Tuesday, 23 September 2014

'Encounters'must be eliminated..... Pupul Dutta Prasad, Hindustan Times New Delhi, July 10, 2013


The Central Bureau of Investigation’s  (CBI) chargesheet in the Ishrat Jahan encounter case naming senior police officers for abducting and killing four people has once again drawn public attention to a harsh and recurring reality about so-called ‘fake encounters’. ‘Encounters’ are one of the main reasons why the police is viewed negatively and why people fear the force. Therefore, for the police to become worthy of public trust, they must stop illegal killings.
Whether persons killed in an encounter had intended to commit a crime or had a past criminal record is not even a material question to ask. The police have no right to execute even a hardened criminal as if India were a lawless country. It is a cardinal principle of democratic policing that any use of force by the police must be properly subject to the rule of law, and to various layers of accountability and scrutiny.
‘Encounters’ are seldom what they purport to be: a genuine confrontation between the police and suspected criminals, in which the police open fire in self-defence. However, in reality, on most occasions, an ‘encounter’ is a euphemism for a cold, calculated and premeditated murder. This is often meant to pass off a custodial death (the victims being already under informal/illegal custody of the police) as a spontaneous and unplanned shootout.
Instead of submitting to the process of justice for an extra-judicial killing (because, to begin with, that is what even a genuine ‘encounter’ is, unless held by the court to be a killing in the exercise of the right of private defence after a trial), in an utter travesty, the police foists a case of attempt-to-murder (Section 307 IPC) on the deceased persons whose voices will never be heard in court, making such a trial, at best, a formality. At a time when the death penalty handed down by the judiciary is regarded as an abomination in a democracy, a police ‘investigation’ into an encounter is nothing but a brazen attempt to give illegality a veneer of legality.
Banking on the parroted statements of fellow officers, as credible scientific evidence is rarely collected and produced, the police often manages to sail through court and prove the deceased guilty. A triumph indeed!
We must understand why ‘encounters’ take place in order to be able to do something about it. Jyoti Belur, a former IPS officer now teaching and researching at University College, London, in her book Permission to Shoot? Police Use of Deadly Force in Democracies (2010) finds that, in Mumbai, with its organised crime and underworld gangs, the police use of deadly force in ‘encounters’ was not widely perceived as a form of deviance by police officers, the media, or in public discourse. In fact, political and public approval only encourages officers with a mistaken sense of mission in the police service of ridding society of all crime and disorder.
‘Dirty means for noble ends’ soon mutates into a bloody business in which it does not matter whether the individuals eliminated are innocent. This is how ‘encounter specialists’ are born or created in a particular context. They are then glamourised by the media and Bollywood, which tends to focus excessively on the violent crime-fighting role of the police. It becomes a vicious cycle.
Explanations of police encounters are, of course, more complex and multi-dimensional than indicated here. However, with senior IPS officers themselves being accused of hatching conspiracies to carry out ‘fake encounters’, a few conclusions are in order.
First, whatever the origins of ‘fake encounters’, any effort to even obliquely justify them on apparently reasonable grounds is patently wrong. Second, internal professional supervision by the police alone cannot be relied upon to end this ghastly practice. Further, those subordinates who believe they have acted on the orders of their superiors in conducting an encounter would do well to remember the lesson of the Nuremburg judgement: one cannot shelter oneself behind the doctrine of respondeat superior while committing an illegal act.
Third, there is an urgent need for a fundamental reassessment of the role of the police in our democracy. Fourth, police accountability must be enforced by putting in place both, a credible and uncompromising external civilian oversight institution, and an independent complaints-redressal mechanism.
It is surely going to take a lot of effort to root out the menace of police encounters. But persist we must.

( Pupul Dutta Prasad is Senior Superintendent of Police, National Human Rights Commission, New Delhi.)

Tuesday, 9 September 2014

एक कविता .. नींद से बोझिल तेरी पलकें .../ विजय शंकर सिंह





नींद से बोझिल तेरी पलकें ,
रात के इस रूमानी सफ़र को,
कभी कभी ,
कितना मादक बना देती हैं !

चलो अब सो जाओ !
कहीं ऐसा हो , कि ,
रात के इस सन्नाटे में ,
झुटपुटे से छन कर आती हुयी ,
यह मदिर बयार ,
और ....

कल्पना में उभरती तेरी ,
अमिय , हलाहल , मद भरी ,
नीमकश ख्वाबीदा आँखें ,
कहीं मेरी ,
नींदें उड़ा  दें !!
-vss 

A poem...
Neend se bojhil teree palken.

Neend se bojhil teree palken,
raat ke is roomaanee safar ko,
kabhee kabhee,
kitnaa maadak  banaa detee hain !

Chalo ab so jaao.
Kahin aisaa na ho ki,
raat ke is sannaate mein,
pedon se chhan kar aatee huyee.
yeh madir bayaar,
Aur ..

kalpnaa mein ubharatee, teree...
Amiy,  halaahal, mad bharee,
Neem'kash, khwaabeedaa, aankhe,
kaheen meree,... 
Neenden na udaa den !!

-vss.

Wednesday, 3 September 2014

तस्लीमा नसरीन और अभियक्ति की स्वतन्त्रता / विजय शंकर सिंह


यह चित्र बहुतो को व्यथित कर सकता है.और बहुतों को आह्लादित भी. यह चित्र है बांगला देश की लेखिका डॉ तसलीमा नसरीन का. जो पिछले पंद्रह सालों से अपने देश के कट्टरपंथी तत्वों के दबाव के कारण निर्वासन का दंश झेल रही है. ऐसा दंश झेलने वाली वह अकेली नहीं है. कुछ और लेखक और विचारक भी इस प्रकार का दंड भोग चुके और भोग रहे हैं. उन्ही में एक नाम सलमान रश्दी का भी है. तसलीमा को सरकार ने एक साल के लिए भारत में रहने की अनुमति दी है. तसलीमा निश्चित रूप से इस कदम से खुश हैं. हो सकता है सरकार उन्हें आगे और रहने की अनुमति दे दे.

तसलीमा मूलतः जिला मेमन सिंह, बांगला देश की रहने वाली है. उनके पिता एक डॉक्टर थे. माता एक सामान्य गृहणी. बचपन से ही तर्क शील और बुद्धि वादी स्वभाव का होने और लड़की होने के कारण इन्हें बहुत ही संताप झेलना पड़ा. इनकी आत्म कथा, जो लगभग छह भागों में है के पढने से समाज और धर्म की विकृति का स्पष्ट पता चलता है. ईश्वर या अल्लाह जैसे किसी संबल पर इनका विश्वास नहीं रहा. धर्म के हर पहलू पर इन्होने तर्क किया और अपने संदेहों को कभी छुपाया नहीं. परिणामतः इन्हें कट्टर पंथियों से तो भिड़ना ही पडा, पहली भिडंत इनकी अपने घर में ही हुयी. लेकिन जिस मिटटी की यह बनी हैं वह आसानी से टूटने वाली नहीं है.

वह प्रसिद्ध हुईं या यों कह लें कि विवादित हुईं लज्जा उपन्यास से. धर्म के नाम पर देश बंटा था, पर पाकिस्तान खुद दो भौगोलिक टुकडो में था. एक पश्चिमी पाकिस्तान दूसरा पूर्वी. सबसे पहले भाषा, संस्कृति आड़े आयी. बांगला भाषा पर जब उर्दू थोपी गयी तो विरोध हुआ. वह विरोध इतना मुखर हो गया कि सशस्त्र संघर्ष जो शेख मुजीब उर रहमान के नेतृत्व में हुआ, वह भारत के सहयोग से निर्णायक साबित हुआ. और एक स्वतंत्र बांगला देश का उदय हुआ. लेकिन वहाँ भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं चला. शेख साहब की हत्या हुयी, सेना ने सत्ता संभाल ली और कट्टरपंथी ताकतें फिर हावी हो गयीं. बंटवारे के बाद पकिस्तान के पूर्वी हिस्से में हिन्दू बहुत थे. कुछ जिले तो हिन्दू बहुसंख्यक भी थे. जैसे पश्चिमी पाक के हिस्सों से पलायन हुआ था, वैसा ही पलायन पूर्वी हिस्से से भी हुआ. लेकिन पंजाब और सिंध ने विस्थापन के दर्द को बहुत साहस के साथ सहा और वह धूल झाड कर खड़े ही नहीं बल्कि उन्होंने समाज में अपना एक विशेष स्थान भी बना लिया. पर दुर्भाग्य से पूर्वी पाक से आये लोग ऐसा नहीं कर सके. इसका एक बड़ा कारण यह था, कि पश्चिमी भाग के लोग हज़ारों साल से आक्रमण झेलते, उजड़ते बसते ऐसी संस्याओं से निपटने की मानसिकता विक्सित कर चुके थे. पर पूर्वी भाग में कोई भी विदेशी आक्रमण कभी नहीं हुआ था. और उन्हें जब ऐसे विस्थापन की चुनौती मिली तो एक प्रकार की किंकरवयविमूढ़ता की स्थिति आ गयी. लेकिन इतने विस्थापन के बाद भी काफी संख्या में हिन्दू वहाँ शेष रह गए थे.


लज्जा, ऐसे ही एक हिन्दू परिवार की कहानी है. जिसने अपनी ज़मीन, घर, पोखर, छोड़ कर शरणार्थी बनाना स्वीकार नहीं किया. लेकिन उसके साथ जो हुआ वह बहुत ही दुखद हुआ. धर्म कभी कभी मनुष्य को इतना नीचे गिरा देता है कि शायद जानवरों को हंसने की क्षमता होती तो सड़क पर चलने वाले पशु भी हमारा मजाक उड़ाया करते. स्कूल में इस परिवार के एक बच्चे को कुछ मुस्लिम बच्चे मांस का कवाब जिसका मांस उस बच्चे के परिवार में निषिद्ध था, खिलाने की बात करते है. बच्चे सभी बच्चे हैं. चाहे वे किसी भी धर्म के हों, पर जो वातावरण, वहाँ था वह बेहद कट्टर था. आखिर बच्चों में यह संस्कार जिसे मैं ज़हर ही कहूँगा आया कहाँ से ? निश्चित रूप से बड़ों से ही आया होगा. धर्मों की पुस्तकें पढ़िए तो प्रेरक उद्धरणों के सामान ऐसी सूक्तियां सभी धर्मों में मिल जायेंगी जिस से लगेगा कि धर्म ने तो सारा कलुष धो दिया है. पर वस्तुतः वह कलुष और गहरा ही हो जाता है. अंततः वह परिवार जिसने बंटवारे के समय भी अपना देश नहीं छोड़ा था, वह ऊब कर व्यथित मन से कोलकाता आ गया. लज्जा बांगला के अनेक कालजयी उपन्यासों की तुलना में कुछ भी नहीं है. लेकिन तसलीमा ने जिस बेबाकी से बात कही है वही इस उपन्यास की विशिष्टता है.

लज्जा के बाद तो जो बवाल मचना था, वह मचा ही. भारत में भी और बांगला देश में भी. यहाँ उसे हांथों हाँथ लिया भाजपा के मित्रों ने.और वहाँ कट्टरपंथियों ने. दोनों के ही हित सधते थे. सेकुलर मित्र इस लिए मौन रहे कि वह अपनी राजनीति बचाएं या विवाद में कूदें. लेखको के संगठन ने इस मामले को अभिव्यक्ति की स्वतत्रता से जोड़ कर देखा और आवाज़ उठायी. तसलीमा को देश छोड़ना पड़ा. वह कुछ दिन कोल्कता में तो फिर दिल्ली में फिर कहीं और गुमनामी में रही. कितना कमज़ोर होती है आस्था धर्म और ईश्वर की दीवारे ! जो एक उपन्यास से दरकने लगी. लेकिन तसलीमा ने लिखना नहीं छोड़ा. उनके आत्मकथा की सीरीज धीरे धीरे आयी. उस सीरीज ने समाज में महिलाओं की दुर्दशा, समाज की यौन विकृति, और पाखण्ड को उधेड़ कर रख दिया. तसलीमा का देश छूट गया. वह यूरोप और अमेरिका के दौरे पर निकल गयी. लेकिन, उडि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर. वह फिर कोलकता आयीं. इस बीच ढाका में मुक़दमा भी चला. ऐसा भी नहीं कि बांगला देश में सब उनके विरोधी ही थे. उनको साथ भी मिला. वहाँ के कुछ साहित्यकारों ने उनका साथ भी दिया. अदालत ने भी उनकी बात सुनी. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या हमेशा कम होती है. उन्हें अपनी हत्या का भय था. उन पर हमले भी हुए. वह फिर देश छोड़ भारत आ गयीं.


भारत में भी कट्टरपंथी मुस्लिम ताक़तें उनके विरोध में थी. उनका तर्क था, कि तसलीमा ने धर्म के विरुद्ध लिखा है. तसलीमा के मन में धर्म के कुछ विन्दुओं को लेकर संदेह थे. वह संदेह जो उन्हें बचपन से था, को, उन्होंने सबसे पहले अपनी माँ से साझा किये. उनकी माता जो बहुत पढी लिखी नहीं थी, उन संदेहों का कोई युक्तियुक्त उत्तर नहीं दे पायीं तो दोनों में टकराव भी हुआ. दरअसल तसलीमा एक विद्रोही व्यक्तित्व की है. वह व्यक्तित्व उन पर आज तक हावी है. वह धर्म को मानती हैं या नहीं मानती हैं यह तो वह जाने. पर धर्म उन्हें नहीं सताता हीबरहा. खुद भारत में भी बंगलौर में एक विधायक ने उन पर हमला किया. इसका प्रबल विरोध भी हुआ. तसलीमा के विचार से हम सहमत हों या न हों, पर अभिव्यक्ति की आज़ादी उन्हें भी है. संसार में जीने का अधिकार भी उनका है.

भारतीय धर्मों में ईश्वर का विरोध खूब हुआ है. महावीर और बुद्ध दोनों ही निरीश्वरवादी धर्म हैं. तर्क और बुद्धि पर चलते है. यह अलग बात है कि बुद्ध को सनातन धर्म ने अवतार घोषित कर दिया है. चार्वाक का दर्शन था. जो सामने हैं वही मानता था. सनातन धर्म के दर्शन तो हैं ही. मेरे कहने का आशय यह है कि मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना में एक मूड़ी तसलीमा की भी है. उनके उपन्यासों , आत्म कथाओं के कथा वस्तु और तथ्यों पर अगर किसी को आपत्ति है तो, वह लिख कर भी इसका प्रतिवाद कर सकता है. शारीरिक बल प्रयोग तो पशुता है.

विजय शंकर सिंह

Monday, 1 September 2014

एक कविता .. अन्धकार कितना भी सघन हो , / विजय शंकर सिंह


अन्धकार कितना भी सघन हो
हो कितना भी बीभत्स  ,
कितना भी दारुण भय दे ,
कुछ कुछ तो सूझता ही है !
क्या सम्भव है ,
प्रकाश के अभाव में कुछ देखना .

समेटे रहता है , तम  ,
खुद में ,
कुछ किरणें आलोक की .
इन्ही उम्मीदों के आस पर ,
रात , कितनी भी काली हो ,
अंततः बीतती ही है !

उम्मीदें एक रज्जु की तरह होती है ,
घोर प्रतिकूलता में भी ,
कुछ कुछ थाम लेती हैं .

बस थोड़ा सा धैर्य ,
थोड़ी सी जिजीविषा ,
ढेर सारा आत्मविश्वास ,
ले जाएगा हमें ,
घनघोर तम से अद्भुत ज्योति की और .

(विजय शंकर सिंह ).