Friday, 29 June 2018

भारत अमेरिका कूटनीतिक सम्बंध - इनकार से हुंकारी तक / विजय शंकर सिंह

2012 में डॉ मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे। तब भी अमेरिका ने ईरान से तेल आयात न करने का संकेत भारत को दिया था। लेकिन सरकार ने नहीं माना और ईरान से तेल का आयात जारी रहा। यह कमज़ोर कहे जाने वाले पीएम का इनकार था।

आज 2018 में भी करीब 6 साल बाद अमेरिका ने भारत को पुनः ईरान से तेल आयात न करने का निर्देश दिया और आज मज़बूत कहे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हुंकारी भरते हुये अमेरिका की बात मान ली, और ईरान से तेल आयात न करने की घोषणा कर दी।

भारत का ईरान से कोई विवाद नहीं है। ईरान ने बराबर हमारा साथ दिया है। यहां तक कि 1962 के चीन और 1965, 71, 2000 के भारत पाक युद्धों में भी वह हमारे साथ खड़ा रहा। ईरान तेल का बड़ा निर्यातक है। उससे सबसे अधिक तेल चीन और भारत खरीदता है। 1979 की अयोतोल्लाह खोमैनी की इस्लामिक क्रांति के पहले ईरान का शासन पहलवी राजवंश के पास था। यह राजवंश तब अमेरिका के साथ था। लेकिन खोमैनी की क्रांति ने राजवंश का शासन खत्म कर इस्लामी शासन की नींव रखी। अमेरिका का ईरान से तभी का बैर है। उधर सऊदी अरब जो पूरी तरह से अमेरिकी और ब्रिटिश उपनिवेश की तरह है का भी ईरान से विरोध है। इसका कारण, अमेरिकी वर्चस्व तो है ही, एक और कारण, धार्मिक मतभेद शिया बनाम सुन्नी का होना भी है। अफगानिस्तान, इराक़, सीरिया, लीबिया, एक एक कर के मध्य एशिया के मुल्क़ों को अस्थिर और आतंकवाद का शिकार बनाने के बाद अमेरिका की नज़र ईरान पर है। अमेरिका नहीं चाहता कि ईरान आर्थिक रूप से स्थिर हो और उसके तेल का निर्यात हो सके। अभी हाल में ईरान के प्रति ट्रम्प की नीति की आलोचना यूरोपीय देश भी कर रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प की ईरान के प्रति नीति की आलोचना खुद अमेरिका में भी हो रही है। अगर ईरान के तेल का निर्यात कम हो जाएगा तो ईरान की अर्थ व्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ेगा। अमेरिका ईरान को आर्थिक रूप से तोड़ना चाहता है।

लेकिन चीन के बाद, भारत ही ईरान से भारी मात्रा में तेल आयात करने वाला देश है। चीन न तो अमेरिका की बात मानेगा और न ही अमेरिका की इतनी हिम्मत है कि वह चीन के वैदेशिक व्यापार को निर्देशित कर सके। अब बचता है भारत। भारत ने शुरू में तो थोड़ी ना नुकुर की पर अचानक जब अमेरिका ने विदेश और रक्षा मंत्रियों की वार्ता रद्द कर दी और निकी हेली को भेज कर यह बात मानने के लिये दबाव दिया तो, भारत ने यह निर्णय कर लिया कि वह ईरान से तेल का आयात नहीं करेगा।

इस फैसले का क्या असर हमारे तेल आयात के बिल, पेट्रोल , डीजल, गैस की घरेलू कीमतों, और सुरक्षित तेल के भण्डार पर पड़ेगा, इसका आकलन एक्सपर्ट विद्वान कर रहे होंगे। कल एक खबर के अनुसार, इसका एक बड़ा असर हमारी रिफाइनरियों पर पड़ेगा । जब ईरान पूरी तरह से प्रतिबन्धों की गिरफ्त में था, तब भी भारत ने ईरान से तेल का आयात जारी रखा। हमारी रिफायनारियाँ संभवतः तकनीकी रूप से ईरान से आयात किये जाने वाले तेल के शोधन हेतु अधिक उपयुक्त है। आज इस फैसले के बाद पेट्रोल और गैस मंत्रालय में कुछ अफरातफरी भी मची है। यह फैसला, तेल की घरेलू और वैश्विक राजनीति में दूरगामी प्रभाव डालेगा।

फिलहाल विदेश नीति में ऐसी स्थिति 70 सालों में पहली बार आयी है कि, जब अमेरिका ने हमारी विदेश नीति को प्रभावित ही नहीं निर्देशित भी किया है। अमेरिका भारत को एक उपनिवेश की तरह समझ कर व्यवहार कर रहा है। और हम भी, जो हुक़्म है मेरे आका के मोड में आ रहे हैं।

© विजय शंकर सिंह

Thursday, 28 June 2018

अधिकार सुख बड़ा मादक होता है सम्राट ! / विजय शंकर सिंह

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, के एक अमानवीय और शासक होने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त अवगुण ने प्रख्यात कथाकार प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी, नशा की याद दिला दी। लगभग सौ साल पहले लिखी गयी कहानी कैसे आज फिर अलग अलग पात्र, स्थान, काल और संदर्भ में दुहरायी गयी, कहानी को कालजयी बना देती है। कहानी फिर कभी सुना दूंगा। फिलहाल तो उसका रीमिक्स पढ़ लीजिये।

कल 28 तारीख को यह हुआ कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के जनता दर्शन कार्यक्रम में एक बुजुर्ग शिक्षिका ने अपनी व्यथा कथा रखते हुए कहा कि, वह पिछले 25 बरस से उत्तराखंड के बेहद दुर्गम क्षेत्र के एक स्कूल में सरकारी शिक्षिका के पद पर कार्यरत है। 58 बरस की शिक्षिका उत्तरा पंत के पति का सालों पहले निधन हो चुका था और वह यह चाहती है कि उसका स्थानांतरण, राजधानी या किसी ऐसे जिले में हो पाए, जहां वह अपनी सेवा के अंतिम दौर में थोड़ी निश्चिंतता से रह कर सरकारी काम कर सके। इस महिला ने अपने तबादले के लिये बेसिक शिक्षा अधिकारी, जिलाधिकारी, आयुक्त, शिक्षा सचिव और मुख्यमंत्री कार्यालय तक अपना दुखड़ा रोया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। सब ठस और संगदिल बने रहे।

उत्तरा पंत ने अपनी बात कहने के लिये जनता दर्शन जो मुख्यमंत्री द्वारा किया जाता है में जाकर अपनी बात रखी। सोशल मीडिया पर जो वीडियो चल रहा है उसके अनुसार, यह शिक्षिका अपनी व्यथा कहते कहते थोड़ा उत्तेजित हो गई ।  उसकी तेज आवाज पर मुख्यमंत्री ने उसे बुरी तरह डपट लिया। इस डांट ने उत्तरा को और व्यथित तथा आक्रोशित कर दिया। इस पर मुख्यमंत्री ने उसे तमीज सिखाने की बात कही और कहा कि सस्पेंड कर दूंगा। सरकारें कर्मचारियों का भला कर पाएं या न कर पाएं पर वे बुरा तो कर ही देती हैं। मुख्यमंत्री सस्पेंड भी कर सकते हैं और मनचाही जगह तबादला भी। पर उन्होंने तबादले की बजाय सस्पेंड करने की बात कही। जब मामला और बढ़ा तो उत्तरा ने सभी की पोल खोलनी  शुरू कर दी। उत्तरा ने मुख्यमंत्री पर भी आरोप लगाते हुये यह बात कह दी कि मुख्यमंत्री ने अपने पत्नी को देहरादून में ही पोस्टिंग दिलवा दी । तब सीएम टीएस रावत ने गुस्से में उसे गिरफ्तार कर जेल भेजने का आदेश दे दिया। उत्तरा ने त्रिवेंद्र सिंह रावत पर गुस्से में आ कर कह दिया कि ऐसे नीच निकृष्ट लोग जब राजनीति में रहेंगे तो राज नहीं पूरी मानवता का सर्वनाश हो जाएगा। क्रोध, आक्रोश और व्यथा ने उत्तरा को अनियंत्रित कर दिया और फिर उसने  शराब माफिया से पैसे लेने की बात भी कह दिया।

गिरफ्तार कर जेल भेजने का आदेश मुख्यमंत्री का था तो इसका पालन भी होना था। उत्तरा पंत को पुलिस ने गिरफ्तार कर अदालत में पेश तो कर दिया पर अदालत ने उत्तरा का ऐसा कोई अपराध नहीं पाया जिसके आधार पर उसे जेल भेजा जा सके, तो उसे निजी मुचलके पर  रिहा कर दिया ।

इस घटना को एक संवेदनशील तरीके से भी  सुलझाया जा सकता था लेकिन प्रशासनिक अक्षमता और अदूरदर्शिता से बात का बतंगड़ बन गया। उत्तरा जैसी पीड़ित शिक्षिका केवल उत्तराखंड में ही हो ऐसी बात नहीं है। यह किस्सा कहीं का भी हो सकता है। उसकी मांग भी जायज़ थी। उसे माना जाना चाहिये था। लेकिन फरियादी की तेज आवाज पर खुद के अहंकार को चुनौती समझ लेना और एक अत्यंत असंवेदनशील निर्णय मुख्यमंत्री द्वारा ले लेना शासन न करने की कला है। जनता दर्शन या दरबार आखिर बना किस लिये है ? जनता तो अपनी बात कहेगी ही। पीड़ा क्षुब्ध भी करती है और आक्रोशित भी। उत्तरा पंत 58 साल की उम्र में एक सुविधाजनक पोस्टिंग चाहती थी। उन्होंने सभी प्रशासनिक चैनल का प्रयोग किया और अंत मे जहाँगीरी घण्टा बजा दिया। जिल्ले इलाही ने न्याय तो दिया नहीं उल्टे उसे जेल भेज दिया। यह कैसा जनता दर्शन और कैसा न्याय !

कल्पना कीजिये, सीएम ने अगर, उत्तरा की बात मान कर, उसे मनचाही स्थान पर नियुक्त करने का आदेश या ऐसा करने का समयबद्ध आश्वासन दे कर उसके पहले के प्रार्थनापत्रों पर उचित कार्यवाही न करने के लिये अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करने का निर्णय कर दिया होता तो जनता में इन्ही मुख्यमंत्री जी के बारे में क्या संदेश जाता ? लेकिन ऐसा निर्णय तभी कोई ले पाता है जब वह शासक होने के नशे से मुक्त हो। पर यह नशा तो सारे नशाओं से बढ़ कर है ।
अंत मे तुलसीदास की यह चौपाई भी पढ़ लें,
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं ।
संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो ।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday, 27 June 2018

Ghalib - Qatraa e may bas kii hairat se / क़तरा ए मय बस की हैरत से - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 98.
क़तरा ए मय, बस की हैरत से नफ़्स परवर हुआ,
खत्त ए जाम ए मय सरासर, रिश्ता ए गौहर हुआ !!

Qatraa e may, bas kii hairat se nafs parawar huaa,
Khatt e jaam e may saraasar, rishtaa e gauhar huaa !!
- Ghalib

नफ़्स परवर - प्राण दायनी.
गौहर - मोती.

मदिरा की बूंद, मदिरा पान करते ही मेरे लिए प्राणदायिनी बन गयी। मधु पात्र पर खिंची हुई रेख ने मोती की तरह मेरे अंदर छुपी वास्तविकता को खोल कर रख दिया।

शराब ने आत्म विस्मृत कर के मेरे अंदर छिपा मेरा वास्तविक रूप उजागर कर दिया। शराब ने मुझे अनावृत्त कर दिया।

शराब पीने के बाद लोग सच बोलते हैं। शराबियों के बारे में यह एक आम धारणा है। लेकिन लोग सच बोलें, केवल इसीलिये तो शराबखोरी को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। ग़ालिब ने शराब को तो बुरा माना है पर उन्होंने इसकी प्रशंसा भी खूब की है। वे मदिरा को प्राणदायिनी भी इस शेर में मानते हैं। उनके अनुसार, मदिरा, मद्यपी को एक अलग प्रकार का तोष प्रदान करती है। ग़ालिब बेहद आलंकारिक भाषा मे कहते हैं कि मदिरा की बूंदे जब उनके हलक से नीचे उतरती हैं तो उन्हें प्राणदायिनी सुख मिलता है। कोई पाखंड का आवरण नहीं रहता है और जो भी है, जैसा भी हैं, वह खुल कर सामने आ जाता है।

मदिरा सच क्यों उगलवा देती है ? इसका कारण है कि सत्य बोलने के लिये मनुष्य को कुछ तार्किक या कुछ जोड़ घटा कर सोचना नहीं पड़ता है, जब कि मिथ्यावाचन के लिये झूठ के कई घुमावदार और पेंचदार राहें सोचनी और उन पर चलता पड़ता है। झूठ के खुल जाने का भय सदैव रहता है। इसका एक आंतरिक अपराध बोध भी सदैव रहता है। मदिरा, मस्तिष्क की सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति को कुछ समय के लिये थोड़ा बहुत निष्क्रिय कर देती है। इस कारण, जो मन मस्तिष्क में रहता है, मनुष्य उसे लगभग जस का तस उगल देता है। ग़ालिब इस शेर में यही बात कह रहे हैं।

© विजय शंकर सिंह

Tuesday, 26 June 2018

Ghalib - Qatraa mein dazlaa dikhaai na de / क़तरा में दजला दिखायी न दे - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 97.
क़तरा में दजला दिखायी न दे, और जुज़्ब में कुल,
खेल लड़कों का हुआ, दीदा ए बीना न हुआ !!

Qatraa mein dazlaa dikhaayee na de, aur juzb mein kul,
Khel ladkon kaa huaa, deedaa e beenaa na huaa !!
- Ghalib

दजला - सागर
जुज़्ब  - अंश, इकाई
कुल - सम्पूर्ण ,
दीदा ए बीना - दृष्टि पूर्ण आंख.

बूंद में यदि समुद्र के दर्शन नहीं होते किसी को और अंश में सम्पूर्णता का बोध नहीं होता किसी को तो ऐसी दृष्टि से देखना तो बच्चों का खेल हुआ। यह वह दृष्टि नहीं है जो मर्म देख सके।

ग़ालिब अगर मद्यपी न होते तो लोग उन्हें वली, सन्त समझते। पर ग़ालिब शराब न पीयें, यह कभी सम्भव न हो सका। उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके दुश्मन, उनके आलोचक, उनके निंदक, और उनके प्रशंसक सभी इस बात पर एक थे कि उनकी काव्य प्रतिभा, उनकी अंदाज़ ए बयानी लासानी थी। पर जुए की लत और मदिरा की आदत ने उन्हें जीवन मे बहुत बुरे दिन दिखाए। यह शेर दार्शनिक अंदाज़ का है। बूंद और सागर यह दो प्रतीक अद्वैतवाद के प्रतीक है। ठीक वही प्रतीक अग्नि और स्फुलिंग के माध्यम से जो भारतीय अद्वैतवाद के सिद्धनकारों ने कह रखा है। यहां ग़ालिब, दृष्टि की समष्टि पर दृष्टिपात करते हैं। वे उस नज़र के प्रशंसक हैं जो बूंद, जो यहां इकाई का प्रतीक है में सारा ब्रह्मांड देख लेने की क्षमता है। अगर दृष्टि इतनी विशाल और अनन्तगामी नहीं है तो वह नज़र ही क्या है। यहां दृष्टि का अर्थ चाक्षुष दर्शन ( स्थूल आंखों से ) नहीं बल्कि व्यक्ति की समझ से है। यह आध्यात्म की ओर इशारा करता हुआ शेर है।

कबीर को भी देखें। कबीर भी रहस्यवादी थे। कहते कुछ थे पर उनके हर दोहे में दर्शन की गूढ़ता छिपी रहती थी। उनकी यह पंक्तियां पढ़ें।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या ' कबीर ' हेराय,
बून्द समानी समद में, सो कत हैरी जाय,
हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हिराइ,
समन्द समाना बून्द में जो कत हेरया जाय !!
( कबीर )

कबीर उसे ( ईश्वर को ) खोजते खोजते खुद खो जाते हैं फिर भी समझ नहीं पाते हैं। बूंद, व्यक्ति का जब अस्तित्व समुद्र ( परमात्मा ) में समा जाता है तो उसे कैसे ढूंढ कर अलग रखा जा सकता है। उसका तो अस्तित्व ही नहीं रहा।

अद्वैत और सूफीवाद के दर्शन से प्रभावित ग़ालिब के कई शेर बेहद फलसफाना अंदाज़ लिये हैं। उन्हें समझना आसान नहीं है।

© विजय शंकर सिंह

Monday, 25 June 2018

विश्वनाथ प्रताप सिंह को उनके जन्म दिन 25 जून पर याद करते हुये / विजय शंकर सिंह

वीपी सिंह भारतीय राजनीति के एक ऐसे नक्षत्र हैं जो अक्सर असहज करते रहे हैं। उन्हें याद कम ही किया जाता है । उनकी याद कुछ को बेहद असहज और दुखी भी कर देती हैं। अक्सर उनकी आलोचना उनके सजातीय और सवर्ण ही अधिक करते हैं। कभी कभी तो यह आलोचना मर्यादा की सारी सीमाएं भी लांघ जाती हैं। दर असल ऐसी आलोचनाओं के पीछे जातिगत और सामाजिक पूर्वाग्रह ही अधिक है।  राजा नहीं फकीर है का उद्घोष, और काशी विद्वत परिषद की उपाधि राजर्षि ( जो बाद में बताते हैं विद्वत परिषद पर वापस लेने के लिये दबाव पड़ा था पर परिषद  ने वापस लेने से इनकार कर दिया था  ) के दिन जिन्हें याद होंगे वे 1989 में वीपी सिंह के प्रति जो दीवानापन लोगों में था, को आज भी याद कर रोमांचित हो जाएंगे। 1987 में जब वीपी सिंह रक्षा मंत्री थे तो उनके सामने से एक तार गुजरता है जिसमे बोफोर्स तोप के सौदे में दलाली का संकेत था। ज़रा सी फुंसी थी। नासूर बन गयी। दलाली ली गयी या नहीं ली गयी, यह आज तक साबित नहीं हुआ, पर इस तोप ने जो धमाका किया उससे इतिहास की गति अचानक मुड़ गयी। ऐसे ही अकस्मात परिवर्तन को, इतिहास में टर्निंग पॉइंट के नाम से जाना जाता है। फिर शुरू हुआ निष्क्रमण। संसदीय इतिहास में सबसे अधिक बहुमत वाली सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने के पूर्व ही, लड़खड़ाने लगी । जब 1989 का चुनाव हुआ तो कांग्रेस हार गयी । वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और उनके साथ थे वामपंथी और भाजपा। जी यही वामपंथी जो आज कल देशद्रोही कहे जाते हैं। तब हमराह और हमसफ़र थे।

उन्माद सदैव नहीं रहता है। उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के प्रति सदैव एक ही डिग्री का लगाव भी नहीं रहता है। वीपी सिंह एक आक्रोश की उपज थे। वे ईमानदार थे, उनकी क्षवि साफ सुथरी थी, लोगों की उनसे उम्मीदें थीं। इन्ही अपेक्षाओं का सागर जब उमड़ता है तो निराशा में यही सुनामी बन जाता है। जितनी ही तेजी से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा था, उतनी ही तेजी से वे बाद में अलोकप्रिय भी हुये । यह भी एक विडम्बना ही थी। वीपी सिंह का अपना निश्चित जनाधार नही था । राज्यों के क्षत्रप मज़बूत थे। उन सबका अपना  अपना जनाधार भी था। उनकी भी अपेक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं जाग्रत हुयीं और सरकार में झगड़ा शुरू हो गया। चौधरी देवीलाल हरियाणा के एक असरदार और पुराने नेता थे । उनसे खटपट हुयी। इसी आपसी खींचतान में मंडल आयोग की रपट के दिन बहुरे और वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की रपट जैसे थी वैसे ही लागू कर दिया। अचानक, देश मे जातिगत आधार पर अगड़े पिछड़े का बवाल शुरू हो गया। छात्रों के हिंसक आंदोलन चले । कुछ ने आत्महत्याएं भी कीं। अंत मे सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया और मंडल आयोग की विभिन्न संस्तुतियों पर लंबी कानूनी दलीलों के बाद ये संस्तुतियां लागू हुयी, जो आज प्रचलित हैं।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के निर्णय ने वीपी सिंह को वंचितों और पिछड़ों के मसीहा और खैरख्वाह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। 1990 में ही मंडल के बाद देश का मूड भांप कर भाजपा नेता आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली जो बिहार में गोपालगंज के पास आडवाणी की गिरफ्तारी के साथ अयोध्या पहुंचने के पूर्व ही समाप्त हो गई। तभी भाजपा ने समर्थन वापस लिया और वीपी सिंह की सरकार गिर गयी। वीपी सिंह का मूल्यांकन करते समय इसे अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिये कि देश के सामाजिक न्याय के इतिहास में उनका नाम और स्थान प्रमुखता से रहेगा। इस निर्णय ने उनको विवादित भी कम नहीं किया। देश की अगड़ी जातियों में वे उस समय एक खलनायक के रूप में भी चित्रित किये गए। आज भी निजी बातचीत में उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाता है जो उन्हें मिलना चाहिये। लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशों के बाद पिछड़े और वंचित तबके के लोगों को सरकारी सेवाओं में जो भागीदारी बढ़ी है उसका श्रेय वीपी सिंह के इसी फैसले को जाता है। आज भी आज़ादी के 70 सालों बाद भी सरकारी सेवाओं में जातिगत अनुपात, जाति की संख्या के अनुरूप कम है। आरक्षण का यह लाभ तो हुआ है। लेकिन अभी सफर अधूरा है। यह बात अलग है जिसे लाभ हुआ है वह सराहेगा जिसे लगता है कि उसका अवसर छिना है वह आलोचना करेगा। यह मानवीय प्रकृति है।

व्यक्तिगत ईमानदारी और त्याग की प्रतिमूर्ति वी पी सिंह से पूछा गया कि आपने मण्डल कमीशन क्यों लागू किया तो उनका जवाब था
" मण्डल कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद तीन लोकसभा चुनाव हुए,सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों ने प्रत्येक चुनाव में अपने घोषणा पत्र में इसे प्रथम स्थान पर रखा। मेरी गलती सिर्फ इतनी है कि सबने रसगुल्ला दिखाया किन्तु मैंने खिला दिया ।"
यह प्रसंग एक मित्र ने बताया था। राजनीति में ऐसी साफगोई सफल होने का नुस्खा नहीं है।

राजनीति के पंक में शायद ही कोई राजनेता ऐसा हो जिसकी क्षवि वीपी सिंह के समान साफ सुथरी हो। वे इलाहाबाद के पास डहिया मांडा के एक राज परिवार के थे।  अपनी बहुत सी ज़मीनें उन्होंने भूदान आंदोलन में आचार्य विनोवा भावे को दे दीं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए बेहद ईमानदारी और कुशलता से अपने कर्तव्य का निर्वाहन किया। हालांकि उसी अवधि में उनके बड़े भाई जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे कि डकैतो ने गोली मार कर हत्या कर दी । जस्टिस सीएसपी सिंह खुद ही एक प्रतिभासम्पन्न और लोकप्रिय जज थे। आज वीपी सिंह का जन्मदिन है। जैसे चुपके से उनका जन्मदिन गुज़र जाता है वैसे ही 26 / 11 के मुंबई हमले के बेहद गहमागहमी भरे माहौल में वे भी खामोशी से संसार से  रुखसत हो गए। एक पट्टी बस उनके निधन की सूचना देती हुई चली थी। टीवी चैनल मुंबई हमले की खबरें जो बेहद ज़रूरी भी थीं, दिखा रहे थे। मैं उस दिन खंडवा में था। मैं उत्तरप्रदेश से पीएसी की कम्पनियां ले कर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान के विधानसभा चुनाव कराने गया था।

वे एक कवि और अच्छे चित्रकार भी थे। उनके पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी लगती थी। आज के राजनीतिक मापदण्ड से शायद वे मिसफिट भी कहे जाँय। पर राजनीति में उनका एक अलग स्थान था। उनका मूल्यांकन आने वाले समय मे ही होगा। वे एक राजनेता और प्रधानमंत्री के रूप में नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के एक पुरोधा के रूप में जाने जाएंगे।  वे अपने समय से आगे थे। आज वीपी सिंह के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण। उनसे जुड़े व्यक्तिगत संस्मरण भी है। वे फिर कभी।

© विजय शंकर सिंह

Sunday, 24 June 2018

Ghalib - Qatraa dariyaa mein jo mil jaay / क़तरा दरिया में जो मिल जाय - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 96
क़तरा दरिया में जो मिल जाय, तो दरिया हो जाय,
काम अच्छा है वो,  जिसका म'आल अच्छा है !!

Qatraa dariyaa mein jo mil jaay, to dariyaa ho jaay,
Kaam achchaa hai wo, jiskaa m'aal achchaa hai !!
- Ghalib

बूंद यदि सागर में मिल जाती है तो वह सागर हो जाती है। वही काम अच्छा है जिसका परिणाम अच्छा है !!

ग़ालिब का यह शेर दार्शनिक अंदाज़ का एक उदाहरण है। बूंद का अस्तित्व सागर में मिल कर समाप्त हो जाता है और उसका स्वरूप सागर हो जाता है। यह व्यष्टि का समष्टि में समाहित होना है। यहां वे कार्य, काम का उल्लेख करते हैं। हर वह कार्य अच्छा है जिसका परिणाम उत्तम हो। अगर किसी कार्य का परिणाम ही अच्छा नहीं है तो वह कार्य कैसे अच्छा कहा जा सकता है ?

© विजय शंकर सिंह

Saturday, 23 June 2018

आतंकवादियों के शव का अंतिम संस्कार - एक व्यवहारिक और वैधानिक पक्ष / विजय शंकर सिंह

किसी भी आतंकवादी की मुठभेड़ में मृत्यु के बाद उसके शव के पंचायतनामा और पोस्टमार्टम की कार्यवाही होती है और फिर उसके शव का उसके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार किया जाता है। अगर शव का कोई वैध दावेदार है तो उसे शव सौंप दिया जाता है अन्यथा उसका अंतिम सरकार पुलिस ही करती है।
यह एक कानूनी प्रावधान है। अब इसका व्यावहारिक पक्ष भी देखिये।

अगर, पुलिस और जिला प्रशासन को यह आशंका और उनके पास ऐसी खबरें हैं कि उसकी शव यात्रा को लेकर लोगों को भड़काया जा सकता है और इससे कानून व्यवस्था की और भी जटिल समस्या उत्पन्न हो सकती है तो, ऐसे शव का अंतिम संस्कार अपने सामने और अपनी देखरेख में पुलिस कराती है और उसे कराना भी चाहिये । घर के लोगों को बुलाया जा सकता है । अगर घर के लोग नहीं आते हैं तो अंतिम संस्कार उसके धर्म के आधार पर पुलिस ही कर देती है। इस हेतु बजट में धन की व्यवस्था भी सरकार करती है।

पर दुर्दांत आतंकवादियों के शव को लेने के लिये उसके घरवाले अक्सर नहीं आते हैं। वे नज़रंदाज़ करते हैं। तब पुलिस का यह दायित्व है कि वह अंतिम संस्कार कर दे । लावारिस और लदावा आतंकियों के शव का अंतिम संस्कार पुलिस करती ही है।

आज एक खबर बहुत तेज़ी से फैल रही है कि सरकार ने यह निर्णय लिया है कि आतंकवादियों के शव परिजनों को नहीं सौंपे जाएंगे। ऐसे निर्णय न तो सरकार लेती है और न ही लिया गया होगा। यह निर्णय स्थानीय परिस्थितियों के अंतर्गत स्थानीय पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी लेते हैं।  शव के अंतिम संस्कार का काम परिजनों का है या विशेष परिस्थितियों में पुलिस का,  इसका निर्णय, उनहीँ पर छोड़ दिया जाना चाहिये। 

मानवाधिकार और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्राविधान में शव का कुछ अधिकार होता है । संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या में कहा गया है, जिसका सम्मान और पालन करना संवैधानिक दायित्व है।

" The fundamental right to life and personal liberty guaranteed under Article 21 of the Constitution has been given an expanded meaning by judicial pronouncements. The right to life has been held to include the right to live with human dignity. By our tradition and culture, the same human dignity (if not more), with which a living human being is expected to be treated, should also be extended to a person who is dead. The right to accord a decent burial or cremation to the dead body of a person, should be taken to be part of the right to such human dignity. "

लेकिन इन सारे मानवाधिकार और मौलिक अधिकारों के प्रावधानों से ऊपर है, समाज मे शांति और व्यवस्था का बना रहना। अगर आतंकी का शव परिजनों को सौंप दिया जाय और इससे वे जुलूस निकाल, सभा कर या अन्य उपद्रव करें जिससे अराजकता फैले और जनजीवन प्रभावित हो तो उचित यही है कि उसका अंतिम संस्कार पुलिस खुद ही कर दे। यह सब पहलीं बार नहीं हो रहा है और पहले भी इसके उदाहरण हैं। कानून और व्यवस्था का बने रहना किसी भी सरकार और प्रशासन की प्रथम प्राथमिकता है।

इस मुद्दे को स्थानीय अफसरों को ही स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार हल करना है और यह दायित्व भी उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिये।  समाज और इलाके में शान्ति व्यवस्था बनी रहे और जनजीवन सामान्य रहे, यह ज़रूरी है न कि शव के अंतिम संस्कार पर बहस कि, परिजन करें या पुलिस ।

सरकार के पुलिस मुठभेड़ों के बारे में भी स्पष्ट दिशा निर्देश हैं। यह दिशा निर्देश मानवाधिकार आयोगों के निर्देशों के अनुरूप दिये गये हैं। सेना का मुझे पता नहीं लेकिन हर पुलिस मुठभेड़ की मैजिस्ट्रेट द्वारा जांच कराए जाने और मुक़दमा कायम कर तफ़्तीश कराए जाने का प्राविधान है। राज्य और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी मुठभेड़ों पर संज्ञान लेकर जांच करता है। इसी लिये पोस्टमार्टम और पंचायतनामा भरा जाता है। यह प्राविधान इस लिये हैं कि किसी निर्दोष व्यक्ति को मुठभेड़ के नाम पर मार न दिया जाय। मानवाधिकार आयोगों के अधिकार क्षेत्र में, सेना द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामले भी आते हैं। उनकी भी कोर्ट ऑफ इंक्वायरी होती है और दोषी पाए जाने पर दंडित भी होते हैं।

© विजय शंकर सिंह