है। अब वे ऐसे आंकड़े भी नहीं इकट्ठा कर रहे हैं। 12 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों ने घोषित कर दिया है कि उनके राज्यों में किसान आत्महत्या का कोई मामला सामने नहीं आया । कर्नाटक राज्य में किसानों की आत्महत्या 46 फीसदी कम हुई लेकिन अतिरिक्त आत्महत्याएं 235 फीसदी बढ़ गई। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारें किसानों की आत्महत्या के आंकड़े दिखाने में कितना गड़बड़झाला कर रही है। महिला किसानों की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान खींचते हुए साईनाथ एक लेख में लिखते हैं कि " 60 प्रतिशत से अधिक खेतीबाड़ी का काम महिलाएं करती है। फिर भी महिलाओं का नाम किसान के तौर पर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नहीं होता है। " किसान सूखे की समस्या से नहीं बल्कि जबरदस्त पानी के संकट से जूझ रहे है। यह संकट लगातार दस अच्छे मानसून आयें तो भी कम नहीं हो सकेगा। 

किसानों की सबसे बड़ी समस्या फसल का उचित मूल्य न  मिलना है। पानी, मौसम, श्रम आदि की अनुकूलता के बावजूद अगर फसल हो भी जाय तो उसके उत्पाद का क्या किया जाय। लागत न मिलना किसानों की सबसे बड़ी त्रासदी रही है। अक्सर फसल अधिक है और खरीददार कम तो किसान के लिये अच्छी फसल भी आफत बन जाती है। 2014 में भाजपा ने वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आते हैं तो स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को लागू करेंगे।  इस रिपोर्ट के अनुसार उपज की कीमतों को तय करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि किसानों को फसल की लागत पर 50 फीसदी का मुनाफा मिले। इसे लेकर 2014 से अब तक महाराष्ट्र, राजस्थान, एमपी में अनेक किसान आन्दोलन खड़े हुए। मंदसौर में तो किसानों के मार्च पर गोलियां चलायीं गयीं और कुछ किसान मरे भी। पर राजनीतिक खींचतान और स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा की व्याख्या पर ही यह मामला उलझ गया।

एक तरफ फसल की लागत के अनुपात में किसान को उसकी कीमत नहीं मिल रही है, दूसरी तरफ खेती के काम में आने वाले उर्वरकों, कीटनाशकों और बीजों के दाम बढ़ते जा रहे हैं और सरकार भी इन्ही कम्पनियों की मूल्य वृद्धि की नीति के साथ खड़ी दिखती है । उसने निजी कम्पनियों को कीमत बढ़ाने की खुली छूट दे रखी है। परिणामस्वरूप, पिछले 25 वर्षों में खेती की लागत में दो गुनी से चार गुनी तक बढ़ोतरी हो चुकी है. जबकि इस दौरान किसानों को मिलने वाली उपज की कीमतों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। कृषि अर्थशास्त्रियों के अनुसार, कृषि लागत की परिभाषा का पुनरीक्षण करने की आवश्यकता है। अभी तक लागत में केवल, खाद, बीज, श्रम आदि चीजों को ही आधार माना जाता है जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य पर होने वाला व्यय बिल्कुल ही नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। जबकि सरकारी और निजी क्षेत्रों में स्वास्थ्य और शिक्षा के भत्ते भी दिए जाते हैं। किसानों द्वारा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरी सेवाओं पर किए जाने वाले खर्चों को भी लागत में शामिल किये जाने पर विचार करना चाहिये।

विकास, सभी चुनावों में सभी राजनीतिक दलों का एक पसंदीदा मुद्दा रहता है। पर विकास के मुद्दे में कहीं किसान और कृषि है भी यह आमतौर पर नहीं दिखता है। विकास का अर्थ सड़कें, पुल, रेलवे, उद्योग, आयात निर्यात आदि समझा जाता है और इन्हीं विषयों पर बात भी होती है पर किसान और कृषि पर न तो संसद कभी गम्भीरता से विचार करती है और न ही मीडिया के लिये यह कोई प्रमुख विषय बनता है। कभी भी संसद ने कृषि संकट की पड़ताल और उसके समाधान के लिये विशेष चर्चा नहीं की है। उद्योगपतियों के हित के लिये जितनी गर्मजोशी से कैबिनेट की बैठक बुलायी जाती है, उसकी तुलना में किसानों की समस्या पर ऐसी तेजी कम ही दिखती है। सरकारें तभी जगती हैं जब किसानों ने घेराव या बड़ा आंदोलन कर रखा है और सरकार कानून व्यवस्था बिगड़ने के भय से बैकफुट पर आ गयी हो। कृषि संकट पर गंभीर चर्चा के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाना चाहिए।. जिसमें एक दिन स्वामीनाथन रिपोर्ट पर विस्तार से चर्चा हो। उसी में किसानों की आत्महत्या और फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य,  कीमतों के निर्धारण पर भी गंभीर चर्चा होनी चाहिये। अगर स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा, समय के साथ साथ अव्यवहारिक हो गयी हो तो उस पर पुनर्विचार भी किया जा सकता है। पर यह वादा करने के बाद कि स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा मानी जायेगी, और बाद में, यह कहना कि वह अव्यवहारिक है किसानों की समस्या को टरकाना ही है। यह राजनीतिक दल का गैरजिम्मेदाराना आचरण है।

किसानों के कर्जे माफ होंगे यह सबसे आसान वादा है। पर क्या किसानों के कर्ज़ माफ होने से उन्हें वाकई में कोई लाभ मिलता है या मिला है। इस विंदु पर शोध करने वाले कृषि अर्थ शास्त्रियों का मानना है कि, "अधिकतर जरूरतमंद किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। यूपीए के समय दिए गए कर्जमाफी के दौरान यह पाया गया कि कई किसानों के पास बैंक खाते भी नहीं होते हैं। ऐसे किसानों को कर्जमाफी का लाभ नहीं मिल पाया । " इस विषय पर महाराष्ट्र के किसानों का अध्ययन करने वाले एक समूह के अनुसार, " कर्जमाफी के लिए कृषि जोत की सीमा निर्धारित कर देने से भी कई किसानों को कर्जमाफी नहीं मिली।  पश्चिम महाराष्ट्र में 2 एकड़ खेत रखने वाला किसान विदर्भ में 5 एकड़ खेत रखने वाले किसान से अधिक बेहतर हालात में है लेकिन कर्जमाफी के लिए जोत की सीमा तय कर देने से विदर्भ के ऐसे किसानों को कर्जमाफी नहीं मिली। " लेकिन कर्जमाफी का वादा किसानों के हित मे है। कॉरपोरेट जगत का जितना कर्ज़, एनपीए हो कर राइट ऑफ कर दिया जाता है उनकी तुलना में किसानों को दिया गया कर्ज कुछ भी नहीं है। हालांकि साईनाथ के एक लेख के अनुसार, " किसानों के लिए अभी तक जितनी भी कर्जमाफी की घोषणा की गई है उसका लाभ छोटे कर्जदार किसानों को नहीं मिला है और न ऐसे मानक और मापदंडों से मिलने की संभावना है। "

बीच मे फसलों की उत्पादकता और अधिक बढाने के लिये जीएम फसलों को विकसित करने की बात भी की गई। अब संक्षेप में इसके बारे में भी जान लें। जीएम ऑर्गेनिज्म (पौंधे, जानवर, माइक्रोऑर्गेनिज्म) में डीएनए को इस तरह बदला जाता है जो प्राकृतिक तरीके से होने वाली प्रजनन प्रक्रिया में नहीं होता है। जीएम टेक्नोलॉजी के तहत एक प्राणी या वनस्पति के जीन को निकालकर दूसरे असंबंधित प्राणी/वनस्पति में डाला जाता है. इसके तहत हाइब्रिड बनाने के लिए किसी माइक्रोऑर्गेनिज्म में नपुंसकता पैदा की जाती है। इसका उद्देश्य यह  है कि जीएम फसलों की उत्पादकता और प्रतिरोधकता अधिक होती है जिसके माध्यम से प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने वाली पौध नस्लें तैयार की जा सके। लेकिन इस तकनीक की उपयोगिता पर ही कृषि वैज्ञानिकों में विवाद हुआ और यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। इसके खतरे जब सामने आये तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जीएम फसलों पर वैज्ञानिकों की टीम गठित की गयी है जिसने अध्ययन के बाद, जीएम फसलों को दिए रहे प्रोत्साहन को हानिकारक बताया है। कुछ कृषि वैज्ञानिकों की राय थी इससे किसानों को नहीं बल्कि जीएम बीज उत्पादक कम्पनियों को अधिक लाभ होता। 

खेती के सामने एक और बड़ी समस्या उत्पन्न हो रही है, वह है खेती करने वाले किसानों का अभाव। शहरीकरण और खेती को आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी होते जाने के कारण, किसानों की संख्या में कमी आयी है। यह कमी ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में क्रमशः घटती और बढ़ती आबादी के कारण, 2011 के जनगणना आंकड़ो से देखी जा सकती है। किसानों की वास्तविक जनसंख्या में हो रही यह कमी  चिंताजनक है। इस पर एक कार्यदल द्वारा किये गए अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, " पिछले साल खेती करने वालों की संख्या में 50 लाख की कमी आई है यानी हर दिन खेती करने वाले लोगों की संख्या में 2000 की कमी आ रही है। इस बात पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि इन किसानों की जमीन कहां जा रही है और ये किसान कहां जा रहे हैं । " पिछले 20 सालों में हर दिन दो हज़ार किसान खेती छोड़ रहे हैं। ऐसे किसानों की संख्या लगातार घट रही है जिनकी अपनी खेतीहर ज़मीन हुआ करती थी और ऐसे किसानों की संख्या बढ़ रही है जो किराये पर ज़मीन लेकर खेती कर रहे हैं. इन किरायेदार किसानों में से 80 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबे हुए हैं.। किसान धीरे-धीरे कॉरपोरेट घरानों के हाथों अपनी खेती गंवाते जा रहे हैं। किसान तो कम हो रहे हैं और, वे बेहतर और लाभकारी आजीविका की तलाश में शहरों की ओर तो पलायन भी कर रहे हैं, पर उनकी ज़मीने कहां जा रही है ?  इस पर अध्ययन किया गया तो ज्ञात हुआ कि उनकी ज़मीनें पूंजीपतियों को उद्योग स्थापना की प्रत्याशा में सरकार द्वारा या तो दे दी जा रही हैं या वे खुद ही खरीद ले रहे हैं। किसानों का मज़दूरों के रूप में एक प्रकार का यह गुपचुप प्रत्यावर्तन हो रहा है। यह बदलाव खेती किसानी के लिये भविष्य में घातक हो सकता है।

सरकार ने बड़े ही गाजे बाजे के साथ फसल बीमा की योजना लागू की। लेकिन यह योजना किसानों के हित के लिये कम बीमा कम्पनियों के लिये अधिक लाभकारी सिद्ध हुयी। महाराष्ट्र के एक जिले परभणी का अध्ययन करके साईनाथ ने एक रिपोर्ट तैयार की है। उस रिपोर्ट के अनुसार, करीब  2.80 लाख किसानों ने अपने खेतों में सोयाबीन उगाया था। किसानों ने उक्त सोया की फसल के बीमा के लिये कुल 19.2 करोड़ रुपये का प्रीमियम बीमा कंपनी को अदा किया, और केंद्र और राज्य सरकार की ओर से उसी फसल के बीमा के लिये, 77-77 करोड़ रुपये यानी कुल 173 करोड़ रुपये बीमा कंपनी, को दिए गये । किसानों की पूरी फसल के मौसम की मार से बर्बाद हो जाने पर बीमा कंपनी ने किसानों को बीमित राशि का भुगतान किया । यह भुगतान एक ज़िले में  केवल 30 करोड़ रुपये का था, जब कि कुल प्रीमियम 193 करोड़ रुपये का बीमा कंपनी को दिया गया। बीमा कंपनी को कुल 143 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ मिला। यह आंकड़ा केवल एक जिले का है। अब इस हिसाब से हर ज़िले को किए गए भुगतान और कंपनी को हुए लाभ का अनुमान लगाया जा सकता है.। यह बीमा कंपनी रिलायंस इंश्योरेंस की है। सरकार का हर कदम उठता तो किसान हित के नाम पर है पर लाभ पहुंचता है पूंजीपतियों को। किसानों की यही नियति है।

8 नवंबर 2016 को नोटबंदी, की घोषणा हुई ।जिसका असर उद्योग जगत पर तो पड़ा ही, खेती किसानी भी कम प्रभावित नहीं हुयी। कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि  " नोटबंदी ऐसे समय पर की गई जब किसान अपनी खरीफ फसलों की बिक्री और रबी फसलों की बुवाई में लगे हुए थे ।. इन दोनों कामों के लिए भारी मात्रा में कैश की जरूरत थी । लेकिन नोटबंदी की वजह से सारा कैश बाजार से खत्म हो गया था। भारत के 26.3 करोड़ किसान ज्यादातर कैश आधारित अर्थव्यवस्था पर आश्रित हैं। इसकी वजह से रबी फसलों के लिए लाखों किसान बीज और खाद नहीं खरीद पाए थे ।. यहां तक कि बड़े जमींदारों को भी किसानों को मजदूरी देने और खेती के लिए चीजें खरीदने में समस्याओं का सामना करना पड़ा था.। " नकदी की कमी से राष्ट्रीय बीज निगम भी लगभग 1.38 लाख क्विंटल गेंहू के बीज नहीं बेच पाया था ।. ये स्थिति तब भी नहीं सुधर पाई जब सरकार ने कहा था कि 500 और 1000 के पुराने नोट गेंहू के बीज खरीदने और बेचने के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हैं। कैश की अनुपलब्धता का खेती पर जो असर पड़ा उसका दुष्परिणाम सभी अनौपचारिक सेक्टर्स पर भी पड़ा है। 

इधर किसानों के अनेक आंदोलन हुए हैं। महाराष्ट्र में दो बड़े किसान मार्च आयोजित हुए। मंदसौर में किसान आंदोलन अचानक हिंसक हो उठा और पुलिस को गोली चलानी पड़ी। राजस्थान में किसान सभा का ज़बरदस्त आंदोलन हुआ। अभी हाल ही में, दिल्ली घेरो आंदोलन उत्तरप्रदेश के किसानों का हुआ था । गन्ना भुगतान की समस्या को लेकर यूपी के किसानों का आंदोलन और जागरण चलते ही रहते हैं। आज किसान जागृत हैं, आंदोलित है, और अब संगठित भी हो रहे हैं। इसी 29 और 30 नवंबर को किसानों का संसद मार्च आयोजित हैं। किसानों की मांग है, कि,  स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए कम से कम तीन दिन तक संसद में बहस हो। विकास के नाम पर उद्योगों के साथ सरकार का पक्षपात पूर्ण रवैया बंद होना चाहिये। आज भी भारत अपने विशाल कलेवर , प्राकृतिक संसाधनों, जैव और वनस्पति की विविधता, उर्वर शस्य श्यामला मिट्टी , सदानीरा सरिताओं के बाहुल्य, प्रचुर जलराशि और प्रकृति की विलक्षण देन मानसून के कारण, अनाज, फल और सब्जियों का भण्डार बन सकता है, बशर्ते, सरकार किसानों की समस्याओं का उचित और तर्कपूर्ण समाधान निकाले और उनके साथ सौतेला व्यवहार न करे। 

( विजय शंकर सिंह )

Monday, 26 November 2018

25 नवम्बर 2018 का अयोध्या जमावड़ा और मीडिया / विजय शंकर सिंह

मीडिया से मेरा पुराना नाता है। यह मैं आप को सुबह सुबह आह्लादित करने के लिये नहीं कर रहा हूँ। इसी फेसबुक पर मेरी मित्र सूची में बहुत से नामचीन पत्रकार मित्र हैं जो मेरी बात की पुष्टि करेंगे कि मीडिया से मेरा पुराना नाता रहा है और अब भी बरकरार है। मैं अपनी पुलिस सेवा के दौरान, डीजी यूपी का एसपी, जन संपर्क भी 1995 और 96 में रह चुका हूं। तब से प्रेस से मित्रता काफी बढ़ी और नाता बनता गया जो आज भी बना हुआ है।

कल 25 नवंबर को अयोध्या में धर्म संसद का आयोजन था। वही जुनून, वही सज धज, वही नारे, वही एजेंडा, वही तमाशा दिखा जो 1990, 91 और 92 में वहां दिखा था। लेकिन एक अंतर भी था। 1991, 92 में जहां भीड़ बहुत अधिक थी, वहीं भीड़ कल कम थी। बेहद कम। यह भीड़ यह बताती है कि आयोजकों पर लोगों की आस्था कम हो रही है। अब आम लोग जैसे राम काज के लिये चल पड़ते थे वैसे नहीं निकल रहे हैं। अब यह आंदोलन नहीं तमाशा बन गया है।

यह संघ की वार्मिंग अप एक्सरसाइज है। जब कभी मुख्य कसरत या स्पोर्ट्स के पहले थोड़ा हम हाँथ पांव तेज़ी से मारते हैं थोड़ा बदन में गरमाहट लाते हैं ताकि जब मुख्य कसरत हो तो मांस पेशियां खिंचे नहीं तो उसे वार्मिंग अप अभ्यास कहते हैं। यह भी एक वार्मिंग अप ही था। यह एक टेस्ट की तरह से है जिससे जनता की मूर्खता और उन्माद का लेवेल जांचा जा सके। संघ ऐसे टेस्ट लेता रहता है। 1995 में गणेश जी के दूध पीने की घटना अफवाह फैलाने की क्षमता का एक टेस्ट था। तब गजानन ने जो एक बार दूध पीया फिर तो उन्होंने दूध की ओर देखा भी नहीं।

अयोध्या में लोग कल आये भी और गये भी। पर फसाना अभी खत्म नहीं हुआ है। लेकिन अयोध्या जमावड़ा से हासिल क्या हुआ है यह अभी पता नहीं है। पर एक बात जो सोशल मीडिया के हवाले से पता चल रही है कि यह अब ज़रूर लोगो को अहसास हो गया है कि राम मंदिर अब आस्था का कम राजनीतिक एजेंडे का मुद्दा अधिक बन गया है। राम भी अकेले अकेले तंबू में पड़े पड़े ऊब गये थे, भीड़ देखी होगी तो उन्होंने सोचा होगा कि, यह आखिरी सर्दी होगी तंबू में। संघ के एक बड़े नेता कह भी आये थे यह उनका राम का आखिरी दर्शन है जो टेंट में वे कर रहे हैं। अज्ञानी मानव यह समझ ही नहीं पाया कि जिसका दर्शन वह कर रहा है वह तो नश्वर है, उसकी न शुरुआत है न अंत। राम ने वही नारे में सुने, पुराने मंदिर वहीं बनायेगे। राम ने क्या सोचा होगा राम जानें। रामलला का लघु विग्रह टेंट में है ही और एक विशाल मूर्ति और बनने जा रही है । पर सारी समस्याओ की तरह यह मंदिर समस्या भी दिल्ली में ही है, अयोध्या में नहीं है।

अयोध्या में शांति बनी रही। देश मे भी कुछ नहीं हुआ। लोग समझदार हो गए हैं। राम ने उजड़ कर लोगों को विवेकवान भी बना दिया। पर जो तनाव ड्राइंग रूम की अनिवार्य बुराई बन चुके बुद्धू बक्से में दिखा वह सतह पर नहीं था। मीडिया ने अपने आका के निर्देश पर माहौल बनाये रखा। कहीं से मुल्ला पकड़ लाये कहीं से ' धर्माचार्य ' फिर अपने ग्रीन रूम में पोतपात के बैठा दिया। फिर एंकर के साथ सभी बहस में लग गए। बहस, राम के जन्मस्थान के लेबर रूम से लेकर पुरातत्व की खुदाई से होते हुए, सुप्रीम कोर्ट तक होती रही। पर पीएम ने तो गज़ब ही ढा दिया जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस मंदिर नहीं बनने दे रही है, और उसने सुप्रीम कोर्ट को डरा कर मुक़दमा ही टलवा दिया। मतलब पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद भी सरकार जब कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं तो ऐसा बेबस और बेहिस नेतृत्व किस काम का ? सिर्फ पर्यटन घूम घूम कर दुनियाभर के नेताओं का आलिंगन करने के लिये तो सरकार को चुना नहीं गया है !

आज संविधान दिवस है। संघ के अवचेतन में संविधान के प्रति अवज्ञा का भाव बहुत गहरे पैठा हुआ है। वे यह संविधान तब भी नहीं चाहते थे अब भी नहीं चाहते हैं। पर करें क्या ? जनता भी उन्हें तब भी नहीँ चाहती थी और चाहती अब भी नहीं है। यह तो राम की आड़ है। अब राम भी ऊब चुके हब।  6 दिसम्बर 92 की तारीख भी उन्होंने चुनी तो, उस दिन संविधान के ड्राफ्ट कमेटी के मुखिया डॉ आंबेडकर का जन्मदिन था, और कल 25 नवम्बर 2018 की तिथि भी जब चुनी तो वह संविधान दिवस की पूर्व संध्या थी। यह किताब बहुत मोटी है और यह मोटी किताब इन्हें बहुत असहज करती है। मीडिया को इस किताब ने जबरदस्त ताकत और आज़ादी दी है। पर यह ताकत और आज़ादी इसलिए दी गई है कि संविधान की आत्मा सुरक्षित रहे। पर अफसोस मीडिया का एक बड़ा तबका, सत्ता की विरुदावली में  लिप्त है।

अयोध्या जमावड़ा ने एक बात फिर प्रमाणित कर दी मीडिया का एक बड़ा भाग सनसनी चाहता है, उन्माद चाहता है, आग लगाऊ खबरे चाहता है। उसे शांति और सद्भाव की खबरें पसंद नहीं आती है। सच ज़रूरी है पर ऐसा सच जो समाज मे आग लगा दे, उससे परहेज किया जाना चाहिये। समाज हित व्यक्ति के हित से ऊपर है। राजनीतिक प्रतिबद्धता सबकी होती है। होनी भी चाहिये। हम सब किसी न किसी विचारधारा की ओर खुद को पाते हैं।  मीडिया की भी प्रतिबद्धिताएँ होगी। पर यह सारी प्रतिबद्धताएं संविधान की मूल भावना, एकता, अखंडता, और सामाजिक समरसता के विरुद्ध तो नहीं ही होनी चाहिये।

© विजय शंकर सिंह

फ़ैज़ की कहानी फ़ैज़ की जुबानी - 3 / विजय शंकर सिंह

यह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के आपबीती की तीसरी और अंतिम किश्त है।
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हमारे शायरों को हमेशा यह शिकायत रही है कि ज़माने ने उनकी क़द्र नहीं की। ... हमें इससे उलट शिकायत यह है कि हम पे लुत्फ़ो-इनायात की इस क़दर बारिश रही है; अपने दोस्तों की तरफ़ से, अपने मिलनेवालों की तरफ़ से और उनकी जानिब से भी जिनको हम जानते भी नहीं क़ि अक्सर दिल में हिचक महसूस होती है कि इतनी तारीफ़ और वाहवाही पाने का हक़दार होने के लिए जो थोड़ा-बहुत काम हमने किया है, उससे बहुत ज़ियादा हमें करना चाहिए था।

यह कोई आज की बात नहीं है। बचपन ही से इस क़िस्म का असर औरों पर रहा है। जब हम बहुत छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे, तो स्कूल के लड़कों के साथ भी कुछ इसी क़िस्म के तअल्लुक़ात क़ायम हो गये थे। ख़ाहमख़ाह उन्होंने हमें अपना लीडर मान लिया था, हालांकि लीडरी के गुन हमें नहीं थे। या तो आदमी बहुत लट्ठबाज़ हो कि दूसरे उनका रौब मानें, या वह सबसे बड़ा विद्वान हो। हम पढ़ने-लिखने में ठीक थे, खेल भी लेते थे, लेकिन पढ़ाई में हमने कोई ऐसा कमाल पैदा नहीं किया था कि लोग हमारी तरफ़ ज़रूर ध्यान दें।

बचपन का मैं सोचता हूं तो एक यह बात ख़ास तौर से याद आती है कि हमारे घर में औरतों का एक हुजूम था। हम जो तीन भाई थे उनमें हमारे छोटे भाई (इनायत) और बड़े भाई (तुफ़ैल) घर की औरतों से बाग़ी होकर खेलकूद में जुटे रहते थे। हम अकेले उन ख़वातीन के हाथ आ गये। इसका कुछ नुक़सान भी हुआ और कुछ फ़ायदा भी। फ़ायदा तो यह हुआ कि उन महिलाओं ने हमको इंतिहाई शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करने पर मजबूर किया; जिसकी वजह से कोई असभ्य या उजड्ड क़िस्म की बात उस ज़माने में हमारे मुंह से नहीं निकलती थी। अब भी नहीं निकलती। नुक़सान यह हुआ, जिसका मुझे अक्सर अफ़सोस होता है,कि बचपन के खिलंदड़ेपन या एक तरह की मौजी ज़िंदगी गुज़ारने से हम कटे रहे। मसलन यह कि गली में कोई पतंग उड़ा रहा है, कोई गोलियां खेल रहा है, कोई लट्टू चला रहा है; हम सब खेलकूद देखते रहे थे, अकेले बैठकर। 'होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे' वाला मामला। हम उन तमाशों के सिर्फ़ तमाशाई बने रहते, और उनमें शरीक होने की हिम्मत इसलिए नहीं होती थी कि उसे शरीफ़ाना शग़ूल या शरीफ़ाना काम नहीं समझते थे।

उस्ताद भी हम पर मेहरबान रहे। आजकल की मैं नहीं जानता, हमारे ज़माने में तो स्कूल में सख्त पिटाई होती थी। हमारे वक्तों के उस्ताद तो निहायत ही जल्लाद क़िस्म के लोग थे। सिर्फ़ यही नहीं कि उनमें से किसी ने हमको हाथ नहीं लगाया बल्कि हर क्लास में मॉनिटर बनाते थे :बल्कि (साथी लड़कों को) सज़ा देने का मंसब भी हमारे हवाले करते थे, यानी-फ़लां को चांटा लगाओ, फ़लां को थप्पड़ मारो। इस काम से हमें बहुत-कोफ्त होती थी, और हम कोशिश करते थे कि जिस क़दर भी मुमकिन हो यों सज़ा दें कि हमारे शिकार को वह सज़ा महसूस न हो। तमाचे की बजाय गाल थपथपा दिया, या कान आहिस्ता से खींचा, वगैरह। कभी हम पकड़े जाते तो उस्ताद कहते 'यह क्या कर रहे हो! ज़ोर से चांटा मारो!'

इसके दो प्रभाव बहुत गहरे पड़े। एक तो यह कि बच्चों की जो दिलचस्पियां होती हैं उनसे वंचित रहे। दूसरे यह कि अपने दोस्तों,क्लासवालों और उस्तादों से हमें बेहद स्नेह आशीष, खुलापन और अपनाव मिला; जो बाद के ज़माने के दोस्तों और समकालीनों से मिला, और आज भी मिल रहा है।

सुबह हम अपने अब्बा के साथ फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने मस्जिद जाया करते थे। मामूल (नियम) यह था कि अज़ान के साथ हम उठ बैठे, अब्बा के साथ मस्जिद गये,नमाज़ अदा की;और घंटा-डेढ़ घंटा मौलवी इब्राहीम मीर सियालकोटी से, जो अपने वक्त क़े बड़े फ़ाजिल (विद्वान) थे, क़ुरान-शरीफ़ का पाठ पढ़ा-समझा; अब्बा के साथ डेढ़-दो घंटों की सैर के लिये गये; फिर स्कूल। रात को अब्बा बुला लिया करते, ख़त लिखने के लिए। उस ज़माने में उन्हें ख़त लिखने में कुछ दिक्क़त होती थी। हम उनके सेक्रेटरी का काम अंजाम देते थे। उन्हें अख़बार भी पढ़कर सुनाते थे। इन कई कामों में लगे रहने की वजह से हमें बचपन में बहुत फ़ायदा हुआ। उर्दू-अंग्रेज़ी अख़बारात पढ़ने और ख़त लिखने की वजह से हमारी जानकारी काफ़ी बढ़ी।

एक और याद ताज़ा हुई। हमारे घर से मिली हुई एक दुकान थी, जहां किताबें किराये पर मिलती थीं। एक किताब का किराया दो पैसे होता। वहां एक साहब हुआ करते थे जिन्हें सब 'भाई साहब' कहते थे। भाई साहब की दुकान में उर्दू साहित्य का बहुत बड़ा भंडार था। हमारी छठी-सातवीं जमात के विद्यार्थी-युग में जिन किताबों का रिवाज था, वह आजकल क़रीब-क़रीब नापैद हो चुकी हैं, जैसे तिलिस्मे-होशरुबा, फ़सानए-आज़ाद, अब्दुल हलीम शरर के नॉवेल, वग़ैरह। ये सब किताबें पढ़ डालीं इसके बाद शायरों का कलाम पढ़ना शुरू किया। दाग़ का कलाम पढ़ा। मीर का कलाम पढ़ा। ग़ालिब तो उस वक्त बहुत ज़ियादा हमारी समझ में नहीं आया। दूसरों का कलाम भी आधा समझ में आता था, और आधा नहीं आता था। लेकिन उनका दिल पर असर कुछ अजब क़िस्म का होता था। यों, शेर से लगाव पैदा हुआ, और साहित्य में दिलचस्पी होने लगी।

हमारे अब्बा के मुंशी घर के एक तरह के मैनेजर भी थे। हमारा उनसे किसी बात पर मतभेद हो गया तो उन्होंने कहा'अच्छा, आज हम तुम्हारी शिकायत करेंगे कि तुम नॉवेल पढ़ते हो; स्कूल की किताबें पढ़ने की बजाय छुपकर अंट-शंट किताबें पढ़ते हो।' हमें इस बात से बहुत डर लगा, और हमने उनकी बहुत मिन्नत की कि शिकायत न करें; मगर वह न माने और अब्बा से शिकायत कर ही दी। अब्बा ने हमें बुलाया और कहा'मैंने सुना है, तुम नॉवेल पढ़ते हो।' मैंने कहा 'ज़ी हां।' कहने लगे 'नॉवेल ही पढ़ना है तो अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ो, उर्दू के नॉवेल अच्छे नहीं होते। शहर के क़िले में जो लायब्रेरी है, वहां से नॉवेल लाकर पढ़ा करो।'

हमने अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ना शुरू किये। डिकेंस, हार्डी, और न जाने क्या-क्या पढ़ डाला। वह भी आधा समझ में आता था और आधा पल्ले न पड़ता था। मगर इस पढ़ने की वजह से हमारी अंग्रेज़ी बेहतर हो गयी। दसवीं जमात में पहुंचने तक महसूस हुआ कि बाज़ उस्ताद पढ़ाने में ग़लतियां कर जाते हैं। हम उनकी अंग्रेज़ी दुरुस्त करने लगे। इस पर हमारी पिटाई तो न हुई; अलबत्ता वो उस्ताद कभी ख़फ़ा हो जाते और कहते 'अगर तुम्हें हमसे अच्छी अंग्रेज़ी आती है तो फिर तुम ही पढ़ाया करो, हमसे क्यों पढ़ते हो!'

उस ज़माने में कभी-कभी मुझ पर एक ख़ास क़िस्म का भाव छा जाता था। जैसे, यकायक आस्मान का रंग बदल गया है बाज़ चीज़ें क़हीं दूर चली गयी हैं.... धूप का रंग अचानक मेंहदी का-सा हो गया है... पहले जो देखने में आता था, उसकी सूरत बिल्कुल बदल गयी है। दुनिया एक तरह की पर्दए-तस्वीर के क़िस्म की चीज़ महसूस होने लगती थी। इस कैफ़ीयत (भावना) का बाद में भी कभी-कभी एहसास हुआ है, मगर अब नहीं होता। मुशायरे भी हुआ करते थे। हमारे घर से मिली हुई एक हवेली थी जहां सर्दियों के ज़माने में मुशायरे किये जाते थे। सियालकोट में पंडित राजनारायन 'अरमान' हुआ करते थे, जो इन मुशायरों के इंतिज़ामात किया करते थे। एक बुज़ुर्ग मुंशी सिराजदीन मरहूम थे अल्लामा इक़बाल के दोस्त, श्रीनगर में महाराजा कश्मीर के मीर मुंशी, वह सदारत किया करते थे। जब दसवीं जमात में पहुंचे तो हमने भी तुकबंदी शुरू कर दी, और एक-दो मुशायरों में शेर पढ़ दिये। मुंशी सिराजदीन ने हमसे कहा 'मियां, ठीक है, तुम बहुत तलाश से (परिश्रम से) शेर कहते हो, मगर यह काम छोड़ दो। अभी तो तुम पढ़ो-लिखो, और जब तुम्हारे दिलो-दिमाग़ में पुख्तगी आ जाये तब यह काम करना। इस वक्त यह महज़ वक्त क़ी बर्बादी है।' हमने शेर कहना बंद कर दिया।

अब हम मरे कालेज सियालकोट में दाख़िल हुए, और वहां प्रोफ़ेसर यूसुफ़ सलीम चिश्ती उर्दू पढ़ाने आये, जो इक़बाल के मुफ़स्सिर (भाष्यकार) भी हैं। तो उन्होंने मुशायरे की तरह डाली। और कहा 'तरह' पर शेर कहो! हमने कुछ शेर कहे, और हमें बहुत दाद मिली। चिश्ती साहब ने मुंशी सिराजदीन से बिल्कुल उलटा मशविरा दिया और कहा फ़ौरन इस तरफ़ तवज्जुह करो, शायद तुम किसी दिन शायर हो जाओ!
गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर चले गये। जहां बहुत ही फ़ाज़िल और मुश्फ़िक़ (विद्वान और स्नेही) उस्तादों से नियाज़मंदी हुई। पतरस बुख़ारी थे; इस्लामिया कालेज में डॉक्टर तासीर थे; बाद में सूफ़ी तबस्सुम साहब आ गये। इनके अलावा शहर के जो बड़े साहित्यकार थे इम्तियाज़ अली ताज थे; चिराग़हसन हसरत, हफ़ीज़ जालंधारी साहब थे; अख्तर शीरानी थे उन सबसे निजी राह-रस्म हो गयी। उन दिनों पढ़ानेवालों और लिखनेवालों का रिश्ता अदब (साहित्य) के साथ-साथ कुछ दोस्ती का-सा भी होता था। कॉलेज की क्लासों में तो शायद हमने कुछ ज़ियादा नहीं पढ़ा; लेकिन उन बुज़ुगों की सुह्बत और मुहब्बत से बहुत-कुछ सीखा। उनकी महफ़िलों में हम पर शफ़क़त होती थी, और हम वहां से बहुत-कुछ हासिल करके उठते थे।

हमने अपने दोस्तों से भी बहुत सीखा। जब शेर कहते तो सबसे पहले ख़ास दोस्तों ही को सुनाते थे। उनसे दाद मिलती तो मुशायरों में पढ़ते। अगर कोई शेर ख़ुद पसंद न आया, या दोस्तों ने कहा, निकाल दो, तो उसे काट देते। एम.ए. में पहुंचने तक बाक़ायदा लिखना शुरू कर दिया था।

हमारे एक दोस्त हैं ख्वाजा ख़ुर्शीद अनवर। उनकी वजह से हमें संगीत में दिलचस्पी पैदा हुई। ख़ुर्शीद अनवर पहले तो दहशतपसंद (क्रांतिकारी) थे, भगतसिंह ग्रुप में शामिल। उन्हें सज़ा भी हुई, जो बाद में माफ़ कर दी गयी। दहशतपसंदी तर्क करके वह संगीत की तरफ़ आ गये। हम दिन में कॉलेज जाते और शाम को ख़ुर्शीद अनवर के वालिद ख्वाजा फ़िरोज़ुद्दीन मरहूम की बैठक में बड़े-बड़े उस्तादों का गाना सुनते। यहां उस ज़माने के सब ही उस्ताद आया करते थे; उस्ताद तवक्कुल हुसैन ख़ां, उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां, उस्ताद आशिक़ अली ख़ां, और छोटे गुलाम अली ख़ां, वग़ैरह। इन उस्तादों के साथ के और हमारे दोस्त रफ़ीक़ ग़ज़नवी मरहूम से भी सुह्बत होती थी। रफ़ीक़ ला-कॉलेज में पढ़ते थे। पढ़ते तो ख़ाक थे, बस रस्मी तौर पर कॉलेज में दाख़िला ले रक्खा था। कभी ख़ुर्शीद अनवर के कमरे में और कभी रफ़ीक़ के कमरे में बैठक हो जाती थी। ग़रज़ इस तरह हमें इस फ़न्ने-तलीफ़ (ललित-कला) से आनंद का काफ़ी मौक़ा मिला।

जब हमारे वालिद गुज़र गये तो पता चला कि घर में खाने तक को कुछ नहीं है। कई साल तक दर-ब-दर फिरे और फ़ाक़ामस्ती की। इसमें भी लुत्फ़ आया, इसलिए कि इसकी वजह से 'तमाशाए-अहले-करम' देखने का बहुत मौक़ा मिला, ख़ास तौर से अपने दोस्तों से। कॉलेज में एक छोटा-सा हल्क़ा (मंडली) बन गया था। कोयटा के हमारे दोस्त थे, एहतिशामुद्दीन और शेख़ अहमद हुसैन, डॉ. हमीदुद्दीन भी इस हल्क़े में शामिल थे। इनके साथ शाम को महफ़िल रहा करती। जवानी के दिनों में जो दूसरे वाक़िआत होते हैं वह भी हुए, और हर किसी के साथ होते हैं।

गर्मियों में कॉलेज बंद होते, तो हम कभी ख़ुर्शीद अनवर और भाई तुफ़ैल के साथ श्रीनगर चले जाया करते, और कभी अपनी बहन के पास लायलपुर पहुंच जाते। लायलपुर में बारी अलीग और उनके गिरोह के दूसरे लोगों से मुलाक़ात रहती। कभी अपनी सबसे बड़ी बहन के यहां धर्मशाला चले जाते, जहां पहाड़ की सीनरी देखने का मौक़ा मिलता, और दिल पर एक ख़ास क़िस्म का नक्श (गहरा प्रभाव) होता। हमें इन्सानों से जितना लगाव रहा, उतना कुदरत के मनाज़िर (सीन-सीनरी) और नेचर के हुस्न को देखने-परखने का नहीं रहा। फिर भी उन दिनों मैंने महसूस किया कि शहर के जो गली-मुहल्ले हैं, उनमें भी अपना एक हुस्न है जो दरिया और सहरा, कोहसार या सर्व-ओ-समन से कम नहीं। अलबत्ता उसको देखने के लिए बिल्कुल दूसरी तरह की नज़र चाहिए।

मुझे याद है, हम मस्ती दरवाज़े के अंदर रहते थे। हमारा घर ऊंची सतह पर था। नीचे नाला बहता था। छोटा-सा एक चमन भी था। चार-तरफ़ बाग़ात थे। एक रात चांद निकला हुआ था। चांदनी नाले और इर्द-गिर्द के कूड़े-करकट के ढेर पर पड़ रही थी। चांदनी और साये, ये सब मिलकर कुछ अजब भेद-भरा-सा मंज़र बन गये थे। चांद की इनायत से उस सीन पर भद्दा पहलू छुप गया था और कुछ अजीब ही क़िस्म का हुस्न पैदा हो गया था; जिसे मैंने लिखने की कोशिश भी की है। एकाध नज्म में यह मंज़र खेंचा है जब शहर की गलियों, मुहल्लों और कटरों में कभी दोपहर के वक्त क़ुछ इसी क़िस्म का रूप आ जाता है जैसे मालूम हो कोई परिस्तान है। 'नीम-शब', 'चांद', 'ख़ुदफ़रामोशी', 'बाम्-ओ-दर ख़ामुशी के बोझ से चूर', वगैरह उसी ज़माने से संबंध रखती हैं। एम.ए. में पहुंचे तो कभी क्लास में जाने की ज़रूरत महसूस हुई, कभी बिल्कुल जी न चाहा। दूसरी किताबें जो कोर्स में नहीं थीं, पढ़ते रहे। इसलिए इम्तिहान में कोई ख़ास पोज़ीशन हासिल नहीं की। लेकिन मुझे मालूम था कि जो लोग अव्वल-दोअम आते हैं, हम उनसे ज़ियादा जानते हैं, चाहे हमारे नंबर उनसे कम ही क्यों न हों। यह बात हमारे उस्ताद लोग भी जानते थे। जब किसी उस्ताद का, जैसे प्रोफ़ेसर डिकिन्सन या प्रोफ़्रेसर कटपालिया थे, लेक्चर देने को जी न चाहता तो हमसे कहते हमारी बजाय तुम लेक्चर दो; एक ही बात है! अलबत्ता प्रोफ़ेसर बुख़ारी बड़े क़ायदे के प्रोफ़ेसर थे। वह ऐसा नहीं करते थे। प्रोफ़ेसर डिकिन्सन के ज़िम्मे उन्नीसवीं सदी का नस्री अदब (गद्य साहित्य) था; मगर उन्हें उससे दरअस्ल कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए हमसे कहा दो-तीन लेक्चर तैयार कर लो! दूसरे जो दो-तीन लायक़ लड़के हमारे साथ थे, उनसे भी कहा दो-दो तीन-तीन लेक्चर तुम लोग भी तैयार कर दो! किताबों वग़ैरह के बारे में कुछ पूछना हो तो आके हमसे पूछ लेना। चुनांचे, नीमउस्ताद हम उसी ज़माने में हो गये थे।

शुरू-शुरू में शायरी के दौरान में, या कॉलेज के ज़माने में हमें कोई ख़याल ही न गुज़रा कि हम शायर बनेंगे। सियासत वग़ैरह तो उस वक्त ज़ेहन में बिल्कुल ही न थी। अगरचे उस वक्त क़ी तहरीकों (आंदोलनों) मसल्न कांग्रेस तहरीक, ख़िलाफ़त तहरीक, या भगतसिंह की दहशतपसंद तहरीक के असर तो जेहन में थे, मगर हम ख़ुद इनमें से किसी क़िस्से में शरीक नहीं थे।

शुरू में ख़याल हुआ कि हम कोई बड़े क्रिकेटर बन जायें, क्योंकि लड़कपन से क्रिकेट का शौक़ था और बहुत खेल चुके थे। फिर जी चाहा, उस्ताद बनना चाहिए; रिसर्च करने का शौक़ था। इनमें से कोई बात भी न बनी। हम क्रिकेटर बने न आलोचक; और न रिसर्च किया, अलबत्ता उस्ताद (प्राध्यापक) होकर अमृतसर चले गये।
हमारी ज़िंदगी का शायद सबसे ख़ुशगवार ज़माना अमृतसर ही का था; और कई एतिबार से। एक तो कई इस वजह से, कि जब हमें पहली दफ़ा पढ़ाने का मौक़ा मिला तो बहुत लुत्फ़ आया। अपने विद्यार्थियों से दोस्ती का लुत्फ़; उनसे मिलने और रोज़मर्रा की रस्मो-राह का लुत्फ़; उनसे कुछ सीखने, और उन्हें पढ़ाने का लुत्फ़। उन लोगों से दोस्ती अब तक क़ायम है। दूसरे यह कि, उस ज़माने में कुछ संज़ीदगी से शेर लिखना शुरू किया। तीसरे यह कि, अमृतसर ही में पहली बार सियासत में थोड़ी-बहुत सूझ-बूझ अपने कुछ साथियों की वजह से पैदा हुई; जिनमें महमूदुज्ज़फ़र थे, डॉक्टर रशीद जहां थीं, बाद में डॉक्टर तासीर आ गये थे। यह एक नयी दुनिया साबित हुई। मज़दूरों में काम शुरू किया। सिविल लिबर्टीज़ की एक अंजुमन (संस्था) बनी, तो उसमें काम किया, तरक्क़ीपसंद तहरीक शुरू हुई तो उसके संगठन में काम किया। इन सबसे जेहनी तस्कीन (मानसिक-बौध्दिक संतोष) का एक बिल्कुल नया मैदान हाथ आया।

तरक्क़ीपसंद अदब के बारे में बहसें शुरू हुई, और उनमें हिस्सा लिया। 'अदबे-लतीफ़' के संपादन की पेशकश हुई तो दो-तीन बरस उसका काम किया। उस ज़माने में लिखनेवालों के दो बड़े गिरोह थे; एक अदब-बराय-अदब ('साहित्य साहित्य के लिए') वाले, दूसरे तरक्क़ी-पसंद थे। कई बरस तक इन दोनों के दरमियान बहसें चलती रहीं; जिसकी वजह से काफ़ी मसरूफ़ियत रही ज़ो, अपनी जगह ख़ुद एक बहुत ही दिलचस्प और तस्कीनदेह तजुर्बा था। पहली बार उपमहाद्वीप में रेडियो शुरू हुआ। रेडियो में हमारे दोस्त थे। एक सैयद रशीद अहमद थे, जो रेडियो पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल (महाधीक्षक) हुए। दूसरे, सोमनाथ चिब थे, जो आजकल हिंदुस्तान में पर्यटन विभाग के अध्यक्ष हैं। दोनों बारी-बारी से लाहौर के स्टेशन डायरेक्टर मुक़र्रर हुए। हम और हमारे साथ शहर के दो-चार और अदीब (साहित्यकार) डॉक्टर तासीर, हसरत, सूफ़ी साहब और हरिचंद 'अख्तर' वगैरह रेडियो आने-जाने लगे। उस ज़माने में रेडियो का प्रोग्राम डायरेक्टर ऑफ़ प्रोग्राम्ज़ नहीं बनाता था, हम लोग मिलकर बनाया करते थे। नयी-नयी बातें सोचते थे और उनसे प्रोग्राम का ख़ाका तैयार करते थे। उन दिनों हमने ड्रामे लिखे, फ़ीचर लिखे, दो-चार कहानियां लिखीं। यह सब एक बंधा हुआ काम था। रशीद जब दिल्ली चले गये, तो हम देहली जाने लगे। वहां नये-नये लोगों से मुलाक़ात हुईं। देहली और लखनऊ के लिखनेवाले गिरोहों से जान-पहचान हुई। मजाज़, सरदार जाफ़री, जॉनिसार अख्तर, जज्बी और मख़दूम मरहूम से रेडियो के वास्ते से राबिता (संपर्क) पैदा हुआ; जिससे दोस्ती के अलावा समझ और सूझ-बूझ में तरह-तरह के इज़ाफ़े हुए। वह सारा ज़माना मसरूफ़ियत (व्यस्तता) का भी था, और एक तरह से बेफ़िक्री का भी।

प्रस्तुति : मिर्जा ज़फ़रुल हसन
उर्दू से अनुवाद : शमशेर बहादुर सिंह
(     जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नयापथ के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ विशषांक से साभार)
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इस शृंखला के भाग 1, और 2, निम्न लिंक में पढ़ सकते हैं।
फ़ैज़ की कहानी, फ़ैज़ की जुबानी - 1 / विजय शंकर सिंह  https://vssraghuvanshi.blogspot.com/2018/11/1.html
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फ़ैज़ की कहानी, फ़ैज़ की जुबानी - 2  /  विजय शंकर सिंह  https://vssraghuvanshi.blogspot.com/2018/11/2.html
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© विजय शंकर सिंह

Sunday, 25 November 2018

अब राम मंदिर कुंभकर्ण बनाएगा क्या ? / विजय शंकर सिंह

शिवसेना प्रमुख रिलायंस के विमान से अयोध्या आये और कहा कि कुंभकर्ण को जगाने आये हैं। अब यह कुंभकर्ण तो राम द्वारा मारा गया है। उससे राम, राम मंदिर और अयोध्या से क्या मतलब। अयोध्या जमावड़ा में शामिल सभी लोगों को कम से कम राम चरित मानस और वाल्मीकि रामायण की एक एक प्रति भेंट कर देनी चाहिये थी। यह काम जनता द्वारा लिये गये चंदे से विश्व हिंदू परिषद कर सकती है। वाल्मीकि कृत रामायण, संस्कृत में सब पढ़ पाएं यह भी संभव नहीं है ।  खुद मैं भी संस्कृत पढ़ और समझ  नहीं पाता हूँ तो कम से कम मानस का गुटका संस्करण तो दे ही दिया जाना चाहिये। पर मन मे दंगा और पागलपन भरा हो तो भला तुलसी सूझेंगे ? वह भी खलु वंदना कर के आगे बढ़ जाएंगे। उन्होंने ने भी मानस लिखते समय, गुंडो का कम झटका थोड़े ही सहा है।  पर रामायण और मानस के बजाय  वीएचपी को तो बस त्रिशूल बांटना ही सूझेगा । 1989  में वीएचपी ने सिखों के पंचककार में से एक कृपाण की तरह त्रिशूल बांटने का अभियान भी चलाया था। पर विरोध होते ही यह अभियान वापस ले लिया गया। मानस और रामायण यह दोनों ही ग्रँथ, गीता प्रेस सस्ता छापता भी है। लोगों को मानस मिलता तो लोग पढ़ते और लोगों को राम कथा का ज्ञान भी होता और साहित्य का आनन्द भी मिलता। फादर कामिल बुल्के ने भारत मे उपलब्ध सभी रामकथा की पुस्तकों पर एक शोध किया है। उसी पर उन्हें डॉक्टरेट भी मिली है। उसे भी इच्छुक मित्र पढ़ सकते हैं।

रामायण में ही प्रमाद से लक्ष्य भूलने का एक सुंदर उदाहरण है और वह है सुग्रीव का। जब राम ने बालि को मार कर सुग्रीव को किष्किंधा का राज सौंपा तो सुग्रीव तारा को पा , प्रमाद में लिप्त हो गया। अब राज सुख और वह भी अंतःपुर का,  मादक तो होता ही है। बाली को हटा कर सुग्रीव को राज्य दिलाने का मक़सद राम का एक कूटनीतिक कदम था। सुग्रीव ने वानर सेना को सीता की खोज के लिये उपलब्ध कराने का आश्वासन राम को दिया था। जो बाली के ज़ीवित रहते संभव नहीं था। बाली, रावण का परम प्रिय मित्र भी था। अब जब बाली मारा गया तो सुग्रीव वहां का शासक बन गया। लेकिन एक माह तक सुग्रीव अंतःपुर में ही विलास में रत रहा। खीज कर तब लक्ष्मण सुग्रीव के प्रासाद में जाते हैं और जब वे सुग्रीव को हड़काते हैं तो सुग्रीव की तन्द्रा टूटती है और तब वे बानर दल को चारों दिशाओं में भेजते हैं।  यह रोचक विवरण वाल्मीकि रामायण में है। यह प्रतीक शायद उद्धव को स्मरण न हो या हो सकता हो, उन्होंने पढ़ा न हो।

उद्धव अगर सुग्रीव को जगाने या हड़काने का प्रतीकात्मक उदाहरण दिए होते तो अधिक उपयुक्त होता। कुंभकर्ण को तो रावण ने जगाया था, राम को मारने के लिये। उद्धव ने रामायण सीरियल भले ही देखा हो, पर मुझे संदेह है कि उन्होंने राम चरित मानस या रामायण पढ़ी होगी। रामकथा मराठी में भी अनूदित होगी ही पर मुझे उसकी जानकारी नहीं है। उन्हें राम कथा पढ़नी चाहिये। 17 मिनट में उनके उन्मादी लड़के इमारत ज़मीदोज़ कर सकते हैं तो 17 दिन या 17 हफ्ते में ही रामायण ही पढ़ लेते । राम चरित मानस में नवाह पाठ और मासिक पाठ का सिलेबस भी अलग अलग बना है। यह सिलेबस विभाजन तुलसी के बहुत बाद ही किसी कथाप्रेमी ने किया होगा।  रामकथा तो उद्धव को ही क्यों हर किसी को पढ़ना चाहिये। कम से कम लोगों को यह पता तो चले राम थे क्या और आज राम को राजनीति और सत्ता लोभ ने किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस राजनीतिक प्रदूषण का जिम्मेदार कौन है।

सच तो यह है यह मुद्दा अपने जन्म के समय से ही, राम के प्रति आस्था का कम, सत्ता प्राप्ति के जुगाड़ का अधिक रहा है। अब तनातनी शिवसेना और भाजपा में है कि राम मंदिर के प्रति सबसे अधिक आस्थावान कौन है। जुमले पर जुमले फेंके जा रहे हैं, बहाने दर बहाने ढूंढे जा रहे हैं। आज जो अयोध्या पर वाद विवाद छिड़ा है, उस बारे में राज्य वर्धन की यह रोचक कविता पढें,
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"जुमलेबाज़"

वह झूठ को
इस क़दर पेश करता है कि
सच प्रतीत होता है
और फिर उस झूठ को
इतनी बार दोहराता कि
सच झूठ से विस्थापित हो जाता है।

जनता अब
झूठ का सच जान गई है
अब वह जब सच बोलेगा
तो कोई नहीं पतियायेगा।

गडेरिये के लड़के की तरह
ईशप की कहानी का शेर
उसे खा जायेगा
तब गाँव से बचाने
कोई नहीं आयेगा।

(राज्यवर्धन)
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अयोध्या की यह धर्म संसद वीएचपी, संघ, भाजपा आदि मंदिर निर्माण से जुड़े लोगों की एक वार्मिंग अप एक्सरसाइज थी । यह इनका टेस्ट लेने का तरीका है। ऐसे अभ्यास संघ करता रहता है। गणेश द्वारा दूध पीने की घटना भी अफवाह फैलाने का एक अभ्यास थी। अब  चुनाव नज़दीक है, और जनता से जुड़े असल मुद्दों पर सरकार ने कुछ  खास किया भी नहीं। कुछ हुआ भी तो नोटबंदी और जीएसटी की बदइंतजामी ने उसे नेपथ्य में पहुंचा दिया। फिर ऐसी दशा में तो कुछ न कुछ ऐसा करना ही था, जिससे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो और लोग इसी धार्मिक मुद्दे की पिनक में रहे। चुनाव तो लड़ना ही है और जीतने की उम्मीद भी रखनी है।

© विजय शंकर सिंह