Monday, 31 October 2022

गांधी की दांडी यात्रा (13) नमक उछाल कर दी ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती / विजय शंकर सिंह

गांधी और उनके स्वयंसेवकों ने, 6 अप्रैल 1930 को, सुबह साढ़े आठ बजे तक नमक कानून तोड़ने का कार्यक्रम पूरा कर लिया था। छोटे से गड्ढे में जमा प्राकृतिक नमक की एक गांठ उठा और, उसे भुरभुराकर गांधी ने आसमान में उछाल दिया। हवा में उछाला हुआ, वह एक चुटकी नमक, विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य, जिसका दावा था कि, वह, लहरों पर शासन करता था और उसके राज में सूरज नहीं डूबता था, को एक चुनौती थी।  सैकड़ों लोगों ने यह दृश्य देखा और गांधी जी को कहते सुना, जब उन्होंने, अपने हाथ में नमक की एक गांठ उठाते हुए कहा था, 'इससे ​​मैं ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला रहा हूं।' तब वहां सरोजनी नायडू थीं, जनता थी, और था जनता का तुमुल घोष। वहां एक भी पुलिसकर्मी या  आबकारी अधिकारी मौजूद नहीं था। जो थे भी, वे दूर थे। यह घटना, विश्व इतिहास की उन महान घटनाओं में शुमार की जाती है, जिसने इतिहास की गति और धारा को बदल दिया है। 

नमक-कानून तोड़ते ही, गांधीजी का यह वक्तव्य, सार्वजनिक हुआ, “नमक-कानून विधिवत् भंग हो गया है। अब जो कोई सजा भुगतने को तैयार हो वह, जहाँ चाहे, और जब सुविधा देखे, नमक बना सकता है। मेरी सलाह यह है कि, कार्यकर्ता, सर्वत्र नमक बनाये जहाँ, उन्हें शुद्ध नमक तैयार करना आता हो, वहां तैयार कर, उसे काम में भी लायें और ग्राम वासियों को भी, उसका उपयोग सिखा दें, परन्तु उन्हें यह भी अवश्य बता दें कि, कानून तोड़कर, इस तरह, नमक बनाने पर, सजा भी हो सकती है। गांव वालों को पूरी तरह, यह बात, समझा दिया जाय कि, नमक कर कानून में सजा, क्या क्या रहता है और, उस कानून को किस प्रकार तोड़ा जाय जिससे, नमक कर न लग सके। गांव वालों को यह भी साफ-साफ समझा देना चाहिए कि, समुद्र के पास दरारों और गड्ढों में प्रकृति का बनाया हुआ नमक मिलता है। गांव वाले इसे अपने और, अपने पशुओं को देने के काम में ला सकते हैं और जिन्हें चाहिए, उनके हाथों बेच भी सकते हैं। हां, यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि, ऐसा करने वाले लोगों को, नमक कानून भंग करने के, अपराध में सरकार, सजा भी दे सकती है और नमक विभाग के कर्मचारी दूसरी तरह से भी दंडित कर सकते हैं।"

आगे वे कहते हैं, "नमक कर के खिलाफ यह लड़ाई, राष्ट्रीय सप्ताह भर, अर्थात् 13 अप्रैल तक जारी रहनी चाहिए। जो इस पवित्र कार्य में शरीक न हो सके, उन्हें विदेशी वस्त्र बहिष्कार और खादी प्रचार के लिए काम करना चाहिए। उन्हें अधिक से अधिक खद्दर बनवाने का भी प्रयत्न करना नाहिए । इस काम के अलावा, मदिरा निषेध के बारे में मैं, भारतीय महिलाओं के लिए अलग से सन्देश तैयार कर रहा हूँ। मेरा विश्वास दिन प्रतिदिन दृढ़ होता जा रहा है कि, स्वाधीनता प्राप्ति में, स्त्रियां पुरुषों से अधिक सहायक हो सकती हैं। मुझे लगता है कि, अहिंसा का अर्थ, वे पुरुषों से अच्छा तमझ सकती हैं। यह इसलिए नहीं कि, वे अबला हैं। पुरुष अहंकार वश, उन्हें ऐसा ही समझते हैं। बल्कि सच्चे साहस और आत्मत्याग की भावना उनमें पुरुषों से कहीं अधिक है ।" 

स्कूलों के बहिष्कार पर गांधी जी ने कहा, “सरकारी या सरकार द्वारा नियन्त्रित शिक्षण संस्थाओं के छात्र यदि, इन सजाओं (गुलामी) के बाद भी वे, संस्थायें नहीं छोड़ेंगे तो, मुझे दुःख होगा । इतना विश्वास रख सकता हूं कि, वह (सरकार) हमारी बहनों से लड़ाई मोल नहीं लेगी।" हालांकि स्त्रियों के, सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के विषय में गांधीजी ने नवसारी में कहा था, "स्त्रियों को पुरुषों के साथ नमक की कढाइयों की रक्षा नहीं करनी चाहिए। मैं सरकार को, स्त्रियों द्वारा चुनौती देने को, उचित नहीं मानता हूं। जबतक सरकार की 'कृपा' पुरुषों तक ही सीमित रहती है, तब तक पुरुषों को ही लड़ना चाहिए। जब सरकार सीमोल्लंघन करे तब भले ही स्त्रियां को जी खोलकर साथ देना चाहिए। स्त्रियों के पास बहुत से घरेलू काम होते हैं।"
(पट्टाभि सीतारमैया, कांग्रेस का इतिहास )

उसी दिन दांडी के सत्याग्रह स्थल पर ही, फ्री प्रेस ऑफ इंडिया के रिपोर्टर ने गांधी जी का साक्षात्कार लिया। गांधी जी ने अखबार के रिपोर्टर को बताया, "अब जबकि, नमक कानून का तकनीकी या औपचारिक रूप से उल्लंघन कर दिया गया है, तो अब यह विधि उल्लंघन, हर किसी के लिए भी खुला है जो, नमक कानून के तहत दर्ज मुकदमे का सामना करने का जोखिम उठा सकता है। जहां वह चाहता है, और जहां भी उसे सुविधाजनक लगे, नमक बनाकर, यह कानून तोड़ सकता है। मेरी सलाह है कि, एक मजदूर को हर जगह नमक बनाना चाहिए और, जहां वह साफ नमक बनाना जानता है, वहां उसका इस्तेमाल करना चाहिए और गांव वालों को भी ऐसा ही करने का निर्देश देना चाहिए। उसे ग्रामीणों को बताना भी चाहिए कि, उस पर मुकदमा चलाये जाने का जोखिम है। दूसरे शब्दों में, ग्रामवासियों को नमक कानून तोड़े जाने की घटना के बारे में पूरी तरह से निर्देश दिया जाना चाहिए और इसके संबंध में कानूनों और विनियमों के बारे में बताया जाना चाहिए, ताकि नमक कर को निरस्त करने के लिए यह आंदोलन तेज किया जा सके और ग्रामीणों को यह पूरी तरह से, यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि, यह कानून का उल्लंघन है और यह उल्लंघन, जानबूझकर किया जा रहा है। यह खुलेआम  होना चाहिए और किसी भी तरह से चोरी-छिपे नहीं होना चाहिए। यह ज्ञात होने पर कि वे नमक का निर्माण कर सकते हैं या समुद्र के किनारे की खाड़ियों और गड्ढों में प्राकृतिक नमक ले सकते हैं, तो उन्हे, इसे अपने लिए और अपने मवेशियों के लिए इस्तेमाल कर लेना चाहिए, और यदि कोई इसे खरीदना चाहे तो इसे खरीदने वालों को वे बेच भी सकते हैं। इस  प्रकार राष्ट्रीय सप्ताह के दौरान 13 अप्रैल तक नमक कर के खिलाफ युद्ध जारी रखा जाना चाहिए। जो लोग अब इस पवित्र कार्य में लगे हुए हैं, वे विदेशी कपड़ों के बहिष्कार और खद्दर के उपयोग के लिए, जोरदार प्रचार में खुद को समर्पित कर दें। उन्हें यथासंभव खद्दर बनाने का भी प्रयास करना चाहिए। इस संबंध में और शराबबंदी के संबंध में, मैं भारत की उन महिलाओं के लिए एक संदेश तैयार कर रहा हूं, जिन्हें बारे में, मैं अधिक से अधिक आश्वस्त हो रहा हूं, कि, जो स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में पुरुषों की तुलना में अधिक, योगदान दे सकती हैं। मुझे लगता है कि वे पुरुषों की तुलना में अहिंसा के योग्य व्याख्याकार होंगी, इसलिए नहीं कि वे कमजोर हैं, जैसा कि पुरुष अपने अहंकार के कारण, उन्हें मानते हैं, बल्कि इसलिए कि, उनमें अधिक साहस या सही प्रकार और आत्म-बलिदान की असीम रूप से अधिक भावना है।"
(महात्मा गांधी, कलेकटेड वर्क्स, 49:34)

6 अप्रैल को गांधी द्वारा सभा को संबोधित करने के बाद लगभग दो तोला नमक, जो गांधी जी ने नमक कानून तोड़ कर बनाया था, उसे साफ किया गया और उस नमक को नीलाम किया गया। उसकी बोली, अहमदाबाद के एक मिल मालिक ने लगाई और, वह दो तोला नमक, मिल मालिक, सेठ रणछोड़ दास शोधन ने नीलामी में खरीदा। गांधी की दांडी यात्रा, जो, गाँव गाँव से होते हुए, गुजरी थी, उसका प्रभाव, गुजरात मे सबसे अधिक था। जनता ने, उनकी इस यात्रा में, काफी रुचि ली थी और उत्साह से भाग लिया था। पूरी यात्रा के दौरान, गांधीजी अपने सत्य और अहिंसा के पथ का प्रचार, दूर-दूर से आये हुए लोगों के बीच करते रहे और उन्होंने अपने इस सत्याग्रह में सम्मिलित हुए, सत्याग्रहियों पर सख्त अनुशासन लागू करने में भी, संकोच नहीं किया। नमक भारत की स्वतंत्रता की इच्छा का प्रतीक और नमक सत्याग्रह, जनजागरण का एक नया अभियान बन गया था। 6 अप्रैल को ही, उसी दिन 5,000 से अधिक सभाओं में कम से कम 50 लाख लोगों द्वारा पूरे भारत में नमक कानूनों को तोड़ा गया। स्वराज के लिए जो संघर्ष तेज होता जा रहा था, उसके प्रति पूरा देश, सचेत हो गया था। दांडी मार्च को विश्वव्यापी प्रचार मिला।  जल्द ही सविनय अवज्ञा आंदोलन भारत के पश्चिमी, उत्तरी, मध्य, पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में एक साथ फैल गया।

जैसे ही गांधी ने, दांडी में, नमक कानून तोड़ा, भारत के अन्य हिस्सों में भी, इसी तरह के उल्लंघन हो रहे थे।  बंगाल में, सतीश चंद्र दासगुप्ता के नेतृत्व में स्वयंसेवक नमक बनाने के लिए सोदपुर आश्रम से कलकत्ता से सात मील दूर महिसबाथन गाँव तक चले।  बंबई में के.एफ. नरीमन ने हाजी अली प्वाइंट तक, लघु यात्रा निकाला और पास के पार्क में, नमक तैयार किया।  तमिलनाडु में सी. राजगोपालाचारी ने वेदारण्यम में अभियान का नेतृत्व किया। देश के सुदूर और अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों में भी, नमक कानूनों का उल्लंघन हुआ।  संयुक्त प्रांत कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष, गणेश शंकर विद्यार्थी ने, कानपुर के श्रद्धानंद पार्क में, नमक बनाने का नेतृत्व किया।

बॉम्बे क्रॉनिकल, जिसने शुरू से ही, दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह पर अपनी नज़र रखा था ने, अपनी खबर में कहा, 6 अप्रैल को जो होना था, वह हो गया। अब तक (6 अप्रैल 1930 को गांधी जी द्वारा नमक कानून तोड़े जाने के बाद) भीड़ में से अन्य बहुत से लोग, समुद्र के गड्ढों में से, झुक कर अपने हाथों की हथेलियों में नमक इकट्ठा कर रहे थे। वे हंस रहे थे और गा रहे थे जैसे कि, वे किसी उत्सव पर छुट्टी मनाने आए हों। गांधी ने एक सवाल में कहा, "अब जबकि नमक कानून का तकनीकी या औपचारिक उल्लंघन किया जा चुका है, अब यह, हर किसी के लिए भी खुला है कि, वह नमक बनाकर, कानून तोड़े। सरकार से इसे खरीदने के बजाय कोई भी, जब चाहें, इसका निर्माण करने के लिए स्वतंत्र है।” "क्या होगा, यदि, सरकार आपको गिरफ्तार नहीं करती है तो ?"  फ्री प्रेस के संवाददाता ने, जब गांधी जी से पूछा तो गांधी ने, प्रसन्न मुद्रा में, केवल एक वाक्य कहा, "ओह, मैं अवैध नमक का निर्माण जारी रखूंगा।" 
(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खंड 49, पृष्ठ 34,35)

गांधी जी को, न तो सरकार ने दांडी यात्रा के दौरान गिरफ्तार किया, और न ही, नमक कानून तोड़ने के बाद, 6 अप्रैल 1930 को, दांडी में गिरफ्तार किया। गांधी की गिरफ्तारी को लेकर, दिल्ली से लंदन तक, पक्ष और विपक्ष में बहुत सी बातें कही गई और वह एक रोचक विवाद है, जिसपर हम आगे आएंगे। सच तो यह है कि, सरकार ने उन्हें आगे भी, लगभग एक महीने तक गिरफ्तार नहीं किया, और गांधी का नमक सत्याग्रह, देश भर मे फैलता चला गया। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि, सरकार ने, अन्य सत्याग्रहियों के खिलाफ भी, वही रणनीति अपनाई, जो उसने गांधी जी की गिरफ्तारी को लेकर अपनाई थी। नमक सत्याग्रह के पूरे भारत में फैल जाने के कारण, सरकार ने अब, सत्याग्रहियों की गिरफ्तारी शुरू कर दिया। उसी दिन, 6 अप्रैल को, गांधी जी के बेटे, रामदास को, साबरमती आश्रम वासियों के एक बड़े समूह के साथ गिरफ्तार किया गया। बाद में, एक हफ्ता बाद, महात्मा गांधी के निजी सचिव और गांधी जी की अनुपस्थिति में, साबरमती आश्रम की व्यवस्था संभाल रहे, महादेव देसाई को भी गिरफ्तार कर लिया गया। इसी सत्याग्रह के सिलसिले में, कलकत्ता के मेयर ने जब, अपने साथी नागरिकों से, विदेशी कपड़े का बहिष्कार करने का आग्रह किया, तो उन्हें गिरफ्तार ही नहीं किया गया, बल्कि, छह महीने की सजा भी सुना दी गई। आर्थर हरमैन की किताब, गांधी एंड चर्चिल, द एपिक रायवलरी के अनुसार, "पूरे भारत में पांच हजार से अधिक अलग-अलग जगहों पर सत्याग्रह हुए थे। यह उपमहाद्वीप में अब तक का सबसे बड़ा और सबसे संगठित विरोध आंदोलन था।"

अब गांधी के निकट सहयोगियों ने सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व संभाल लिया था। सत्याग्रहियों की एक बड़ी भीड़ के साथ, डॉ राजेंद्र प्रसाद को, तब गिरफ्तार किया गया, जब घुड़सवार पुलिस ने, उन पर आरोप लगाया था कि वे (डॉ राजेंद्र प्रसाद), सत्याग्रह के दौरान, घोड़ों के खुरों के सामने लेट गए थे। हालांकि, घुडसवार पुलिस थम गई थी ओर चमत्कारिक रूप से, किसी को भी चोट नहीं आ पाई। लेकिन प्रदर्शनकारियों को, कांस्टेबलों द्वारा, शारीरिक रूप से उठाकर ट्रकों पर फेंकना पड़ा, ताकि जेल ले जाया जा सके, क्योंकि सत्याग्रहियों ने उठने और धरना स्थल से हटने को मना कर दिया था। 
(लुई फिशर, द लाइफऑफ गांधी, 275)
16 अप्रैल को गांधी को, सूचना मिली कि, संयुक्त प्रान्त में, जवाहरलाल नेहरू को नमक कानून तोड़ने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है। गांधी जी ने, जवाहरलाल नेहरू के पिता, मोतीलाल नेहरू को, उन्हे, एक सौभाग्यशाली पिता बताते हुए, बधाई का एक तार भेजा: "जवाहरलाल ने, (सत्याग्रह मे गिरफ्तार होकर) कांटों का ताज धारण किया है।" 
(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, 49:102)

इस बीच, दांडी के पास सागर तट पर स्थित, आट गांव में, जहां नमक बहुतायत में उपलब्ध था, गांधी जी, व्यक्तिगत रूप से उन ग्रामीणों की,  निगरानी कर रहे थे जो, अवैध नमक इकट्ठा कर रहे थे पर, इसे वे किसी को, दे नहीं पा रहे थे, क्योंकि आगे पुलिस, उनसे नमक लेने आने वालों को, गिरफ्तार कर ले रही थी। गांधी जी ने, बॉम्बे क्रॉनिकल के एक रिपोर्टर को बताया कि, "आट में "कोई हिंसा नहीं हुई थी। उनके लिए उनका नमक उनके लहू के समान प्रिय था। उन्हें उम्मीद थी कि वे अपने धैर्य और पीड़ा से, पुलिस का भी दिल बदल देंगे।" 
(गांधी एंड चर्चिल, द एपिक राइवलरी पृ. 338)
 
अब इस आंदोलन में, गैर कांग्रेस और गैर गांधीवादी भी शामिल होने लगे। प्रसिद्ध लेखक, नीरद सी चौधरी, उस समय, कलकत्ता में 'द मंथली रिव्यू' के संपादक थे। वे एक पढ़े-लिखे, उदारवादी मानसिकता के, बंगाली बुद्धिजीवी थे तथा गांधी विचारों को लेकर वे, गांधी के प्रति संशयवादी भी रहे हैं। अपनी आत्मकथा, 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन अननोन इंडियन' में उन्होंने गांधी जी के सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन को लेकर, अकसर प्रतिकूल मंतव्य लिखे हैं। नीरद सी चौधरी, बाद में इंग्लैंड में बस भी गए। ब्रिटिश साम्राज्य और अभिजात्य के प्रति उनमें स्वाभाविक अनुराग देखने को मिलता है। लेकिन, गांधी की दांडी यात्रा और सत्याग्रह के व्यापक प्रभाव से, उनका भी हृदय परिवर्तन हो गया। नीरद सी चौधरी के ही अनुसार, 
"एक दोपहर, पक्षियों के कलरव और सिर के ऊपर चक्कर लगाने के साथ, मैं कलकत्ता के खारे पानी के दलदल में भटक गया। मैने देखा, गांधी के एक बंगाली अनुयायी, सतीश चंद्र दासगुप्ता ने, खारे पानी से भरे एक बर्तन को, जिसमे कीचड़ भी था, उबाला और उसमे से नमक निकाला। मैं खुद ही, कुछ पैसा देकर, नमक का एक छोटा पैकेट लेने के लिए, खुद को, मजबूर महसूस किया। लेकिन, मैने उस नमक का कभी, इस्तेमाल नहीं किया। "शायद," मैं कई साल बाद यह लिखूं कि, वह एक पवित्र नमक था, उपभोग के लिए तो बहुत ही पवित्र।"
(नीरद सी चौधरी, द ग्रेट एनार्क, 276 278)

ब्राउन की किताब, द सिविल डिसओबिडियेंस में एक अज्ञात प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से सत्याग्रह के प्रति लोगों के उत्साह का उल्लेख किया गया है। उक्त किताब के अनुसार, "एक अन्य चश्मदीद ने बंबई के एस्प्लेनेड मैदान में, सत्याग्रहियों को समुद्र के पानी को उबालते हुए देखा, जो कांग्रेस के स्वयंसेवकों द्वारा हांथ में हांथ थामे हुए लोगों से बने घेरे से घिरा था। एक स्थान पर तो, पानी उबालने का स्थान तीन तीन गोल घेरों में, एक दूसरे का हांथ पकड़े, कांग्रेस वॉलंटियर घेरों में खड़े थे। एक जगह पर तो कम से कम ऐसे तीस घेरे थे, जहां नमक, समुद्री पानी उबाल कर, बनाया जा रहा था, जिसमे तीन घेरे सिखों के और एक महिलाओं का था।" इस घेरेबंदी की व्यवस्था ने, पुलिस को, नमक कानून तोड़ने वाले सत्याग्रहियों की गिरफ्तारी के लिए मजबूर कर दिया। पुलिस की लाठी से,  बहुत सारे सत्याग्रहियों को चोटें आई थी। लेकिन, भीड़ हिंसक नहीं हुई और न, उन पर पथराव किया।"
(ब्राउन, द सिविल डिसओबिडियेंस, पृ.112)

बंबई की ही एक और घटना, कमलादेवी चट्टोपाध्याय से जुड़ी हैं, जो इस यात्रा में शामिल होने के लिए गांधी जी से मिली थीं। उन्होंने, शनिवार, 12 अप्रैल 1930, को, पिछले एक सप्ताह में अपने द्वारा बनाए गए प्रतिबंधित नमक लेकर, उसे बेचने के लिए, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में, पहुंच गई। वहां उन्हे, लोग, ट्रेडिंग रिंग में ले गए, उनका स्वागत, 'महात्माजी की जय' के नारों से हुआ और उनकी भी, जय जयकार हुई। सत्याग्रही नमक खरीदने के लिए, शेयर बाजार के, दलालों और उनके क्लर्कों ने, कमलादेवी चट्टोपाध्याय को, चारों ओर से घेर लिया। खरीदने वाले अधिक और नमक कम पड़ गया। जिसके परिणामस्वरूप नमक के पैकेट नीलामी द्वारा बेचे जाने लगे। नीलामी, आधे घंटे तक चली, जिसमें कुल मिलाकर लगभग 4000 रुपये की वसूली हुई। अगले दिन, बॉम्बे क्रॉनिकल ने कमलादेवी चट्टोपाध्याय की एक बड़ी तस्वीर को 'प्रमुख महिला, जिसने कानून तोड़ा, के रूप में वर्णित किया। 

 7 अप्रैल 1930 को, जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर महादेव देसाई ने गुजरात के मिजाज और आंदोलन का विस्तृत वर्णन किया। महादेव देसाई, साबरमती आश्रम में मोर्चा संभाले थे, जबकि उनके बॉस, "गांधी जी, सागर  तट पर, 'सभाओं को संबोधित कर रहे थे। ऐसा सघन संबोधन करते हुए, गांधी जी को, एक ही क्षेत्र में, मैने (महादेव देसाई) अपने जीवन में कम ही देखा है। दस से पंद्रह हजार लोग प्रतिदिन, 6.30 बजे गांधी जी मिलते हैं और, अंधेरा फैलने से पहले, तितर-बितर हो जाते हैं। सिर्फ (गांधी जी का) भाषण सुनने के लिए और वह उनसे (गांधी जी) जिसे स्पीकर कहलाने का कोई शौक भी नहीं है।"

अपने इस पत्र के साथ, महादेव देसाई ने, 6 अप्रैल को दांडी में गांधी द्वारा निर्मित नमक का  एक अंश भी, संलग्न किया (जिसे कार द्वारा, दांडी से, साबरमती ले जाया गया था)। और यह भी लिखा कि, "इसे 'या तो स्मृति चिन्ह के रूप में रखा जाए, या नीलामी द्वारा बेच दिया जाए। इसकी कीमत, एक हजार रुपये से कम नहीं होनी चाहिए।"  महादेव देसाई ने, अभी-अभी गांधी द्वारा बनाया एक पैकेट, 501 रुपये में बेचा था। उन्हें उम्मीद थी कि, जवाहरलाल, अपने बड़े करिश्मे और अपील के साथ, कम से कम उससे दुगुनी राशि में, उसे, बेच सकेंगें।"

गांधी जी के पुत्र रामदास को 6 अप्रैल को, पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था। गुजरात के कई, अन्य सत्याग्रही भी गिरफ्तार किए जा चुके थे। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में जमनालाल बजाज, जवाहरलाल नेहरू और देवदास गांधी को भी गिरफ्तार किया गया। सत्याग्रहियों की इन गिरफ्तारियों के जवाब में, विट्ठलभाई पटेल ने, विधान सभा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। विट्ठलभाई ने 20 अप्रैल 1930 को वायसराय को, पत्र लिखा कि, उन्होंने हमेशा यह स्पष्ट कर दिया था कि, 'कांग्रेस और गांधी अकेले किसी भी हद तक कोई भी आंदोलन ले जाने की स्थिति में थे, और, गोलमेज सम्मेलन में, ब्रिटिश सरकार, गांधी जी और कांग्रेस नेताओं को भाग लेने के लिए राजी नहीं कर सकी।"

इन गिरफ्तारियों पर, गांधी जी ने एक दूसरा वक्तव्य जारी किया, "मुझे अब तक जो सूचनायें मिली हैं, उनसे मालूम पड़ता है कि, गुजरात ने सामूहिक अवज्ञा का जो ज्वलन्त प्रमाण दिया है, उसका सरकार पर असर होने लगा है। उसने (सरकार ने) प्रमुख व्यक्तियों को गिरफ्तार करने में कोई विलम्ब नहीं किया। मैं यह भी जानता हूं कि, ऐसी ही कृपा सरकार ने अन्य प्रान्तों के कार्यकर्त्ताओं पर भी अवश्य की होगी। इस पर उन्हें बधाई। यदि सत्याग्रहियों को सरकार, जो चाहे सो करने देती तो, आश्चर्य की ही बात होती। साथ ही यदि वह, बिना अदालती कार्रवाई के उनके जान-माल पर हाथ डालती तो वह भी पाशविकता होती। व्यवस्थित रूप से मुकदमे चलाकर सजायें देने पर कौन आपत्ति कर सकता है? कानून-भंग का यह नतीजा तो सीधा ही है । कारावास और ऐसी ही अन्य कसौटियों पर तो सत्याग्रही को उतरना ही पड़ता है उसका उद्देश्य तभी पूरा होता है जब वह स्वयं भी विचलित न हो और उसके चले जाने पर वे लोग भी न घबरायें जिनका वह प्रतिनिधि है । यही अवसर है कि सबको स्वतः अपना नेता और अपना ही अनुयायी बन जाना चाहिए।"
क्रमशः...

(विजय शंकर सिंह)

गांधी की दांडी यात्रा (12) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/12-7-1930.html

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (19)

‘ढाई सौ शब्दों में 1857 के कारणों की समीक्षा करें’। मुझे यह प्रश्न मिला, और अब तक दस हज़ार से अधिक शब्द लिखने के बाद भी मेरे पाँव फूल गए। इसका स्पष्ट उत्तर तो इतिहास के विद्यार्थी ही दे सकते हैं। अपनी रुचि से कुछ प्रत्युत्तर रखता हूँ। 

किताबी उत्तरों में शुरुआत होती है लॉर्ड डलहौज़ी के हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) से। मगर यह तो भारत की कुल रियासतों के दो प्रतिशत से कम पर ही लागू हुआ था। उसमें भी सतारा जैसी रियासत तो बनायी ही अंग्रेजों की थी। छह सौ से अधिक रियासत तो हड़पे ही नहीं गए थे, और वे 1857 में भी ब्रिटिश प्रश्रय पा रहे थे। आगे यह भी स्पष्ट होगा कि उनमें कई ब्रिटिश के सहायक थे, कुछ तटस्थ थे, और कुछ ‘डबल गेम’ खेल रहे थे। 

जहाँ तक अवध की बात है, वह इस पद्धति से नहीं हड़पी गयी थी; बल्कि प्रशासनिक कमियों की वजह से और नवाब वाज़िद अली शाह की मौखिक सहमति से संभव हुई थी। स्वयं नवाब अंग्रेजों के मुख्यालय फ़ोर्ट विलियम के निकट मटियाबुर्ज में ही थे, और बंदूक लेकर आक्रमण करने या प्रत्यक्ष विद्रोह करने आए भी नहीं। उनके वज़ीर या अन्य सहयोगी पीठ पीछे क्या कर रहे थे, इससे बात नहीं बनती।

दूसरा उत्तर मिलता है कि किसान अपने बढ़ते शोषण से भड़के हुए थे, और यह एक किसान विद्रोह (peasant revolt) था। वाकई? 

यह तर्क कुछ ऐसा ही है कि अवध का किसान विद्रोह (1920-22) असहयोग आंदोलन से जुड़ा हुआ था। जबकि दोनों कई मामलों में एक दूसरे के विपरीत थे। 

किसानों और आदिवासियों के आंदोलन 1857 से पहले ही होते रहे थे, और वे न सिर्फ़ ब्रिटिश ‘साहबों’ बल्कि भारतीय जमींदारों और महाजनों के ख़िलाफ़ भी थे। चाहे वह संथाल आंदोलन हो, मोपला हो, भील विद्रोह हो, उड़ीसा का पैका विद्रोह हो, या उत्तर-पूर्व के तमाम विद्रोह हो। वे अपनी ज़मीन, अपने जंगल में हस्तक्षेप के कारण लड़ रहे थे। 

यह कहा जा सकता है कि जब 1857 के घटनाक्रम उभरने शुरू हुए तो किसानों को इस आधार पर जागृत किया गया कि नए ब्रिटिश सामंतों से बेहतर उनके पुराने भारतीय सामंत थे। लेकिन, ऐसे तर्क कम मिलते हैं कि वाकई किसी भू-सुधार या किसानों के बेहतर आर्थिक स्थिति का कोई पक्का ‘रोड-मैप’ बनाया गया। कार्ल मार्क्स ने जब 1857 पर लिखना शुरू किया, तो उन्होंने इसे सर्वहारा क्रांति का मॉडल बताना शुरू किया, मगर वह उनकी अपनी विचारधारा से मेल खाता था। अगर वह भारत आते तो शायद देख पाते कि इसका नेतृत्व सर्वहारा कर रहे थे या राजा-रजवाड़े, जमींदार और कुलीन वर्ग।

तीसरा उत्तर, जो संभवत: पहला उत्तर होना चाहिए, वह है सांस्कृतिक बदलाव की धमक। आज के नेता कहते कि ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ या भारत की मूलभूत सोच को बदला जाने लगा। भारतीय धार्मिक ढाँचे, जीवन शैली, और विविधता को ब्रिटिश राज के क़ानूनों और उनकी ‘सोच’ से बदला जाने लगा। ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश राज की तरफ़ प्रशासन का रुख करना, धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप देना, मकाले शिक्षा-पद्धति का आग़ाज़, मिशनरियों की बढ़ती गतिविधियाँ, आधुनिकीकरण से घरेलू उद्योग और नौकरियों का घटने की आहट। ये सभी मिल कर असहजता और शंकाओं को जन्म दे रहे थे।

चौथा उत्तर जिसे ‘ट्रिगर’ कहा जाता है, वह है सिपाहियों में कारतूस को लेकर शंका और उस शंका को एक सुनियोजित विद्रोह में तब्दील करना। इस उत्तर में पहले तीनों उत्तरों को समाहित किया जा सकता है। इसकी वजह सांस्कृतिक (धार्मिक) थी, इसकी योजना बनाने वाले और शह देने वाले हड़प नीति से सताए जमींदार थे; इस विद्रोह से किसानों का जुड़ना आसान था क्योंकि ये सिपाही कहीं न कहीं उनकी पृष्ठभूमि का नेतृत्व करते थे।

हम इन बिंदुओं पर पुन: अंत में लौटेंगे। फ़िलहाल मैं 4 अप्रिल, 1857 को एक सिपाही कैदी के कोर्ट-मार्शल में पूछे गए प्रश्न आपके समक्ष रखता हूँ।

“क्या तुम्हें कोई खुलासा करना या कुछ कहना है?”

“नहीं”

“जो तुमने बीते रविवार किया, वह अपनी मर्ज़ी से किया या किसी के आदेश पर?”

“अपनी इच्छा से। मुझे अपनी मृत्यु की आशा थी।”

“तुमने अपनी बंदूक खुद को बचाने के लिए लोड की थी?”

“नहीं। जान लेने के लिए।”

“क्या तुमने एजुटेंट (adjutant) की जान लेने के लिए गोली चलायी, या कोई और निशाना था?”

“जो भी सामने आता, उसे मार देता।”

“क्या तुमने कोई नशा किया था?”

“मैं नशा नहीं करता था। पिछले कुछ दिनों से भांग और अफ़ीम लेने लगा था। उस वक्त मैंने क्या किया था, मुझे मालूम नहीं।”

सिपाही को कई बार पूछा गया कि वह किसी का नाम लेना चाहेंगे, उन्होंने नहीं लिया। एकांत में ले जाने के बाद भी नहीं लिया। 

मूल दस्तावेज में सिपाही का नाम दर्ज़ है- Sepoy Mungul Pandy, 34th regiment, Native infantry’
(प्रथम शृंखला समाप्त)
क्रमशः... 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (18) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-18.html 

Sunday, 30 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (18)

“अगर आप लोगों को निचली जाति से सिपाही लाने हैं, तो आप लोग ही डोम और हलालखोरों (halalkhors) के रेजिमेंट में काम करें”

- मेजर जनरल रिचर्ड बिर्च

इस मुद्दे को मैं टाल रहा था, क्योंकि मेरा लेखन अक्सर सार्वजनिक होता है, जिसे संपूर्णता से कम लोग पढ़ते हैं। यह बातें किताबों में लिखनी अधिक सहज है। पुस्तक पाठक-वर्ग में ‘अटेंशन डेफिसिट’ भी कम होता है, और वहाँ फुटनोट आदि लगा कर बात समझाना आसान है। लेकिन, यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है कि इसके बिना बात आगे नहीं बढ़ सकती।

मैं ब्रिटिश सेना में जाति की बात करने जा रहा हूँ, जिससे 1857 का, और उसके बाद के नज़रिए का सीधा संबंध है। 

भारत में पारंपरिक रूप से क्षत्रिय, डोगरा, पठान, अफ़गानी, गोरखा, वन्नियार, बलूची आदि योद्धा वर्ग थे। ब्राह्मणों, वैश्य और शूद्र जातियों से मुगलों की सेना में भी सत्रहवीं सदी तक कम लोग थे। अगर थे भी तो उनकी भूमिका उनके वर्ण के हिसाब से यथोचित रखी गयी थी, या कुछ अपवाद थे। कभी-कभी बड़े युद्ध के समय सभी वर्णों से लोग लाए जाते, जो युद्ध के बाद पुन: अपने वर्ण के कार्य में लग जाते।

मराठा सेना में, ख़ास कर छत्रपति शिवाजी के समय ग़ैर-क्षत्रियों और ब्राह्मणों को सेना में शामिल किया जाने लगा। ‘मराठा’ वर्ग का जन्म भी कुन्बी, लोहार, गवली, कोली, धांगड़, ठाकर, सुतार आदि जातियाँ मिला कर हुआ। हालाँकि आज के कई मराठा स्वयं को क्षत्रिय कुल से भी जोड़ते हैं, लेकिन यह कयास हैं कि एक बड़ा योद्धा वर्ग खेतिहरों, और कामकाजी (बढ़ई, लुहार आदि) वर्ग से बना। 

पुरबिया ब्राह्मणों को ब्रिटिशों ने भारी संख्या में भर्ती किया। इसके कई तर्क दिखते हैं, जिसमें नस्लीय तर्क को नहीं नकारा जा सकता। खुल कर बात कही जाए, तो ब्राह्मणों का रंग, उनकी ऊँची सामाजिक स्थिति, और उनका पढ़ा-लिखा होना, ब्रिटिश अफसरों को पसंद आता था। हालाँकि उन्होंने हट्टे-कट्टे आदिवासी समूहों जैसे धांगड़, भील, संथाल के अतिरिक्त अहीर, कोली, मोपला आदि भी भर्ती किए। महाराष्ट्र के दलित ‘महार’ समुदाय जिससे अम्बेडकर आते हैं, उन्हें एक योद्धा वर्ग बनाने में ब्रिटिशों का योगदान है। लेकिन, ब्रिटिशों ने पहली बार एक बाक़ायदा ‘ब्राह्मण रेजिमेंट’ बनाया जिसमें अधिकांश पुरबिया ब्राह्मण और कुछ ऊँचे वर्ग के मुसलमान रखे गए। आंग्ल-मराठा युद्ध और आंग्ल-सिख युद्ध में ठीक-ठाक ब्राह्मण संख्या वाली बंगाल रेजिमेंट ने अपने अनुशासन से जीत भी दिलायी, जिसके बाद उनकी भर्ती बढ़ गयी। 1857 तक कुछ टुकड़ियों में चालीस प्रतिशत तक ब्राह्मण थे! 

प्रश्न यह है कि कर्मकांडी और छूआ-छूत मानने वाले ब्राह्मण भला ऐसे कार्य में क्यों आए? जब उनके पूर्वजों में किसी ने तलवार नहीं उठायी, तो उन्होंने कैसे पकड़ ली? एक कारण तो खैर उनकी घटती धार्मिक सत्ता और बढ़ती आर्थिक दुर्बलता हो सकती है। दूसरी वजह शायद यह थी कि वहाँ ब्राह्मणों और ऊँची जातियों के वर्चस्व में वे अपना लोटा माँज कर, ब्राह्मणों का या अपना बनाया खाकर जनेऊ बचा लेते थे। जैसा ब्राह्मण-खलासी संवाद हमने पहले पढ़ा, वह एक उदाहरण है कि वे फौज में भी छूआछूत मानते थे। 

मेजर जनरल बिर्च लिखते हैं, “मैंने अपनी आँखों से एक दिन देखा कि परेड के बाद एक निचली जाति का सिपाही एक ब्राह्मण सिपाही के समक्ष जमीन पर लेट कर दंडवत हो गया”

जातियों के प्रति ब्रिटिशों का रवैया बंगाल आर्मी ऐक्ट 31 से समझा जा सकता है जिसके अनुसार लिखित रूप से इन जातियों की सेना में भर्ती पर पाबंदी थी- कायस्थ, बनिया, नाई, तेली, तंबोली, गदरिया, कहार, माली। इनसे छूआछूत की बात नहीं थी, बल्कि वे मानते थे कि ये योद्धा वर्ग हैं ही नहीं। अगर ये नहीं थे, तो ब्राह्मण किस तर्क से हो गए? 

1857 ने उन्हें अपनी ‘ग़लती’ का अहसास कराया, जब उन्हें मालूम पड़ा कि पूरी योजना के पीछे अधिकांश पुरबिया ब्राह्मण हैं, जो गुटबाज़ी कर अपनी वाक्पटुता और जाति-निहित आदर से बाकियों को भड़काते हैं। जॉन लॉरेंस ने लिखा है,

“जब ये ऊँची जाति के लोग विद्रोह का ऐलान करते, तो निचली जाति के कर्मी जिनका काम टेंट गाड़ना, मिट्टी खोदना आदि था, वे भी भेड़-बकरियों की तरह पीछे-पीछे चल देते। वे हम ब्रिटिशों से अधिक आदर उन ब्राह्मणों का करते थे।”

1857 से पहले बंगाल रेजिमेंट के खलासी आदि पदों पर चमारों की खूब भर्ती हुई थी, जो 1857 के बाद इस कारण से भी घटा दी गयी कि वे ऊँची जाति के सिपाहियों को ही अपना मालिक मानते थे। उनकी जगह मज़हबी सिखों की भर्ती की गयी। ब्राह्मणों की भर्ती तो खैर बहुत कम कर दी गयी। ब्राह्मण रेजिमेंट का सिर्फ़ नाम ही रह गया, जो बीसवीं सदी तक खत्म ही कर दिया गया। बंबई प्रेसिडेंसी के आर्मी चीफ़ सोमसेट ने कहा,

“इन ब्राह्मणों को सेना में तो क्या, प्रशासनिक सेवाओं से भी बाहर किया जाए। यही सारे फ़साद की जड़ हैं।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (17) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-17.html 


Saturday, 29 October 2022

पुलिस की छवि, कार्यप्रणाली, चितन शिविर और प्रधानमंत्री का उद्बोधन / विजय शंकर सिंह


पीएम मोदी ने गृह मंत्रालय के चिंतन शिविर में पुलिस के लिए वन नेशन, वन यूनिफॉर्म की वकालत की है। साथ ही, प्रधान मंत्री ने अपराधों को रोकने के लिए केंद्रीय एजेंसियों और राज्य पुलिस के बीच सहयोग का भी आह्वान किया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा आयोजित, आंतरिक सुरक्षा के "चिंतन शिविर" (विचार-मंथन सत्र) को संबोधित कर रहे थे। 

प्रधानमंत्री ने कहा, 
“एक राष्ट्र, एक पुलिस के लिए एक वर्दी, सिर्फ एक विचार है। मैं इसे आप पर थोपने की कोशिश नहीं कर रहा हूं।  बस इसे एक विचार दें।  यह हो सकता है, यह 5, 50, या 100 वर्षों में हो सकता है। जरा सोचिए, ”प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका मानना ​​है कि देश भर में पुलिस की पहचान एक समान होनी चाहिए।"

प्रधानमंत्री जो कह रहे है, उसके बारे में सच तो यह है कि, पुलिस के बारे में एक देश एक पुलिस वेश की अवधारणा आज से नहीं बल्कि 1861 के पुलिस एक्ट के समय से ही है। पूरे ब्रिटिश भारत की पुलिस, एक ही रंग की वर्दी जो खाकी होती है, उसे ही पहनती है। पुलिस का जो स्वरूप बना था, वह केवल तीन प्रेसीडेंसी शहरों, कलकत्ता, बंबई और मद्रास में कमिश्नर सिस्टम के कारण अलग रहा और शेष भारत की पुलिस एक ही रूप रंग और कानून पर गठित हुई।

पुलिस वर्दी शुरू में सूती कमीज, पेंट, हाफ पैंट, बूट आदि की थी। जो समय समय पर बदलती रही। शायद, 1958 तक हाफ पैंट, वर्दी का अंग रहा फिर तो फुल पेंट हो गया। हाफ पैंट, पीटी परेड के लिए, आज भी लागू है। सूती वर्दी भी बाद में, रख रखाव की सुविधा के कारण, टेरीकॉट की हो गई, और सूती वर्दी जो, केवल परेड के लिए रखी गई, अब वह भी प्रचलन में नहीं रही। सूती वर्दी का रखरखाव महंगा होता है और उसमे वह क्रीज आदि नहीं आ पाती है, जो टेरीकॉट की वर्दी में आती है। वर्दी का यह सिस्टम, पूरे देश में एक सा है। 

जहां तक रैंकों का प्रश्न है, सिपाही से लेकर डीजी तक, पूरे देश की पुलिस, एक जैसा ही रैंक और बैज धारण करती है, पर उन रैंक और बैज के साथ राज्य पुलिस के लोग राज्य का नाम और टोपी पर राज्य का लोगो धारण करते हैं, जैसे उप्रपु, मप्रपु आदि। 

इसी तरह केंद्रीय पुलिस बल, जैसे सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी, सीआइएसएफ, एसएसबी आदि की भी वर्दी का रंग खाकी ही है और उनके भी रैंक और बैज, सिपाही से लेकर डीजी तक एक ही प्रकार के हैं। आईपीएस अफसरों की भी वर्दी, सभी पुलिसजन की वर्दियों के समान खाकी है, पर वे राज्य के नाम की जगह, IPS का नाम और टोपी पर IPS का बैज धारण करते हैं। 

अपराधों और अपराधियों से निपटने के लिए राज्यों के बीच घनिष्ठ सहयोग की वकालत करते हुए, पीएम ने कहा, “कानून और व्यवस्था अब एक राज्य तक सीमित नहीं है।  अपराध अंतरराज्यीय हो रहा है और अंतर्राष्ट्रीय भी।  प्रौद्योगिकी के साथ, अपराधियों के पास अब हमारी सीमाओं से परे अपराध करने की शक्ति है।  ऐसे में सभी राज्यों और केंद्र की एजेंसियों के बीच समन्वय महत्वपूर्ण है।"

पीएम का कहना सही है कि, अपराध का स्वरूप, बदला है और वह राज्य और देश की सीमाओं को पार करके अंतर्राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। लेकिन पुलिस भी अपराध के इस बदलते कलेवर के अनुसार बदल रही है। भारत इंटरपोल का सदस्य है और अंतर्देशीय संबंधों और संचार सुविधा के लिए 1980 के दशक से ही पुलिस का अपना संचार तंत्र जिसे POLNET कहा जाता है का जाल बिछाया जा रहा था। वायरलेस सिस्टम तो आजादी के बाद से ही है पर जैसे जैसे संचार तकनीकी में बदलाव होते जा रहे हैं, पुलिस का संचार तंत्र भी विकसित और बदलता जा रहा है। अब लगभग सभी राज्यों में पुलिस अफसरों, और हर पदो पर सीयूजी मोबाइल सेवा है और सभी एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। 

राज्य पुलिस बलों में सुधार के लिए 1969-70 से केंद्र सरकार द्वारा राज्य पुलिस बलों के आधुनिकीकरण की योजना (एमपीएफ योजना) क्रियान्वित की जा रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स/एमएचए) पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (एमपीएफ) योजना को लागू करने हेतु उत्तरदायी है। यह योजना, एक केंद्र प्रायोजित योजना है। जिसके अंतर्गत,
राज्यों को ‘गैर-योजना’ एवं योजना दोनों के अंतर्गत वित्त पोषण के उद्देश्य से दो श्रेणियों, अर्थात् श्रेणी ‘ए’ और श्रेणी ‘बी’ में विभाजित किया गया है। श्रेणी ‘ए’ राज्य, अर्थात् जम्मू-कश्मीर एवं सिक्किम सहित 8 उत्तर पूर्वी राज्य 90:10 के अनुपात में, केंद्र: राज्य के बंटवारे के आधार पर वित्तीय सहायता प्राप्त करने के पात्र होंगे। शेष राज्य ‘बी’ श्रेणी में होंगे एवं 60:40 के केंद्र: राज्य के बंटवारे के आधार पर वित्तीय सहायता के लिए पात्र होंगे। हर साल इस  योजना में बजट आता है और वह पुलिस को बेहतर बनाने के लिए व्यय किया जाता है। 

जहां तक राज्यों के आपसी संबंधों की बात है, राज्य स्तर पर पड़ोसी राज्यों के पुलिस अधिकारियों के साथ बराबर औपचारिक रूप से, अंतर्राज्यीय बैठकें होती रहती है। जिनमे मुख्य रूप से संगठित आपराधिक  गिरोहों के बार जरूरी सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाता रहता है। अनौपचारिक रूप से तो, थाने से लेकर जिले के एसपी तक आपस में, एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं,  जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद भी करते है। मैं 1992 से 1995 तक देवरिया में एडिशनल एसपी के पद पर नियुक्त था और पडरौना के बिहार और नेपाल के इलाके में जंगल पार्टी नाम से डकैतों और अपहरणकर्ताओं का एक संगठित गिरोह तब सक्रिय था। उसके बारे में पड़ोसी जिले गोपालगंज और नेपाल का एक जिला था, नवल परासी के पुलिस अफसरों से हमारा नियमित संपर्क था। हम दोनो एक दूसरे की मदद भी करते थे। 

प्रधानमंत्री जी का, यह भी कहना उचित है कि, वैज्ञानिक तरीकों का मुकदमों की विवेचनाओं में उपयोग किया जाना चाहिए तो, यह भी किया ही जा रहा है। फिंगर प्रिंट, फोरेंसिक जांच, डॉग स्क्वायड आदि आधुनिक तकनीक का उपयोग, मुकदमे और अपराध की जटिलता के अनुसार होता रहता है पर जितने मुकदमे दर्ज होते हैं, उसकी तुलना में, फोरेंसिक प्रयोहशालाएं कम है। उनकी संख्या बढ़ाई जाए, उन्हे और आधुनिक बनाया जाय, इसके लिए सरकार का दायित्व है कि वह पुलिस बजट बढ़ाए। पुलिस बजट को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि, यह एक अनुत्पादक व्यय है, यानी सरकार को इससे कुछ मिलता नहीं है। यह बात सही है कि, यह अनुत्पादक व्यय है पर, यह भी एक तथ्य है कि, उत्पादन के सारे उपादान, कानून और व्यवस्था तथा अपराध से जुड़े हैं। त्वरित और सुबूत सहित विवेचना और पूछताछ के लिए यह जरूरी है कि, इन्हे आधुनिक और वैज्ञानिक उपकरणों से समृद्ध किया जाय, ताकि अदालत में जब मुकदमे जाय तो, वे सुबूत के अभाव के छूटने न पावे। 

यहां एक और महत्वपूर्ण विंदु है, पुलिस प्रशिक्षण का। पुलिस प्रशिक्षण के लिए भी पूरे देश में एकरूपता है। पुलिस ड्रिल, के लिए पुलिस ड्रिल मैनुअल पीडीएम नामक एक निर्देश पुस्तिका है। जिसके अनुसार, सिपाही से लेकर आईपीएस तक को, एक ही पैटर्न की फिजिकल ट्रेनिंग दी जाती है। मूलतः यह ट्रेनिंग ड्रिल, सेना से ली गई है। पुलिस की फील्ड क्राफ्ट, टैक्टिक्स, पीटी, इन्फेंट्री ट्रेनिंग, और सब इंस्पेक्टर से लेकर आईपीएस तक की, घुड़सवारी (माउंटेड पुलिस) की ट्रेनिंग दी जाती है। यह तो आउटडोर ट्रेनिंग की बात हुई। ट्रेनिंग का यह सिस्टम, पूरे देश में, सभी राज्यों और केंद्रीय पुलिस बलों में एक ही तरह का है। कहीं कही आवश्यकतानुसार और फोर्स के उपयोग की जरूरत के अनुसार, ट्रेनिंग कार्यक्रम में, थोड़ा बहुत अंतर होता है, पर मूल ट्रेनिंग का यही स्वरूप है। 

पुलिस प्रशिक्षण पर अध्ययन के लिए, भारत सरकार ने, 1971 में, गोरे कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने, राज्य पुलिस बलों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कमियों और जरूरतों की पहचान की। कुछ सुझाव भी दिए, जैसे,  कई वर्षों के अनुभव वाले अधिकारियों की सेवाकालीन शिक्षा जारी रखने की आवश्यकता, प्रशिक्षण को सामाजिक और व्यवहार विज्ञान में बुनियादी ज्ञान और मानवीय संबंधों की गतिशीलता पर जोर, ताकि पुलिस के रवैये और उनके काम के सामुदायिक सेवा पहलुओं में प्रदर्शन में सुधार,  इसके अलावा, पुलिस प्रशासकों को मानव संसाधन उपयोग सहित समकालीन प्रबंधकीय कौशल में प्रशिक्षित किए जाने से संबंधित है, जिन्हे माना गया। कमेटी ने कहा, "पुलिस प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य नौकरी में ईमानदारी और समर्पण के लिए, एक प्रेरक वातावरण प्रदान करना चाहिए।" समिति की सिफारिशों के परिणामस्वरूप प्रशिक्षण की जरूरतों के बारे में बेहतर जागरूकता आई है। कमेटी ने कुल 24 सदर्भों पर, अपनी रिपोर्ट दी थी। वर्तमान प्रशिक्षण पद्धति में, गोरे कमेटी के अनुसार बदलाव किए गए हैं। 

प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि, 
“सूरजकुंड में यह चिंतन शिविर सहकारी संघवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।  राज्य एक-दूसरे से सीख सकते हैं, एक-दूसरे से प्रेरणा ले सकते हैं और देश की बेहतरी के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।”
जब अपराधों पर नज़र रखने की बात आती है, तो प्रौद्योगिकी के महत्व के बारे में बोलते हुए, पीएम ने कहा: 
“हमने 5G युग में प्रवेश किया है और इसके साथ, चेहरे की पहचान तकनीक, स्वचालित नंबर प्लेट पहचान तकनीक, ड्रोन और सीसीटीवी तकनीक में कई गुना सुधार होगा।  हमें अपराधियों से दस कदम आगे रहना होगा। साइबर अपराध हो या हथियारों या ड्रग्स की तस्करी के लिए ड्रोन तकनीक का उपयोग, हमें ऐसे अपराधों को रोकने के लिए नई तकनीक पर काम करते रहना होगा।"

प्रधानमंत्री ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही, वह यह है, 
"पुलिस के बारे में अच्छी धारणा बनाए रखना "बहुत महत्वपूर्ण" है और "यहां गलतियां" दूर की जानी चाहिए।"
प्रधान मंत्री यहां पुलिस की छवि और साख की बात कर रहे हैं और तमाम प्रोफेशनल उपलब्धियों के, पुलिस कर्मियों के अनवरत रूप से, अनुकूल/ प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करते रहने के बावजूद, पुलिस की साख क्यों सबसे निचले स्तर पर है, यह सवाल निश्चित रूप से प्रधानमंत्री को भी व्यथित करता होगा और सरकार के प्रमुख होने के नाते उनका दायित्व है कि, वे पुलिस की साख कैसे बचे, इस पर वे खुद कोई कार्ययोजना लाएं। 

पुलिस और आंतरिक चिंतन शिविर में कुछ ठोस बातों पर बात की जानी चाहिए। जैसे जनता पुलिस अनुपात, जनशक्ति की कमी, विशेषकर, सिपाही, सब इंस्पेक्टर और इंस्पेकर स्तर पर, नई नियुक्ति और पुलिस बल में वृद्धि की बात तो फिलहाल छोड़ दीजिए, जो रिक्त पद हैं, उन्हे ही भर दिया जाय तो भी गनीमत है। पुलिस की भूमिका अब केवल, अपराध नियंत्रण तक ही सीमित नहीं रही। जैसे जैसे आबादी बढ़ रही है, आर्थिक असमानता बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही, कानून और अपने अधिकारों के प्रति जनता की जागरूकता बढ़ रही है, उसे देखते हुए पुलिस के प्रति जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं। जनता की अपेक्षा का सारा बोझ पुलिस थानों पर ही घूम फिर कर आ जाता है, भले ही थाने के ऊपर अधिकारियों की लंबी चौड़ी फौज हो। एक दिक्कत यह भी है कि, पुलिस में सुपरवाइजरी अफसरों की संख्या तो बढ़ रही है पर उन अफसरों जैसे इंस्पेक्टर और उसके नीचे के पुलिस कर्मियों की संख्या उस गति से नहीं बढ़ रही है, जिस गति से बढ़नी चाहिए, जबकि जनता के संपर्क में सबसे अधिक यही वर्ग रहता है और पुलिसिंग की रीढ़ होता है। सबसे अधिक दबाव भी इसी वर्ग पर पड़ता है। पुलिस की छवि भी इसी वर्ग के प्रोफेशनल चरित्र और कार्यप्रणाली पर निर्भर रहता है। सरकार का ध्यान सबसे अधिक इसी वर्ग की ओर जाना चाहिए।

साख और जनता में अनुकूल छवि बनाने के लिए जरूरी है कि, पुलिस का प्रोफेशनल स्वरूप बनाए रखा जाय और इसके लिए जरूरी है कि, पुलिस का राजनीतिक दांव पेंच के लिए, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, हो रहे इस्तेमाल से, बचा जाय। जरूरत है, पुलिस को, किसी भी तरह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से दूर रखा जाय। पुलिस उस कानून के प्रति, प्रतिबद्ध है, जिस कानून के अंतर्गत उसका गठन हुआ है और, वह कानून को लागू करने, समाज में व्यवस्था बनाए रखने और वह भी, कानून को, कानूनी तरह से लागू कर के ही, के लिए प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है। क्या प्रधान मंत्री जी, पुलिस पर राजनीतिक लाभ हानि के लिए किए जा रहे, हस्तक्षेप को रोकने के लिए कदम उठाएंगे? ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि, इसी सरकार के समय, इस तरह का हस्तक्षेप होता है, बल्कि यह लंबे समय से है और हर राजनीतिक दल इस पाप में भागीदार है। पर जब प्रधानमंत्री जी ने चिंतन शिविर में, पुलिस की छवि के बारे में, अपनी बात कही है तो, उनसे यह स्वाभाविक आशा बंधती है कि वे, बेजा राजनीतिक दखलंदाजी रोकने के लिए कुछ न कुछ सार्थक कदम उठाएंगे। 

सरकार ने अब तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार, राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की उन संस्तुतियों को नहीं माना, जो बेजा राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकती हैं। वे सिफारिशें भी नहीं मानी गई कि, विवेचना और लॉ एंड ऑर्डर को अलग किया जाय। अभियोजन और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम से जुड़ी अनेक समस्याएं है जिन्हे दूर किया जाना चाहिए। छवि बनती है, काम, पारदर्शिता, कानून को कानूनी रूप से लागू करने की मनोवृत्ति, पेशागत ईमानदारी, जनता के प्रति व्यवहार, और बेजा बाहरी हस्तक्षेप के प्रति, विनम्र लेकिन दृढ़ता से 'नहीं' करने की स्पष्ट आदत से। 

लेकिन आज, जिस तरह से, राज्य पुलिस से लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, एनआईए, ईडी आदि पर राजनीतिक दखलंदाजी के आरोप लग रहे है, वह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और साख के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट बराबर इस खतरे को महसूस करते हुए अपनी बात कह रहा है। आज जिला पुलिस की बात छोड़ दें, देश की महत्वपूर्ण जांच एजेंसी, ईडी, सीबीआई भी, राजनैतिक एजेंडा को पूरा करने के उपकरण के रूप के तब्दील हो गई है। सरकार को इस मनोवृत्ति पर तत्काल अंकुश लगाना होगा और एजेंसियों के राजनैतिक इस्तेमाल को रोकना होगा। राजनैतिक दलों को, पिक एंड चूज, पद्धति से, अपने अपने अफसर चुनने की मनोवृत्ति छोड़नी होगी, इसका मनोवैज्ञानिक असर, उन अधिकारियों पर बहुत पड़ता है, जो प्रोफेशनल तरह से अपना दायित्व निभाना चाहते हैं। और ऐसे अफसर, संख्या में कम भी नहीं है। 

पुलिस का काम कठिन, तनावपूर्ण और बहुत ही कृतघ्न है।  शायद किसी अन्य पेशे से, इतने कम, संसाधन  के साथ, इतनी अधिक अपेक्षा नहीं की जाती होगी।।भारत में, राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद के एक अध्ययन ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि "देश के कई पुलिस स्टेशनों में, एक कांस्टेबल को दिन में, कम से कम, 15 से 16 घंटे और वह भी, सप्ताह में सातो दिन काम करना पड़ता है। साथ ही, काम के घंटो, साप्ताहिक छुट्टी, परिवारिक सुखसुविधा, और अनुशासन के नाम पर अक्सर होने वाले अमानवीय दमन से उन्हे रूबरू होता है।" 

विजय शंकर सिंह
© Vijay Shanker Singh 


प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (17)


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“यहाँ पूरे देश में कुछ विचित्र चीजें घट रही है। यह कहाँ से और कब शुरू हुआ, कोई नहीं जानता। अखबारों में तरह-तरह की कहानियाँ हैं। इसे चपाती आंदोलन कहा जा रहा है”
- डॉ. गिल्बर्ट हैडो द्वारा अपनी बहन को लिखी चिट्ठी, मार्च 1857

मथुरा की एक सुबह, मार्च का महीना, 1857

मजिस्ट्रेट मार्क थोनहिल जब अपने कार्यालय पहुँचे तो आटे की पाँच मोटी चपातियाँ मेज पर रखी मिली। उन्होंने जब तलब की तो पता लगा कि पास के जंगल से रात को कोई व्यक्ति चौकीदार को दे गया और कहा, “ऐसी ही पाँच चपातियाँ बना कर पड़ोस के पाँच गाँव के चौकीदार को दे आना। उनसे कहना कि तुम्हें पाँच चपातियाँ बना कर आगे भेजनी है।”

आगरा के कमिश्नर ने रिपोर्ट लिखी कि ये चपातियाँ एक रात में दो सौ मील का सफ़र कर रही हैं। कलकत्ता से चली चपाती की शृंखला अंबाला तक पहुँच रही है। 

एक ब्रिटिश अधिकारी ने कहा, “जितनी देर में हमारी ब्रिटिश डाक नहीं पहुँचती, उससे तेज तो चपातियाँ पहुँच रही हैं”

आश्चर्य यह था कि किसी चौकीदार को यह नहीं मालूम था कि इस चपाती का महत्व क्या है? यह घूम क्यों रही है? सभी किसी अंधविश्वास की तरह चपाती बना कर भेजे जा रहे थे। कोई कह रहा था कि शहर में हैजा फैला है, इसलिए ताज़ा चपातियाँ पहुँचायी जा रही हैं। कोई कह रहा था कि चपाती में गुप्त संदेश है, जो किसी को नज़र नहीं आ रहा। कोई कह रहा था कि चपाती क़बूल करने का अर्थ था कि वह क्रांति में साथ देंगे। हर प्रांत के अपने तर्क थे। कोई बाबू कुंवर सिंह का नाम ले रहा था, कोई नाना साहब का, कि उन्होंने भिजवाए हैं।

एक विवरण के अनुसार ग्वालियर की राजमाता बैजाबाई और नाना साहब ने मिल कर एक ‘सर्वतोभद्र यज्ञ’ किया। इस यज्ञ के गुरु दास्सा बाबा ने मखाना पीस कर आटे में मिला दिया और कहा, “जहाँ जहाँ इसकी बनी चपाती पहुँचेगी, वहाँ से अंग्रेजों का राज खत्म होगा”। जैसे अश्वमेध की तरह चपातीमेध यज्ञ हो रहा हो! 

कैप्टन कीटिंग का कथन है कि चपाती सबसे पहले इंदौर से बाजानगर होते हुए ग्वालियर तक पहुँची। वह एक निमार गाँव का नाम लेते हैं, जहाँ हैज़ा फैला था और जनवरी से ही चपाती घूम रही थी। 

वहीं कर्नल जी. बी. मैलेसन ने फ़ैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्ला शाह को चपाती आंदोलन का मास्टरमाइंड बताया है। वह पटना तक यात्रा कर मुसलमानों को फतवे के साथ चपाती भिजवा रहे थे।

एक तीसरी अफ़वाह का वर्णन मिलता है कि ईसाई इन चपातियों में गाय और सूअर के रक्त छिड़क कर पूरे भारत का धर्म भ्रष्ट कर रहे थे। 

कुछ इलाकों में कमल के फूल, बैगन के पत्ते और मुसलमानों के बीच गोश्त की टुकड़ियाँ भी भेजी जा रही थी। जो यह लेकर आता, बस इतना कहता, “सब लाल होगा!”

क्या लाल होगा, कैसे लाल होगा, यह संदेशवाहक को भी स्पष्ट नहीं था। एक अफ़वाह थी कि कोई साधु कमल लेकर छावनी में घूमता। सिपाही कमल के फूल के पत्ते तोड़ कर जेब में रख लेते, और डंठल वापस आ जाती। इससे पता लगता कि कितने सिपाही साथ हैं। 

सावरकर ने चपाती को अधिक तवज्जो नहीं दी। सैयद अहमद ख़ान के अनुसार खामखा ब्रिटिश इतिहासकार मूल मुद्दों से भटकाने के लिए ऐसे बकवास विषयों पर पन्ने भर रहे थे। समकालीन इतिहास लेखक विलियम डैलरिम्पल के अनुसार चपाती के दिल्ली पहुँचने की संभावना बहुत कम है। गुड़गाँव के कलक्टर फोर्ड के अनुसार जब दिल्ली के आंदोलनकर्मियों को पकड़ कर पूछताछ की गयी, इसकी कोई जानकारी नहीं मिल सकी। 

जॉन केये ने एक सारांश की तरह लिखा है,

“इस छोटी सी गोल चपाती का रहस्य चाहे कुछ भी हो, लेकिन यह आंदोलन इस गति से, इतने विस्तार से, और इतने लंबे समय तक चला कि यह सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ तो नहीं कहा जा सकता। इसने जनता में आंदोलन को जिंदा रखने में बड़ी भूमिका निभायी”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (16) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-16.html


Friday, 28 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (16)

           चित्र: धोंडू पंत (नाना साहेब)

उन्नीसवीं सदी सबसे तेज भागने वाली सदियों में थी। डार्विन से कार्ल मार्क्स तक, सिलाई मशीन से टाइपराइटर तक, कार से ट्रेन तक, कैमरा से टेलीफ़ोन तक,  वैक्सीन से एस्पिरिन तक चीजें बस आए ही जा रही थी।

युद्ध के रूप भी बदल रहे थे। पुराने ढर्रे के बंदूकों की जगह पिस्तौल और राइफ़ल आ रहे थे। क्रीमिया युद्ध में ब्रिटेन की रुसियों पर विजय का एक कारण 1853 में आए .577 बोर के राइफ़ल थे। इनमें कारतूस घुमावदार खाँचों से होकर स्पिन करते हुए तेज़ी से बिल्कुल निशाने पर जाती। मगर इसमें समस्या यह थी कि कारतूसों के पिछले हिस्से पर चिकनाई लगानी पड़ती। ऐसी चिकनाई जो लंबे समय तक टिके। हालाँकि पेट्रोलियम की खोज भी उन्नीसवीं सदी में ही हुई, लेकिन सदी के आखिरी दशकों में हुई। इसलिए चर्बी का तेल ही सबसे अधिक उपयुक्त था। 

पहली बार ये कारतूस भारत के मौसम में जाँच के लिए 1853 में ही आ गए थे। भारत में ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ़ विलियम गोम ने उसी वक्त चेताया, 

“जब तक आप यह स्पष्ट नहीं कर देते कि इसमें लगी चिकनाई सिपाहियों के जाति या धर्म के ख़िलाफ़ नहीं है, तब तक इसे मैं सिपाहियों को जाँचने नहीं दे सकता”

फौजी बोर्ड ने उनकी बात का अनदेखा कर कारतूस दो साल तक जाँचे और रिपोर्ट भेज दी कि भारत की गर्मी में वानस्पतिक तेल या मोम वाले कारतूस सूख जाते हैं, मगर पाँच हिस्सा चर्बी के तेल, पाँच हिस्सा स्टियरिन और एक हिस्सा मोम से बनी चिकनाई बिल्कुल ठीक है।

1856 में मेरठ और फ़ोर्ट विलियम (कलकत्ता) के शस्त्रागारों में यह चिकनाई लगी कारतूस तैयार की जाने लगी थी। यह मुमकिन है कि दमदम के जिन खलासी ने सबसे पहले इसका जिक्र किया, वह कारतूस फ़ैक्ट्री से जुड़े रहे हों। उन्हें फोर्ट विलियम के किसी साथी से खबर हुई होगी। जानकारी संभवत: आधी-अधूरी पहुँची थी। सिपाही कारतूस के बजाय उसके ऊपर लगे काग़ज़ को चर्बी में लपेटा बता रहे थे।

जब पहली बार यह बात उठी तो कारतूस फ़ैक्ट्री के प्रभारी कर्नल एब्बोट ने कहा, “इसमें चर्बी और मधुमक्खी का मोम मिलाया गया है। लेकिन चर्बी भेड़ या बकरी की ही हो, इसका सख़्त आदेश है।”

एक हफ्ते बाद उन्होंने ही नया कथन दिया, “मुमकिन है कि बीच में गाय की चर्बी भी आ गयी हो”

7 फरवरी को स्वयं गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने कहा, “सभी रिपोर्ट पढ़ने के बाद सिपाहियों का शक वाज़िब नज़र आता है”

इस पूरे घटनाक्रम में सिपाहियों ने अभी तक कारतूस का औपचारिक उपयोग नहीं किया था। उस नए राइफ़ल से एक भी गोली चली नहीं थी, मगर सिपाही एकजुट होने लगे थे। यह शक होने लगा था कि बाहर से कोई सिपाहियों को भड़का रहा है। 

वाजिद अली शाह का ठिकाना ‘मटिया बुर्ज’ (गार्डन रीच) और फ़ोर्ट विलियम, दोनों ही हुगली नदी के किनारे बसे थे, और सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर थे। 26 जनवरी, 1857 को नवाब के किसी आदमी को सिपाहियों से मिलते-जुलते पकड़ लिया गया। बंगाल रेजिमेंट के अधिकांश सिपाही अवध इलाके से थे, इस कारण उनका भावनात्मक जुड़ाव भी था। अब एक-एक कर तार जोड़ते चलें। 

सिपाही महमद ख़ान के बयान के अनुसार,

“हम पुरबिए अवध के कब्जे और वहाँ हो रही लूट की खबर के बाद योजना बनाने लगे थे। रेजिमेंटों में गुप्त चिट्ठियाँ भेजी जाने लगी कि ये फिरंगी हमारी नौकरी छीन कर सिखों को दे रहे हैं। बात सिर्फ़ अवध की नहीं है, हमारे सभी राजाओं की जमीन हथिया रहे हैं।”

मामले की जाँच कर रहे अधिकारी हियरसे ने कहा,

“वाजिद अली शाह का साथी राजा मान सिंह 19वीं और 34वीं रेजिमेंट के हिंदू सिपाहियों को पैसे भेज रहा है, और उन्हें किसी न किसी मुद्दे से बाकी सिपाहियों को भड़काने के लिए कह रहा है। इन रेजिमेंट के सिपाहियों ने तो कारतूस देखा भी नहीं है! पता नहीं क्यों भड़के हुए हैं?”

कंपनी के एक भारतीय उच्च अधिकारी सीताराम बावा ने अपना कथन दिया, 

“अवध के तालुकदार राजा मान सिंह और नाना साहब पेशवा 1855 से ही योजना बना रहे थे। उन्हें सिपाहियों को भड़काने के लिए मुद्दे की तलाश थी।”

‘द टाइम्स’ के पत्रकार विलियम रसेल जो क्रीमिया युद्ध के बाद 1857 को कवर करने पहुँचे थे। उन्होंने लिखा है,

“मुझे अजीमुल्ला ख़ान क्रीमिया में मिला, और उसने कहा कि ब्रिटेन की सेना तो फ्रेंच से बहुत कमजोर है…भारत आकर वह और नाना, एक हिंदू और एक मुसलमान, तीर्थयात्रा के बहाने पदयात्रा पर निकलते, और ट्रंक रोड पर स्थित हर छावनी में घुस जाते”

सिपाही सीताराम पांडे ने अपने कथन में कहा,

“कलकत्ता के बाज़ारों में झूठी खबर बतायी गयी कि रूस की जीत हुई है, उनके सारे जहाज डुबो दिए गए। हमें बताया गया कि अब जितने अंग्रेज़ सैनिक जिंदा बचे हैं, वे बस भारत में ही बचे हैं।”

सावरकर के शब्दों में,

“हिंदुस्तान जैसे विस्तृत देश में राज्य क्रांति जैसे गंभीर काम को धूर्त अंग्रेजों से बचाते हुए गोपनीयता से संगठित करने के लिए श्रीमंत नाना साहेब, मौलवी अहमद शाह, वज़ीर अली नकी ख़ान की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है।”

‘कारतूस’ तो एक ऐसा इक्का था, जिसने बाज़ी जीत ली। पत्ते तो कब से चले जा रहे थे। फरवरी, 1857 में एक विचित्र खबर आनी शुरू हुई कि उत्तर भारत के गाँवों में जंगल से कोई चौकीदार को चपाती देकर जाता है, और यह ‘ख़ुफ़िया’ चपाती आगे बँटती जाती है। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (15) 
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Wednesday, 26 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (15)

चित्र: एनफ़ील्ड पैटर्न 1853 राइफ़ल मस्कट का कारतूस। इसमें सिगरेट की तरह वह सफ़ेद काग़ज़ देखा जा सकता है। इसका एक सिरा दाँत से काट कर butt में से बारूद बंदूक की नाल में डाल दिया जाता, फिर दूसरा सिरा नाल में डाल कर उसे पूरी तरह ठूँस कर लोड कर दिया जाता।
22 जनवरी, 1857. दमदम, कलकत्ता (लेफ़्टिनेंट जे. ए. राइट की चिट्ठी

1. मैं डिपो कमांडिग, मेजर बोन्टेन, के ध्यान में लाना चाहता हूँ कि एक अफ़वाह की वजह से सिपाहियों में असंतोष है। किसी दुष्ट ने यह खबर फैला दी है कि हमारे कारतूस में जिस चिकनाई का प्रयोग हो रहा है, उसमें सूअर और गाय की चर्बी है।

2. एक ब्राह्मण सिपाही अपने चौका की ओर लोटे में पानी लेकर खाना बनाने जा रहा था। उससे एक निचली जाति के खलासी ने पानी माँगा। 

सिपाही ने कहा, “मैंने अभी-अभी लोटा माँजा है। यह अपवित्र हो जाएगा”

खलासी ने तंज किया- “आपको अपनी जाति की बहुत चिंता है? अभी साहब लोग जब गाय और सूअर की चर्बी वाला कारतूस दाँत से कटवाएँगे, तो कहाँ जाएगी जाति?”

3. मुझे सिपाहियों ने बताया कि यह खबर बाज़ार से आयी है, और पूरे भारत में फैल गयी है। उन्हें डर है कि गाँव से उनको बहिष्कृत कर दिया जाएगा।

4. सिपाहियों का सुझाव है कि चिकनाई का सामान उन्हें स्वयं बाज़ार से लाने की इजाज़त दी जाए, जिससे वह निश्चिंत हो सकें कि उनका धर्म नहीं भ्रष्ट हो रहा। 

6 फरवरी, 1857; विशेष कचहरी, बैरकपुर, 34 रेजिमेंट

गवाह 1: बृजनाथ पाण्डे, सिपाही, सेकंड रेजिमेंट

“क्या तुम परेड में थे, जब नए कारतूस दिखाए गए थे?”

“हाँ”

“क्या तुम्हें कारतूस से कोई समस्या थी?”

“कारतूस से नहीं, उसके काग़ज़ से शंका थी। वह कुछ अलग चमकीला दिख रहा था।”

“क्या तुम्हें ऐसी कोई जानकारी है कि इससे जाति भ्रष्ट हो सकती है?”

“बाज़ार में खबर मिली कि इसमें किसी जानवर की चर्बी है”

(कागज दिखाते हुए) “क्या यही वह कागज है? ग़ौर से देख कर कहो कि इसमें क्या खराबी है?”

“यह कपड़े की तरह कड़क है, जो जल्दी फटता नहीं। यह पुराने काग़ज से पूरी तरह अलग है”

गवाह 2: चाँद ख़ान, सिपाही, सेकंड रेजिमेंट

“इस कचहरी में मौजूद कारतूस में लगे कागज से तुम्हें कोई दिक्कत है?”

“यह कागज कड़क है, और जब जलता है तो इससे चिकनाई की गंध आती है”

“तुमने इसे जला कर देखा है?”

“दो दिन पहले ही। इसके जलने पर कुछ फड़फड़ाने सी आवाज़ आती है, जैसे चर्बी जल रही हो।”

(एक कागज कचहरी में जलाया जाता है)

“क्या कोई चर्बी की गंध आ रही है?”

“नहीं। अभी नहीं आ रही। लेकिन, मुझे शिकायत है। हम सभी मानते हैं कि यह कागज कुछ अलग है।”

गवाह 7: जमादार राम सिंह, सेकंड रेजिमेंट

“तुम्हें कैसे पता लगा कि इस कारतूस में चर्बी है?”

“किसी खलासी से बात फैली है, साहब। हम सबको इस कागज पर शक है।”

“हम तुम्हारा शक कैसे खत्म कर सकते हैं?”

“आप अब कुछ नहीं कर सकते”

8 फरवरी, 1857 (लेफ़्टिनेंट एलन का कथन)

“परसों शाम जब मैं वरंडा पर बैठा था, तो एक सिपाही चुपके से आया और कहा कि उसके पास एक ख़ुफ़िया खबर है। उसने चार सिपाहियों को यह कहते हुए सुना कि उनको जबरन धर्मभ्रष्ट कर ईसाई बनाया जा रहा है। उनकी योजना है कि वह बदला लेंगे। पहले बैरकपुर के अफ़सरों के बंगले जलाएँगे और उसके बाद फ़ोर्ट विलियम की ओर बढ़ेंगे। उसने कहा कि रात आठ बजे पेड़ के नीचे सभी सिपाहियों की गुप्त सभा है। वह डरा हुआ था और उसने कहा कि उसका नाम किसी को न बताऊँ, वरना वह नहीं बचेगा।”

इस कथन से पूर्व रात को बैरकपुर, रानीगंगे और टेलीग्राफ़ कार्यालय में आग लग चुकी थी। षडयंत्र की खबर देने वाले के लिए एक हज़ार का ईनाम रखा गया। अगले दिन जमादार दरियो ने तीन नाम लिए- सिपाही काशीप्रसाद दूबे, सिपाही मोहन शुक्ल और जमादार मुक्ता प्रसाद पांडे। 

एक ब्रिटिश अफ़सर ने अपने कथन में कहा कि कलकत्ता के धर्मसभा के कुछ ब्राह्मण विधवा विवाह कानून (1856) से खार खाकर ऐसी झूठी अफ़वाह फैला रहे हैं। वहीं कंपनी के अधिकारी जॉन लोवरिंग कुक ने लिखा कि यह कलकत्ता आकर बस गए नवाब वाजिद अली शाह के किसी चमचे की करतूत है। 

अफ़वाह चाहे जहाँ से फैली हो, 1857 डिस्पैच के इन मूल दस्तावेज़ों को पलटते हुए बचपन में सुनी ये पंक्तियाँ याद आ गयी।

“न ईरान ने किया, न शाह-ए-रूस ने
अंग्रेज़ों को बरबाद किया कारतूस ने”
(क्रमशः) 

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

1857 का इतिहास - एक (14) 
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प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (14)



“शिवाजी के समय मुसलमानों से बैर उचित था, लेकिन अब ऐसा बैर रखना बेवकूफ़ी होगी”

- विनायक दामोदर सावरकर (1857 पर अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में) 

1857 के कई आयाम से पाठ हो सकते हैं। आप जहाँ खड़े हैं, वहीं से नयी लाइन शुरू हो सकती है। लाइन से याद आया, भारत में रेलवे लाइन बिछनी शुरू हुई थी, टेलीग्राफ़ आया था, पहले विश्वविद्यालय खुल रहे थे। औद्योगिक क्रांति के बिगुल बजने लगे थे, रुड़की में इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गया था। ऐसे कई भारतीय थे, जो इस आधुनिकीकरण से उत्साहित थे। हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़े जाने वाले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय भारत के पहले ग्रैजुएट बनने के लिए कॉलेज जा रहे थे; वहीं मुस्लिम राष्ट्रवाद के पुरोधा कहे जाने वाले सैयद अहमद ख़ान बिजनौर में ईस्ट इंडिया कंपनी के सदर अमीन थे।

यहाँ दो रोचक अवलोकन हैं। पहला यह कि कंपनी के इतिहासकार जॉन केये की पुस्तक को सावरकर ने संदर्भ ग्रंथ की तरह प्रयोग किया, घटनाएँ भी मेल खाती हैं। लेकिन, पहले पुस्तक के खलनायक दूसरी पुस्तक के महानायक हैं। यह स्वाभाविक ही है। दोनों दो टीम थे, तो दोनों के नायक भिन्न होंगे ही। 

दूसरा यह कि सैयद अहमद ख़ान और सावरकर का आकलन कई स्तरों पर मेल खाता है। दोनों ही अंग्रेज़ों द्वारा उनके धर्म की निंदा करने को एक महत्वपूर्ण कारण कहते हैं। 

सैयद अहमद ख़ान कुछ संदर्भ देते हैं कि किस तरह 1837 के सूखे में अनाथ हुए बच्चों को मिशनरियों ने ईसाई अनाथालय में रख कर ईसाई बना दिया। वह लिखते हैं कि पर्दा-प्रथा और महिला अशिक्षा के मुद्दों को धर्म की कमजोरी बता कर ईसाई बनने के लिए प्रेरित करना मौलवियों को भड़काता है। वहीं सावरकर हिंदुओं को heathen कहे जाने, गाय की चर्बी खिला कर धर्मभ्रष्ट किए जाने पर विस्तृत चर्चा करते हैं। 

ऐसा नहीं कि हिंदू और मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध फिर कभी एक साथ नहीं लड़े। गांधी के समय ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन भी जुड़ गये थे, लेकिन बंदूक और हथियार लेकर अलग-अलग स्थानों पर ब्रिटिश सिपाहियों से लड़ना अलग बात थी।

ताज्जुब की बात थी कि 1855 में ये दोनों धर्म अयोध्या के हनुमानगढ़ी विवाद पर हुए दंगे में एक दूसरे की जान ले रहे थे। अगले ही वर्ष इनके धर्मगुरु साथ घूम-घूम कर अंग्रेजों का ख़िलाफ़ सामूहिक धर्मयुद्ध छेड़ रहे थे।

मुसलमानों के लिए धर्म-युद्ध का एक और कारण वर्णित है। अवध से नवाब वाजिद अली शाह की पगड़ी छीनने वाले जनरल औटरैम अब ईरान की ओर कूच कर रहे थे, क्योंकि ब्रिटेन के फ़ारस पर आक्रमण की ज़िम्मेदारी उन्हें ही मिली।

यह पाठ रोचक बन जाता है, जब सावरकर मुसलमानों के जिहाद और हिंदुओं के धर्मयुद्ध को साथ जोड़ देते हैं। वह लिखते हैं,

“अपने सनातन आर्य धर्म का, और अपने प्राणप्रिय इस्लाम धर्म का मीठी छुरी से गला काटा जा रहा है था।

दिल्ली के मस्जिदों में सार्वजनिक घोषणा होने लगी- ‘फिरंगियों के कब्जे से हिंदुस्थान को मुक्त करने ईरानी फ़ौज जल्दी ही आ रही है’…

इस तरह दिल्ली के दीवान-ए-आम और ब्रह्नवैवर्त के राजमंदिर में स्वतंत्रता संग्राम की गुप्त तैयारी हो रही थी…देशभक्त मौलवी अहमद शाह को लखनऊ में हिंदुओं और मुसलमानों को भड़काने के लिए फांसी की सजा दी गयी।

उपर्युक्त मौलवी की तरह तमाम प्रचारक, फकीरों और संन्यासियों के भेषों में घूम-घूम कर गुप्त प्रचार करने लगे…

विशेषत: सेना में इनका महत्व अधिक था, क्योंकि हर टुकड़ी में एक पंडित और मुल्ला रखना अनिवार्य था। स्वतंत्रता के बिना धर्मरक्षण असंभव है, यह मर्म जानकर हज़ारों धर्मगुरु इस राजनीतिक जिहाद का आह्वान करने लगे।”

सावरकर ने संदर्भ-सूची दी हैं, लेकिन हर पैरा में फुटनोट नहीं है, इसलिए इसे पुन: संशोधित किया जा सकता है। जैसे उनका एक दावा है कि नाना साहेब पेशवा के दीवान अज़ीमुल्ला ख़ान अंग्रेजों की निगरानी करने के लिए क्रीमिया युद्ध पहुँच गए थे! 

भले ही ऐसी गुप्त योजनाओं का सत्यापन कठिन हो, लेकिन 1856 का यह वर्ष भारतीय इतिहास का ऐसा वर्ष ज़रूर था, जब सतह के नीचे जमीन गरम हो रही थी, और अंग्रेज़ों के भारी-भरकम बूट इस तपिश को महसूस नहीं कर पा रहे थे।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha

1857 की कहानी - एक (13) 
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Tuesday, 25 October 2022

तीर्थों का निजी प्रबंधन और कॉरपोरेटीकरण / विजय शंकर सिंह

यह एक नया ट्रेंड चला है। प्राचीन तीर्थों के मंदिरों को, आधुनिक रूप से भव्य बनाकर, उनका लोकार्पण कर के, उन्हे किसी निजी एजेंसी को, उनकी व्यवस्था करने के लिए सौंप दिया जाय। क्या उन मंदिरों के ट्रस्ट इतने अक्षम प्रबंधक हैं कि, वे उन मंदिरों का रख रखाव भी ढंग से नहीं कर सकते। सनातन तीर्थों के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म के तीर्थों की व्यवस्था, उस धर्म से जुड़े ट्रस्ट या कोई प्रबंधन कमेटी करती है, न कि टेंडर भर कर, किसी व्यावसायिक कम्पनी की तरह ठेका लेने वाली कोई सेवा प्रदाता कॉर्पोरेट कंपनी। क्या सनातन तीर्थों की व्यवस्था, सदियों से उनका प्रबंधन करते आ रहे, धर्म से जुड़े ट्रस्ट, अब उन्ही मंदिरों का प्रबंधन करने में अक्षम हो गए हैं या वे तीर्थ प्रबंधन करना चाहते ही नहीं कि, सरकार को, अब दखल देना पड़ रहा है?

आखिर सदियों से इन मंदिरों का रखरखाव तो धर्म से जुड़े, ट्रस्ट ही करते आए हैं। दक्षिण के तीर्थ और मंदिरों का प्रबंधन आज भी ट्रस्ट कर रहे हैं। मथुरा वृंदावन के मंदिरों का प्रबंधन, उनसे जुड़े लोग पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। तीर्थ और पर्यटन स्थल में, स्पष्ट अंतर है। तीर्थ मंदिरों में, जाने वाले अधिकांश व्यक्ति, अपनी आस्था के कारण वहां जाते हैं, और अपनी मान्यता और हैसियत के अनुसार, दर्शन, पूजापाठ आदि करते हैं। और जब वही तीर्थ, पर्यटन स्थल में तब्दील हो जाता है तो, आस्था, गौण होने लगती है, और फिर, घूमना फिरना प्रमुख हो जाता है। लेकिन जब वहां घूमने फिरने गए ही हैं तो, बिलकुल, इस शेर की तर्ज पर कि, 'रिंद के रिंद रहे, हांथ से जन्नत न गई,' दर्शन भी करते चलें। 

बनारस में, पहले काशी विश्वेश्वर मंदिर का भव्य कॉरिडोर बना और वह, बजाय एक ज्योर्तिलिंग तीर्थ के, खूबसूरत पर्यटन स्थल में बदल गया। ज्योर्तिलिंग अब भी हैं। वह स्थान आकर्षक और भव्य भी है। लोग दर्शन के बजाय, कॉरिडोर देखने आने लगे। मुझसे भी बनारस आने पर कहते हैं, 
"कॉरिडोर देखला कि ना? देख आवा। बहुत बढ़िया बनल हव। आ जब जाया त दर्शनों कय लीहा।" 
मैं भी कहता हूं,"देखब। टाइम मिली त चल जाब।"
लोग शाम बिताने, वहां जाने लगे। अब जब गए हैं तो बाबा का दर्शन भी कर लें। अब बाबा धाम के उस बदले हुए कलेवर को किसी निजी कंपनी के हांथ, प्रबंधन के लिए सौंप दिया गया है। अब वह तीर्थ, विश्वेश्वर से, विश्वनाथ, फिर विश्वनाथ धाम और अब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में बदल गया है। बाबा वही हैं। जस के तस !

बाबा विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन पहले वहां के महंत जी देखते थे। मैं उनके यहां आता जाता था। वे मेरे बड़े पिता जी के मित्र थे। पर 1983 में जब चोरी हुई, तब उसके बाद, मंदिर की व्यवस्था सरकार ने ले ली और वहा एक पीसीएस अफसर, व्यवस्थापक के रूप में नियुक्त हो गए। चोरी के समय मैं मथुरा में नियुक्त था। वहां से छुट्टी पर जब बनारस आया तब, विश्वनाथ मंदिर भी गया। महंत जी से भी मिलने भी गया। कुछ देर बात चीत करने के बाद, मैने पूछा कि, "बाबा, ई चोरी कइसे हो गइल ?" 
तब महंत जी ने कहा कि "ई चोरी ना हे। बाबा के ईहां बिना उनके मर्जी के कउनो चोरी हो सकेला? बाबा त, खुदे चोरवन के, बुलाय के सोना दे देहलन। कहलन, ले जो सारे, तोहनन के जरूरत हे, त ले जो। हम सोना ले के का करब। आ हम्में चाही त, केहू दे देही।"
यही तो बनारस का बनारसीपना है। 

बहरहाल, चोरी हुई थी। चोर पकड़े भी गए। बाबा के अरघा का सोना काट कर वे ले गए थे। कुछ सोना बरामद भी हुआ था। उस समय त्रिनाथ मिश्र एसएसपी वाराणसी और श्रीश चंद्र दीक्षित डीजीपी थे। बाद में त्रिनाथ मिश्र, सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर हुए। श्रीश चंद्र दीक्षित सर, विश्व हिंदू परिषद में शामिल हो गए और बनारस से बीजेपी के टिकट पर सांसद भी रहे। चोरी के बाद, जब विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन, सरकार ने ले लिया, तब बनारस के एक प्रमुख, हास्य कवि हुआ करते थे, चकाचक बनारसी, उन्होंने एक कविता लिखी थी, तोहूं राजा विश्वनाथ जी हो गइला सरकारी। चकाचक जी भी अब नहीं रहे। वे स्थानीय कवि सम्मेलनों की जान हुआ करते थे। अब बाबा कॉरिडोर बनने के बाद, मंदिर और परिसर की व्यवस्था, किसी निजी कंपनी को दे दी गई। 

अब काशी विश्वनाथ परिसर से, पंच विनायक, पंचक्रोशी मार्ग और अनेक पौराणिक विग्रह या तो सुंदरीकरण अभियान में ध्वस्त कर दिए गए या फिर टूट फूट गए। अब बस बाबा बचे हैं और उनकी कचहरी, बदल कर एक भव्य  कॉरिडोर हो गई है। खबर है, वहां होटल, फूड ज्वाइंट्स आदि खुलने वाले हैं। गंगा तक एक लम्बा और विस्तीर्ण कॉरिडोर बन गया है। अब यह बनारस का एक प्रमुख पर्यटन स्थल बन गया है। 

इधर दूसरे ज्योर्तिलिंग, उज्जैन के महाकालेश्वर में भी एक भव्य कॉरिडोर बना है और उसके बाद खबर आई कि, उसकी व्यवस्था भी, कोई निजी कम्पनी देखेगी। मैं उस कॉरिडोर बनने के बाद, वहां नहीं गया हूं, इसलिए जो परिवर्तन हुए हैं, उन्हे मैं नहीं बता पाऊंगा। लेकिन फोटो और अखबारों में जो छपा है उससे लगता है तीर्थ में काफी कुछ बदलाव आ गया है। भारतीय और सनातन तीर्थ आज के नहीं हैं और इनका इतिहास सदियों पुराना रहा है। इनका प्रबंधन भी, स्थानीय महंत ट्रस्ट आदि करते रहते हैं। उन्हे धन की कमी, धनाढ्य वर्ग के लोग, आस्थावान तीर्थयात्री और राजा महाराजा, नहीं होने देते थे। अब राजा महाराजा तो रहे नहीं, पर आस्थावान धनाढ्य अभी भी धन की कमी नहीं होने देते हैं। 

अब तो, मंदिरों में सामान्य दर्शन से लेकर वीआईपी दर्शन तक के लिए शुल्क भी निर्धारित है यानी जैसी जेब होगी, वैसी ही प्रभु का सामिप्य मिलेगा। आस्था पर, जेब भारी पड़ गई और इस बात पर, किसी आस्थावान की आस्था आहत भी नहीं हुई। यह प्रथा, तो दरिद्रनारायण की मूल धारणा के ही विपरीत है। शुल्क आधारित दर्शन की परंपरा तिरुपति से संभवतः शुरू हुई है। तिरुपति तो, विष्णु का मंदिर है, विष्णु तो ठहरे ऐश्वर्य के स्वामी, लक्ष्मीपति, पर शिव तो ठहरे, औघड़, आशुतोष और सर्वसुलभ, पर अब वे भी विष्णु की देखादेखी, शुल्क आधारित दर्शन देने लगे!

सनातन आस्था के केंद्र चाहे वे ज्योतिर्लिंग हों या शक्तिपीठ या अन्य प्राचीन वैष्णव परंपरा के मंदिर, उन सब तीर्थों का तीर्थत्व नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। रही व्यवस्था, निजी कंपनियों द्वारा किए जाने की तो, वे जब प्रबंधन करेंगी तो, 'मैनेज' ही करेंगी। मैनेज शब्द भी एक गूढ़ शब्द है। उनका मैनेजमेंट, लाभ हानि पर ही आधारित होगा और वे उन तीर्थों के तीर्थत्व, शुचिता सनातन आस्थाभाव का कितना ख्याल रखेगी यह तो, भविष्य ही बताएगा। 

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (13)

       चित्र: ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म से

1854 में जब क्रीमिया युद्ध की शुरुआत हुई, तो यह भारत के ब्रिटिश फ़ौजियों की अग्निपरीक्षा थी। यह रूस और ब्रिटेन के मध्य एक निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ जिसके बाद रूस ने भारत की तरफ़ पाँव फैलाने का इरादा त्याग दिया। हालाँकि यह अफ़वाह चलती रही कि 1857 के पीछे रूस और फ़ारस का हाथ था। कुछ ग़ैर-ज़रूरी चिट्ठियाँ भी मिली, लेकिन अब यह माना जा सकता है कि वे वाकई कोई ख़ास महत्व नहीं रखती थी।

पंजाब विजय में बड़ी भूमिका निभाने वाले लॉर्ड क्लाइड जब क्रीमिया पहुँचे, तो उनका ताज़ा अनुभव काम आया, और रूस को रोकने में वह सफ़ल हुए। चूँकि क्रीमिया युद्ध की कवरेज अख़बारों में जम कर हो रही थी, यह पहला ऐसा वैश्विक युद्ध था जिसमें पढ़े-लिखे भारतीय खूब रुचि ले रहे थे। इसी युद्ध में पहली बार टेलीग्राफ का भी जम कर प्रयोग हो रहा था। 

एक तरफ़ क्रीमिया युद्ध में उलझे ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारतीयों की क्रांति की टाइमिंग अच्छी कही जा सकती है। वहीं, दूसरी तरफ़ सिख युद्ध और क्रीमिया युद्ध का अनुभव लेकर लौट रहे लॉर्ड क्लाइड से भिड़ना तो कुछ यूँ था जैसे आइपीएल और वि़श्व कप विजेता टीम से रणजी मैच खेलना। 

इसका अर्थ यह नहीं कि भारत ने टक्कर नहीं दी। मैं लंदन के वेस्टमिंस्टर गिरजाघर के ठीक बाहर लगे स्तंभ पर नाम पढ़ रहा था, जिसमें एक साथ क्रीमिया युद्ध (1854-56) और भारतीय युद्ध (1857-58) के ब्रिटिश शहीदों के नाम हैं। ध्यान दें कि जहाँ इतिहासकार सिपाही विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम के पोलेमिक्स में उलझे हैं, वहाँ उन्होंने इसे ‘इंडियन वार’ लिखा है। क्रीमिया में महाशक्ति रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में दस शहीदों के नाम हैं, जबकि गुलाम भारत के साथ असंगठित युद्ध में नौ! 

उस ‘भारतीय युद्ध’ तक सिलसिलेवार पहुँचने से पहले एक बड़े सूबे अवध की छोटी कहानी कह देता हूँ। 

बक्सर के युद्ध (1764) में अवध के नवाब शुजा-उद-दौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम और मुग़ल शहंशाह शाह आलम को सामूहिक रूप से अंग्रेजों ने हराया। स्वतंत्र तो अवध पहले भी नहीं था, युद्ध के बाद वह कंपनी के प्रभाव में आ गया। यहाँ कंपनी एक तरह से मराठों के प्रभाव को घटाने के लिए अपनी फ़ौज रख कर कठपुतली सरकार चलाती थी। फ़ौज कंपनी की थी, मगर खर्च नवाब के जिम्मे था।

कभी यह वर्तमान उत्तर प्रदेश के ठीक-ठीक हिस्से तक फैली थी, मगर अंग्रेजों का खर्च चुकाने के फेर में पहले बनारस, ग़ाज़ीपुर आदि हाथ से गए, बाद में रूहेलाखंड और लगभग पूरा पूर्वांचल ब्रिटिश जागीर बनते गए। कंपनी के खर्चों और नवाबों की अपनी रईसी के फेर में प्रशासन बद से बदतर हो रहा था। अवध में भारत की पचास लाख जनसंख्या थी, जिसका बड़ा प्रतिशत गरीबी से जूझ रहा था।

जब लॉर्ड डलहौज़ी गवर्नर जनरल बन कर आए, उस समय वाजिद अली शाह अवध के नवाब बने ही थे। वाजिद अली शाह कला और संगीत में रुचि वाले नवाब थे, जिनके लिए प्रशासन टेढ़ी खीर थी। तुर्रा यह कि विलियम स्लीमैन लखनऊ के रीजेंट बन कर आए जिन्होंने मध्य भारत के सैकड़ों ठगों को फाँसी दिलायी थी। वह ऐसे मिथकीय लोकप्रियता लिए हुए व्यक्ति थे, जिन पर उस जमाने का क्राइम-थ्रिलर ‘कंफेशन्स ऑफ ठग’ लिखा जा चुका था। (हाल में एक फ्लॉप बॉलीवुड फ़िल्म भी बनी)

नवाब वाजिद अली शाह के लिए स्लीमैन एक डंडा लेकर घूमते हुए अक्खड़ प्रिंसिपल की तरह थे। स्लीमैन ने पद संभालते ही रिपोर्ट लिखी,

“इस नवाब को प्रशासन में न कोई रुचि है, न कौशल। हालाँकि यह किसी का नुकसान नहीं करेगा, लेकिन किसी की रक्षा भी नहीं करेगा। यह जितने दिन गद्दी पर रहेगा, प्रशासन बदतर होती जाएगी। यह पागल और बेवकूफ़ व्यक्ति है, जो भ्रष्ट मंत्रियों, गवैयों और हिजड़ों से घिरा रहता है।”

समस्या यह थी कि हड़प नीति (Doctrine of Lapse) में कुशलता कोई पैमाना नहीं थी। अगर ऐसा होता तो भारत के अधिकांश रियासतों में ऐसे राजा भरे पड़े थे। जब कंपनी पूरे भारत में पसर चुकी थी, वे गहनों से लदे, हाथी पर घूमते और शराब-शबाब में डूबे रहते। 1857 से पहले और बाद में भी वे अंग्रेजों से गलबहियाँ करते रहे, पेंशन पाते रहे। उनको राजा से बेहतर जमींदार कहना ही बेहतर, लेकिन सामंतवादी परंपरा में प्रजा उनका थोड़ा-बहुत आदर तो करती ही थी।

स्वयं स्लीमैन किसी भी तरह के हड़प के विरोधी थे, और उन्होंने एक गुस्से भरी चिट्ठी लिख कर इस्तीफ़ा दे दिया कि अवध को हड़पना उचित न होगा। उन्होंने यह संकेत दिए कि ऐसा करने से विद्रोह हो सकता है। 

4 फरवरी, 1856 को नए रीजेंट ओटरैम ने नवाब से अपनी गद्दी छोड़ने के करारनामे पर दस्तख़त करने कहा। नवाब ने अपनी पगड़ी उतार कर उन्हें सौंपते हुए कहा, “करार तो बराबरी वालों में होती है। मेरे दस्तख़त की भला क्या ज़रूरत?”

वाजिद अली शाह कलकत्ता के गार्डन रीच पहुँच कर लखनऊ को याद करते हुए ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ लिख रहे थे। वहीं गार्डन रीच से जहाज पर लॉर्ड डलहौज़ी अपने नैहर लौट रहे थे, और 25 फरवरी, 1856 को नए गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग जहाज से उतर रहे थे।

कैनिंग ने पहले हफ़्ते की अपनी डायरी में दर्ज़ किया है,

“पाँच बजे सायं। …एक तेज हवा के झोंके ने खिड़की और दरवाजे झटके से खोल दिया। मेज पर रखा काग़ज फड़फड़ाने लगा, झूमर झूलने लगे, पानी का गिलास काँपने लगा। जैसे किसी तूफ़ान की आहट हो।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (12) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-12.html 


आज शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की पुण्यतिथि है / विजय शंकर सिंह

साहिर लुधियानवी को याद करते हुए गुलजार साहब ने, एक इंटरव्यू में कहा था, 
"साहिर साब ने फ़िल्म और साहित्य दोनों में अपनी ज़ोरदार मौजूदगी दर्ज करवाई। उन दिनों जो लोग भी उर्दू कविता पढ़ते या सुनते थे या मुशायरों में  जाते थे वे इस बात को जानते थे कि साहिर लुधियानवी कौन थे। वह लम्बे, गोरे और सुदर्शन इंसान थे और उनके चेहरे पर चेचक के छोटे छोटे दाग थे, उनके बोलने का अपना एक खस अन्दाज़ था। हमेशा बहुत विनम्र रहते थे, कभी बढ़-चढ़ कर बात नहीं करते थे- जबकि कई बार कवि अपने पढ़ने-लिखने को लेकर बहुत बढ़-चढ़ कर बातें करते हैं- लेकिन वे बहुत सादा इंसान थे।"

यह इंटरव्यू टाइम्स ऑफ इंडिया में, छपा था, जिसका अनुवाद हिन्दी में प्रभात रंजन ने किया था। आगे गुलजार कहते हैं, 
"मुझे याद है कि उनको मंच से तब तक उतरने नहीं दिया जाता था जब तक कि वे अपनी प्रसिद्ध कविता ‘ताजमहल’ का पाठ नहीं कर लेते थे- मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे- यह कविता अवाम में बहुत मक़बूल थी। प्रगतिशील लेखक और कवि अक्सर इस बात को लेकर बहस किया करते थे कि ताजमहल को अमीरी गरीबी के नज़रिए से देखना ठीक नहीं था। लेकिन साहिरसाब पक्के कम्युनिस्ट कवि थे, और शैलेंद्र तथा अली सरदार ज़ाफ़री की तरह प्रगतिशील लेखक संघ(पीडबल्यूए) से जुड़े हुए भी थे।"

उस समय हिंदी उर्दू के अनेक बड़े और परिष्ठित लेखक, प्रगतिशील लेखक संघ PWA से जुड़े थे और उनका लेखन, एक प्रगतिशील सोच से प्रभावित था, जो दुनिया में बदलाव चाहता था। गुलजार इस संदर्भ में कहते हैं, 
"इस आंदोलन से बाद में मैं भी जुड़ा। तब मैं फ़िल्मों में आया नहीं था। मैं एक मोटर गैराज में काम करता था और पीडबल्यूए की बैठकों में आता-जाता था। लेकिन मैं किस्मत वाला था कि मैं उस बंगले के आउटहाउस में रहता था जिसकी पहली मंज़िल पर साहिरसाब रहते थे। सात बंगला, अंधेरी के उस बंगले का नाम था कूवर लौज। बंगले के ग्राउंड फ़्लोर पर उर्दू लेखक कृश्न चंदर रहते थे, वे भी अपने समय के बहुत मशहूर हस्ती थे। और उस बंगले के आउटहाउस में रतन भट्टाचार्य और मेरे जैसे कुछ संघर्षरत लोग रहते थे। वह परिसर तो अभी भी है लेकिन अब वहाँ एक नई इमारत बन गई है।"

गुलजार, साहिर के गैर फिल्मी लेखन पर कुछ इस प्रकार कहते हैं,
"जब साहिर साब फ़िल्मों से जुड़े तो उर्दू लफ़्ज़ों के इस्तेमाल का उनका अपना ही ढंग था जो हम लोगों ने पहले नहीं सुना था। उदाहरण के लिए, जाल फ़िल्म का यह गीत ‘ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ। और थोड़ी देर में थक कर लौट जाएगी’ जैसी पंक्तियों में जिस तरह से भाव पिरोए जाते थे वह उस समय बहुत दुर्लभ बात थी। या गुमराह फ़िल्म का यह गाना, ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों’। किसी और शायर ने जुदाई को इस तरह से अभिव्यक्त नहीं किया जिस तरह से उन्होंने किया। आज भी आप उन गीतों को सुनते हैं तो आपके अंदर वह उसी तरह से ठहर जाता है जिस तरह से तब ठहर जाता था जब उस समय जब उनको लिखा गया था। उनके लिखे में उनके व्यक्तित्व की साफ़ झलक दिखाई पड़ती थी।"

साहिर की शख्सियत पर गुलजार कुछ यूं कहते हैं
"लेकिन इस सादा और विनम्र इंसान का अपना अहम और अहंकार भी था। वह फ़िल्म के संगीत निर्देशक जितनी फ़ीस माँगते थे। ऐसा नहीं था कि वे केवल बदे नामों के साथ काम करना चाहते थे। वे कहते, ‘आप अगर मेरी फ़ीस दे सकते हैं तो किसी छोटे संगीत निर्देशक के साथ भी काम कर सकता हूँ, कोई मुश्किल नहीं है।‘ इसी वजह से एन दत्ता और रवि उनके गीतों की धुन बनाते रहे। साहिरसाब को अपनी कविता को लेकर बहुत आत्मविश्वास रहता था।

वे ऐसे इंसान थे जिन्होंने लेखकों से हड़ताल करने के लिए कहा और कहा कि वे तब तक विविध भारती को गाने न दें जब तक कि उसके कार्यक्रमों में गीतकारों के नाम का भी उल्लेख न किया जाए। उसके पहले विविध भारती के कार्यक्रमों में गीत के साथ गायक-गायिकाओं तथा संगीतकारों के नाम ही लिए जाते थे। साहिरसाब ने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और अंत में विविध भारती तैयार हो गई।"

वे ऐसे पहले गीतकार थे जिनके पास अपनी कार थी। वे नवाब जैसे लगते थे। असल में, वे एक नवाब के बेटे थे। उनके घर में उनके अलावा उनकी माँ (सरदार बेगम) और रामप्रकाश अश्क़ रहते थे, जो उनके बहुत अज़ीज़ दोस्त थे और पाकिस्तान से ही उनके साथ आए थे। उनकी माँ एक सख़्त किस्म की महिला थीं। हमेशा सफ़ेद लखनवी चिकेन की सलवार क़मीज़ में रहती थीं। वह उनको बहुत प्यार करती थीं और उनको बच्चों की तरह डाँट लगाती थीं- बहुत डाँटती थीं, और पूरे बंगले में उनकी आवाज़ गूंजती रहती थी।

अब साहिर साहब की यह नज़्म पढ़े, 
आज 

साथियो! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
चाँद, तारों, बहारों के सपने बुने
हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा
आरज़ूओं के ऐवां [1] सजाता रहा
मैं तुम्हारा मुगन्नी [2], तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहा
आज लेकिन मिरे दामने-चाक में [3]
गर्दे-राहे-सफ़र के सिवा कुछ नहीं।
 
मेरे बरबत के सीने में नग्मों का दम घुट गया है
तानें चीखों के अम्बार में दब गई हैं
और गीतों के सुर हिचकियाँ बन गए हैं
मैं तुम्हारा मुगन्नी हूँ, नग्मा नहीं हूँ
और नग्मे की तख्लाक [4] का साज़ों-सामां
साथियों! आज तुमने भसम कर दिया है
और मैं, अपना टूटा हुआ साज़ थामे
सर्द लाशों के अम्बार को तक रहा हूँ।

और इंसान की हैवानियत [6] जाग उठी है
बर्बरियत [7] के खूंख्वार अफ़रीत [8]
अपने नापाक जबड़ो को खोले
खून पी-पी के गुर्रा रहे हैं 
बच्चे मांओं की गोद में सहमे हुए हैं 
इस्मतें [9] सर-बरह् ना [10] परीशान हैं 
हर तरफ़ शोरे-आहो-बुका [11] है 
और मैं इस तबाही के तूफ़ान में 
आग और खून के हैजान [12] मैं 
सरनिगूं [13] और शिकस्ता [14] 
मकानों के मलबे से पुर रास्तों पर 
अपने नग्मों की झोली पसारे 
दर-ब-दर फिर रहा हूँ-
मुझको अम्न और तहजीब की भीख दो 
मेरे गीतों की लय, मेरे सुर, मेरी नै 
मेरे मजरुह [15] होंटो को फिर सौंप दो 

साथियों ! मैंने बरसों तुम्हारे लिए 
इन्किलाब और बग़ावत के नगमे अलापे 
अजनबी राज के ज़ुल्म की छाओं में 
सरफ़रोशी [16] के ख्वाबीदा [17] ज़ज्बे उभारे 
इस सुबह की राह देखी 
जिसमें इस मुल्क की रूह आज़ाद हो 
आज जंज़ीरे-महकूमियत[ 18] कट चुकी है
और इस मुल्क के बह् रो-बर [19], बामो-दर [20]
अजनबी कौम के ज़ुल्मत-अफशां [21] फरेरे [22] की मनहूस 
छाओं से आज़ाद हैं 
खेत सोना उगलने को बेचैन हैं 
वादियां लहलहाने को बेताब हैं 
कोहसारों [23] के सीने में हैजान है 
संग और खिश्त [24]
बेख्वाब-ओ-बेदार [25] हैं
इनकी आँखों में ता’मीर[ 26] के ख्वाब हैं
इनके ख्वाबों को तक्मील [27] का रुख दो

मुल्क की वादियां,घाटियों,
औरतें, बच्चियां-
हाथ फैलाए खैरात की मुन्तिज़र [28] हैं 
इनको अमन और तहज़ीब की भीख दो 
मांओं को उनके होंटों की शादाबियां [29]
नन्हें बच्चों को उनकी ख़ुशी बख्श दो 
मुल्क की रूह को ज़िन्दगी बख्श दो 
मुझको मेरा हुनर, मेरी लै बख्श दो 
मेरे सुर बख्श दो, मेरी नै बख्श दो 
आज सारी फ़जा [30] है भिखारी 
और मैं इस भिखारी फ़जा में 
अपने नगमों की झोली पसारे 
 दर-ब–दर फिर रहा हूं 
मुझको फिर मेरा खोया हुआ साज़ दो 
मैं तुम्हारा मुगन्नी, तुम्हारे लिए 
जब भी आया नए गीत लाता रहूंगा 

शब्दार्थ:
1.↑ कामनाओं के महल  2.↑ गायक 3.↑ फटे दामन में 4.↑ रचना  5.↑ वीभत्सताएँ  6.↑ पशुता  7.↑ बर्बरता 8.↑ राक्षस  9.↑ सतीत्व  10.↑ नंगे सिर 11.↑ आहों और विलाप का शोर  12.↑ प्रचंडता  13.↑ सिर झुकाए 14.↑ टूटे-फूटे  15.↑ घायल  16.↑ बलिदान 17.↑ सोये हुए  18.↑ दासता की बेड़ी 19.↑ समुद्र और धरती  20.↑ छत और द्वार  21.↑ अन्धकार फ़ैलाने वाले  22.↑ झंडे  23.↑ पहाड़ों  24.↑ पत्थर और ईंट 25.↑ जागरूक  26.↑ निर्माण  27.↑ पूर्णता  28.↑ प्रतीक्षित  29.↑ खुशियाँ 30.↑ वातावरण

साहिर लुधियानवी को उनकी पुण्यतिथि पर, विनम्र स्मरण। 

(विजय शंकर सिंह)

Monday, 24 October 2022

ऋषि सुनक, ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री बने / विजय शंकर सिंह

आज एक सुखद खबर मिली है, कि, ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन गए हैं। ऋषि, पहले भी वहां के पीएम पद के दावेदार थे, पर लिज़ ट्रेस से चुनाव, हार गए थे। अब लिज़ ट्रेस के इस्तीफा दे देने के बाद, उनका दावा, पुख्ता हुआ और वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के पद पर चुन लिए गए। उन्हे बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं। 

ऋषि सुनक का परिवार, मूलतः अविभाजित भारत के गुजरांवाला से था, 
जो अब पाकिस्तान में है। वह परिवार, वहां से नैरोबी चला गया और फिर वे सब इंग्लैंड के बस गए। ऋषि सुनक का जन्म और शिक्षा दीक्षा, ब्रिटेन में ही हुई और अब वे दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र और कभी शब्दशः, दुनिया पर राज करने वाले, ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन गए हैं। 

भारत की आजादी, या साम्राज्य में ही, डोमिनियन स्टेटस देने, या होमरुल देने यानी किसी भी तरह से, कुछ भी स्वतंत्र हैसियत देने का, सबसे मुखर और प्रबल विरोध विंस्टन चर्चिल ने किया था और उन्हें सदैव लगता था कि, यदि भारत को आजादी या आजादी जैसी कोई ढील दी गई तो, उसके बाद से ब्रिटिश साम्राज्य का खात्मा हो जायेगा। चर्चिल ने, कभी भी साउथ अफ्रीका, और कुछ अन्य उपनिवेशों को, स्वशासी डोमिनियान स्टेटस देने पर कभी एतराज नहीं किया, बल्कि, उन्होंने, उनकी पैरवी भी की। पर भारत की आजादी के विरोध, के लिए वह, घृणा के स्तर तक जा पहुंचे थे। 

गांधी, उनके सत्याग्रह, और कांग्रेस को वह बेहद नाराजगी से देखते थे। वह भारतीयों को सदैव इस लायक समझते थे, कि यह राज ही नहीं कर सकते। और भारतीयों को लेकर वह घृणित पूर्वाग्रह उनके मन में बराबर बना रहा। उनके इस पूर्वाग्रह को देखते हुए, कुछ इतिहासकारों और चर्चिल के कुछ समकालीन ब्रिटिश नेताओं ने, चर्चिल को नस्ली भेदभाव, और रूडयार्ड किपलिंग की, द व्हाइट मैन बरडेन की मानसिकता से ग्रस्त कह कर आलोचना भी की है। गांधी के प्रति चर्चिल का दृष्टिकोण जग जाहिर है। इस पर बहुत कुछ लिखा गया है। 

पर मैं दो उद्धरण देता हूं, जो चर्चिल की गांधी और भारत के लोगों के प्रति, उनकी सोच को स्पष्ट करते हैं। जब गांधी इरविन समझौता के बाद ब्रिटिश संसद में, जब इस विषय पर कि, भारत को आंशिक आजादी दी जानी चाहिए, तो गांधी जी का उल्लेख करते हुए कहा था कि, 

" लंदन के इनर टेंपल में पढ़े, एक राजद्रोही बैरिस्टर, मिस्टर गांधी को, अब पूर्व (भारत) में एक प्रसिद्ध फकीर के रूप में पेश करते हुए, वाइसरीगल महल की सीढ़ियों पर, उस अर्ध-नग्न, जो अब भी, साम्राज्य के खिलाफ, सविनय अवज्ञा का एक अभियान आयोजित और संचालित करता है को, सम्राट के प्रतिनिधि के साथ बराबरी पर, समान शर्तों पर बातचीत करते हुए देखना, एक ऐसा खतरनाक और वमनकारी तमाशा है, जो केवल भारत में अशांति फैलाएगा और वहां के गोरे लोगों के सामने, भविष्य में, आने वाले खतरे को बढ़ा देगा।"
(चर्चिल, भाषण, 5, 4985, का यह अंश, चर्चिल और गांधी, एपिक राइवलरी, आर्थर हरमन)

It is alarming and also nauseating to see Mr. Gandhi, a seditious Middle Temple lawyer now posing as a fakir of a type well-known in the East, striding half-naked up the steps of the Vice-regal palace, while he is still organizing and conducting a campaign of civil disobedience, to parley on equal terms with the representative of the King-Emperor. Such a spectacle can only increase the unrest in India and the danger to which white people there are exposed.
( Charchil, Speeches, 5, 4985 , Gandhi and Charchil, The Epic Rivalary Arthur Herman)

यह अकेला ही उद्धरण नहीं है जबकि चर्चिल की, गांधी जी के प्रति नापसंदगी, बार बार, खुल कर सामने आई है। वह गांधी को अराजकता फैलाने वाला और सत्याग्रह को, अराजकता से जोड़ कर देखता था। वह गांधी के वैश्विक प्रभाव, और भारतीय जनमानस पर उनकी अद्भुत पकड़ से, हर वक्त खीजता भी रहता था। 

गांधी जब गोलमेज सम्मेलन में, 1932 में भाग लेने गए तो, उनकी मुलाकात ब्रिटेन के सम्राट से कराई गई। बहुत कोशिश हुई कि, गांधी इस शाही मुलाकात में कम से कम 'ढंग' के कपड़े पहन लें। पर गांधी ने कहा वे धोती और शाल में जायेंगे। वे गए भी। जब वे सम्राट से मिल रहे थे तो, सम्राट ने बुदबुदाकर कहा कि, यह तो, लगभग नंगे हैं। 
तत्कालीन, सेक्रेटरी इंडिया, सैमुअल होर के ही शब्दों में पढ़े, 

"Gandhi, in turn, refused to meet the king-emperor in anything but dhoti and shawl. In the end, however, Hoare prevailed on His Majesty, and the meeting went well, although Hoare claimed he heard George V mutter something about “the little man” with “no proper clothes on.” 

मुलाकात के बाद, विदा लेते समय सम्राट ने कहा, 
"याद रखिए मिस्टर गांधी, मैं नहीं चाहूंगा कि, मेरे साम्राज्य पर अब कोई हमला हो।"
गांधी ने मुस्कुराते हुए कहा, 
"योर मैजेस्टी का आतिथ्य, स्वीकार करने के बाद, योर मैजेस्टी के ही महल में, मुझे किसी राजनैतिक बहस में, कदापि नहीं उलझना चाहिए।"
इसे भी सैमुअल होर के ही शब्दों में पढ़े, 

"The king could not resist a final jab as they parted: “Remember, Mr. Gandhi, I won’t have any attacks on my empire!” Gandhi smiled and replied, “I must not be drawn into a political argument in Your Majesty’s Palace after Your Majesty’s hospitality.” All observers, including Hoare, thought the encounter a success. The feelings of Churchill and other India hard-liners can be imagined. George Lloyd called it “tea with treason.”
(स्रोत, गांधी एंड चर्चिल, द एपिक रायवलरी, आर्थर हरमन)

आज, न गांधी हैं, न चर्चिल। दोनो अतीत बन चुके हैं। पर जिस भारतीय जन और समाज को, चर्चिल, राज करने और शासन चलाने लायक मानते भी नहीं थे, आज उसी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के पद पर एक भारतीय मूल के व्यक्ति द्वारा शपथ लेना, एक बड़ी घटना है। ऋषि सुनक आज उसी 10 डाउनिंग स्ट्रीट में रहने जा रहे हैं, जिसमे कभी, सर विंस्टन चर्चिल भी रह चुके हैं। ऋषि सुनक को, पुनः बधाई और शुभकामनाएं। 

(विजय शंकर सिंह)

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (12)



“तुम लजारस की चमड़ी हो गंगा दीन
भले मैंने तुम्हें पीटा होगा, मारे होंगे चाबुक
जिस ईश्वर ने तुम्हें बनाया
तुम मुझसे बेहतर इंसान बने गंगा दीन”

- रुडयार्ड किपलिंग की कविता की पंक्तियाँ एक भारतीय भिश्ती को समर्पित

बदलाव सिर्फ भारतीयों में ही नहीं, बल्कि अंग्रेजों में भी हो रहा था। जब थॉमस रो पहली बार जहाँगीर के दरबार में आए, तो उन्हें पुर्तगालियों से कम तवज्जो दी गयी। उनके रहने का इंतज़ाम उनके ही शब्दों में साधारण था, और सूरत बंदरगाह में तो उनकी तलाशी भी ली गयी थी। 

वहीं, 1756 तक मुग़ल दरबार में यह कहा जा रहा था, “क्या हमें अब इन चंद व्यापारियों से आदेश लेना होगा, जिन्होंने अब तक अपना पिछवाड़ा धोना भी नहीं सीखा?”

अठारहवीं सदी तक ब्रिटिश भारतीयों को कुछ मिली-जुली नज़र से देखते थे। कई ब्रिटिश भारतीय स्त्रियों से संबंध बनाते और चार्ल्स स्टुअर्ट के शब्दों में, “अगर मैं तानाशाह होता तो ब्रिटेन की गोरियों को भारतीय स्त्रियों की नकल उतारने कहता”। वहीं, कैप्टन एडवर्ड सेलोन ने लिखा, “प्रेम की जो समझ भारतीय स्त्रियों को है, दुनिया की किसी स्त्री में नहीं”

उन्नीसवीं सदी तक आते-आते और ख़ास कर ब्रिटिश ‘राज’ द्वारा कंपनी को किनारे करने के बाद उनका नज़रिया बदल चुका था। उदाहरणस्वरूप अठारहवीं सदी के लेखों में ब्राह्मणों को ख़ासा आदर दिया गया, उनसे ग्रंथों की शिक्षा ली गयी; उन्नीसवीं सदी में ब्राह्मणों को एक घृणास्पद पोंगापंथी वर्ग कहा जाने लगा। यह मात्र ईसाई मिशनरी द्वारा पुरोहितों पर प्रहार नहीं था, बल्कि भारतीय नस्ल को मानवीय स्तर पर निकृष्ट कहा जाने लगा। 

अपनी पुस्तक ‘द फ़िशिंग फ्लीट’ में ऐन डी कुर्सी लिखती हैं कि किस तरह जहाज भर-भर कर फिरंगी महिलाएँ भारत लायी जाने लगी, ताकि अंग्रेज़ अफ़सरों को इस घृणित नस्ल से संबंध न बनाना पड़े। विडंबना कि ऐसी ही दृष्टि वाले भारत की वर्ण संकीर्णता को निशाना बना रहे थे। वायसरॉय लॉर्ड एल्जिन ने लिखा,

“मुझे जब इस निम्न नस्ल के लोग सलाम करते हैं तो मैं उनको दुम हिलाते कुत्तों की तरह नहीं देखता। कुत्तों को तो आप प्यार से सहलाते हैं, सीटी बजा कर बुलाते हैं। मैं इन्हें उन निर्जीव मशीनों की तरह देखता हूँ, जिनसे हम कोई भावनात्मक संबंध नहीं रखते”

हर छोटे-बड़े ब्रिटिश अधिकारी भारत के राजा-महाराजाओं की नकल उतारने लगे थे। लेफ़्टिनेंट क्युबिट जिक्र करते हैं कि उनके घर के आस-पास झोपड़ियों में उनके निजी माली, सफाईकर्मी, जमादार, दर्जी, भिश्ती, धोबी और तमाम ख़िदमतगार रहते थे। उनके आस्तीन के बटन से लेकर जूते का फीता बाँधने के लिए, लेटे-लेटे हजामत बनाने के लिए, और पूरे दिन अनवरत पंखा झलने के लिए नौकर थे। भारत में बचपन बिता चुकी एक अंग्रेज़ महिला ने लिखा कि अगर चलते हुए रुमाल भी गिर जाए, तो हम धीमी आवाज में कहते - ‘बॉय!’, और एक भूरे रंग की दुबली छाया आकर रुमाल उठा देती।

उन्नीसवीं सदी से ही उन्होंने राजा-महाराजों का आदर भी धीरे-धीरे कम या बहुत ही सतही कर दिया। एक वर्णन है कि पटियाला के राजा जब इतवार को पंजाब के कमिश्नर लॉरेन्स से मिलने आये, तो उनके पीछे चल रहे गाजे-बाजों को डाँट कर बंद कराया गया। कारण कि यह ईसाइयों के ‘मास’ का समय था।

उनकी घृणा का स्तर इस कदर बढ़ रहा था कि भारतीय सिपाहियों पर भी वह नस्लीय टिप्पणियाँ करने लगे थे, और यदा-कदा बेल्ट खोल कर मारने लगे थे। विलियम हॉवर्ड रसेल के शब्दों में-

“ये घी और मिठाई में नहाए हुए दुर्गंध करते निग्गर (अश्वेत) दिन-रात चिलम फूँकते हैं। इन्हें प्रशिक्षित करना जैसे सूअरों के बाड़ में डंडा लेकर घूमना”

यह तय था कि अगर कारतूस वाली बात न भी होती, तो इस बढ़ती नस्लीय घृणा के दौर में निरीह से निरीह नस्ल भी कभी न कभी उबल पड़ती। ख़ास कर तब जब फ़ौज में भारतीयों की संख्या अंग्रेजों से छह गुणा अधिक थी।

अंग्रेज़ों की संख्या अभी और घट रही थी, क्योंकि वह युद्ध शुरू हो चुका था, जिसे मैंने पहले ‘मिनी वर्ल्ड वार’ संबोधित किया था। क्रीमिया युद्ध। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

1857 की कहानी - एक (11) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/10/1857-11.html

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Sunday, 23 October 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - एक (11)


“हिंदुस्तानियों को यह लगने लगा कि हर कानून उन्हें नीचा दिखाए जाने के लिए बनाए जा रहे हैं। उनके मज़हब से भटका रहे हैं। आखिर वह समय आ गया जब उन्हें ब्रिटिश सरकार एक धीमा जहर, एक रेत की रस्सी, एक विश्वासघाती आग की लपट की तरह दिखने लगी। उन्हें लगने लगा कि अगर आज उनका घर बच भी गया, तो कल नहीं बचेगा।”

- सैयद अहमद ख़ान (The Cause Of The Indian Revolt पुस्तक में)

सिपाही विद्रोह या राजे-रजवाड़ों द्वारा उकसाया हुआ ब्रिटिश-विरोधी संग्राम कहना 1857 के साथ न्याय नहीं है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिज़रायली का भी मानना था कि इसे मात्र विद्रोह (mutiny) तक सीमित रख कर नहीं देखा जा सकता। यह कहा जा सकता है कि इसे ‘स्वतंत्रता संग्राम’ कहना आने वाली सदी में राष्ट्रवाद के हुंकार के लिए आवश्यक रहा होगा। 

कई राष्ट्रवादी गीतों के रचयिता सावरकर अपनी अलंकृत भाषा में ‘विस्फोट’, ‘अग्नि-कल्लोल’ जैसे खंडों में अक्सर जोश से भरे उद्गार लिखते हैं, जहाँ इतिहास और काव्य में भेद कठिन है। जैसे उन्होंने भगीरथी (गंगा नदी) के शब्द लिखे- “हे कुंवर सिंह! तेरे कारण यह देवी जाह्नवी पुत्रवती हुई है”। इसमें पारंपरिक इतिहासकार टिप्पणी कर सकते हैं कि भला भगीरथी ने ऐसा कब और कैसे कहा, लेकिन इसके मायने अलग थे। उनके पाठक यूपीएससी के लिए इतिहास के नोट्स बनाने वाले लोग नहीं थे, बल्कि वह आम जनता से संवाद कर रहे थे। 

1857 के विश्लेषण में कई अन्य आयाम जुड़े हैं। उन सभी का केंद्र-बिंदु एक नज़र आता है कि यह ‘सांस्कृतिक बदलाव’ के प्रति एक बिखरा हुआ विद्रोह था। स्थानीय कारण भिन्न थे, लेकिन उनकी जड़ें एक थी। 

1843 से 1849 के मध्य सुदूर उत्तर-पूर्व में सिंघपो जनजाति के नेता निरंग फिदू और कदमा सिंघपो ने ब्रिटिश छावनी पर हमला कर उन्हें भारी हानि पहुँचायी और कई ब्रिटिश फौजियों को मार डाला। वे किस तरह के राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर ऐसा कर रहे थे? इसे समझना आधुनिक दुनिया के लिए भी आवश्यक है। एक उदाहरण देता हूँ।

बंगाल प्रांत का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ों और जंगलों का था, जिसका एक अंश अब झारखंड राज्य बन चुका है। राजमहल पहाड़ियों और उसकी तराई के इस इलाके में पहाड़िया लोग जंगलों में रह कर झूम खेती करते हुए जीवन-यापन करते थे। कंपनी के लिए यह समृद्ध इलाका कोई कमाई नहीं देता, और यहाँ के पहाड़ी इन्हें हस्तक्षेप भी नहीं करने देते।

अठारहवीं सदी के अंत से अंग्रेज़ों ने संथाल जनजाति के लोगों को यहाँ बसाना शुरू किया। ये उनके आदेश पर जंगलों को काट कर मैदान में बदल कर पारंपरिक खेती करने लगे। जैसे-जैसे जंगल कटने लगे, पहाड़िया लोग बचे-खुचे जंगलों में सिकुड़ते चले गए। संथालों का यह मैदानी इलाका कहलाया ‘दामन-ई-कोह’ (पर्वतों का आंचल)।

इसका विस्तार इसी से समझें कि 1838 में यहाँ कुल 40 संथाल गाँव और 3,000 संथाली थे। 1851 में कुल 1471 गाँव और 82,795 संथाली (और अन्य) जनसंख्या आ गयी। कितने जंगल काट दिए गए होंगे! एक पूरी संस्कृति ही बदल दी गयी। मैं यहाँ अभी मिशनरी ईसाई अतिक्रमण की बात नहीं छेड़ूँ, तो भी हज़ारों वर्षों के पहाड़ी जीवन को एक दशक में यूँ बदल देना कितना सही था? 

धीरे-धीरे यहाँ बंगाल प्रांत के जमींदार, महाजन, और अन्य व्यवसायी आने लगे, जो संथालों से उनकी ज़मीन भी हथियाने लगे। एक वर्णन है कि उस समय दो तरह के बटखरे रखे जाते- एक भारी बटखरा था ‘किनाराम’, जिससे संथालों से अनाज खरीदा जाता, और एक हल्का बटखरा था ‘बेचाराम’ जिससे उन्हें चीजें बेची जाती। 

जब कई संथाली अपनी ही ज़मीन में बंधुआ बनते गए, तो उनके ‘देवताओं’ ने आदेश दिया कि उन्हें एकजुट होना होगा। अलग-अलग गांवों में बीर सिंह, सिद्धू-कान्हू, मोरगो राजा ने संथालों को संगठित करना शुरू किया। 25 जुलाई, 1855 को कैथी लिपि में एक घोषणापत्र तैयार किया गया जिसका अर्थ था, 

“इन महाजनों और इनके मालिक कंपनी साहबों का पाप अब खत्म करना होगा। इन सबने मिल कर हमारे जीने का तरीका बदल दिया।”

उसके बाद के घटनाक्रम को लूट, डकैती और हत्याओं की तरह दर्ज किया गया है, जो न सिर्फ़ अंग्रेजों बल्कि बंगाली और अन्य सवर्ण महाजनों के ख़िलाफ़ भी था। भागलपुर के कमिश्नर ने एक चिट्ठी में लिखा है,

“वे छोटे-छोटे समूहों में घूमते हैं, लेकिन जैसे ही पकड़ने जाओ तो ढोल बजाते हैं; और न जाने कहाँ से दस हज़ार संथाल अचानक सामने आ जाते हैं!”

16 जुलाई, 1855 को अपने तीर-धनुष से संथालों ने मेजर बरॉ की सशस्त्र फौज को हरा दिया, और पच्चीस सिपाही वहीं के वहीं मारे गए जिनमें अंग्रेज़ सर्जंट भी शामिल थे। उनके पीछे जो बैक-अप आ रही थी, वह खबर सुनते ही रास्ते से लौट गयी।

इस पूरे घटनाक्रम को कंपनी ने अपने ख़िलाफ़ एक ‘विद्रोह’ का नाम दिया, जिसके लिए उन्हें अपनी कई टुकड़ियाँ तैनात करनी पड़ी, कई संथालों को मारा गया। आखिर इस पूरे दामन-ई-कोह को विभाजित कर संथाल परगना में तब्दील करना पड़ा। 

अरुणाचल और असम में हो रहे विद्रोह की नींव भी कुछ ऐसी ही थी, जो जीवन-शैली में अचानक बदलाव और जंगलों के व्यवसायीकरण से उपज रही थी। इनकी वजह यह नहीं थी कि फलाँ राजा की पेंशन बंद हो गयी, या उत्तराधिकार न होने के कारण गद्दी चली गयी। उससे अधिक सूक्ष्म स्तर पर थी। 

इनके लिए मातृभूमि का अर्थ मूलभूत था और इस कारण विद्रोह के मायने स्पष्ट थे। जब हम जन-आंदोलन की छवि बनाते हैं, तो वह कुछ यूँ बनती है कि ढोल बजाते ही हुंकार करते दस हज़ार लोग जमा हो जाएँ। अगर ऐसा विस्तृत स्तर पर होता तो किसी भी प्रशासन के लिए इसे सँभालना असंभव होता। लेकिन, भले अंतिम लक्ष्य एक हो, अक्सर लोग यह ढूँढते हैं कि ढोल बजाने वाला किस क्षेत्र, किस जाति, किस धर्म का है। यह बात अंग्रेज़ बखूबी जानते थे। 
(क्रमशः) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha

1857 की कहानी - एक (10) 
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