धन अत्यंत आवश्यक वस्तु है । चार पुरुषार्थों धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष में धन का स्थान दूसरा है ।धर्म तो मूल है । वह तो आधार है, धारण करता है । फिर अर्थ का स्थान आता है । इन चारों पुरुषार्थों में अर्थ का योगदान अन्य दो पुरुषार्थ भी उठाते हैं । मोक्ष को आप अलग रख सकते हैं । धर्म भी बिना अर्थ के शून्य ही है । पूरा का पूरा कर्मकाण्ड और यज्ञ विधान आदि सब अर्थ सापेक्ष ही तो है । उसी प्रकार राजनीति भी कितनी भी शुचिता की बात कर ले , कितना भी सेवा भाव का चोला पहन ले पर अर्थ के बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जाती है । राजनीति में अगर कोई इसे मिशन के रूप में ग्रहण कर आता है, तो वह भी राजनीतिक खर्चों के लिए धन की ज़रूरत महसूस करता है । धन का प्रबंध वह जनता के अंशदान यानी चंदे से ही करता है । पर कुछ लोग सेवा भाव का चोला ओढ़े सिर्फ और सिर्फ धन कमाने के लिए ही राजनीति में आते हैं । माफिया , धन अर्जन के बाद , समाज में अपनी साख बढ़ाने और सुरक्षा कवच ओढ़ने के लिए आते हैं । ऐसे ऐसे माफिया भी राजनीति में हैं जो अपने अपराध के दिनों में पुलिस के सिपाही को देख कर रास्ता बदल दिया करते थे, वे राजनीतिक चोला धारण कर एसपी डीएम के कार्यालय में बैठ कर चाय पर चर्चा करते रहते हैं और यह भी इशारों इशारों में बता देते हैं कि जब भी मुख्य मंत्री की उनसे मुलाक़ात होती है, तो मुख्य मंत्री ज़िले का हाल उन्ही से पूछते हैं और वे डीएम एसपी को वहाँ संभाले रहते हैं । पर हमें जन्नत की हकीकत मालुम रहती है । हम लोग भी निष्काम भाव से चाय पिला कर , उनकी लनतरानियाँ सुन, उन्हें, किसी काम का बहाना बना कर चलता कर देते हैं । यह नौकरशाही का लोकाचार है ।
राजनीतिक दल अक्सर कहते हैं कि उन्हें जनता से चन्दा मिलता है । पर जब भी उन चंदे के खुलासा करने की बात आती है तो वे कन्नी काट लेते हैं । सारे दल, और नेता, केवल दो ही मुद्दे पर एकजुट नज़र आते हैं । एक तो जन प्रतिनिधियों को मिलने वाली सुख सुविधाओं पर, दूसरे राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के खुलासा न करने पर । अन्ना आंदोलन से जब नए प्रकार की राजनीति करने का इरादा और दावा ले कर अरविन्द केजरीवाल निकले तो , लोगों को लगा कि यह एक नया अवतार है । हम हर किसी नए त्राता में अवतार ही ढूंढते हैं । कभी इंदिरा गांधी दुर्गा के रूप में नज़र आयी थी , कभी जेपी सम्पूर्ण क्रान्ति के ध्वजवाहक के रूप में, तो कभी मोदी , यदा यदा हि धर्मस्य... की भावना के अनुरूप , अवतार के रूप में देखे गए । भ्रम तब टूटा , जब इंदिरा , असुरों के बजाय अपनों का ही संहार करने लगीं, जेपी भारत बदलने के सपने के स्थान पर जनता पार्टी ही एक जुट नहीं रख पाये, और मोदी जिन तेवरों को दिखाते रहे वे अब नहीं दिखते, तो अवतार वाद के भ्रम का क्षरण भी होने लगा । उसी प्रकार केजरीवाल भी शुरू में दिखे । जनता ने हांथो हाँथ लिया और वे दिल्ली के मुख्य मंत्री अकल्पनीय बहुमत से चुने गए । एक पार्टी के रूप में गठित होने पर आआपा में अंदरूनी टकराव हुआ । उस टकराव के कारण केजरीवाल ने अपने उन निकटस्थ सहयोगियों को भी किनारे कर के दल के लोकतांत्रिक स्वरूप को बदल दिया । शुरू शुरू में AAP ने अपने मिलने वाले चंदो को अपनी वेबसाइट पर डाला और पारदर्शिता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया । उसे मिलने वाले चंदो पर वाद विवाद भी हुये । हाल का सबसे ताज़ा विवाद पंजाब से इस पार्टी पर यह लगा कि सुच्चा सिंह जो आप के संयोजक थे, ने दो दो करोड़ रूपये ले कर विधान सभा के चुनाव में टिकट लोगों को दिए । इस पर पार्टी नें उन्हें निकाल दिया । ऐसी शिकायत सभी दलों में चुनाव के दौरान आती है । सामान्य सी बात है, चुनाव के प्रचार का इतना ताम झाम , खर्च कहाँ से आएगा ? इसी लिए राज्य द्वारा चुनाव फंडिंग की बात कभी उठती है तो कभी चंदे में पारदर्शिता लाने की चर्चा की जाती है ।
चुनाव सुधार, निर्वाचन आयोग का काम नहीं है । उसका काम स्थापित कानूनों के अंतर्गत चुनाव को निष्पक्ष और स्वतंत्र कराना है । चुनाव सुधार से जुड़े कानून बनाने का जिम्मा संसद का है । चुनाव आयोग चुनाव सुधार की सिफारिशें सरकार को भेजता रहता है । पर जिन मसलों पर राजनितिक दलों का स्वार्थ हावी रहता है वे मसले बस्ता खामोशी में चले जाते हैं । ऐसा ही एक मामला है, आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दलों की फंडिंग को लाना । हालांकि अभी भी चुनाव आयोग चुनाव के दौरान दिन प्रतिदिन के व्यय का व्योरा प्रत्याशी से मांगता है और इस पर नज़र रखने के लिए राजस्व सेवा के वरिष्ठ अधिकारीगण पर्यवेक्षक के रूप में भी रखे जाते हैं । फिर भी काले धन का बहुत प्रयोग चुनाव में होता है । इसे सभी जानते हैं , पर धन की ज़रूरत सभी को रहती है इस लिए इस मुद्दे पर केवल शोर होता है कार्यवाही नहीं ।
2013 में मुख्य सूचना आयुक्त , भारत सरकार ( सीआईसी ) ने एक निर्णय दिया कि, सभी राजनीतिक दल पब्लिक अथॉरटी हैं और इस कारण वे, सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गयी सूचना देने के लिये बाध्य हैं । सीआईसी ने सभी राजनितिक दलों को, इस अधिनियम के अंतर्गत सुचना अधिकारी और उनके आदेशों पर अपील की सुनवाई के लिए अपीलीय अधिकारी की नियुक्ति करने की बात कही । आरटीआई अधिनियम की धारा 20 ( h ) के अंतर्गत पब्लिक अथॉरटी हर उस गैर सरकारी संगठन को माना गया है जिसे सरकार कोई न कोई सहायता देती है । सरकार भी जो धन देती है वह अंततः जनता का ही धन होता है जो उसे करों के रूप में मिलता है । इस पर सभी राजनीतिक दल एकजुट हो गए और उन्होंने सीआईसी के इस प्राविधान का विरोध किया । अब यह मामला अदालत में है ।
राजनीतिक दलों का तर्क यह है कि, अगर आरटीआई के दायरे में दलों को लाया जाएगा तो, उसके विरोधी भ्रामक सूचनाओं के आधार पर भ्रम फैलाएंगे जिस से राजनीतिक दल अनावश्यक विवाद में उलझ जाएंगे । इस से दलों की कार्यवाही पर असर पड़ेगा । साथ ही राजनीतिक अस्थिरता भी फैलेगी ।
इस पर सीआईसी ने तर्क दिया कि, सभी दल सरकार से कुछ न कुछ सहायता पाते हैं । वे अपने कार्यालय द्वारा रियायती दर पर या मुफ़्त ज़मीनें पाते हैं और उन्हें मिलने वाला चन्दा , आय कर अधिनियम की धारा 13 A के अंतर्गत कर मुक्त भी है । साथ ही आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपनी बात कहने के लिए मुफ़्त समय स्लॉट भी पाते हैं । इस कारण सभी दल सीआईसी के दायरे में आते हैं ।
राजनीतिक दलों को अगर सीआईसी के दायरे में लाया जाता है तो, इस से उनकी फंडिंग पारदर्शी रहेगी और काले धन का जो प्रवाह राजनीतिक जीवन में बढ़ रहा है , उस पर अंकुश भी लगेगा । जब काले धन का प्रवाह बाधित होगा तो, इसका प्रभाव भ्रष्टाचार पर भी पड़ेगा । और थोड़ी बहुत ही सही राजनीति में शुचिता का समावेश होगा । लोक सभा में इस पर बहसें भी हुयी । संसद ने यूपीए - 2 के कार्यकाल में आरटीआई अधिनियम का एक संशोधन पास किया । इस संशोधन में राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने का प्राविधान रखा गया । 2013 घोटालों का साल था । भाजपा सहित सभी दल कांग्रेस पर हमलावर थे । कांग्रेस रिंग के कोने में धकेली जा रही थी । पर यह बिल सबकी सहमति से पास हुआ । इसे चुनौती दी गयी और अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है । सुप्रीम कोर्ट में कई तारीखों के बाद भी भाजपा और कांग्रेस जो , दोनों एक दूसरे से मुक्त भारत की योजना बनाती रहती है, इस मसले पर एक दूसरे से युक्त हो गयी है । दोनों में से किसी भी दल ने अदालत में अपना पक्ष नहीं रखा । अदालत की कार्यवाही अभी जारी है । यह याचिका प्रसिद्ध आरटीआई एक्टिविस्ट सुभाष अग्रवाल ने दायर की है और प्रशांत भूषण उनके वकील हैं । सभी राजनीतिक दलों को अदालत ने नोटिस जारी कर जवाब माँगा है । याचिका में यह तर्क दिया गया है कि, संविधान के शेड्यूल 10 के अनुसार सभी सांसद और विधायक आते है । यह शेड्यूल, सभी सांसदों और विधायकों को बाध्य करता है कि वे अपने राजनीतिक दलों के प्रति प्रतिबद्ध रहें । दल बदल विरोधी कानून भी इसी के आधार पर है । यह मतदाता का भी मौलिक अधिकार है कि वह जिस व्यक्ति और जिस दल को चुन रहा हैं उसके आर्थिक श्रोतों को वह खुले रूप में जाने । यह भीं जानने का उसे अधिकार हैं कि उस धन का श्रोत , भी देश के कानून का उल्लंघन कर के नहीं कमाया गया है । जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 A के अनुसार सभी दलों को संवैधानिक मान्यताओं को मानना अनिवार्य है । यह सारे तर्क मूल अधिकार धारा 19 ( 1 ) ( a ) के अंतर्गत अभिव्यक्ति के अधिकार से भी आच्छादित होते हैं ।
राजनीति में शुचिता की बात सभी करेंगे, पर जब ठोस कार्यवाही की बात आएगी तो सभी बगलें झाँकने लगेंगे । हर राजनीतिक दल पर, जब जिसका भविष्य थोडा सा भी अच्छा दिखने लगता है तो कुछ प्रत्याशी खुद ही थैली ले ले कर दौड़ने लगते हैं । राजनीतिक दल भी यह अवसर भी चूकना नहीं चाहते । इस से उस छोटे से वर्ग में जो राजनीति में शुचिता को खोजते हुये देशहित और समाज सेवा के लिए आगे आने लगता है को यह थैली दौड़ निराश और कुंठित करती है । बहुत से अच्छे और विद्वान तथा योग्य लोगों को जिन्हें सच में संसद या विधान सभा में होना चाहिए के मुंह से मैंने स्वयं सुना है कि, अब चुनाव उनके बस का नहीं रहा । इसी धन के लालच के कारण राज्य सभा और विधान परिषदें जो उन लोगों को सदन में लाने के लिए बनायी गयी थीं, जो अपने अपने क्षेत्र में योग्य तो हैं पर किन्ही कारणों से प्रत्यक्ष चुनाव नहीं लड़ सकते हैं को यहाँ ला कर उनकी मेधा तथा प्रतिभा का लाभ उठाया जा सके, को दरकिनार कर पूँजीपतियों को केवल धन के बल पर सदन में लाया जा रहा है । यह लोकतंत्र के कैचमेंट एरिया का संकुचन है । धीरे धीरे जनता की प्रतिभागिता, कुछ ख़ास वर्ग से सिमटते सिमटते , कुछ ख़ास परिवारों तक सिमटने लगी है । इसे आप लोकतंत्र की विडंबना भी कह सकते हैं ।
( विजय शंकर सिंह )